शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य)

विकिस्रोतः तः
शिवस्तोत्रावली (उत्पलदेवस्य)
उत्पलदेवाचार्यः
१९६४

THE CHOWKHAMBA BANSKRIT SERIES

Work No. 15


THE


SIVASTOTRAVALl

OF

UTPALADEVACHARYA


With the Sanskrit commentary of

KSEMARAJA

.


Edited with Hindi commentary


BY


RaianaKa Laksmana


THE
CHOWKHAMBA SANSKRIT SERIES OFFICE
VARANASI-l
1964


प्राक्कथन

 श्री स्वामी ईश्वर स्वरूप जी ( ब्रह्मचारी लक्ष्मण जी ) ने आध्यात्मिक तथा साहित्यिक जगत में ऐसी अमर ख्याति प्राप्त की है कि उनके विषय में किसी परि- चयात्मक बात के कहने का साहस करना दिवाकर को दोपक दिखाने के समान होगा। स्वामी जी उच्च कोटि के महात्मा, सफल योगी, संस्कृत के धुरंधर विद्वान् , प्रकाण्ड पण्डित तथा सिद्धहस्त लेखक और अद्वैत-शैव-दर्शन के पारंगत हैं। कहना न होगा कि कश्मीर-शैव-शास्त्र-सागर को गहराई में पड़े हुए बहुमूल्य रत्नों का सर्वोत्कृष्ट पारखी कहलाए जाने का गौरव यदि आजकल किसी को प्राप्त हो सकता है, तो वह स्वामी जी ही हैं।

 'शिवस्तोत्रावली' का पहिला संस्करण चौखम्बा संस्कृत सीरीज कार्यालय वाराणसी से आज से लगभग साठ वर्ष पहले छप चुका था, पर वह अब बहुत वर्षो से अप्राप्य हो गया है। तब से इसके दूसरे संस्करण की जो मांग चली आ रही थी, वह अब उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। उसी मांग की पूर्ति के लिए यह संस्करण प्रकाशित किया जा रहा है।

 पहला संस्करण केवल एक ही हस्तलिखित प्रति के आधार पर प्रकाशित किया गया था। उसके संपादक को अन्य हस्तलिखित प्रतियों आदि के रूप में कोई भी वांछनीय सुविधा उपलब्ध न थी। फलतः उस संस्करण में बहुत सी अशुद्धियाँ रह गई थीं।

 स्वामी जी ने अपनी प्रमुख शिष्याओं ब्रह्मचारिणी शारिका देवी तथा प्रभादेवी के अनुरोध से इस ग्रन्थ का जो अत्युत्कृष्ट संस्करण तैयार किया है, वही अब प्रकाशित किया जा रहा है। स्वामी जी ने भिन्न भिन्न स्थानों और सजनों से इसकी पाँच-छः हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त करने का प्रशंसनीय उद्योग किया। इनमें से चार तो अपेक्षाकृत बहुत शुद्ध थीं। इन्हीं चार प्रतियों के आधार पर इन्होंने कष्ट-साध्य परिश्रम करके शुद्ध और उपयुक्त पाठों की पूरी जांच की। परिणाम स्वरूप पहले


१. स्वामी जी के शिष्य तथा भक्त इनको इसी प्रिय नाम से पुकारते हैं । संस्करण के सभी अशुद्ध पाठों को बहिष्कृत करने और उनके स्थान पर शुद्ध तथा उपयुक्त पाठ रखने में ये सफल हो गए।

 इस संस्करण में अत्यन्त अनूठे ढंग से सरल तथा सुबोध हिन्दी-टीका दी गई है। उपयोगी और महत्त्वपूर्ण पाद-टिप्पणियों ने सोने पर सुहागे का काम किया है। इसकी प्रशंसा के संबन्ध में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। केवल इतना कहना पर्याप्त होगा कि यह पुस्तक स्वामी जी की पहले प्रकाशित की गई सभी पुस्तकों की तरह अधिक उपयोगी होगी। पाठक इस बात का स्वयं अनुभव करेंगे।

 स्वामी जी के पिछले प्रकाशनों का जैसा आदर हुआ, वैसा ही, बल्कि उससे. भी अधिक आदर इस ग्रन्थ का भी होगा, ऐसी पूर्ण आशा है ।

जिया लाल कौल  कश्मीर के शैव-शास्र-साहित्य रूपी आकाश को जिन अनेक शैव-शास्त्र

आचार्य रूपी तारों ने अपनं। कृतियों के प्रकाश से सदा के लिए देदीप्यमान और उज्ज्वल बनाये रखा है, उन में से एक प्रमुखं तारा कहलाये जाने का गौरव जिस को प्राप्त हो सकता है, वह अचर्यं उत्पल देव जी हैं । न केवल शैव-दर्शन संबंधी मूल ग्रन्थों के उत्कृष्ट लेखक तथा उच्च कोटि के दार्शनिक के रूप में ही वरन् एक कुशल टीकाकार के रूप में भी इन की ख्याति सदा अमर रहेगी ।

 संस्कृत के बड़े-बड़े महाकवियों की भाँति शैव-शास्त्र के आचार्यों ने भी अपनी कृतियों में अपने तथा अपने जीवन के विषय में कुछ भी नहीं लिखा है । उन्हों ने इस संबंध में मौन का श्राश्रय लेना ही उचित समझा। अपने विषय में लंबी चौड़ी बातें लिख कर सामान्य लेखक यश को प्राप्त करना चाहते हैं, पर इन महान् आचाय को यश की प्राप्ति की लालसा भला क्यों होती, जब कि यश आपसे आप ही इन के चरण-कमलों को चूमता रहा है । आचर्यं उत्पल देव जी के विषय में भी कुछ जानने के लिए उपयुक्त सामग्री उपलब्ध नहीं है । फलतः पाठकों को प्राचार्य जी की जीवन-लीलां की थोड़ी सी जानकारी कराने की इच्छा होते हुए भी उस इच्छा को पूर्ण करना। हरे लिए संभव नहीं ।

{{gap}शैवशास्त्र-साहित्य की उत्पत्ति का श्रीगणेश, इसका प्रचार तथा विकास पहले मौखिक और तदनन्तर लिखित रूप में किन दिव्य पुरुषों के हाथों और कैसे हुआ, इसका सुन्दर दिग्दर्शन उत्पल देव जी के गुरुदेव आचर्यं सोमानन्द जी ने अपने सुप्रसिद्ध तथा महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘शिवदृष्टि’ के अन्त में दिया है । उसकी जरा सी फांकी पाठकों के अवलोकनाथं यहां प्रस्तुत की जाती है । शैव-शास्त्र-सागर के रलों के पारखियों के लिए उन रलों के उद्गमस्थान तथा मूल स्रोत के विषय में थोड़ी सी जानकारी अवश्य रोचक तथा लाभदायक होगी, इस विचार से ऐसा किया जाता है।

