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पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/२६०

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स्पष्टाधिकारः २४३ कर्ण, इन भुजों से उत्पन्न द्वितीय क्षिभुज, दोनों अक्षक्षेत्र है इसलिये सजातीय होने के कारण पभा. ज्या अनुपात करते हैं कुज्या, क्षितिजाहोरात्र वृत्त के सम्पातगत ध्रुवप्रोत वृत्त १२ ध्र व से नाड़ी वृत्त पर्यन्त नवत्यंश, ध्रुव से पूर्वंस्वस्तिक पर्यन्त उभराडल में नवत्यंश, पूर्वस्वस्तिक से ज़्वश्रोत वृत्त नारीवृत्त के सम्पात पर्यन्त नाधुत्त में चरांश, इन भुजों से उत्पन्न एक त्रिभुज, तथा श्रव से क्षितिजाहोरात्र वृत्त के सम्पात पर्यन्त ध्र.व श्रोत वृत्त में द्युज्या चाप एक भुज, ध्रुव से उन्मण्डल और अहोरात्र वृत्त के सम्पात पर्यन्त उपमण्डल में द्युज्याचाप द्वितीय भुज, अहोराज्ञ वृत्त में क्षितिज वृत्त और उन्मण्डल के अन्तर्गत चाप तृतीय भुज, इन भुजों से उत्पन्न द्वितीय त्रिभुज का ज्याक्षेत्र प्रथम त्रिभुज के ज्याक्षेत्र का सजातीय है। इसलिये अनुपात करते हैं। यदि युज्या में कुज्या पाते हैं तो त्रिज्या में क्या इससे चरज्या आती के कुञ्या. त्रि चरज्या, इसक चाप==चरासुयहां रविभुजज्या, फ्रान्तिज्या, द्युज्या, कुज्या, ” हैं, ', चरज्या, यह पञ्चज्यानयन किया गया है, आचार्य के मत में अयनांशाभाव है, इसलिए यथागत रवि ही साधित रवि होता है; भास्कराचार्य ने सायन रवि की भुजज्या का साधन किया हैं। वही उन के मत में विशेषता है, इति ।। ५५-५६५७५८ इदानीं चरकर्माह चरदलघटिका गुणिता भुक्तिः षष्ट्याहृता कलाद्याप्तम् ऋणमुदयेऽस्तमये धनमुत्तरगोलेऽन्यथा याम्ये५e ॥ वा. भा–चरदलघटिकाभिरिष्टग्रहभुक्ति संगुणय्य षष्ट्या विभजेत् फलं लिप्तादि तदुत्तरगोलस्थे रवावौदयिके ग्रहे ऋणमस्तमयिके धनं दक्षिणगोलस्थे रवावौदयिके धनमस्तमयिके ऋणमेवं स्वदेशार्कोदयकाले ऽस्तमयकाले वा ग्रहो भवति अस्तमयिको यो ऽर्धभुकत्याकृत् तत्र च काले चरदलघटिकातुल्यादि तस्य घटिका गता भवति अतो रख्युदयकालिको ग्रहश्चरदलघटिका फलेनोपचितौदयिको भवति, फलं च त्रैराशिकेन फदि घटिकानां षष्ट्या ग्रहभुक्तितुल्यलिप्ता भवन्ति तच्चरदलघटिकाभि : किमिति - लिप्तादिफलं पश्चादप्युन्मंडलकालिका एवं तत्र च काले दिनशेषघटिकाश्चरदलतुल्या भवन्ति अतश्चरार्धघटिका फलेनोप चितो ग्रहो रव्यौदयिको भवति । याम्ये गोलार्धा वैपरीत्ये तत् क्षितिजमंडलादघ स्थितत्वादुमंडलस्य यथास्थितं सर्वे गोले प्रदर्शयेत् । स्वदेशाक्षाग्रयोगले विन्यसेत्। ९ वि. भा–भुक्तिः (ग्रहगतिः) चरार्धघटीभिर्गणिता, षट् या भज्य, कला दिफलं यल्लब्धं तदुत्तरगोले उदयकाले ग्रहे ऋणं दक्षिणगोले घनं कार्यं अस्तभ्ये