अतः २२७ त्रि' (उग-केय)+'ज्या'. उग=fत्र' मंस्यम+अ'फष्य उग य• अफया (२ उग-ग) = य- अ फूज्या (डग+उग-केग) =प• अफज्या (सग+मंस्पग त्रि. संस्पग +अ फज्या'. उग =च । यही मध्यधमति और अन्दस्पष्टगति अ फज्या (उग+मंस्पग) त्रि. मग+अंफज्या. उग को तुल्य मान लिया गया है केकोज्या, इसके चाप में नव- प्रकथा (रंग+अॅब) यंश जोड़ने से वारम्भ कालिक शीघ्र केन्द्रांश होता है, इससे “त्रिज्याकृति: खचरमध्यम मुक्तिनिघ्नी इत्यादि संस्कृत्रोपपति में लिखित संशोधकोश" सूत्र उपपन्न होता है, लेकिन यहाँ मन्दस्पष्टगत और मध्यमगति बराबर स्वीकर की गयी है, तथानित टि इसमें है । = यहाँ गणित विक्षलाते हैं मङ्गल के वारम्भ कालिक केन्द्रांशानयन के लिये, मङ्गस की जन्पफलब्धा=७८, उच्चगति=५e'e', त्रि=१२०, शीघ्रकेन्द्रगति=२८स्वल्पान्तर से, मध्यमगठि =३१'.२६ । 7A अत: त्रि'=(१२०)'=१४४००, त्रि'मृग= १४४००४३१-४८६४००, तथा या'=(es)'=६०८¥, उग=५e अ फज्य उग=ळ ६०८४४५€= ३५८६५६, शब+ म =(३१२६)+(५ele)=£०३४ अ फण्या (भग+य); =७e (६०३४)=७०६४, त्रि. अय+ध्र प्रथा • ठ=४६४००+ ३५८६५६=८०५:५६ त्रिमग+उम ८०५३५६ ' अफस्य' _–= शीघ्रकेकया, इस ११४=" यफज्या (उग+मन) ७०६¥ चाप= ७८; नवत्यंश जोड़ने से मक़स का वधारम्भ कालिक सीखाकेन्द्रांश्च इया ७४+४०° =१६४, आचार्योंक्त मङ्गलशकेन्द्रांश==१६३, अञ्जसादि ग्रहों के प्रचारोंक्त वारम्भ कालिक शोषकेन्द्रांश ही को लल्लाचार्यऔपति, भास्कराचार्य ने अपनेअपने विद्वान्सग्रन्थ में कहा है। सूर्यसिद्धान्तोक 'अन्वसुधवां सृति नहीं थीबभुकि' इत्यादि शीघ्रगति फलानयन में “त्रिज्यान्यकरणं ' की त्रिज्या शब्द से दि थि ही कम अहरू किया बाय तब उनके पठित केन्द्रांड नहीं मिलते हैं जैवे । सूअॅसिद्धान्तोगतनार से केय. त्रि =ग : देव• वि=वि• +। एवं==
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