२१० ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते मङ्गल के मन्दोच्च में युत और हीन करने से स्फुटमन्दोच होता है, तथा मङ्गल के पदान्तों में शीघ्रपरिधि एकरूपक ही होती है, पदमध्य में तृतीयांशोन सात अंश ६°४०' करके सदा न्यून ही होता , दोनों के मध्य में पूर्वानुपातागत फल को उनके शीघ्र परिधिप्रमाण में धन और ऋण करने से स्फुट शीघ्रपरिधि होती है, आचार्योक्तानुरूप ही भास्कराचार्य कहते हैं। ग्रहस्पष्टीकरण में मङ्गल और शुक्र ही में अन्तर तथा मङ्गल के मन्दोच में वैषम्य को आचार्य देखे, इस में कोई युक्ति नहीं कही गयी है, केवल वेध ही प्रमाण है, यह बात भास्कराचार्य के कथन से मालूम होती है, सिद्धान्तशेखर में श्रीपति ने ‘भौमो निते दिनकरे पदयातयेयन्यूनज्यका" इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक से आचार्योक्तानुरूप ही मङ्गल के मन्दोचरफुटीकरण को कहां है, पद में गत केन्द्रांश और गस्य केन्द्रांश में जो अल्प है उस की ज्या के तृतीयांशोन सात अंश के गुणकाङ्क स्थान में ॐ =गुणक और पैतालीस अंश ज्यात्मक भाजक स्थान में बारहवीज्या=२१४५ तुल्य भाजक को छु इससे अपवर्तन देकर गुणक स्थान में चार ४, और भाजक स्थान में १४४६ किया तथा नीचोच्चवृत्तं क्षितिजस्य मान्दं’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्रीपति की उक्ति 'तत्स्फुटपरिधिः खनगाः' इत्यादि आचायक्त के अनुरूप ही है, तथा ‘मृदुफलदलमादौ मध्यमे मेदनीजे’ इत्यादि श्रीपति प्रकार का तथा दलीकृताभ्यां प्रथमफलाभ्यां’ इत्यादि भास्करोक्त प्रकार का मूल ‘मन्दफलं मध्येऽर्थं तच्छीघ्रफलस्य मध्यमे' इत्यादि आचार्योक्त प्रफार ही है इति ।। ३४३५-३६३७३८-३६४० इदानीं ग्रहाणां मन्दस्पष्टगतिं स्पष्टगतिं चाह ग्रहमन्दकेन्द्रभुक्तिज्र्यान्तरगुणिताऽऽद्यजीबया २१४ भक्ता । लब्धं स्फुटपरिधिछनं भगणांश ३६० हुतं कलाभिस्तु ॥ ४१ ॥ मृगकर्यादाखूनाधिका स्वमध्यमगतः स्फुटाऽर्केन्द्वोः । शोस्रगीतं सन्दफलस्फुटभुक्त्यूनां कुजादीनाम् ॥ ४२ ॥ शीघ्रफलं भोग्यज्यासङ्गणितं त्वाद्यजीवया विभजेत् । फलणितं व्यासार्थ विभाजयेच्छीघ्रकर्णेन ॥ ४३ ॥ लबधोना शीघ्रगतिः स्फुटभुक्तिर्भवति लब्धमधिकं चेत् । शीघ्रगतेः शीघ्रगत लब्ध संशोध्य वक्रगतिः ॥ ४४ ॥ व- भा.-ग्रहस्य मन्दकर्मणि यत् केन्द्रं तदुग्रहमन्दकेन्द्रं तस्य भुक्तिर्यथा मध्यग्रहात् स्वमन्दोव्वं विशोध्य केन्द्रं भवति । एवं ग्रहमध्यभुक्तौ स्वमन्दोच्च भुक्तिं विशोध्य केन्द्रभुक्तिर्भवति । सा च ज्यान्तरगुणिता कार्या अवशेषमन्दकर्मणि भुजययां क्रियमाणायां यज्ज्यन्तरंभ भवेत्तद्गुणनीयेत्यर्थः। तत आद्यजीवया भक्ता कोर्या प्रथमं ज्याधं मनुयमला इत्यर्थः २१४ ततो यल्लब्धं तत्स्फुटमन्दपरिघिगुण भंगणशङ्कतं च कृत्वा यत्तत्फलं ताः कलाः ताभिः फलकलाभिमृगचर्यादे स्थिते
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