सर्वेश्वरी विद्या

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॥ॐ नम उमङ्गेश्वर्यै॥

अभिजिदुवाच कैषा गुह्या महाविद्या यदुक्ता भवताधुना। सर्वेश्वरीति या प्रोक्ता सर्वकामार्थसिद्धिदा॥ भवताराधिता शैले यया त्रैलोक्यपोषिणी। तां विद्यां ब्रूहि विप्रेन्द्र कृपास्ति यदि ते मयि॥

अभिजित् ने कहा - आपके द्वारा अभी जो गुप्त महाविद्या कही गयी है, वह कौन है जो सभी कामनाओं एवं सिद्धियों को देने वाली है, जिसे सर्वेश्वरी कहते हैं एवं जिसके द्वारा तीनों लोकों का पोषण करने वाली देवी पर्वत में आपके द्वारा आराधिता हुईं, हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! यदि आपकी मुझपर कृपा है तो उस विद्या को कहें।

निग्रह उवाच मार्तण्डादिगणेशकालसहिता सम्पूजिता शम्भुना। सा देवी महिषान्धकान्तककरी सर्वेश्वरी पातु नः॥ अथाहं सम्प्रवक्ष्यामि विद्यां सर्वेश्वरीं शुभाम्। अभक्तेभ्यो न दातव्या रक्षणीया प्रयत्नतः॥ निग्रहेण मया प्रोक्ता निग्रहागमसम्मता। श्रीकालिकोपासकाय पुरा देवलशर्मणे॥

निग्रहाचार्य ने कहा - जो सूर्य, गणेश, काल आदि के साथ शिवजी के द्वारा पूजित हुई हैं, वह महिषासुर एवं अन्धकासुर का नाश करने वाली सर्वेश्वरी देवी हमारी रक्षा करें। अब मैं शुभा सर्वेश्वरी विद्या को कहता हूँ, जिसे भक्तिहीन व्यक्ति को नहीं देना चाहिए एवं प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये। निग्रहागमों से समर्थित यह विद्या पूर्वकाल में मुझ निग्रहाचार्य के द्वारा श्रीकालिकादेवी के उपासक देवलशर्मा के प्रति कही गयी थी।

विनियोगः ॐ अस्य श्रीसर्वेश्वरीविद्यास्तोत्रमन्त्रस्य निग्रहऋषिरनुष्टुप्छन्दः, सदाशिवः फलसाक्षी, श्रीपरमेश्वरी देवता, ऐं बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकं, महाविद्यास्वरूपं, नवदुर्गाध्यानं सर्वोचिताभीष्टसिद्धिहेतवे पुरुषार्थचतुष्टयसिद्ध्यर्थे पाठे विनियोगः।

 ..ध्यानम्..

दुर्गा चाष्टभुजी त्रिलोकजननी रक्ताम्बरालङ्कृता तस्मिञ्छैलगुहान्तरे बुधजनै ह्याराधिता सर्वदा। चित्ताह्लादकरी सदासुखकरी साम्राज्यसन्दायिनी अर्धाङ्गी गिरिराजराजतनया रक्षन्तु भक्तान् सदा॥

