१३॥१२ ॥ लोकवसौ [ ८१ धीरो च दानं अनुमोदमानो तेनेव स होति सुखं परत्य ॥११॥ ( [ वै कदर्या देवलोकं व्रजंति आला ह वै न असीति दानम् । धील दानं अनुमोदमानस्तेनैव स भवनि सुखं परत्र ॥ ११ ॥ ) अनुवाद--छूत्र घेवलोक नहीं खातेसूख ही उनकी प्रशंसा गर्दै करते, धीर दासका अनुमोदुल कर, उसी( कर्म )को पर ( क )भं सुत्री होता है। जतवाद अनाथपिण्डिकके पुत्रका मरण १७८–पथष्या एकन्जेन समगस्स गमनेन वा । न्बलोकाधिपत्येन सोतापत्तिं वरं ॥१२॥ ( पृथिव्या एकराज्यात् स्वर्गस्य गमनाद् धा । सर्वलोकाssधिपत्या वस्त्रोतआपतिफी घरम्॥ १२) अनुवाद--( सारी ) पृथिवी अकेला राजा होनैठे, या स्वर्गकै गमनळे, ( या ) सभी छकोंके अधिपति होनेसे भी स्रोतपत्ति* फळ ( ) सिलना ) दोड है । १३-लकन समाप्त
- जे पुरुष निवण-गामी मागेपर इस प्रकार आख्द हो जाता है,
कि फिर यह उससे भ्रष्ट नहीं आ सकता, उसै स्रोत-आपत्र (=भारमें पद्म ) कहते है। इसी पदके लाभ स्त्रोत-आपलि-फल कहते हैं ।