त्रिप्रश्नाधिकारः २७५ वि. भा–विषुवति (विषुवद्दिने) मध्याह्नकाले शंकुरेव दम्बः (लम्बज्या) भवति तत्र या छाया साऽक्षज्या कल्पनीया, तद्वर्गसंयुतेथूलं विषुवत्कणं भवति, अन्यथाऽन्यस्मिन् दिने मध्याह्वादन्यस्मिन् काले वा शंकुना यः कर्ता भवति स द्वाद- शांगुलशकोडछायाकर्णं भवति, शंकुरित्यस्याग्रिमश्लोकेन सम्बन्ध इति ।।७॥ अत्रोपपतिः सायनसूर्यो मेषादिगे मध्याह्न द्वादशांगुलशको र्या छाया सा पलभा (विषु- वती), शंकुपलभयोर्वगंयोगमूलं पलकर्णः (विषुवत्वर्णः) अक्षज्याभुजः। लम्बज्या कोटिः। त्रिज्याकर्णः इत्यक्षक्षेत्रसजातीयमेवापततं (पलभाभुजः। द्वादशांगुल शङ्: कोटि। पलकर्णः कणं इति भुजकोटिवर्षोत्पन्नं) लघुक्षेत्रमतोऽस्यकोटिश्रु जयोर्लम्बाक्षज्ये नामन समुचिते एवेति ॥ ७ ॥ अव विषुवत्कर्ण को कहते हैं । हि- भा–विषुवद्दिन में शंकु ही लम्बज्या होती है, वहां जो छाया होती है उसको अक्षज्या कल्पना करनी चाहिए, उन दोनों के वर्गयोग मूल विषुवत्कर्ण होता है, अन्य दिन (विषुवद्दिन से भिन्न दिन) में वा मध्यान्ह काल से भिन्न काल में शंकुवश से जो कर्ण होता है वह द्वादशांगुल शंकु का छाया कर्ण होता है, शंकुःइसका अगले श्लोक से सम्बन्ध है इति । ७ ।। सायन रवि जव मेषादि में रहते हैं तब मध्यान्ह काल में द्वादशांगुलशंकु की जो छाया होती है वह पलभा है, द्वादशांगुलशंकु और पलभा का वर्गयोग मूल पलकर्ण होता है, अक्षज्या भुज, लम्बज्या कोटि, त्रिज्या कणं इस अक्षक्षेत्र के सजातीय अपतत (पलभा भुज, द्वादशांगुलशंकु कोटि, पलकणं कर्ण इन भुज कोटि कणों से उत्पन्न) लघु त्रिभुज है, इसलिये इसकी कोटि और भुज के नाम लम्बज्या और अक्षज्या समुक्ति ही है इति ॥ ७ ॥ इदानीं संज्ञा विशेषानाह वि. भा-शंकुः उन्नत जीवा वा कोटिः छाया, दृग्ज्या नतज्या वेते शब्दा एक पर्याया भुजः । यत्रैते भुजकोटी भवेतां तस्मिन् छायावृत्तेऽनयो (भुजकोटयो:) वंशेन यः कर्णस्तदेव व्यासार्ध (त्रिज्या) ज्ञेयम् । अतोऽन्यदत्रापि द्वयं ज्ञेयमर्थात् कोटिभुज श्रति यद्वयं तत्तयोर्वगंयोगसूल व्यासार्त्पन्नवृत्तो कल्पनीयमिति ॥८॥ अब संज्ञा विशेष को कहते हैं। हि- भा.-शंकु वा उन्नतज्या कोटि, छाया, दृग्ख्या, वा नतज्या (य एक पर्याय वाची शब्द हैं) भुज, जहां ये भुज और कोटि होती है, उस छायावृत्त में इन भुज और कोटि बझ से जो कण होता है वही व्यासार्ध (त्रिज्या) वमना.ब्राहिये इससे अन्य अन्यत्र भी केटि ऑौर
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