३१ अणिमादिभिरष्टाभिरैश्वर्युर्यः समन्वितः। तिर्यग्योन्यादिभिर्धमैः सर्वलोकान्बिभर्ति यः ।। ३€ सप्तकन्धादिकं शश्वत्प्लवते योजनाद्वरः । विषये नियता यस्य संस्थिताः सप्तका गणाः ।४० व्यूहांत्रयाणां भूतानां कुर्वन्यश्च महाबलः । तेजसश्चाप्युपध्यानं दधतीमं शरीरिणम् ॥ ।४१ प्राणाद्या वृत्तयः पञ्च करणानां च.वृत्तिभिः । प्रेर्यमाणाः शरीराणां कुर्वते यास्तु धरणम् ।४२ आकाशयोनिर्दैिगुणः शब्दस्पर्शसमन्वितः । तैजसप्रकृतिंश्चोक्तोऽप्ययं भावो मनीषिभिः ।४३ तत्राभिमानी भगवान्चायुश्चातिक्रियात्मकः । वातारणिः समाख्यातः शब्दशास्त्रविशारदः ॥४४ भारत्या श्लक्ष्णया सर्वान्मुनीन्प्रह्रादयन्निव। पुराणज्ञः सुमनसः पुराणश्रययुक्तया ।४५ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते द्वादशवार्षिकसत्रनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः अथ तृतीयोऽध्यायः प्रजापक्षिस्तृष्टिकथनम् सूत उवाच महेश्वरायोत्तमवीर्यकर्मणे सुरर्षभायामितबुद्धितेजसे । सहस्रसूर्यानलवर्चसे नमखिलोकसंहारविसुष्टये नमः ॥१॥ कथाएँ कह दीं। भगवान् वायु स्वयम्भू के शिष्य, वशी एवं प्रत्यक्षद्रष्टा हैं । ३७-३८ अणिमा आदि अठो ऐश्वर्या से युक्त होकर वे पशु पक्षी आदि की सहायता से घर्मपूर्वक सारे लोकों का भरण-पोषण करते हैं । सदा वे सातों स्कन्यों में योजन-योजन उड़ा करते हैं और उनके राज्य में सातों गण अपने-अपने स्थान पर नियत है । वे महावली तीनों भूतों को एक में संगठित कर प्रज्वलित तेज द्वारा इस शरीरी जीव का पोषण करते हैं. प्राण आदि पाँच वृत्तियाँ इन्द्रियो की वृत्तियों से प्रेरित होकर शरीर को है धारण करती । इस तत्त्व को मनीषियों ने आकाश से उत्पन्न, दो गुण (शब्दस्पर्श) वाला तथा तंजस प्रकृति का कहा है ।३९-४३। वे अभिमानी देवता भगवान् वायु अतिक्रियाशील, शब्दशास्त्रविशारद तथा वातारणि कहलाते हैं । उसं पुराणवेत्ता पवन देन ने उन सहृदय मुनियों को सुन्दर पौराणिक आख्यान सुनकर गद्गद कर दिया ।४४-४५॥ । श्रीवायुमहापुराण का द्वादश वार्षिक यज्ञ वर्णन नामक दूसरा अध्याय समाप्त ॥२॥ अध्याय ३ सूत जी बोले—‘उस वीर्यवान्, कर्मठ, अति बुद्धिमान्, तेजस्वी सुभ सहस्रों सूर्य और अग्नि के
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