पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/२२६

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स्पष्टाधिकारः २०६ जाय तब तक करना चाहिये, बुध, बृहस्पति और शनैश्चर मन्दकयों और शीघ्रफलों से पूर्ववत् असकृन् कर्म से स्फुट होते हैं। बुध के मन्दपरिध्यंशः =६=', हस्पति के ८३३ शनैश्चर के मन्दपरिध्यंश=३०, विषमपदान्त में और समपदान्त में अर्थात् इन ग्रहों के मन्द परियंशों में संस्काराभाव होता है, बुध के शीघ्र परिध्यंश=१३२ , बृहस्पति के =६= शनि के=३५, इन शो व्र परिघ्यंशों में भो । संस्काराभाव होता है, अथ बराबर स्थिर ( एकरूपक ) परिध्यश होता है, मङ्गल का शीघ्रकेन्द्र जिस पद में हो उसमें गत केन्द्रांश प्रौर गम्य केन्द्रशि में जो अल्प हो उसकी ज्या को तृतीयांश रहित सात अंश ६°४०' से गुणा कर पैतालीस अंश की ज्या से भाग देने से लब्ध जो अश हो उस को मकरादिशेत्र केन्द्र में मङ्गल के मन्दोच्च में जोड़ने से पर कक्र्यादि केन्द्र में घटाने से स्पष्टीकरणोपयुक्त मङ्गल का मन्दोच होता है, उन (मङ्गल) के मन्दपरिघ्यंश= ७०°, और २४३°४०' इन में मन्दोच्च संस्काराथं पहले जो अंश प्राप्त हुये थे उनको हीन करने से मङ्गल की स्फुटशीघ्रपरिधि होती है । मङ्गल का स्पष्टीकरण आगे लिखे हुए नियम के अनुसार होता है । गणितागत मङ्गल में यथागत भन्दफल के आधे को धन या ऋण करना, उस मन्द फलाचे संस्कृत मध्यम मङ्गल से शीत्रफल साघन करना, उस के दावे को मन्दफलाधं संस्कृत मध्यम मङ्गल में देना, मन्दफलाषं और शीघ्र फलार्च संस्कृत मध्यम मङ्गल से जो मन्दफल हो मध्यम मङ्गल में उस को संस्कार कर के जो हो उस से शीघ्रफल साधन करना, वे दोनों (मन्दफल और सीव्रफल) गणितागत भङ्गल में देना, बाद में बुध, बृहस्पति और शनि की तरह असकृत्कर्म तब तक करना चाहिये जबतक बिलकुल ठीक हो जाय, तब मङ्गल स्फुट होते हैं । ग्रह की तरह स्पष्टगत साघन करना, अद्यतन श्वस्तन ग्रहों का अन्तर स्पष्टग्रहगति होती है इति "३४-३५-३६३७३८-३४४०॥ उपपति ब्रह्मगुप्तक्त शनि की शीत्रपरिघि=३५, सूर्यसिद्धान्तोक्त शनि की शीघ्रपरिचि =४०°, भास्करोक्तशनिशीव्रप=४०, आचार्योंक्त शनिमन्दपरिध्यंश=३०; भास्करोक्तशनि- मन्दपरिध्यंश=५०९, शनि के परिध्यंशों में भास्कराचार्य आचायॉक्त से भिन्न क्यों फहे हैं । इस को वे ही जान सकते हैं, सूर्यसिद्धान्तकार शीघ्रान्त्यफलज्या भी सदा स्थिर नहीं है इस बात को मन में रख कर समपदान्त और विषम पदान्त भेद से भिन्न-भिन्न परिध्यंश बताये हैं, जैसे ‘कुजादीनामत: शुध्य युग्मान्तेऽर्धाग्निदग्नकः इस्यादि’ संस्कृतोपपत्ति में लिखा गया है, आचार्य (ब्रह्मगुप्त) ने जिस तरह परिचि का स्पष्टीकरण किया है तदनुरूप ही भास्कराचार्य ने भी अपनी सिद्धान्तशिरोमणि में कहा है, मङ्गल के चारों शीघ्र केन्द्र पदान्त में गणितागत मन्दोच एक ही रूप का होता है, पदमध्य में तृतीयांश (२० कला) रहित सात अंश ६* ।४०' करके न्यून होता है, इसलिये इन दोनों के मध्य में अनुपात करते हैं, यदि पैतालीस अंश शीघ्रकेन्द्रांश की ज्या में तृतीयांशोन सात अंश ६°x« ' मन्दोषान्तर पाते हैं तब इष्टशत्रफेन्द्र पद में गत भर यम्य में अल्प चीन केंद्रख्या में या इस अनुपात से जो फल आता है उसको मकरादि फ्रेन्द्र में और कमर्यादिकेन्द्र में गणितागत