{{gap}चिरकाल तक शैवशास्त्र के रहस्यपूर्ण सिद्धान्त ऋषियों के मुख कुहरों में ही छिपे रहे । कलियुग के आने पर वे ऋषि कलापि नामक ग्राम आदि दुर्गम स्थानों में जा बैठे। इस प्रकार शेवदर्शन का प्रचार लुप्त होने लगा। यह देख कर इस शास्त्र के मूल गुरु भगवान् शंकर के हृदय में दया भाव उमड़ आया। वै 'श्रीकंठ' के रूप में उत्तराखण्ड में स्थित कैलास पर्वत पर घूमते-घामते नीचे उतर आए और दुर्वासा नामक ऋषि को यों आदेश दिया-'तुम शैवागम का पुनरुद्धार करो, जिस से इस का प्रचार सुचारु रूप में चलता रहे ।' भगवान् के आदेश को पा कर महर्षि दुर्वासा ने त्र्यम्बकादित्य नामक एक मानसिक पुत्र को उत्पन्न किया और उसे अद्वैत-शैव-दर्शन का उपदेश दिया । त्र्यम्बकादित्य त्र्यम्बक नामक गुफा में चला गया और वहां त्र्यम्बक नामक एक मानसिक पुत्र को जन्म दिया। उस का पुत्र भी सिद्ध पुरुष बन गया और अपने मानसिक पुत्र को उपदेश दे कर स्वयं आकाश-मण्डल में अन्तर्हित हो गया। इस प्रकार मानसिक पुत्र उत्पन्न कर के उसे ज्ञानोपदेश देने का क्रम चौदह पीढ़ियों तक जारी रहा। ये चौदह सिद्ध अन्तर्मुख अवस्था में ही रह कर शैव-दर्शन का प्रचार करते रहे। इस परम्परा का पन्द्रहवां सिद्ध भी इस अद्वैत शास्त्र का प्रकाण्ड पण्डित बन गया, पर किसी अंश में बहिर्मुख होने के कारण अपने पूर्वजों की भाँति योग-बल से मानसिक पुत्र को जन्म देने में असमर्थ रहा। लौकिक व्यवहार करते करते एक बार उसकी दृष्टि एक ऐसी ब्राह्मण कन्या पर पड़ी, जो सर्व-गुण-सम्पन्न तथा शुभ लक्षणों वाली थी। वह उस के माता-पिता के पास गया और उन से उस के विषय में प्रार्थना की। उन के स्वीकार करने पर उस ने उस के साथ ब्राह्म रीति से विवाह किया और उसे अपने घर ले आया। इस ( पन्द्रहर्व सिद्ध ) से संगमादित्य नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ। एक बार घूमते घामते संगमादित्य शारदा-देश (कश्मीर) में पहुँचा। यहां कदाचित् इसके प्राकृतिक सौंदर्य तथा मनोहर जलवायु को देख कर इस पर मुग्ध हुआ अथवा इस देश को शारदा ( सरस्वती) का कृपापात्र समझ कर इससे आकृष्ट हुआ और स्थायी रूप से यहीं रहने लगा। संगमादित्य का पुत्र वर्षादित्य था। वर्षादित्य के पुत्र का नाम अरुणादित्य और उस के पुत्र का नाम आनन्द था। आचार्य आनन्द भी अपने पूर्वजों की भाँति अद्वैत-शैव-दर्शन का प्रकाण्ड पण्डित था। आचार्य श्री उत्पल देव जी के गुरुदेव श्राचार्य सोमानन्द जी इन्हीं प्राचार्य आनन्द के सुपुत्र थे।

 श्रीमान् आचार्य अभिनव गुप्त जी ने श्रीतन्त्रालोक के छत्तीसवें आह्निक में उपर्युक्त वर्णन में एक और विशेष बात का उल्लेख किया है। उस के अनुसार महर्षि दुर्वासा ने अपने योग-बल से तीन मानसिक पुत्रों को जन्म दिया और उन्हें इस 'शैव-सिद्धान्त' का उपदेश किया। उसने अद्वैत-शैव- शास्त्र का उपदेश अपने पहले पुत्र त्र्यम्बक नाथ को, द्वैत-शैव-शास्त्र का ज्ञान दूसरे पुत्र आमर्दक नाथ को और द्वैताद्वैत-शैव-शास्त्र की शिक्षा तीसरे पुत्र श्रीनाथ को दी। कालान्तर में यही तीन आचार्य क्रम से शैव-दर्शन की तीन शाखाओं के प्रवर्तक माने जाने लगे। श्री त्र्यम्बक नाथ ने एक मानसिक पुत्री को उत्पन्न किया, जो अर्ध-त्र्यम्बक शाखा की प्रवर्तिका मानी जाती है। इस प्रकार संकलन-रूप में शैव-दर्शन साढ़े तीन शाखाओं में विभक्त हुआ।

 ऊपर जो कुछ कहा गया है, उससे यही सिद्ध होता है कि भगवान् दुर्वासा से लेकर आचार्य श्री सोमानन्द के समय तक शैव-दर्शन के पठन- पाठन का प्रचार केवल मौखिक रूप में और वंश-परंपरा द्वारा होता रहा । श्री सोमानन्द जी ने इस परंपरा की दिशा को बदल दिया। उन्होंने जहां शैव-दर्शन के मुख्य सिद्धान्तों के विषय पर 'शिव-दृष्टि' नामक पहला ग्रन्थ लिख कर शैव-दर्शन-साहित्य का सूत्रपात किया, वहां अपने शिष्य श्री उत्पल देव जी को इस शास्त्र की शिक्षा-दीक्षा दे कर शिष्य-परंपरा द्वारा इस शास्त्र के पठन-पाठन के प्रचार की प्रणाली को जन्म दिया। इस शिष्य- परंपरा के पहले प्राचार्य श्री उत्पल देव जी थे । अब ये शैव-प्राचार्य शैव- दर्शन के मूल सिद्धान्तों के विषय पर स्वतंत्र रूप में मौलिक ग्रन्थों की रचना करने लगे और इसके साथ-साथ अपने पूर्ववती प्राचार्यों, विशेषतः अपने गुरुओं की मौलिक कृतियों पर टीकायें ( वृत्तियां आदि ) लिखने लगे। इस प्रकार शैव-शास्त्र का वह विशाल साहित्य उत्पन्न हुआ, जो अब उपलब्ध है और जिसके अधिकांश ग्रन्थों को जम्मू व कश्मीर सरकार के रिसर्च-कार्यालय ने प्रकाशित किया है। कहना न होगा कि यह साहित्य इतना उच्च कोटि का, महत्त्वपूर्ण तथा विशाल है कि यह संसार के किसी भी उन्नत देश के गर्व और गौरव का कारण हो सकता है। तभी तो प्राचीन काल से हमारे देश का नाम ही शारदा-देश पड़ गया है।

 जैसे कि उपर कहा जा चुका है, श्री उत्पल देव जी का गुरु आचार्य सोमानन्द था । इन के पिता जी का नाम 'उदयाकर' तथा इन के सुपुत्र का नाम 'विभ्रमाकर' था। इन्हों ने कश्मीर के किस विशेष नगर या स्थान को अपने जन्म से पवित्र और सुशोभित किया था, इस बात के जानने का सौभाग्य हमें प्राप्त नहीं है। श्री सोमानन्द के शिष्य होने के कारण ये उन के समकालीन थे और संभवतः अवस्था में उन से कुछ छोटे ही रहे होंगे। श्री सोमानन्द का स्थिति-काल ईसा की नवीं शताब्दी का उत्तरार्ध कहा जाता है, अतः उत्पल देव जी का स्थिति-काल नवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा दसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के आस-पास रहा होगा ।

 श्री उत्पल देव जी की जिन कृतियों का अब तक पता चला है, उन के नाम ये हैं-

(१) ईश्वरप्रत्यभिज्ञा
(२) ईश्वरप्रत्यभिज्ञा-वृत्ति
(३) ईश्वरप्रत्यभिज्ञा-टीका
(४) संबन्धसिद्धि
(५) अजडप्रमातृसिद्धि
(६) ईश्वरसिद्धि
(७) शिवदृष्टि-वृत्ति
(८)शिवस्तोत्रावली

 इन में से छः ग्रन्थों को जम्मू व कश्मीर सरकार के रिसर्च-कार्यालय ने प्रकाशित किया है और यह ग्रन्थ उपलब्ध हैं। तीसरी ईश्वरप्रत्यभिज्ञा- टीका अनुपलब्ध होने के कारण अभी छपी नहीं है। आठवीं पुस्तक अर्थात् 'श्री शिवस्तोत्रावली' 'चौखम्बा संस्कृत सीरिज, वाराणसी' द्वारा ई० सन् १६०२ में प्रकाशित हुई थी, पर अब चिरकाल से अप्राप्य हो गई है।