अथ सर्वेश्वरीविद्यास्तोत्रम् ॐ नमश्चण्डिकायै कालिका कालरूपा च यमदण्डविदारिणी। दक्षिणेशी त्रिनेत्रा च दिगम्बर्यै नमोऽस्तु ते ॥१॥ शङ्करार्द्धासनगता जागृतव्योमचारिणी। शूलखट्वाङ्गधारिण्यै कालिकायै नमोऽस्तु ते ॥२॥ दिग्वस्त्रा कृष्णवर्णा च ज्वलदग्निसमप्रभा। दैत्यहन्त्री शवारूढा मोक्षदायै नमोऽस्तु ते ॥३॥ श्मशानस्थाननिलया मुक्तकेशी स्मितानना। रोगापहारिणी देवि रक्तभोज्यै नमोऽस्तु ते ॥४॥ तनोति जगतः सारं पापौघान् परिशाम्यति। सा तारा भीमरूपा च सर्वाभीष्टप्रदा भवेत् ॥५॥ तारा त्रैलोक्यजननी नागमाला समाश्रिता। अद्भुता ज्ञानदात्री च सृष्टिस्थित्यन्तकारिणी ॥६॥ पाटलाब्जैरर्चिता सा नीला भीमा सरस्वती। विवस्त्रा दैत्यसंहन्त्री धनदा निर्गुणामला ॥७॥ शिवा शिवप्रिया चैव शम्भुधात्री महोज्ज्वला। त्रैलोक्यपालिनी देवी सा तारा परिपातु मे ॥८॥ षोडशी सौम्यवदना ब्रह्मविष्णुशिवानुता। हाटकैर्भूषणैर्दिव्यै: सर्वालङ्कारभूषिता ॥९॥ विशालनेत्रा सुकुचा दाडिमोपमदन्तुरा। षोडशाङ्गी कोमलाङ्गी मन्दहासा सदा शुभा ॥१०॥ कटिप्रदेशसूक्ष्माङ्गी वृत्तपीनपयोधरा। पद्महस्ता च कन्याभिः षोडशाभि: सदावृता ॥११॥ सर्वसम्पत्करी देवी षोडशी सुरसुन्दरी। आनन्दवर्द्धिनी भामा विश्वयोने नमोऽस्तु ते ॥१२॥ त्रिदेवजननी वन्द्या रक्तचन्दनचर्चिता। केयूराङ्गदभूषाङ्गी मीनाक्षी कोकिलस्वरा ॥१३॥ भुवनेशी जगन्माता त्रिदशै: सर्वदार्चिता। ईश्वरी भोगदा रम्या शिवपर्यङ्कशायिनी ॥१४॥ जपाकुसुमसम्पूज्या पद्मासनसमाश्रिता। चन्द्रसूर्याग्निनेत्रा च वरदा मोक्षदायिनी ॥१५॥ रक्तवस्त्रा महाविद्या महादेवी तु शाङ्करी। प्रयच्छतु ममाभीष्टान् सर्वदा भुवनेश्वरी॥१६॥ रक्तपा सा करालास्या विरूपा विकटानना। भैरवी चण्डिका देवी चण्डमुण्डविनाशिनी ॥१७॥ योगिनीवृन्दघोरैश्च सदापूज्या जयप्रदा। मुण्डमालावृताङ्गी सा प्रसन्ना भैरवी भवेत् ॥१८॥ चितावह्निसमारूढा पापौघदुर्विदारिणी। कौशिकी वसुधा तीव्रा भैरवी चापराजिता ॥१९॥ सुरासुराराधिता च निजभक्तार्तिनाशिनी। भैरवी पञ्चमी विद्या सर्वतः परिपातु माम्॥२०॥ छिन्नमस्ताद्भुता घोरा सुमेधर्षिसुपूजिता। स्वरक्तपा विशालाक्षी वस्त्रहीना महाभुजा ॥२१॥ त्यागवात्सल्यसम्पूर्णा शत्रुनाशार्थतत्परा। मनोजवप्रियारूढा कृष्णा भीमा जयामरा ॥२२॥ वेतालगणसाम्राज्ञी प्रज्ञावर्धनकारिणी। खट्वाङ्गमुण्डधारिण्यै विशीर्षायै नमो नमः ॥२३॥ कुण्डली कुण्डलेशानी जयादियोगिनीवृता। छिन्नशीर्षा सदा पातु महाभोगप्रदायिनी॥२४॥ वृद्धा धूम्रा शूर्पहस्ता प्रचण्डभीमविक्रमा। विरूपा कुटिला तीक्ष्णा श्वेतकेशी भयङ्करी ॥२५॥ यस्या जपेन होमेन स्मरणेनैव चेदपि। नश्यन्ति शत्रवः सर्वे तथा दुरितनाशनम् ॥२६॥ गर्दभासनसंरूढा दरिद्रा भोगनाशिनी। ज्येष्ठालक्ष्मीस्तथा धूमावती आपन्निवारिणी ॥२७॥ विश्वरूपां रिपुध्वंसकारिणीं क्लेशहारिणीम्। सर्वभूतनियन्त्रीं तां धूमादेवीं नमाम्यहम् ॥२८॥ विष्णोः संहारिकाशक्तिर्बगलेति प्रचक्षते। शत्रुनाशाय वन्दे तामच्युतां बगलामुखीम् ॥२९॥ पीताम्बरा पीतवर्णा पीतपुष्पोपशोभिता। स्तम्भिनी द्राविणी चैव बगले त्वां नतोऽस्म्यहम् ॥