१२ ] धम्मपर्छ [ ७५७ वह पुरुष ) जय और पराजयको छोड़ सुबकी (नींद ) सोता है । कोई उकयो २ ०–नस्यि रागसमो अगि, नत्यि बोलपमो कलि । नथि खन्धसमा दुक्खा नथि सन्तिषरं मुखं ॥६॥ (नास्ति रागसमोऽलि, नास्ति चेपेसमः कलिः । नास्तिस्कन्धसमादुवा, नास्ति शान्तिपरं सुखम् ॥६) अनुवाद-रागके खाम अलि गहीं, वेपने क्षमान मछ नहीं, ( पाँच) स्कन्धो'के (=मुदाय ) समान हुन नहीं, शान्ति बढ़कर सुख नहीं। आलवी एक खपासक २०३-निघच्घा परमा रोग, सद्वारा परमा दुखा । एतं गत्वा ययाभूत निव्वाणं परमं सुखं ॥॥ (जिघत्सा परमो रोग, संस्कारः परमं द्वमुखम् । एतद् ज्ञात्वा यथाभूतं निर्वाणं परमं सुखम् ॥७) अनुवाद-ष सघले बहु रोग , संस्कार सबसे बड़े क्षेत्र ,
- रूप, वेदना, सश, सरकार, विशान यह पाँच स्कन्ध हैं । वेदना, सा,
सरकार विशानके अन्दर है । शुधिव, जल, अग्नि, गड दी रूप कष है। जिसमें न भारीपन है, और जो न जगह घेरता है, वह विशान स्क है। रूप (=Metter ) और विशान (=nd ) श्रों मेसे सारा ससार बना है।