 कहा जाता है कि श्री उत्पल देव जी अपने जीवन-काल में कुछ समय में के लिए भक्ति-भाव की पराकाष्ठा के कारण मस्ताना दशा को प्राप्त हुए थे। उन की इस मस्ती की दशा में ही 'शिवस्तोत्रावली' की रचना हुई । उन्होंने अपने अन्य ग्रन्थों की तरह सामान्य रूप में इस ग्रन्थ को नहीं लिखा, बल्कि अपनी मस्ती की दशा में ही, हिन्दी के सुप्रसिद्ध संत कवि कबीर की भाँति, वे तात्कालिक और मौखिक कविता के रूप में श्लोकों को कहते जाते और उन के प्रधान शिष्य उन को लिख डालते। कुछ काल के पश्चात् श्री राम तथा आदित्यराज नामक आचार्यों ने इन श्लोकों को क्रम-बद्ध कर के इन्हें भिन्न-भिन्न स्तोत्रों का रूप दे दिया । इस के बाद आचार्य श्री विश्वावर्त ने इन सारे श्लोकों को बीस अलग-अलग स्तोत्रों में विभक्त किया और अपने बुद्धि-बल से विषय की दृष्टि से प्रत्येक स्तोत्र का स्वतंत्र रूप में नामकरण- संस्कार किया। कहते हैं कि उत्पल देव जी ने स्वयं केवल तीन स्तोत्रों, तेरहवें, चौदहवें और पन्द्रहवें के नाम क्रमशः संग्रहस्तोत्र, जयस्तोत्र और भक्तिस्तोत्र रखे। शेष सत्रह स्तोत्रों के नाम तो आचार्य विश्वावत ने ही रखे । प्रत्येक स्तोत्र का नाम उस स्तोत्र के आदि और अन्त में दिया गया है। श्री क्षेमराज जी ने भी अपनी 'शिवस्तोत्रावली' की वृत्ति ( टीका ) के प्रारम्भ में उपर्युक्त बातों की ओर संकेत किया है। ऐसा जान पड़ता है कि उपर्युक्त तीन स्तोत्र अर्थात् संग्रह-स्तोत्र, जय-स्तोत्र तथा भक्ति-स्तोत्र आचार्य उत्पल देव जी को बहुत प्यारे थे और इसी लिए उन्हों ने इन तीन स्तोत्रों के नाम स्वयं रखे। विचार करने पर मालूम होता है कि वस्तुतः ये तीन स्तोत्र अन्य स्तोत्रों की अपेक्षा अत्यन्त सुन्दर, मनोमुग्धकारी तथा प्रभावोत्पादक बन पड़े हैं । इस प्रकार शिवस्तोत्रावली का वह रूप निश्चित हुआ, जिस में वह अब उपलब्ध है।

 'शिवस्तोत्रावली', जैसे कि इस के नाम से ही सूचित होता है, संस्कृत- स्तोत्र-साहित्य की एक ऐसी अनूठी पुस्तक है, जिस में भगवान् शंकर की स्तुति के गीत गाये गये हैं। इस में अद्वैत-शैव-दर्शन के मूल सिद्धान्तों के आधार पर चरम सीमा को पहुंची हुई समावेश-मयी भक्ति की पूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। या यों कहा जाय कि इन स्तोत्रों की पृष्ठ-भूमि या आधार-स्तम्भ शैव-शास्त्र के सिद्धान्त हैं। इस के अध्ययन से मालूम होता है कि ग्रन्थकार अर्थात् आचार्य उत्पल देव जी पूर्ण सिद्ध और योगी तथा शैव-शास्त्र के मूल तत्त्वों के सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक ( अर्थात् अनुभव- सिद्ध ) दोनों, पक्षों या रूपों के पूर्ण ज्ञाता थे। इस में उन्हों ने प्रकट रूप में से लौकिक स्तोत्रों के रूप में समावेश-मयी भक्ति और उस की सफलता से मिलने वाले परमानन्द का ऐसा सजीव, सुन्दर तथा प्रभावोत्पादक चित्रण किया है कि यह 'भक्ति-देवी' नाटककार भवभूति के शिखरिणी-पद्यों की तरह, मयूरी के समान हमारे सामने मानो सांगोपांग रूप धारण कर के नाच उठती है और हमें आनन्द-सागर में लावित कर डालती है। यों तो सारे ग्रन्थ का विषय एक ही अर्थात् भगवान् शंकर की स्तुति है, किन्तु प्रत्येक स्तोत्र में वर्णन की शैली ऐसी विलक्षण, अनूठी तथा पहले की अपेक्षा नवीनता लिए हुए दिखाई देती है कि सभी स्तोत्र अपने सीमित रूप में एक दूसरे से भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थ की रचना में कुशल स्तोत्र-कार ने अपनी योग्यता तथा प्रतिभा से एकता में अनेकता और अनेकता में एकता की झलक ऐसे ही प्रस्तुत की है, जैसे भारतीय संस्कृति में एकता में अनेकता और अनेकता में एकता की झलक स्पष्ट रूप में दिखाई पड़ती है। ग्रन्थकार के वचनों में ऐसा चमत्कार और जादू भरा पड़ा है कि ग्रन्थ का विषय आध्यात्मिक तथा गृढ़ और इसी लिए सामान्य पाठक के लिए कदाचित् नीरस होते हुए भी इस का अध्ययन साहित्य-रसिकों को उत्कृष्ट कविता के रसास्वादन का आनन्द प्रदान करने की पूरी क्षमता रखता है। सच तो यह है कि आचार्य उत्पल देव जी की प्रतिभा सर्वतोमुखी है और इस ग्रन्थ के सीमित क्षेत्र में भी हमें उस की पूरी झलक मिलती है।

 इस रचना के अवलोकन से मालूम होता है कि प्राचार्य उत्पल देव जी का संस्कृत भाषा पर पूर्ण अधिकार था। संस्कृत के सुप्रसिद्ध गद्यकार बाणभट्ट की भॉति इन्हों ने भी इस पुस्तक की भाषा में सरल और कठिन, दोनों शैलियों का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं श्लोक ऐसी सरल भाषा में रचा गया है कि उसे कई छोटे-छोटे वाक्यों में विभक्त किया जा सकता है और उसका आशय आसानी से समझा जा सकता है। इसके विपरीत कहीं-कहीं भाषा-काठिन्य का अवश्य अनुभव होता है । कुछ श्लोक ऐसे जिनका पूर्वार्ध केवल एक समस्त-पद है और उत्तरार्ध में भी एक समास के सिवा और कुछ नहीं । ऐसे लंबे समास हमें नाटककार भवभूति के उन लंबे समासों का स्मरण कराते हैं, जो उसकी भाषा-शैली को विशेषता प्रदान करते हैं । भवभूति की भाँति ही उत्पल देव ने भी कुछ असाधारण शब्दों का प्रयोग किया है, पर इनकी संख्या बहुत थोड़ी है। ऐसा होते हुए भी इसमें कृत्रिमता कहीं भी नहीं खटकती।

 शिवस्तोत्रावली की जो विवृति ( संस्कृत टीका ) यहाँ प्रकाशित की जाती है, वह श्री क्षेमराज जी ने लिखी है। क्षेमराज जी कश्मीर के शैव-दर्शन-साहित्य के सुप्रसिद्ध आचार्य श्री अभिनवगुप्त जी के मुख्य शिष्य कहे जाते हैं। श्री अभिनवगुप्त जी का स्थितिकाल ईसा की दसवीं शताब्दी के अन्त तथा ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ के आस-पास कहा जाता है। क्षेमराज उन के शिष्य होने के कारण उन के समकालीन थे और संभवतः अवस्था में उन से कुछ छोटे रहे होंगे। अतः इन का स्थितिकाल ग्यारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जा सकता है। इन्हों ने भी अपने गुरुदेव की भाँति शैव-दर्शन-साहित्य की अनुपम सेवा की है और पुराने शैवाचार्यों के बहुत से ग्रन्थों तथा तंत्रों पर टीकाएँ लिखी हैं। इन की रचनाओं से इन के अगाध पाण्डित्य तथा प्रतिभा का परिचय मिलता है। इन की कुछ मुख्य कृतियों के नाम ये हैं :

(१) प्रत्यभिज्ञाहृदयम्
(२) शिवसूत्रविमशिनी
(३) स्पन्दनिर्णय
४) शिवस्तोत्रावली-विवृति
कश्मीर के साहित्य-सेवियों ने जो स्तोत्र-ग्रन्थ लिखे हैं उनमें से ये दो
प्रमुख हैं-
(१) श्रीशिवस्तोत्रावली।
(२) जगद्धरभट्टप्रणीत स्तुतिकुसुमाञ्जलि ।

 स्तुतिकुसुमाञ्जलि का हिन्दी टीका सहित एक उत्कृष्ट संस्करण निकल चुका है । इसके सम्पादक श्री प्रेमवल्लभ शास्त्री और प्रकाशक पं० केशवदत्त त्रिपाठी हैं।