३०॥ प्रेतासनोपसंविष्टा हरिद्राकेतकीप्रिया । सुधासमुद्रद्वीपस्था तत्र सन्त्रासयन् रिपून् ॥३१॥ षट्कर्मसिद्धिदां देवीं कोमलां भीमविक्रमाम्। स्वर्णवर्णां स्वयंतेजां तां नमाम्यहमादरात् ॥३२॥ मातङ्गी नवमी विद्या मतङ्गमुनिपूजिता। गजारूढा मत्तचित्ता मधुपा चित्तमोहिनी ॥३३॥ मधूकपुष्पसम्पूज्या योगदा भोगदा जया। काकपक्षकिरीटाङ्गी रक्ताभरणलङ्कृता ॥३४॥ बुद्ध्यहङ्कारचित्तादीन्मोहयित्वा हसन्मुखी। सा निजेच्छानुसारेण भ्रामयत्येव मायया ॥३५॥ मनुराज्यप्रदा मन्दहासा मन्देहनाशिनी। मातङ्गी विश्वजननी प्रसन्ना स्यान्ममोपरि ॥३६॥ भार्गवी सिन्धुसम्भूता कमलासनसंस्थिता। शक्रादिभिः पूजिता च श्रीदेवी विष्णुवल्लभा ॥३७॥ उलूकासनसंरूढा यातुलैश्वर्यदायिनी। केशवार्द्धासनगता रक्तवस्त्रा शुचिस्मिता॥३८॥ दशमी कमला विद्या सर्वार्थपरिपालिनी। सिन्धुजा अरुणा भद्रा पद्मपुष्पविलासिनी ॥३९॥ चन्द्रप्रभा कर्दमाम्बा स्वर्णवृष्टिकरी सदा। श्रीविद्या परमेशानी दारिद्र्यात्त्राहि वेगतः ॥४०॥ दाक्षायणीदेहसमाश्रितास्तथा दशाकृती रूपगुणैर्विभाजिता:। ता: सर्वविद्या: प्रणमाम्यहं सदा यच्छन्तु मह्यं हृदि पूर्ववाञ्छितम् ॥४१॥ नगेन्द्रजा पार्वती च अपर्णा शिवरागिणी। गणेशजननी देवि शैलपुत्री सदावतु ॥४२॥ शिवा शिवप्रिया चैकवीरा योगीन्द्रपूजिता। कैलाशवासिनी देवी शैलजा परिरक्षतु ॥४३॥ ब्रह्मरूपा च वेदज्ञा श्रुतिसङ्घातकारिणी। सावित्री ब्रह्मविद्या सा परमा प्रकृति परा ॥४४॥ पराविद्यां परावाणीं परध्यानैकगामिनीम्। अक्षमालाङ्कुशधरां नमामि ब्रह्मचारिणीम् ॥४५॥ शब्दब्रह्ममयी देवी ह्यक्षरा रावकारिणी। ॐकारेशी चतुर्वाणी चतुर्दिङ्कीर्तिविस्तरा ॥४६॥ चन्द्रघण्टां स्वयंशब्दां दैत्यकर्णविदारिणीम्। पूर्णेन्दुसमसौम्यां तां सर्वदां प्रणमाम्यहम् ॥४७॥ असङ्ख्यकोटिब्रह्माण्डसम्भूतिस्थितिकारिणी। कूष्माण्डा सा महामाया सर्वदा सुप्रसीदतु ॥४८॥ स्वोदरे विश्वमखिलं धारयन्तीं तु सर्वदा। विना श्रमेण वन्दे तां कूष्माण्डां विश्वधारिणीम् ॥४९॥ महासेनस्य जननी देवसैन्यप्रकाशिनी। सिंहारूढा विशालाक्षी सा नश्येद्दुरितं मम ॥५०॥ बालग्रहाभिभूतानां सर्वोपद्रवनाशिकाम्। सर्वाभीष्टप्रदां देवीं नमामि शम्भुवल्लभाम् ॥५१॥ मूलाधारस्थिते पद्मे चतुर्वर्णसमाश्रिता। कात्यायनी योगगम्या कल्याणं विदधातु मे ॥५२॥ मृगेन्द्रासनमारूढा कात्यायनतनूद्भवा। सर्वभूतनियन्त्री सा सर्वदा वरदा भवेत् ॥५३॥ गर्दभासनसंरूढा मुक्तकेशी महोदरी। चर्मशाटीं समावृत्य क्वचिद्वस्त्रैर्निरावृता ॥५४॥ कालस्य हारिणी भूतद्राविणी विकटानना। अजेया कालरात्रिः सर्वाशुभेभ्योऽभिरक्षतु ॥५५॥ वृषारूढा शशाङ्काङ्गा त्रिनेत्रा श्वेतवाससा। मन्दारपुष्पसम्पूज्या शूलटङ्कधरा शिवा ॥५६॥ महागौरीति सा ज्ञेया पूज्या कैवल्यदायिनी। विभ्रतीं ज्ञानमुद्राञ्च दासिष्ट ज्ञाननिर्मलम् ॥५७॥ चक्रेश्वरी राजविद्या गुह्या गोप्या सरस्वती। विबुधैर्वन्दिता दिव्यमाल्याम्बरधरा प्रिया ॥५८॥ योगीन्द्रवृन्दसंसेव्यां सर्वाभीष्टैकदायिनीम्। सर्वलोकस्तुतां सिद्धिदात्रीं तां प्रणमाम्यहम् ॥५९॥

