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स्कन्दपुराणम्/खण्डः ५ (अवन्तीखण्डः)/रेवा खण्डम्/अध्याय:२३७

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      "सूत उवाच"

अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं मुनिसत्तमाः। आसीत् तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्परः॥१॥

प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा दुःखमवाप सः। एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान् पशून्॥ २॥

आगत्य वटमूलं च दृष्ट्वा सत्यस्य पूजनम्। गोपाः कुर्वन्ति संतुष्टा भक्तियुक्ताः सबान्धवाः॥३॥

राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण न गतो न ननाम सः। ततो गोपगणाः सर्वे प्रसादं नृपसन्निधौ॥४॥

संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्वा सर्वे यथेप्सितम्। ततः प्रसादं संत्यज्य राजा दुःखमवाप सः॥५॥

"अनुवाद:-श्रीसूत जी बोले – हे श्रेष्ठ मुनियो ! अब इसके बाद मैं एक अन्य कथा कहूँगा, आप उसे सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर(तैयार रहने वाला) तुङ्गध्वज नाम का एक राजा था।१।

उसने सत्यदेव (सत्यनारायण) के प्रसाद का परित्याग करके दुःख प्राप्त किया। एक बार वह वन में जाकर और वहाँ बहुत-से पशुओंको मारकर।२।

वह वट वृक्ष के नीचे आया तो वहाँ उसने देखा कि गोपगण (अहीर लोग) बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान् सत्यदेव की पूजा करतें हैं।३।

राजा यह देखकर भी अहंकार( दर्प) वश न तो वह राजा वहाँ गया और न उसने भगवान् सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। इसके बाद (पूजन के पश्चात) सभी गोपगण भगवान् सत्य नारायण का प्रसाद राजा के समीप में।४।।

रखकर वहाँ से पुन: लौट कर और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान्‌का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसादका परित्याग करने से बहुत दुःख हुआ॥ ५॥

तस्य पुत्रशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत्। सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम् ॥६ ॥

अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनम्। मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ॥७॥

ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणैः सह। भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृपः॥८॥

सत्यदेवेन प्रसादेन धनपुत्रान्वितोऽभवत् । इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ॥९॥

"अनुवाद:- उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य हो भगवान् सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है।६।

इसलिये मुझे वहीं जाना चाहिये जहाँ श्रीसत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों( अहीरों) के समीप गया।७।

और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान् सत्यदेव की पूजा की।८।।

भगवान् सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों को उपभोगकर अन्त में सत्यपुर (वैकुण्ठलोक)- को चला गया॥९॥

य इदं कुरुते सत्यव्रतं परमदुर्लभम्। शृणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तः फलप्रदाम् ॥१०॥

धनधान्यादिकं तस्य भवेत् सत्यप्रसादतः। दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत् बन्धनात् ॥ ११॥

भीतो भयात् प्रमुच्येत् सत्यमेव न संशयः। ईप्सितं च फलं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं व्रजेत् ॥ १२ ॥

इति वः कथितं विप्राः सत्यनारायणव्रतम्। यत् कृत्वा सर्वदुः खेभ्यो मुक्तो भवति मानवः॥१३॥

"अनुवाद:- सूत जी कहते हैं- जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्रीसत्यनारायण के व्रत को करता और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है।।१०।

उसे भगवान् सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है। दरिद्र के घर में धन हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धन से छूट जाता है।११।।

डरा हुआ व्यक्ति भय से मुक्त हो जाता है-यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। (इस लोकमें वह सभी इच्छित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर (वैकुण्ठलोक) को जाता है।१२।

हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान् सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है ॥१३ ॥

विशेषतः कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा। केचित् कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च॥ १४॥

सत्यनारायणं केचित् सत्यदेवं तथापरे। नानारूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रदम्॥१५॥

भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातनः। श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम्॥१६॥

य इदं पठेत् नित्यं शृणोति मुनिसत्तमाः। तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेवप्रसादतः॥१७॥

व्रतं वैस्तु कृतं पूर्व सत्यनारायणस्य च। तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वराः॥१८॥

"अनुवाद:-कलियुग में तो भगवान् सत्यदेव (सत्यनारायण) की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। भगवान् विष्णु को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश।१४।

और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान् सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं।१५।

कलियुग में सनातन भगवान् विष्णु ही सत्यव्रत-रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करनेवाले होंगे।१६।

हे श्रेष्ठ मुनियो। जो व्यक्ति नित्य भगवान् सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान् सत्यनारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।१७।

हे मुनीश्वरो! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान् सत्यनारायण का व्रत किया था, उनके अगले जन्म का वृत्तान्त कहता हूँ, आप लोग उसे सुनें॥१८॥ __________ "शतानन्दो महाप्राज्ञः सुदामा ब्राह्मणो ह्यभूत्। तस्मिञ्जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह ॥१९॥