 आज से लगभग ६० वर्ष पूर्व 'शिवस्तोत्रावली' की एक सहस्र प्रतियाँ पहली बार चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी से ही छपी थीं। इस संस्था के अध्यक्ष बड़े आस्थावान् व्यक्ति हैं जिनके द्वारा अब तक सहस्रों प्राचीन संस्कृत-ग्रन्थरत्नों का उद्धार हो चुका है। श्रासन अतीत में ही 'शब्दकल्पद्रुम' तथा 'वाचस्पत्यम्' 'शतपथब्राह्मणम्' जैसे अनेक विशाल ग्रन्थों का व्ययसाध्य प्रकाशन इनसे सुलभ मूल्य में प्राप्त कर संस्कृत-जगत् बहुत बड़े अभाव की पूर्ति अनुभव कर रहा है। सुरभारती का संरक्षक तथा प्रचारक इतना बड़ा संस्थान दूसरा नहीं दिखाई पड़ता। जिस ग्रन्थ की एक सहस्र प्रतियाँ ६० वर्षों में बिक सकी हों उसका पुनः प्रकाशन इन्हीं जैसे व्यक्तियों का साहसिक कार्य है। निस्सन्देह ये धन्यवाद के पात्र हैं।

           जिया लाल कौल
           [ भूतपूर्व अध्यक्ष, संस्कृत-हिन्दी-विभाग,

           श्री प्रताप कॉलेज, श्रीनगर, कश्मीर ]

स्तोत्र-सूची

१. भक्तिविलासाख्यं प्रथमं स्तोत्रम् -
२. सर्वात्मपरिभावनाख्यं द्वितीयं स्तोत्रम्
३. प्रणयप्रसादाख्यं तृतीयं स्तोत्रम्
४. सुरसोद्वलाख्यं चतुर्थ स्तोत्रम्
५. स्वबलनिदेशनाख्यं पञ्चमं स्तोत्रम्
६. अध्वविस्फुरणाख्यं षष्ठं स्तोत्रम्
७. विधुरविजयनामधेयं सप्तमं स्तोत्रम्
८. अलौकिकोद्वलनाख्यमष्टमं स्तोत्रम्
६. स्वातन्त्र्यविजयाख्यं नवमं स्तोत्रम्
१०. अविच्छेदभङ्गाख्यं दशमं स्तोत्रम्
११. औत्सुक्यविश्वसितनामैकादशं स्तोत्रम्
१२. रहस्यनिर्देशनाम द्वादशं स्तोत्रम्
१३. संग्रहस्तोत्रनाम त्रयोदशं स्तोत्रम्
१४. जयस्तोत्रनाम चतुर्दशं स्तोत्रम्
१५. भक्तिस्तोत्रनाम पञ्चदशं स्तोत्रम्
१६. पाशानुद्भेदनाम षोडशं स्तोत्रम्
१७. दिव्यक्रीडाबहुमाननाम सप्तदशं स्तोत्रम्
१८. आविष्कारनाम अष्टादशं स्तोत्रम्
१६. उद्योतनाभिधानमेकोनविंशं स्तोत्रम्
२०. चर्वणाभिधानं विशं स्तोत्रम्
श्लोकानुक्रमणिका

श्रीमदुत्पलदेवाचार्यविरचिता

श्रीशिवस्तोत्रावली

श्रीमदभिनवगुप्ताचार्यपादपद्मोपजीवि-

श्रीक्षेमराजाचार्यविरचितविवृतिसमेता

राजानकलक्ष्मणविरचितभाषाटीकोपेता च ।
ॐ तत् सत्

श्री विघ्नहर्त्रे नमः।

श्री गुरवे शिवाय नमः।

(श्रीक्षेमराजाचार्यटीका)

ॐ उद्धरत्यन्धतमसाद्विश्वमानन्दवर्षिणी
परिपूर्णा जयत्येका देवी चिच्चन्द्रचन्द्रिका ॥
अभ्यर्थितोऽस्मि बहुभिर्बहुशो भक्तिशालिभिः ।
व्याकरोमि मनाक् श्रीमत्प्रत्यभिज्ञाकृतः स्तुतीः॥

 ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारो वन्द्याभिधानः श्रीमदुत्पलदेवाचार्योऽस्मत्परमेष्ठी सततसाक्षात्कृतस्वात्ममहेश्वरः स्वं रूपं तथात्वेन पराम्रष्टुमर्थिजनानुजिघृक्षया संग्रहस्तोत्रजयस्तोत्रभक्तिस्तोत्राण्याह्निकस्तुतिसूक्तानि च कानिचिन्मुक्तकान्येव बबन्ध । अथ कदाचित्तानि एव तद्वयामिश्राणि


१. ग० पु०-आनन्दकारिणी-इति पाठः ।
२. का. पु०-'अत्यर्थितोऽस्मि' इति पाठः ।
३. एकस्मिन्नेव श्लोके यत्र समन्वयो लगति तन्मुक्तकम् ।

लब्ध्वा श्रीराम आदित्यराजश्च पृथक् पृथक् स्तोत्रशय्यायां न्यवेशयत् । श्रीविश्वावर्त्तस्तु विंशत्या स्तोत्रैः स्वात्मोत्प्रेक्षितनामभिर्व्यवस्थापितवानिति किल श्रूयते । तदेतानि संग्रहादिस्तोत्राणि सूक्तान्येव प्रसिद्धवार्तिकशय्योपारूढानि स्पष्टं व्याकुर्मः ।

 मोक्षलक्ष्मीसमाश्लेषरसास्वादमयस्य परमेश्वरसमावेशस्यैव परमोपादेयतां दर्शयितुं परमेशस्वरूपाविभिन्नतत्समाविष्टभक्तजनस्तुतिक्रमेण स्तोत्रमाह-

न ध्यायतो न जपतः स्याद्यस्याविधिपूर्वकम् ।
एवमेव शिवाभासस्तं नुमो भक्तिशालिनम् ॥१॥


(भाषाटोका समन्वय-सहित )
यस्य = जिसको
आभासः- प्रकाश
न ध्यायतः= बिना ध्यान के
स्यात्=प्राप्त हो,
(च= तथा )
तं = उस
न जपतः=बिना जप के
भक्ति-शालिनं = भक्ति-शोभित
अविधि-पूर्वकम् = विधिरहित रूप से (व्यक्ति ) की
एवमेव = ऐसे ही (अर्थात् ईश्वर के अनुग्रह से ही)
(वयं = हम)
नुमः = स्तुति करते हैं ॥ १ ॥
शिवः = शिवात्मा प्रभु का

 यस्य एवमेव-मायीयोपायं विना, शिवाभासः-शिवरूपस्वात्मप्रथा स्यात् , तं, भक्त्यैव-समावेशमय्या शालिनं-श्लाघमानं न तु तदतिरिक्तफलाकांक्षाकलङ्कितं भक्तजनं, नुमः-भक्तिचमत्कारवशप्रथितशिवभट्टारकाभेदभक्तिमन्नतिमुखेन तदभिन्नशिवावेशमया भवाम इति यावत् । 'एवमेव'-इत्यनेन सूचितमलौकिकक्रमं दर्शयति-'न ध्यायत'-इत्यादिना । सर्वस्य हि ध्यानजपप्रमुखं ध्येयजप्यस्वरूपं नियताकारमेव प्रथते, भक्तिशालिनस्तु अनुपायमेव निराकारं सर्वाकारं चिदानन्दघनं शिवात्मस्वरूपं सर्वदा स्फुरति । अत एवाह-'अविधिपूर्वकम्' इति ।


१. ग० पु०-श्रीरामराजः-इति पाठः । विधीयत इति विधिरिज्यध्यानादिः पूर्वं कारणं यत्र, तथा कृत्वा सर्वविधीनां संकुचितत्वादसंकुचितस्वरूपं प्रत्युपायत्वाभावात् तत्त्वसमावेशधनैरेव प्रतिभाप्रसादनप्रमुखमवाप्यते । यथोक्तं श्रीपूर्वशास्त्रे-

"न चात्र विहितं किञ्चित्.. .." मा० वि०, अ० १८, श्लो० ७७ ।
इत्यादि
"अकिंचिच्चिन्तकस्य ....।" मा० वि०, अ० २, श्लो० २३ ।
इत्यादि । गीतास्वपि-
"मय्यावेशमनो ये मां..........…" अ० १२, श्लो० २ ।

 इत्यादिकम् । ध्यानजपाभ्यां प्रकाशविमर्शस्वरूपाभ्यां पूजनहवनादि सर्वं संगृहीतमिति प्राधान्यात्तावेवेहोक्तौ ॥१॥

