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पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/१६३

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१५२] धम्मपद [ २४२ तस्मात् तृष्णं विनोदयेद् भिक्षुराकांक्षीही विरागमात्मनः ॥१०) अनुवाद--तृष्णाके पीछे पड़े पाणी बँधे बरगोशकी भाँति बकर काटते हैं, इसलिए मिश्रको चाहिए कि वह अपने वैराग्यकी इच्छा रयतृष्णाको दूर करे। विमन्तफ (भित्र) ३१४–यो निब्बनथो वनाघिसन्तो वनसुत्तो वनमेव धावति । तं पुगलमेव पस्थ क्षुत्तो बन्धनमेव धावति ॥११॥ ( यो निर्माणार्थं धनऽधिष्ठको धनमुको घनमेव धावति । तुं पुद्गळमेव पश्यत सुको बन्धनमेव धावति ॥११) अनुवाद--शे निर्वाणकी इच्छा बाश (पुरुष ) व(दृष्णा )से सुक हो, वनसे सुसुक्क हो, फिर धन (=तृष्णा ) ही की ओर देखता है, उख व्यकिक ( वैसे ही ) जान जैसे कोई (यन्धन से मुक्क (पुरुष) फिर यन्धन ही की ओर दें। जतवन गन्धनागार ३ ७१-न तं दळूहं वन्धनमाहु धीरायद्यसै दारुनं पञ्चवणञ्च । सारतरत्तामणिकुण्डलेसु पुत्रेषु दासु च या अपेक्खा॥ १९॥ (न तद् दृढं बन्धनमाहुर्धारा थद् आयलं दारूतं पर्वीच ।