निग्रह उवाच 
इमां सर्वेश्वरीं विद्यां योऽधीते प्रत्यहं नरः। 

सर्वैश्वर्यमवाप्नोत्ययुतावृत्तिर्यदि कृता॥६०॥ गुरुपुष्ये रविपुष्येऽमायां वापि निशागते। शक्तिपीठे सिद्धपीठे नवरात्रे विशेषतः॥६१॥ प्राप्नोति द्रविणं ज्ञानं सन्ततिं प्रेयसीं तथा। अथवा मुक्तिमाप्नोति निष्कामो यदि सम्पठेत् ॥६२॥

निग्रहाचार्य ने कहा - गुरुपुष्य और रविपुष्य के योग में अथवा अमावस्या की रात्रि को शक्तिपीठ या सिद्धपीठ में, विशेषतः नवरात्र में दस हजार आवृत्ति करके इसे सिद्ध करने के बाद इस सर्वेश्वरी विद्या को जो व्यक्ति प्रतिदिन पढ़ता है, वह सभी प्रकार के ऐश्वर्य को प्राप्त करता है। वह धन, ज्ञान, सन्तान और पत्नी को प्राप्त करता है। अथवा यदि निष्कामता से पाठ करता है तो मुक्ति को प्राप्त करता है।

अभिजिदुवाच भवताराधिता कस्मिन् शैले सा निग्रहेश्वरी। किं रहस्यं तथा नाम वर्म सर्वं वदस्व मे॥