आत्मा मम भवद्भक्तिसुधापानयुवाऽपि सन् ।
लोकयात्रारजोरागात्पलितैरिव धूसरः ॥२॥

(प्रभो = हे प्रभु !)
सन् = रहती है,
( यद्यपि = यद्यपि)
(तथापि = तो भी यह )
मम=मेरी
लोकयात्रा = लोक-व्यवहार रूपी
रजः = धूलि के
भवद्- - आप की
रागात्= उपराग के कारण
भक्ति- भक्ति रूपी
पलितैः = श्वेत केशों से
सुधा- = अमृत के
धूसरः इव = धूसरित जैसी ( अर्थात् वृद्धावस्था को प्राप्त हुई सी)
पान - पीने से
युवा अपि = (सदैव) युवावस्था में ही
(भासते = दीख पड़ती है ) ॥ २ ॥


१. ग० पु०-इज्याध्ययनादिः-इति पाठः । ख० पु०-इज्यध्यानादिपूर्वः-
इति पाठः।
२. ग० पु०-पूर्वः-इति पाठः ।
३. ख० पु०-तत्तत्समावेशधनैः-इति पाठः । ग० पु०---तत्तु समावेशधनैः इति पाठः।
४. ख० पु०-आप्यते-इति पाठः ।
५. श्रीपूर्वशास्त्रे—'नास्मिन्विधीयते किंचित्'-इति पाठः ।

हे महेश्वर ! मम आत्मा-जीवो भवद्भक्तिसुधापानेन युवा-समुत्तेजितसहजौजःप्रकर्षोऽपि सन् , लोकयात्रयैव रजसा-लोकव्यवहारधूल्या कृतो यो रागः-उपरागस्ततो हेतोर्यानि पलितानि-जराप्रकारास्तैः धूसरः-विच्छाय इव, न तु वस्तुवृत्तेन, भक्तिसुधापानेन नित्यतरुणीकृतत्वात् । यथा च तरुणस्य धूलिधूसरतया सञ्जातपलितमिव

दृश्यमानं नान्तर्म्लानिं मनागप्यादधाति, अपि तु विनोदहासरसचमत्कारमेव पुष्णाति तथा लोकव्यवहारो ममेति रूपकोपमया ध्वनति । पूर्वश्लोके आमन्त्रणपदाभावाद्भवद्भक्तीति न सङ्गतमेव, इति कथमियं स्तोत्रशय्या ? इति श्रीविश्वावर्त एव प्रष्टव्यः, वयं तु सूक्तव्याख्यानोद्यताः ॥ २ ॥

लब्धत्वत्संपदां भक्तिमतां त्वत्पुरवासिनाम् ।
सञ्चारो लोकमार्गेऽपि स्यात्तयैव विजृम्भया ॥ ३ ॥

लब्धः = प्राप्त हुई है
लोक-मार्गे = लोक-मार्ग (व्युत्थान) में
त्वत्- =आप की
अपि भी
संपदां = ( स्वरूप-प्रथनात्मक ) संपदा जिन को, ऐसे
( यः = जो)
त्वत्== आप की
सञ्चारः = व्यवहार ( होता है वह )
पुर- = (चिद्रूप ) पुरी में
तयैव = उसी (चिदानन्द -स्वरूप के)
वासिनां = रहने वाले
विजृम्भया = विकास से
भक्तिमतां = भक्त-जनों का
स्यात् = होता है ॥ ३ ॥

 ये समावेशमयप्रशस्तभक्तियुक्ताः, अत एव लब्धत्वत्संपदः त्वत्पुरेविश्वपूरके त्वत्स्वरूपे वसन्ति, तच्छीलाः, तेषां लोकमार्गे अपि यः सञ्चारः-व्यवहारः, स तयैव-समावेशरसानन्दमय्या, विजृम्भया-विकस्वरतया, स्यात्-भवत्येव । अथ च ये लब्धलौकिकश्रियः त्वद्भक्ताः त्वन्मण्डलवासिनः, ते सर्वे स्पृहणीयत्वात् सदा विभूतिमुदिताः, इति समासोक्त्या गमयति ॥३॥


१. ग० पु०-सञ्जातमिव पलितम्-इति पाठः । २. ग० पु०-वसन्ति इति तच्छीलाः-इति पाठः । ३. क्वचित् तद्भक्ताः-इति पाठः। औचियात् 'त्वद्भक्त' इत्येव पाठोऽत्र गृहीतः!

४. क्वचित् तन्मण्डलवासिनः-इति पाठः । त्वन्मण्डल'-इत्येव पाठो ज्यायान् ।

साक्षाद्भवन्मये नाथ सर्वस्मिन् भुवनान्तरे ।
किं न भक्तिमतां क्षेत्रं मन्त्रः क्वैषां न सिद्धयति ॥ ४ ॥


नाथ = हे स्वामी !
कि = कौन सा (स्थान)
(परमार्थ-दृष्टया = पारमार्थिक दृष्टि से)
क्षेत्रं = ( परसिद्धिप्रद ) पुण्यतीर्थ
न = नहीं है
साक्षात् = प्रत्यक्ष
(च= और)
भवन्मये =आप के स्वरूप-मय
एषां = इन ( भक्तों ) का
(अस्मिन् = इस )
मन्त्रः = ( उपासनीय ) मंत्र
सर्वस्मिन् = समस्त
क्व = कहाँ
भुवनान्तरे = संसार-मण्डल में
न सिद्धयति = सिद्ध नहीं होता? ॥४॥
भक्तिमतां = भक्त जनों के लिए

 भक्तिमतां-व्याख्यातरूपभक्तिशालिनां सर्वत्र भुवनविषये किं न क्षेत्रं-परसिद्धि समुदयस्थानम् , क्व च एषां मननत्राणधर्मो मन्त्रो न सिद्धथति । यतः साक्षादिति समावेशदृष्ट्या न कथामात्रेण भवन्मयमेव सर्वं भुवनमेषाम् ॥ ४॥

जयन्ति भक्तिपीयूषरसासववरोन्मदाः ।
अद्वितीया अपि सदा त्ववितीया अपि प्रभो ॥५॥


प्रभो = हे प्रभु !
अद्वितीयाः अनुपम अर्थात् असाधारण स्वरूप वाले होते हुए
(भवद् = आप के)
भक्ति-पीयूष-रस- = भक्ति-अमृतरस रूपी
अपि = भी
त्वद्-द्वितीयाः अपि = आप के समान स्वरूप वाले होते हैं,
आसव-वर- = उत्तम आसव को पी कर (जो)
जयन्ति = उन भक्त-जनों की जय
उन्मदाः = मतवाले हो जाते हैं
हो ॥ ५ ॥
सदा = ( और जो) सदैव

 भक्तिपीयूषरस एव आसववरः-उत्कृष्टं पानं, तेन उद्गतहर्षाः ये ते जयन्ति-सर्वोत्कर्षेण वतन्ते । कीदृशाः ? अद्वितीयाः-असाधारण- स्वरूपा अपि त्वद्वितीयाः त्वमेव द्वितीयस्तुल्यरूपो येषाम् । अथ च त्वद्द्वितीया अपि-भक्तिसमावेशेनात्यन्तमभेदासाधनत्वात् त्वमेव द्वितीयः-प्रभुत्वेन परिशीलितो येषां, तथाभूता अपि अद्वितीयाः-विश्वाभेदिनः । अद्वितीयाश्च कथं त्वद् द्वितीयाः, त्वद्वितीयाश्च कथमद्वितीयाः ? -इति विरोधच्छाया ॥५॥

अनन्तानन्दसिन्धोस्ते नाथ तत्त्वं विदन्ति ते ।
तादृशा एव ये सान्द्रभक्त्यानन्दरसाप्लुताः ॥ ६॥

नाथ = हे स्वामी!
ये = जो
ते =आप के
तादृशा एव = वैसे ही ( अर्थात् उसी प्रकार के अनन्त रूप वाले आप के तुल्य ही)
अनन्त- =असीम
आनन्द- = आनन्द रूपी
सिन्धोः = समुद्र के
सान्द्र-भक्ति = अगाध भक्ति रूपी
तत्त्वं = सार-भूत स्वरूप को
आनन्द-रस. = आनन्द-रस से
ते-वे ( भक्त-जन)
आप्लुताः= पूर्ण रूप में आप्लावित
एव = ही
(स्युः= हों)॥ ६ ॥
विदन्ति = ( यथार्थ रूप में) जानते हैं,