शब्दार्थ- शतानन्द:( प्रथमा विभक्ति एक वचन कर्ताकारक- । महाप्राज्ञ:= महती प्रज्ञा( प्रकृष्टं ज्ञापयति यया इति प्रज्ञा- (विवेक बद्धि)।सुदामा ब्राह्मण: हि अभूत् =सुदामा नामक ब्राह्मण हुआ।अभूत् = भू -धातु रूप - कर्तरि प्रयोग लुङ् लकार परस्मैपद प्रथम पुरुष एकवचन। तस्मिन् + जन्मनि = उस जन्म में। श्रीकृष्णं = श्रीकृष्ण को । ध्यात्वा= ध्यै- धातु + क्त्वा प्रत्यय। ध्यान करके। मोक्षं = मुक्ति को। अवाप= प्राप्त किया। ह = निश्चय ही।

"काष्ठभारवहो भिल्लो गुहराजो बभूव ह। तस्मिञ्जन्मनि श्रीरामं सेव्य मोक्षं जगाम वै॥ २०॥

शब्दार्थ:- काष्ठभारवह: = लकड़हारा। भिल्ल: गुहराज: बभूव= भील गुहराज हुआ। ह= निश्चय ही। तस्मिन् + जन्मनि = उस जन्म में। श्रीरामं सेव्य= श्रीराम की सेवाकरके। मोक्षं जगाम वै= निश्चय ही मोक्ष को प्राप्त हुआ। जगाम= गम्- धातु - गम्- प्राप्तौ गतौ च- लिट् लकार कर्तरि प्रयोग परस्मैपद ; एकवचन कर्ताकारक रूप।

"उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत्। श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदागमत् ॥२१॥

शब्दार्थ:- उल्कामुख: +महाराज:+नृप:+ दशरथ:+अभवत्= उल्कामुख महाराज [दूसरे जन्म में ] राजा दशरथ हुए। श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदागमत्= श्रीरंगनाथ(दक्षिण भारत में विष्णु का स्वरूप) की भलीभाँति पूजाकर तब वे वैकुण्ठ धाम को चले गये।

"धार्मिकः सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत्। देहार्धं क्रकचैश्छित्त्वा दत्त्वा मोक्षमवाप ह॥२२॥

शब्दार्थ:- धार्मिक:= धर्मकर्मकरनेवाला। सत्यसन्ध= सत्य प्रतिज्ञा करने वाला:+ साधु = साधु नामक वैश्य + मयूरध्वज:+ अभवत्।= मयूर ध्वज नामक राजा हुआ। देहार्धं= आधी देह को । क्रकचैश्छित्त्वा = आरे से चिरवाकर( कटवाकर। दत्त्वामोक्षं+ अवाप ह।= और उस देह को देकर निश्चय ही मोक्ष को प्राप्त किया।

"तुङ्गध्वजो महाराजः स्वायम्भुवोऽभवत् किल। सर्वान् भागवतान् कृत्वा श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत्॥ २३॥

शब्दार्थ:-तुङ्गध्वजो महाराजः स्वायम्भुवोऽभवत् किल ।= तुंगध्वज महाराज कालान्तर में निश्चय ही स्वायम्भुव हुए । सर्वान् भागवतान् कृत्वा = सभी भगवत भक्तों को । कृत्वा= करके ।श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत् = तब वैकुण्ठ को गये।

"भूत्वा गोपाश्च ते सर्वे व्रजमण्डलवासिनः। निहत्य राक्षसान् सर्वान् गोलोकं तु तदा ययुः॥२४ ॥

शब्दार्थ:- सत्यनारायण की वन में कथाकरने वाले वे सभी गोपगण ही व्रजमण्डल में ( भूत्वा = जन्म लेकर /होकर )

गोपा:= गोपगण। ते सर्वे = वे सब। व्रजमण्डलवासिनः= व्रजमण्डल के निवासी। निहत्य= मारकर। राक्षसान् सर्वान् = सभी राक्षसों को । गोलोकं तु तदा ययुः= इसके पश्चात गो-लोक को चले गये। महान् प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नाम के ब्राह्मण [सत्यनारायणका व्रत करनेके प्रभावसे] दूसरे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।१९।

लकड़‌हारा भिल्लों का राजा गुहराज हुआ और अगले जन्ममें उसने भगवान् श्रीरामकी सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया।२०।

महाराज उल्कामुख [दूसरे जन्म में] राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरङ्गनाथ ( विष्णु) की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया।२१।

इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु [पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में] मोरध्वज नाम का राजा हुआ। उसने आरे से चीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान् विष्णुको अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया।२२।

महाराज तुङ्गध्वज पूर्व जन्म में स्वायम्भुव मनु के रूप में हुए थे और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए। जो गोपगणा थे, वे सब जन्मान्तरमें व्रजमण्डलमें निवास करनेवाले गोप हुए और सभी राक्षसोंका संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वतधाम – गोलोक प्राप्त किया ॥ १९-२४॥

   ॥इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे॥ श्रीसत्यनारायणव्रतकथायां पञ्चमोऽध्यायः॥५॥

॥इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अन्तर्गत रेवाखण्डमें श्रीसत्यनारायणव्रतकथा का यह पञ्चम्- अध्याय पूरा हुआ॥५॥

(प्रस्तुति कर्ता-योगेश कुमार"रोहि")