अभिजित् ने कहा - आपके द्वारा वह निग्रहेश्वरी देवी किस पर्वत में पूजिता हुईं, उनका रहस्य, नाम, कवच आदि सब मुझे कहें।

निग्रह उवाच 

ददात्युमङ्गं भक्ताय शोकतापविनाशनम् | तस्माज्जनैरुमङ्गेति प्रोच्यते परमेश्वरी ||०१|| अगस्तु भास्करः प्रोक्त उमिति क्रोधवर्जनम् | मार्तण्डयुक्ता चाक्रोधोमगेति कथिता जनैः ||०२||

 शतनामानि वक्ष्यामि शृणुष्व मानवर्षभ |  

येषां वै पाठमात्रेण सोमङ्गा सम्प्रसीदति ||०३||

निग्रहाचार्य ने कहा - अपने भक्तों के शोक एवं ताप का नाश करके उन्हें उत्साह प्रदान करने से वह परमेश्वरी लोगों के द्वारा उमंगा कही जाती है। भगवान् सूर्य को 'अग' कहते हैं तथा क्रोधरहित होने की 'उम्' संज्ञा है। क्रोध से रहित एवं मार्तण्ड से युक्त होने के कारण लोगों के द्वारा वह उमगा कही जाती है। हे मानवश्रेष्ठ ! अब मैं तुम्हें उमगेश्वरी के सौ नामों को बताने जा रहा हूँ जिनके पाठमात्र से उमंगा प्रसन्न हो जाती है।

 आदौ स्नात्वा धौतवस्त्रं धारयित्वा तु चन्दनम् | 

नत्वा विघ्नेश्वरं सूर्यं स्वगुरुं भैरवं शिवम् ||०४||

 ततो वै कार्यसिद्ध्यर्थे निशामध्ये समागते |

उमङ्गाशैलमारुह्य पूजयेदुमगेश्वरीम् ||०५||

 अष्टादशैः षोडशैर्वा दशैः पञ्चैस्तुमानसैः | 

यथालब्धोपचारैश्च सत्त्वभावेन पूजयेत् ||०६||

 रुद्राक्षमालया रक्तचन्दनेनास्थिमालया | 

जपेच्चैव मूलमन्त्रमभावे मणिमालया ||०७||

 कृत्वा न्यासविधानन्तु मूलमन्त्रेण साधकः |  

ध्यानं कुर्यान्महाबाहो भक्तियुक्तेन चेतसा ||०८||

सर्वप्रथम स्नान करके शुद्ध धोती आदि धारण करके, चन्दन आदि से युक्त होकर विघ्नराज गणेश, अपने गुरुदेव, भैरवनाथ एवं भगवान् शिव को प्रणाम करके फिर अपने कार्य की सिद्धि के लिए मध्यरात्रिकाल के आने पर उमगा पहाड़ पर चढ़कर देवी उमगेश्वरी की पूजा करे। अठारह, सोलह, दस अथवा पांच उपचारों से, मानसिक अथवा जैसी सामग्री उपलब्ध हो, उसके अनुसार सात्त्विक भावना से पूजन करे। रुद्राक्ष की माला, रक्तचन्दन अथवा हड्डी की माला से मूलमन्त्र (नवार्णमन्त्र) का जप करे। अभाव में मणिमाला (स्फटिक, हकीक आदि) का प्रयोग करे। हे महाबाहो ! इसके बाद साधक मूलमन्त्र से ही न्यास आदि करके भक्तियुक्त चित्त से ध्यान करे।