 भक्त्यानन्दरसः-समावेशानन्दप्रसरस्तेन आप्लुताः-आर्द्राशयाः। अत एव तादृशा इति-अपरिमितानन्दरससमुद्रत्वात् त्वद्रूपसरूपाः तव तत्त्वं जानन्ति । यो हि यत्र विद्वान् स हि तद्वेत्त्येव ॥६॥

त्वमेवात्मेश सर्वस्य सर्वश्चात्मनि रागवान् ।
इति स्वभावसिद्धां त्वद्भक्तिं जानञ्जयेज्जनः ॥७॥

ईश = हे स्वतंत्र प्रभु!
आत्मा = आत्मा हैं
त्वमेव -आप ही
च = और
सर्वस्य = प्रत्येक ( पुरुष ) की
सर्वः := प्रत्येक (पुरुष)


१. ख० पु०-रसप्लुताः-इति पाठः।
२. ख० पु०-समावेशाह्लादप्रसरः-इति पाठः । ग० पु०-समावेशानन्दरसप्रसरः-इति पाठः।
३. ख० पु०-प्लुताः-इति पाठः ।

आत्मनि = अपनी आत्मा से
त्वद् = आप की
रागवान् = अनुराग रखता है,
भक्ति = भक्ति को
इति = इस प्रकार
जानन् = ( समावेश-दृष्टि से जो) जानता है,
स्वभाव = स्वभाव से ( अर्थात् अनायास ही)
जनः = ( उस ) पुरुष की
सिद्धां = होने वाली
जयेत् = जय हो ॥ ७ ॥

 सर्वस्तावदात्मने स्पृहयालुः । वस्तुतस्तु त्वमेव चिद्रूपोऽस्यात्मा इति । अतस्त्वय्यात्मनि स्वतःसिद्धा भक्तिः, केवलं समावेशयुक्त्या यदि तां जानाति तज्जयेत्-सर्वोत्कर्षेण वर्तत एव । नियोगे लिङ्॥७॥

नाथ वेद्यक्षये केन न दृश्योऽस्येककः स्थितः।
वेद्यवेदकसंक्षोभेऽप्यसि भक्तः सुदर्शनः ॥ ८ ॥

नाथ = हे स्वामी !
(किन्तु = किन्तु आश्चर्य तो यह है कि )
(अन्तर्मुखतायां = अन्तर्मुख रूपी समाधि में)
वेद्य- = ज्ञेय और
वेद्यः = ( वासना-सहित ) जानने योग्य पदार्थों के
वेदक- = ज्ञातृभाव की
संक्षोभे= संक्षुभित अवस्था ( व्युत्थान ) में
क्षये = नष्ट होने पर
एककः = अकेले
अपि = भी
स्थितः = ठहरे हुए (आप)
(त्वं - आप)
केन किस (पुरुष) से
भक्तः = भक्त-जनों को
न = नहीं
सुदर्शनः = सहज में ही दिखाई
दृश्यः असि = देखे जा सकते ?
असि = देते हैं ॥ ८ ॥

 अन्तर्मुखावस्थायां सर्ववेद्योपशमे कस्य नाम स्वात्मरूपस्त्वं केवलो


१. ख० पु०-वस्तुतत्वमेव-इति पाठः ।
२. सर्वस्य-इत्यर्थः ।
३. ख० पु०-समावेशशक्त्या-इति पाठः ।
४. का० पु०–'यदि'-इति नास्ति ।
५. ख• पु०-अन्तर्मुखत्वावस्थायाम्-इति पाठः ।

न स्फुरसि । भक्तैः पुनः संसारसंपातेऽपि वेद्यवेदकसंक्षोभे असि-त्वं सुदर्शनः-सुखेन दृश्यसे | समावेशकाष्ठाधिवासितैर्हि सततमेतैः-
 "भोक्तैव भोग्यरूपेण सदा सर्वत्र संस्थितः ॥” स्पं० नि० ३, श्लो० २ । इति स्पन्दशास्त्रोक्तनीत्या शिवमयमेव विश्वमीक्ष्यते । वेद्यविलापनप्रयासव्युदासाय सुशब्दः । तदुक्तं श्रीपूर्वशास्त्रे-
"मोक्षोपायमनायासलभ्यम्" (8)
इति ॥८॥

अनन्तानन्दसरसी देवी प्रियतमा यथा ।
अवियुक्तास्ति ते तद्वदेका त्वद्भक्तिरस्तु मे ॥ ९॥

(प्रभो = हे ईश्वर !)
अस्ति = बनी रहती है,
यथा = जिस प्रकार
तद्वत् = उसी प्रकार
अनन्त = असीमित
आनन्दः = आनन्द से
एका = केवल (चिदानन्द-स्वरूप)
सरसी = सरस बनी हुई
त्वद् = आपकी
प्रियतमा = आप की अत्यन्त प्रिय
भक्तिः = भक्ति
देवी = पराशक्ति देवी
( सदैव = सर्वदा)
ते = आप के साथ
मे = मेरे साथ ( अभिन्न ही)
अवियुक्ता = अभिन्न
अस्तु = बनी रहे ॥ ९ ॥

 उपमाश्लेषोक्त्या परमेश्वरसाम्यमाशास्ते । भक्तिपक्षे देवी-द्योतमाना एकत्र फलाकांक्षाविरहिता, अपरत्र क्रीडादिशीला परैव शक्तिः । अहं भक्त्या अवियुक्तः स्याम्-इति वक्तव्ये, सम अवियुक्तास्तु-इति भक्तिं प्रति प्रेमप्रसरः प्रकाशितः ॥६॥

सर्व एव भवल्लाभहेतुर्भक्तिमतां विभो ।
संविन्मार्गोऽयमाह्लाददुःखमोहै स्त्रिधा स्थितः ॥१०॥


१. ख० पु०-संसारपातेऽपि-इति पाठः ।
२. ख० पु०-भोग्यभावेन-इति पाठः ।
३. का० पु०-'स्पन्दशास्त्रोक्त'-इति पदं नास्ति ।
४. ख० पु०-अनायासम्-इति पाठः ।
५. का. पु०-'एका'-इति पाठः ।

विभो = हे व्यापक प्रभु !
सर्वः = सम्पूर्ण ( अर्थात् त्रिगुणात्मक)
आह्लाद- = ( सत्त्वप्रधान) सुख,
संवित्-मार्गः = ज्ञान का मार्ग
दुःख- = ( रजःप्रधान ) दुःख
एव = ही
मोहैः = और ( तमःप्रधान ) मोह के कारण
भक्तिमतां = भक्तों के लिए
भवत्- = ( चित्स्वरूप ) आप की
त्रिधा= तीन प्रकार का
लाभ- =प्राप्ति का
स्थितः = होने वाला
हेतुः = (सहज) साधन होता है ॥१०॥
अयं = यह

 व्याख्यातप्रकृष्टभक्तिशालिनाम् अयमााह्लाददुःखमोहैरुपलक्षितो लोके यः संविन्मार्गः-नीलपीतादिबोधरूपः पन्थाः स्थितः, स सर्व एव त्वत्प्राप्तिहेतुः-वेद्यसोपाननिमज्जनक्रमेण परमवेदकभूमिलाभात् ॥ १० ॥

भवद्भक्त्यमृतास्वादाद्बोधस्य स्यात्परापि या।
दशा सा मां प्रति स्वामिन्नासवस्येव शुक्तता ॥ ११ ॥

स्वामिन् = हे स्वामी !
स्यात् = हो,
भवत् - आप की
सा = वह (शुष्क ज्ञान की पराकाष्ठा)
भक्ति - भक्ति रूपी
मां प्रति = मेरे लिए
अमृत- = अमृत का
आसवस्य = मदिरा की
आस्वादात् = रसास्वादन किये बिना
शुक्तता = खटाई
बोधस्य =ज्ञान की
इव = जैसी अर्थात् मदिरा के समान खट्टी ( अर्थात् नीरस और अरोचक)
या = जो
परा अपि = उच्च कोटि की भी
दशा = दशा
(स्यात् = है ) ॥ ११ ॥

