२२६ उपपत्ति शोउग–पकेरा=स्पगति, जब शीउग सकेग तब विलोमशोधन से वक्रगति होती है, लेकिन ऐसी स्थिति कहाँ होती है, इसके लिये विचार करते हैं । फलांशखाङ्कान्तर फकोज्या. शीकेग शिञ्जिनीध्नी इत्यादि भास्करोक्त प्रकार से शक=स्पकेग इसको देखने से सिद्ध होता है कि जहाँ पर फलकोटिज्या का परमत्व होगा और शीघ्रकी का परमाल्पत्व वहीं पर स्पष्ट केन्द्रगति का परमत्व हो सकता है, नीचस्थान में फलाभाव होने के करण फलकोटिज्या का परमत्व होता है, तथा | शीघ्रकणं का । परमल्पत्व होता है अत: शीउग स्पकेग ऐसी स्थिति नीचस्यान ही में हो सकती है, परन्तु वक्रता का आरम्भ तो नीचस्थान से कुछ पहले ही से होगा, कितने शीघ्र केन्द्रांश में वक्रारम्भ होता है उस केन्द्रांश का साधन करते हैं। कल्पना करते हैं वाक्रम्भकालिक केन्द्रकोटिज्यामान '= य • फकोज्या केग फलांशशाङ्कान्तरशिञ्जिनीध्नी इत्यादि भास्करोक्त प्रकार से - =पकंग, नीचस्यान फक्र्यादि केन्द्र में है, नीचासन्न ही में वलरम्भ होता है अतः /त्रि+अंफज्या' -२ अंफज्या $य=कर्ण; तथा दाबकेन्द्रकोटिमव्यन्त्यफल ज्या त्रि-य• अंफज्या सुणया इत्यादि सिद्धान्तशिरोमणिस्य संशोधकोक्त प्रकार से कैंस फलकोज्या स्पष्टकेन्द्रति स्वरूप में फलकोटिज्या और कर्ण का उत्थापन करने से त्रियअंफया) केग (त्रि-य. अंफया) केग स्पकेग, केगशीघ्र त्रि+ऑफ़ज्या'-२ ऑफया• यश, कंगशत्र केन्द्रगतिः । कर्ण=शीघ्रकणं परन्तु वभरम्भ में स्पष्टगति =० इसलिये शीघ्रोच्चमति = =स्पष्टबैग । शीघ्रगति==उग. (त्रि-ध्य अंफया) केग उग, छेदगम करने से त्रि'+अफन्य३ ऑफब्याः स-। त्रि-फेन--व• अंफल्याकेग=त्रि-२ उग+अंफट्या उग–२ ऑफण्यान् य उग . अमोघन करने से त्रि-' उप-त्रि' वेग+उंमुष्या' उग=२ अंपज्या• य" उग–य–. अफज्या के इस्मथुखक को पृष्ठ करने से
पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/२४३
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