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पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/१४७

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१३ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते यावत्सावनदि-शुद्धि=३६५ गव+दिनादि-शुद्धि-सावनदिनानि चैत्रादौ एतानि सप्तभिर्भक्तानि वर्तमानमारार्थं रूपयोजितानि तदा चैत्रसिताद्वरः= गव+दिनादि-शुद्धि+१ एतावताऽऽचार्योक्तमुपपद्यते । सिद्धान्ततत्त्वविवेके कमलाकरेण लघ्वहर्गणानयने वारगणनर्थ विशेष: प्रतिपदितोस्तीति ॥५॥ अब वंशादि से अहर्गणानयन करके मध्यग्रहानयन को कहते हैं हि. भा-पूवंसाधित दिनादि--कल्पगतवर्ष और रूप (एक) इन सबों के योग में शुद्धि को घटाकर जो हो उस पर से चैत्रसितादिवर्षपति साधन करना, अर्थात् दिनाथ-कल्पगतव और रूप इन सबों के योग में शुद्धि को घटाकर जो शेष बचे उसको सात से भाग देने से चैत्रादि में रव्यादिवार होते हैं । चैत्रादि से जो अहर्गण होता है उसमें चैत्रादिवार से दिनवार समझना चाहिए, उससे जो ग्रह होते हैं उसमें शुद्धिदिनोत्पन्नग्रह को घटाने से सौरवर्षान्त से पूर्ववत् मध्यम ग्रह होते हैं ॥५६॥ उपपत्ति सौरवर्षान्त और अमान्त के मध्य में जो तिथि है वह अधिशेष तिथि है, उसमें वर्षान्तक्षयशेष घटी को घटाने से जो शेष रहता है उसका नाम शुद्धि है, वही वर्षान्त और अमान्त के मध्य में सावनदिन है, रविवर्धन्त और अमान्त के मध्य में सावन दिन= शुद्धि, कल्पादि से इष्टसौरवर्षान्तपर्यन्त सावनदिन==३६५ गव+दिनादि, अतः कल्पादि से इष्टसौरवर्षान्तपर्यन्तसावनदि-शुद्धि=३६५ गव+ दिनादि--शुद्धि =चैत्रादि में सावनदिन इसको सात से भाग देना और वर्तमान वार के लिये रूप जोड़ देना तब चैत्रसितादि से वार होते हैं, चैत्रसितादि से वार=गव+ दिनादि-शुद्धि-+१ इससे आचायत उपपन्त हुआ । कमलाकर ने सिद्धान्ततत्वविवेक में लघ्वहर्गणानयन में बार गणना के लिये बहुत विशेष विचार किया है, कभी-कभी बिना रूप जोड़ने से भी वंशादि में वार होते हैं, वर्तमान वारज्ञानार्थं अहर्गण में सैक और निरेक किया जाता है जिसको भास्करचार्यों ने भी सिद्धांतशिरोमणि में 'अभीष्ट वरात्रीमहगणश्चेवइत्यादि से कहा है इति ॥५en इदानीं बीजकमाह खखखार्कह्ताब्देभ्यो गतगम्याल्पाः खशून्ययमलहृताः । लरुचं त्रिसायकहतं कलाभिरूनौ सदाऽर्जेन्टु ॥ ६० ॥ शशिवत् जीवे द्विहतं चन्द्रोच्चे तिथिहतं तु सितशीत्र। दृषु ५२ हतं च बुधोच्चे द्वि २ कु १ वेद ४ हतं च पातकुजशनिषु ॥६१॥ या-भार-अनयोः श्लोकयोर्वासनाभाष्यं नास्ति ।