 रक्ताम्बरधरा देवी रक्ता सिंहेन्द्रवाहना | 

मार्तण्डभैरवयुता शिलाधोभागमाश्रिता ||०९||

 उमङ्गाशैलनिलया महामहिषघातिनी |
 मगविप्रैः सदा सेव्या भैरवेन्द्रेण पूजिता ||१०|| 

सर्वसिद्धिकरी भक्तभोगमोक्षफलप्रदा |

 देवस्तुता जगन्माता शिवाङ्का चोमगेश्वरी ||११|| 

शिवाराध्या शिवा सर्वेश्वरी सद्भिः सदा स्तुता |

 एवं ध्यात्वाऽनन्यचित्तो भूत्वा चाभीष्टसिद्धये ||१२|| 

पुण्यानि शतनामानि मध्यगत्या तु सम्पठेत् | जगत्यप्रकाशितानि निग्रहेण मया शृणु ||१३||

वह देवी लाल रंग के वस्त्रों को धारण की हुई है, स्वयं भी लाल रंग की है, सिंहराज के ऊपर बैठी हुई है। मार्तण्डभैरव से युक्त होकर विशाल चट्टान के नीचे आश्रित है। महिषासुर का वध करने वाली वह देवी उमंगा नामक पर्वत में रहने वाली एवं शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के द्वारा सेवनीया तथा राजा भैरवेन्द्र आदि के द्वारा पूजिता है। सभी सिद्धियों को देने वाली है, भक्त को भोग एवं मोक्ष प्रदान करने वाली है। देवताओं के द्वारा भी उनकी स्तुति होती है तथा वह विश्व की माता है। वह उमगेश्वरी शिव की गोद में भी बैठी हुई है। शिवजी के द्वारा उसकी पूजा होती है तथा वह कल्याण करने वाली है। सबों की स्वामिनी है तथा सज्जनों के द्वारा सदैव उनकी स्तुति होती है। इन प्रकार से ध्यान करके अनन्यचित्त होकर अपने अभीष्ट कार्य की सिद्धि हेतु मध्यगति से पुण्यदायक सौ नामों का पाठ करे। ये नाम संसार में अभी तक अप्रकाशित हैं, इन्हें तुम मुझ निग्रहाचार्य से सुनो।

