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पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/१५२

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मध्यमाधिकारः १३५ किया है और मेरी चन्द्रपातगति से अपनी चन्द्रपातगति को अल्प किया है, इलिये तिच्यन्त और ग्रहणों में यदि मेरे मत के साथ आर्यभट मत का ऐक्य (एकता) हो तो उसको (मतैक्य को) घुणाक्षर समझना चाहिए पर्याच काठ को घुण (कीड़ा विशेष) के खाने से कभी-कभी अक्षर का आकार बन जाता है तो उससे यह नहीं समझा जाता है कि भ्रूण ने अपनी बुद्धि से अक्षर बनाया है, उसी तरह मतैक्य के सम्बन्ध में भी समझना चाहिये। कल्म में आर्यभटोक्त चन्द्र मन्दोच्चभगणः =४८८२१६०००, मेरे मत से कल्प में चन्द्रमन्दोच्चभगण=४८८१०५८५-४८८२१६००० तया कल्प में आर्यभटोक्त चन्द्र पातभगण= २३२२२६०००, मेरे मत से कल्वचन्द्रपातभगण=२३२१११६८> २३२२२६००० इसलिये मेरी चन्द्रमन्दोच्चगति और पातगति से प्रारंभटोक्त उनकी गति अविक और अल्प होने के कारण मायं भट का मत ठीक नहीं है यह ब्रह्मगुप्त कहते हैं, प्रह्मगुप्त अपने मत को बिलकुल ठीक समझ कर अपने मत से प्रार्थभट मत के पृथक् होने के कारण उसका खण्डन करते हैं, ब्रह्मगुप्त का कथन ठीक है या नहीं इसके लिये गणित हो शरण है इति ॥६२ इदानीं स्वकृताया मध्यगतेः प्रशंसार्थमाह मध्यगतिज्ञ वोक्ष्य श्रीषेणार्यभटविष्णुचन्द्रज्ञाः । सदसि न भवन्त्यभिमुखाः सहं दृष्ट्वा यथा हरिणाः ॥६३॥ वि. भा. -मध्यगतिज्ञ (मध्यग्रहानयनवेत्तारं) वीक्ष्य (दृष्ट्) ओषेणायं भटविष्णुचन्द्रोक्तानां मध्यग्रहानयनानां ज्ञातारः सदसि (सभय) अभिमुख (संमुखाः) न भवन्ति, यथा सिंहं दृष्ट्वा हरिणास्तदभिमुखा न भवन्तीत्यनेन ब्रह्म गुप्तेन स्वकोयमध्यग्रहानयनस्य वास्तवत्वं श्रयेणायंभटादीनामाचार्याणां मध्य- मगृहानयनस्यावास्तवत्वं कथ्यतेऽर्थादेतद्व्याजेन स्वप्रशंसां क्रियत इति ॥ ६२ ॥ अब अपनी प्रशंसा को कहते हैं। हि- भा.-हमारे मध्यग्रहानयनत के समझने वाले को देखकर श्रीषेण-आर्यभट-विष्णु चन्द्र इन आचार्योंक्त मध्यग्रहानयन को समझने वाले सभा में उनके (हमारे मध्यग्रहानयन को समझने वालों के) सम्मुख नहीं होते हैं जैसे सिंह को देखकर हरिण उसके सम्मुख नहीं होता है। इससे आचार्य (ब्रह्मगुप्त) मध्यग्रहानयन के वास्तवत्व और श्रीषेणआर्यः अपने भट आदि आचार्योत मध्यग्रहानयन के अवास्तवत्व को कहते हैं अर्थात् इस व्याज से अपनी प्रशंसा करते हैं इति ।। ६३ ।। इदानं मध्यमाधिकारोपसंहारमाह युगभगणमानयाताहर्गणदिनवारमध्यमाञ्चषु । मध्यमगतिस्त्रिषष्टचार्याणां प्रथमः कृतोऽध्यायः ॥ ६४ ॥ वा. भा-युगादिष्वर्थेषु द्विषष्टचार्याणां मध्यगत्याख्यो मध्ययोनि बद इति ।