३७४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते भू=भूभा विम्वकेन्द्रम् । च=चन्द्र बिम्बकेन्द्रम् । भूच=चन्द्रशरः। () भूर=भूभाबम्बव्यामार्धम् । चन = चन्द्रबिम्बव्यासार्धम् । नर= ग्रासमानम् । भूर+चन = भूर+रच + नर= भूच+नर=चन्द्रश+मास + भूभाबिम्बव्यासाधं + चन्द्र बिम्बव्यासार्ध =मानैक्यार्धम् अतः मानैक्यार्ध-चन्द्रशर=ग्रासमानम् । चन्द्रबिम्बादधिके एतद्ग्रासमाने सर्व ग्रहणं भवेदेवेति। सिद्धान्तशिरोमणो “यच्छाद्यसंछादकमण्डलंक्य खण्डं शरोन" मित्यादिना भास्करेण, क्षेपोभवत्यथ पिधान पिधेय बिम्बयोगार्धमूनममुनेत्यादिना श्रो पतिनाप्याचार्योक्तानुरूपमेवोक्तमिति ॥ ७ ॥ अब ग्रासानयन को कहते हैं। हि- भा.-छाद्य छादक मानैक्यार्षे (चन्द्रग्रहण में चन्द्रबिम्ब और भूभा बिम्ब के योगांधी, सूर्यग्रहण में सूर्यबिम्ब और चन्द्रबिम्ब के) योगाधं में से चन्द्रशर को घटाने से शेष प्रास मान होता हैं, ग्राह्य बिम्ब से ग्रासमान अधिक रहने से सर्व ग्रहण होता हैं, श्राद् बिम्ब से ग्रासमान अल्प रहने से खण्ड ग्रहण होता हैं इति ॥ ७ ॥ ] यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (क) क्षेत्र को देखिये । भू–भूभा बिम्ब केन्द्र, च= चन्द्रबिम्ब केन्द्र, भूच=चन्द्रशर, भूर=भूभाबिम्बव्यासार्ध, चन=चन्द्रबिम्बव्यासार्ध, नर= प्रासमान, भूर+चन= र+रच+नर=भूच+नर=चन्द्रशर+ग्रासमान= सँभाबिम्ब व्यासार्घ+चन्द्रबिम्बव्यासार्धमानैक्यार्षी, अत: मानैक्यार्ध-चन्द्र शर=ग्रासमान । चन्द्रबिम्ब (श्राद् बिम्ब) से प्रघिक ग्रासमान होने से सर्वे ग्रहण होता ही हैं, यह क्षेत्र स्वरूप देखने से स्पष्ट है इति, सिद्धान्त शिरोमणि में भास्कराचार्य "यच्छाद्य संछादकमण्डलैक्यखड्" इत्यादि से तथा सिद्धान्त शेखर में श्रपति ने "क्षेपो भवत्यय पिधानपिधेयबिस्बयोगार्चनममुना स्थगितं वदन्ति” इस प्रकार आचार्योंक्त के अनुरूप ही कहा हैं इति ।। ७ ।। इदानीं स्थित्यर्धविमर्दीर्घयोरानयनमाह धेन युतोनस्य च्वदकमानस्य तद्दलकृतिभ्याम् । विक्षेपकृति प्रोह्य पदे तिथिवत् स्थितिविमर्दायें ॥ ६ ॥
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