 हे स्वामिन् स्वच्छक्तिपातसमावेशमयभक्त्यानन्दास्वादमनासाद्य बोधस्य परा-देहपातप्राप्या प्रकृष्टा अपि या शान्तशिवपदात्मा दशा स्यात्-कैश्चित् सम्भाव्यते सा तैः सम्भाव्यमाना मां प्रति आसवस्य यथा शुक्तता-पर्युषितता तथा भातीति यावत् । यतस्तैर्भक्त्यमृतमनास्वाद्यैव शुक्तीकृतम् । यैः पुनरास्वाद्यते तैः स्वचमत्कारानन्दविश्रान्तीकृतत्वात् का शुक्ततासम्भावना | आस्वादादिति ल्यब्लोपे पञ्चमी । अथवा त्वद्भक्त्यमृतास्वादादपि परा-मोक्षरूपा या काचिद्दशा अस्तीति-सम्भा व्यते सा मह्यं न रोचते-भक्त्यमृतास्वादस्यैव निरतिशयचमत्कारवत्त्वात् , इत्येवं परमेतत् ॥ ११ ॥

भवद्भक्तिमहाविद्या येषामभ्यासमागता।
विद्याविद्योभयस्यापि त एते तत्त्ववेदिनः ॥ १२ ॥

भवद् = आप की
विद्या- = विद्या तथा
भक्ति. = भक्ति रूपिणी
अविद्या- = अविद्या
महाविद्या = अध्यात्म-विद्या
उभयस्य = दोनों का
येषाम् = जिन (पुरुषों ) के
अपि = ही
अभ्यासम् = अभ्यास में
तत्व-वेदिनः = सार-भूत तत्त्व जाननेवाले
आगता = आई हो,
ते पते = वे ही तो
(भवन्ति = होते हैं ) ॥ १२ ॥

 विद्याविद्योभयस्यापि-इति विद्याविद्यालक्षणस्योभयस्य | तत्र शिवमन्त्रमहेश्वरमन्त्रेश्वरमन्त्रात्मनो विद्यारूपस्य, विज्ञानाकलप्रलयाकलसकलतद्वेद्यात्मनश्च अविद्यारूपस्य उभयस्यापि ते तत्त्वं विदन्ति, येषां त्वद्भक्तिरेव महाविद्या प्रकर्षं प्राप्ता | महत्पदेन शब्दविद्यातोऽपि भक्तेरुत्कर्षात्तत्तत्त्ववेदकत्वम् ॥ १२॥

आमूलाद्वाग्लता सेयं क्रमविस्फारशालिनी।
त्वद्भक्तिसुधया सिक्ता तद्रसाढ्यफलास्तु मे ॥ १३ ॥

आमूलात् = मूल ( अर्थात् परावाग् भूमि ) से
त्वद्- = आप की
भक्ति = भक्ति रूपी
क्रमः = ( पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी रूपी) क्रम के
सुधया = अमृत से
सिक्ता = सींची हुई तथा
विस्फार. = विकास से
तद्रस. = उस( भक्ति के आनन्द ) के रस रूपी
शालिनी = मुशोभित बनी हुई
सा इयं = वही यह
आढ्य- = बड़े
वाग्लता = वाणी रूपिणी लता
फला अस्तु = फलों वाली हो ॥१३॥
मे = मेरे लिए


१. ख० पु०-तत्तद्वेदकत्वम् इति पाठः ।  मुलं-परा भूमिः । क्रमविस्फारित्वं-पश्यन्त्यादिप्रसरः। तद्रसोभक्त्यानन्दरस एव आढ्यं-स्फीतं त्वदात्म्यैक्यापत्तिलक्षणं फलं यस्याः ॥ १३ ॥

शिवो भूत्वा यजेतेति भक्तो भूत्वेति कथ्यते । । त्वमेव हि वपुः सारं भक्तैरद्वयशोधितम् ॥ १४ ॥

शिवो भूत्वा = शिव बनकर कथ्यते = कहा जाता है। ( यह बात तो युक्ति-युक्त ही है ) (शिवं = शिव को) यजेत = पूजना चाहिए, हि = क्योंकि इति = इस प्रकार (जो वेदोक्त विधि रूपी प्रेरणा शास्त्रों में कही गई है) सारं = पारमार्थिक सारभूत वपुः = स्वरूप वाले त्वं = आप (तत्स्थाने = उसके स्थान पर) भक्तैः एव = भक्तों द्वारा ही भक्तो भूत्वा = 'भक्त बनकर ही अद्वय-शोधितम् = अभेद-दृष्टि से हूँढे (शिव को पूजना चाहिए ), गये हैं ( अर्थात् ढूँढकर पाये इति = ऐसा ( भक्तजनों से) जाते हैं ) ॥ १४ ॥ %