शतनामानि

 ॐ उमङ्गा उमगेशानी मातृका योगिनी परा | 

श्रीविद्या कण्ठनिलया सर्वदेवनमस्कृता ||१४||

 शिवा शिवप्रिया तारा शिवपर्यङ्कशायिनी | 

कपिला विन्ध्यगेहा च उमङ्गेशी शवासना ||१५||

 महाविद्या महायोनिर्महापाशा महाङ्कुशा | 

महोदरा महावक्षा महाकेशा महाभुजा ||१६||

 कमला कमलेशानी शिवाराध्या शिवस्तुता | 

गणेशजननी विश्वमाता विश्वप्रतिष्ठिता ||१७||

 विश्वेशा विश्वसाम्राज्ञी विश्वारूढा जयप्रदा | 

मार्तण्डभैरवयुता बटुकेनाभिरक्षिता ||१८||

 दाक्षायणी पर्वतेशात्मजा गङ्गानुजा उमा | 

कौशिकी वसुधा धूमा चोग्रतारा शुचिस्मिता ||१९||

 भैरवी कालरूपा च दानवव्यूथभेदिनी | 

वसुधा कालिका कृष्णा रक्तपा विकटानना ||२०||

 रक्तवस्त्रा पीतवस्त्रा शुभ्रवस्त्रा शुभानना | 

शिवारूढा शवारूढा सिंहारूढा तथाम्बिका ||२१||

 सर्वाशा चैव सर्वेशा सृष्टिस्थित्यन्तकारिणी | 

अनेका चैकरूपा च ब्रह्मविष्णुशिवानुता ||२२||

 अशोकसुन्दरीमाता स्कन्दमाता बलान्विता | 

एकास्या च षडास्या च सहस्रास्यामितानना ||२३||

 महिषान्तकरी चन्द्रघण्टा चन्द्रमुखी शुभा | 

चन्द्रकान्तियुता सौम्या चन्द्रशेखरवल्लभा ||२४||

 ऐलस्तुता महागौरी शाङ्करी पन्नगेश्वरी | 

भद्रकाली महाकाली कालकाली तथाद्भुता ||२५||

 महाकालप्रियाशेषा सगुणा निर्गुणामला | 

श्मशानेशी जगन्माता जगदानन्दकारिणी ||२६||

 गुह्यस्थिता महातेजा भैरवेन्द्रवरप्रदा | 

वेतालप्रेतडाकिन्यादिभिः पूज्येति कीर्तिता ||२७||

निग्रह उवाच

 राज्यं धनं तथा पुत्रं कलत्रं रोगनाशनम् | 

यच्चिन्तितं जनैर्नामपाठमात्रेण लभ्यते ||२८||

 पठित्त्वेतानि नामानि दिव्यानि नियतात्मनः | 

वर्मपाठेन संसिद्धिर्निर्भयो जायते नरः ||२९||

 ततो रक्षाविधानाय सुस्पष्टोच्चारणेन च | 

प्रपठेत् कवचं देव्यास्ततो भीतिर्न जायते ||३०||

निग्रहाचार्य ने कहा - राज्य, धन, पुत्र, स्त्री एवं रोग से मुक्ति आदि जो कुछ भी मन में इच्छा हो, वह लोगों के द्वारा इन नामों के पाठमात्र से प्राप्त हो जाता है। इन दिव्य नामों को एकाग्रचित्त से पढ़कर फिर कवच का पाठ करने से व्यक्ति निर्भय हो जाता है। रक्षाविधान के लिए स्पष्ट उच्चारण के साथ देवी के कवच का पाठ करना चाहिए, इससे भय उत्पन्न नहीं होता।

अभिजिदुवाच

 कवचं कीदृशं देव्या महाभयविनाशकम् | 

कृपया विप्रशार्दूल उमङ्गाया वदस्व मे ||३१||

निग्रह उवाच

 अथाहं सम्प्रवक्ष्यामि कवचं महदद्भुतम् | 

उमङ्गेशीमहादेव्या नास्ति यज्जगति श्रुतम् ||३२||

अभिजित् ने कहा - हे ब्राह्मणों में सिंह के समान तेजस्वी ! महान् भय का निवारण करने वाला वह उमंगा देवी का कवच किस प्रकार है, वह कृपा करके मुझे कहें। निग्रहाचार्य ने कहा - अब मैं उमंगेश्वरी महादेवी का महान् एवं अद्भुत कवच कहता हूँ जिसे अभी तक संसार में नहीं सुना गया है।

