१६६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते केन्द्रज्या४परिधि –भुजफलम्, पदान्ते केन्द्रज्यायाः परमत्वात्तत्र भुजफलस्यापि = ३६० परमत्वं भवेत् । समपदे ( द्वितीयपदे, इतुर्थपदे च ), परम भुजफल । केउत्क्रमज्या2 परिधि = वास्तवभुजफल, पदान्ते भुजफलं शून्यं, अत्रोक्तमज्या ३६० गतं फलं परमे भुजफले ऋणं कार्यमिति चतुर्वेदाचार्यमतानुकूलोऽध्याहार इत्या- चायसूत्रतो नाऽऽयातीति बोध्यं विज्ञ रिति ।। १५ ।। अब कएनयन को तथा प्रकारान्तर से भुजफलानयन को भी कहते हैं हि. भा-प्रबनतस्फुटकांटे ओर भुजफलं के वर्गयोग का मूल लेने से कर्ण होता है । विषम पदों में केद्रज्या को स्पष्ट परिधि से गुणा कर भांश ३६ से मुंजफल होता है, समपदों में केन्द्रांशोत्क्रमज्या को स्पष्ट परिधि से गुणा कर भांश ३६० से भाग देने से जो फल हो उसको परमभुजफल में घटाने से वास्तव भुजफल होता है, यह अध्याहार करना चहिये श्लोक में ‘मन्दे’ शब्द का सम्बन्ध अगले श्लोक के साथ है इति ॥६५॥ १४ वें श्लोक का संस्कृतोपपतिस्थ क्षेत्र देखिये, भूग्र=कर्ण=/प्रल'+भूल =भुजफ'+नीचोऽवृत्तीय स्पको ' प्रथम पद में गत केन्द्रांशज्या को स्पष्ट परिधि से गुणाकर भांश ३६० से भाग देने से पूर्व प्रकरागत हो भुजफल होता है । द्वितीय पद में एष्यांश ज्या गतोत्क्रमज्योन त्रिज्या के बराबर होती है तब उससे पूर्ववत् भुजफल= परिचि (त्रि-गतकेन्द्रांशोत्क्रमज्या) , अतः परभ भजफल परिधि (त्रि-तकेन्द्रांशक्रमज्या) =भुजफत अर्थात् केन्द्रांशोरक्रमज्या वास्तव सम पदों में , से जो फल आवे उसको परमभुजफल में घटाने से वास्तव भुजफल होता है, विषमपद केज्या ४परिवि (प्रथम पद, तृतीय पक्ष) में -भुजफल; पदान्त में केन्द्रज्या परमत्व के ३६० कारण परमभुजफल होता है, समपदों (द्वितीय पद चतुर्थे पद) में परम भुजफल- के उत्क्रमज्यापरिधि '=वास्तव भुफल; पदान्त में भुजफल शून्य होता है, यहाँ उत्क्रमज्या ३६ से आये हुये फलको ऋण करना चाहिये, यह चतुर्वेदाचार्य के मतानुकुल अध्याहार करना होता है, ये बातें प्राचार्य ( ब्रह्मगुप्त ) के सूत्र से नहीं आती हैं, यह समझना चाहिये इति ॥ १५ ॥
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