कवचम्

 अमरा पातु शीर्षे मां जित्वरा केशकर्दमे | 

ललाटे पातु मां नित्यं त्रिपुरारीश्वरप्रिया ||३३||

 नेत्रे रक्षतु मेऽजेया भ्रूयुगे गिरिजा तथा | 

उमङ्गा नासिकायाञ्च कर्णौ श्रीजगदम्बिका ||३४||

 कपोले पातु मां चण्डमुण्डशीर्षापहारिणी | 

मुखे दन्ते च जिह्वायां सर्वदा कमलानना ||३५||

 सावित्री सर्वदा रक्षेत्कण्ठदेशे समाश्रिता | 

ग्रीवायामादिप्रकृतिर्हृदये त्रिगुणात्मिका ||३६||

 सन्ध्या कुक्षौ तथा स्कन्धौ पङ्कजायतलोचना | 

देवेन्द्रवन्दिता देवी बाहू मे पातु सर्वदा ||३७||

 करौ रक्षतु इन्द्राणी अङ्गुल्यग्रं पतिव्रता |  

देवहूतिः सदा रक्षेदुदरं करुणामयी ||३८||

 अपर्णा मे कटिं पातु पृष्ठमर्चिस्तु सर्वदा | 

वसुन्धरा तथा नाभिं लिङ्गं सा विश्वमोहिनी ||३९||

 रक्षेदुन्मादयन्ती मे गुदं मेढ्रञ्च भास्वरा | 

उरू च जानुनी पातु श्रीप्रदा विष्णुवल्लभा ||४०||

 जङ्घे मे पातु देवेशी गुल्फौ पातु तथादितिः | 

प्रसूतिः पातु मे पादौ पादान्ते च सरस्वती ||४१||

 लोहितं पातु मे रक्तबीजशोणितपायिनी | 

नखान् रक्षतु गायत्री चानुसूया सदा त्वचम् ||४२||

 अन्तःस्थितान्तथान्याङ्गान्त्रिपुरासुरनाशिनी | 

त्रिपुरा त्रिपुरेशी च दशदिक्षु प्रपातु माम् ||४३||

 रक्षाहीनं तु यत्स्थानं कवचेनापि वर्जितम् | 

सर्वदा सर्वतः सर्वं पातु मां सोमगेश्वरी ||४४||

निग्रह उवाच

 इति ते कथितं वत्स कवचञ्चेदमद्भुतम् | 

न वै देयमशिष्याय गोपनीयं प्रयत्नतः ||४५||

 महाभयेऽथवा युद्धे विषे चाग्नौ जलोद्भवे | 

राजदण्डे तथाकाले वने वा हिन्स्रजन्तुषु ||४६||

 दशावृत्तिकृतं वर्म नूनं रक्षति पाठकम् | 

निर्भयो जायते मर्त्य उमङ्गायाः कृपान्वितः ||४७|| ऐलेन बुधपुत्रेण पुरा शैले प्रतिष्ठिता | कालान्तरे साधकैश्च भैरवेन्द्रादिभिस्तथा ||४८|| तस्मात्तां पूजयेदम्बां सर्वलोकेश्वरेश्वरीम् | शक्तिपूजां विना कोऽपि न किञ्चित्कर्तुमर्हति ||४९|| शक्तियुक्तो महेशश्च शक्तियुक्तश्च केशवः | ब्रह्मा शक्तियुतो भूत्वा स्वकर्मगतिमान् भवेत् ||५०||

निग्रहाचार्य ने कहा - हे वत्स ! इस प्रकार से यह अद्भुत कवच कहा गया है। इसे अशिष्य को कभी नहीं देना चाहिए एवं प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिए। महान् भय उपस्थित होने पर, युद्ध अथवा विष से संकट प्राप्त होने पर, आग लगने अथवा बाढ़ आने पर, राजा के द्वारा दण्डित होने की स्थिति में, अकाल में अथवा वन में हिंसक प्राणियों से संकट की प्राप्ति होने पर इस कवच की दस आवृत्ति करने पर यह पाठक की अवश्य ही रक्षा करता है।

उमंगा देवी की कृपा से युक्त होकर व्यक्ति निर्भय हो जाता है। बुध एवं इला की सन्तान राजा पुरूरवा के द्वारा पूर्वकाल में यह देवी पर्वत में प्रतिष्ठित की गयी थीं। बाद में अन्य साधकों तथा राजा भैरवेन्द्र आदि के द्वारा इनकी प्रतिष्ठा-पूजा आदि हुई। अतएव सभी लोकेश्वरों की भी स्वामिनी जगदम्बिका की पूजा करनी चाहिए। शक्तिपूजा के बिना कोई भी कुछ भी करने में समर्थ नहीं होता है। महादेव शक्तियुक्त हैं, विष्णु भी शक्तियुक्त हैं। ब्रह्मा भी शक्तियुक्त होकर ही अपने कर्म में प्रवृत्त होते हैं।

|| इति श्रीनिग्रहाचार्येण प्रकाशिता निग्रहागमसम्मतागस्त्यप्रोक्तेषु शक्तिसूत्रेषु सृष्टिभाष्यान्तर्गता सर्वेश्वरीविद्या सम्पूर्णा ||

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