- . - - “शिवो भूत्वा शिवं यजेत् ।” इति यदाम्नायेषूच्यते, तत्र देहपात एव शिवता-इति ये मन्यन्ते, तेषां सति देहे शिवीभावाभावाद्यजमानतानुपपत्तेः स्वस्वरूपशिवसमा- वेशभक्तिशाली एव यजनं जानातीति तात्पर्यम् । अनेनैवाशयेनाह-त्वमेव यतः सारम्-उत्कृष्टं वपुः-स्वरूपम् अद्वयेन-भेदशङ्काशङ्कुशतशातिना शोधित-निर्मलीकृतं भक्तैरिति ॥ १४ ॥ - भक्तानां भवदद्वैतसिद्धथै का नोपपत्तयः। तदसिद्धय निकृष्टानां कानि नावरणानि वा ॥ १५॥ १. ख० पु०-भक्त्यानन्दरसः, स एव-इति पाठः । १२ श्रीशिवस्तोत्रावली % - % % % 3D % (प्रभो = हे प्रभु !) तद्- =(आप की) उस( अद्वैत दशा )के भवद् -आपकी असिद्धयै = असिद्ध अर्थात् अप्रका- अद्वैत-सिद्धय-अद्वैत-सिद्धि के निमित्त शित होने के निमित्त भक्तानां = भक्त-जनों के लिए निकृष्टानां = नीच ( अर्थात् श्राप से काः = कौन सी ( चीजें ) विमुख संसारी लोगों) के लिए न उपपत्तयः = युक्तियाँ अर्थात् साधन कानि न आवरणानि-कौन सी (चीजें) नहीं ( होती ), आवरण अर्थात् असफल बनाने वा तथा ( इसके प्रतिकूल ) वाली नहीं होती ? ॥ १५ ॥ व्याख्यातानां भक्तानां भवदद्वयसाधनाय का न युक्तयः, यतो मूढेरु- दीर्यमाणान्यपि शिवाद्वयदूषणानि दूषयितृस्वभावचिद्रूपशिवस्वरूपसिद्धि विना न कानिचित्स्युरिति युक्त्या भक्तानां साधनान्येव पर्यवस्यन्ति | निकृष्टानां तु-भेदमयानां तदसिद्धयै-शिवायसाधनाभावाय कानि नावरणानि-तीक्ष्णतमयुक्त्यवाण्यपि समावेशरसविग्रुषोऽपि, अनभिज्ञ- त्वादसञ्चेत्यमानानि महान्धकारपातयितृण्येव ॥ १५ ॥ कदाचित्कापि लभ्योऽसि योगेनेतीश वञ्चना । अन्यथा सर्वकक्ष्यासु भासि भक्तिमतां कथम् ॥ १६ ॥ ईश = हे स्वामी ! इति = यह बात ( अर्थात् इस रीति से कदाचित् = कभी ( अर्थात् किसी आप के स्वरूप का प्राप्त होना) नियत समाधि की दशा में) वञ्चना = धोखा (ही है ), क्वापि और कहीं (अर्थात् हृदय आदि अन्यथा % नहीं तो किसी निश्चित स्थान पर) सर्वसभी (समाधि तथा व्युत्थान रूपी) कक्ष्यासु = दशाओं में योगेन = योगाभ्यास द्वारा भक्तिमतां = भक्त-जनों को (त्वं = प्राप) कथं भासि = आप कैसे दिखाई देते लभ्यः असि %D प्राप्त किये जा सकते हैं, हैं ? ॥ १६ ॥ कदाचित् कस्यांचित् समाधिदशायां, कापि-हृदयचक्रादौ, - योगेन-चित्तवृत्तिनिरोधेन, ईश-स्वामिन् , असि-त्वं लभ्यः, इत्येषा - - - 1- १. ख० पु०-दूषयत्स्वभाव-इति पाठः । २. ख० पु०-मोहान्धकार-इति पाठः । ०भक्तिविलासाख्यं प्रथमं स्तोत्रम् १३ % % यद् = कि % - , वञ्चना, अन्यथा समाधिव्युत्थानाद्यभिमतासु कक्ष्यासु कथं भक्तिमतां प्रकाशसे ॥ १६ ॥ प्रत्याहाराद्यसंस्पृष्टो विशेषोऽस्ति महानयम् । योगिभ्यो भक्तिभाजां ययुत्थानेऽपि समाहिताः ॥१७॥ योगिभ्यः = योगियों की अपेक्षा विशेषः = विशेषता भक्तिभाजां = भक्तिमान ( लोगों ) की अस्ति = होती है प्रत्याहारादि- = प्रत्याहार आदि (सभी योग-साधनाओं ) से व्युत्थाने = व्युत्थान ( की दशा ) में असंस्पृष्टः = न छुई हुई अपि = भी अयम् = यह (ते = वे) महान् = बड़ी (अर्थात् सर्वतोमुखी समाहिताः = समाधिस्थ ही महत्त्व प्रकट करने वाली) । (भवन्ति = होते हैं)॥ १७ ॥ विषयेभ्य इन्द्रियाणां प्रत्यावृत्य नियमनं प्रत्याहारः। आदिशब्दा- द्धथानधारणादयः, तैरसंस्पृष्टः-अकर्थितः, तनिष्ठेभ्यो - योगिभ्यो महान्-असामान्यः, विशेषः-अतिशयो भक्तिभाजामस्ति यदेते योग्य- पेक्षया व्युत्थानाभिमतेऽपि समये समाहिताः- "मय्यावेश्य मनो ये माम्.. ....." अ० १२, श्लो० २ । इति श्रीगीतोक्तनीत्या नित्ययुक्ताः ।। १७ ।। न योगो न तपो नार्चाक्रमः कोऽपि प्रणीयते । अमाये शिवमार्गेऽस्मिन्. भक्तिरेका प्रशस्यते ॥१८॥ अमाये = माया से रहित अर्चाक्रमः = पूजा का क्रम अस्मिन् = = इस प्रणीयते निश्चित किया जाता है, शिव-मार्गे = शिव-मार्ग में ( अपि तु = किन्तु इस मार्ग में ) = न योगाभ्यास, एका%3 केवल भक्तिः = (भगवान् शंकर की ) भक्ति (च = और) ही न% न ही प्रशस्यते = प्रशंसनीय अर्थात् सर्वश्रेष्ठ कोऽपि = कोई भी ( उपाय ) कही जाती है ॥१८॥ - o = - न योगः न तपः न तपस्या = %- % श्रीशिवस्तोत्रावली - शिवमार्गे—परे शाक्ते पढ़े । अस्मिन्निति - निरतिशये स्वानुभवैक- साक्षिके मायीयनियतयोगाद्युपायपरिपाटी न काचिदुपदिश्यते । तस्याः मायामयत्वेन अन्धत मसप्रख्यायास्तत्र शुद्धविद्याप्रकाशातिशायिनि उपाय- त्वाभावात् भक्तिरेव – प्रतिभाप्रसाद्नात्मा उक्तचरी प्रशस्यते - उपाय- त्वेनोच्यते || १८ || - - १४ सर्वतो विलसद्भक्तितजोध्वस्तावृतेर्मम | प्रत्यक्षसर्वभावस्य चिन्तानामापि नश्यतु ॥ १९ ॥ सर्वतः ः = प्रत्येक ओर से विलसत् - = चमकते हुए भक्ति- = भक्ति रूपी तेज:- - = प्रकाश से प्रत्यक्ष-सर्वभावस्य = समस्त पदार्थों के सत्य स्वरूप को ( भैरवी मुद्रा द्वारा ) देखने वाले मम = मुझ ( भक्त ) की - चिन्ता = ध्वस्त = नष्ट हुए आवृतेः = (अज्ञान रूपी) आवरण वाले नाम अपि = नाम भी (और) विकल्प-वृत्तियों का ४. ख० ५० ५. ख० पु० नश्यतु = नष्ट हो जाय ॥ १९ ॥ - अन्तर्बहिश्च विलसता जृम्भमाणेन. भक्तितेजसा - समावेशप्रकाशेन ध्वस्ता आवृतिः — अख्यातिर्यस्य । तत एवं मायीयभूमिविस्मृतेः प्रत्यक्षाः— भैरवमुद्राप्रवेशयुक्त्या आलोचनमात्रगोचरीभूताः सर्वे भावाः यस्य तस्य मम चिन्तायाः - विकल्पत्रातस्य नामापि - अभिधानमपि नश्यतु - नित्यमेव साक्षात्कृत पर भैरवस्वरूपानुप्रविष्टो भूयासमित्यर्थः ||१६|| शिव इत्येकशब्दस्य जिह्वाग्रे तिष्ठतः सदा । समस्तविषयास्वादो भक्तेष्वेवास्ति कोऽप्यहो ॥ २० ॥ १. ख० पु० – अन्धतमसप्रख्यायास्त्वत्र - इति पाठः । ‘अन्तर्लक्ष्यो बहिर्दृष्टिनिमेषोन्मेषवर्जितः । इयं सा भैरवीमुद्रा सर्वतन्त्रेषु गोपिता ॥ इति भैरवीमुद्रायाः लक्षणम् । ३. ख० पु० – प्रत्यक्ष भैरवमुद्राप्रवेशयुक्त्या - इति पाठः । — विकल्पवृत्तस्य - इति पाठः । वसतः - इति पाठः । अहो = आश्चर्य है कि सदा = प्रतिक्षण शिव इति = 'शिव' इस कोऽपि समस्त-विषय-आस्वादः सभी ( अर्थात् रूप, रस आदि पाँचों ) विषयों का अलौकिक रसास्वादन ( अथवा जगदा- नन्द रूपी चमत्कार ) भक्तेषु एव = भक्तों को ही अस्ति : 1 = प्राप्त होता है ॥ २० ॥ शब्दस्य = शब्द के - जिह्वाग्रे = जिह्वा की नोक पर तिष्ठतः = ठहरने पर - उक्तेष्वेव भक्तेषु यो महाप्रकाशमयनिजस्वरूपपरामर्शात्मा शिव इति एकः–असामान्यः सदा शंब्दोऽस्ति । अहो आश्चर्यं तस्य शब्दमात्रस्यापि एकस्य विषयस्य परमानन्दव्याप्तिदायित्वात् समस्तविषयास्वादः - जग दानन्दचमत्कारः, कोऽपि - स्वानुभवसिद्धोऽस्ति । एकत्र च शब्दलक्षणे विषये जिल्हाप्रवर्तिनि समस्तविषयास्वाद इति विरोधच्छाया ॥ २० ।। शान्त कल्लोलशीताच्छस्वादुभक्तिसुधाम्बुधौ । अलौकिकरसास्वादे सुस्थैः को नाम गण्यते ॥ २१ ॥ एक = एक शान्त = शान्त हो गई हैं कल्लोल ( विकल्प रूपी ) लहरें जिस की, ऐसे शीत = शीतल,

निर्मल तथा

भक्तिविलासाख्यं प्रथमं स्तोत्रम् अच्छ- स्वादु = मधुर भक्ति-सुधा- = भक्ति-अमृत रूपी - = - में अम्बुधौ = समुद्र अलौकिक = अलौकिक रस = परमानन्द - रस के आस्वादे = चमत्कार के विषय में सुस्थैः = सुख-स्थित ( अर्थात् निश्चित ) ( भक्तैः = भक्त-जनों से ) को नाम = किस पुरुष को गण्यते = गिनती में लाया जाता है ? ( अर्थात् वे भक्त जन सबों को अपना ही स्वरूप समझते हैं एवं उनको अपने से भिन्न नहीं समझते हैं ) । - शान्ताः – निवृत्ताः विकल्पमया: कल्लोला यत्र, तथाभूते । संसार- तापापहतत्वाच्छीते । विश्वप्रतिबिम्बाश्रयत्वादच्छे - निर्मले । आनन्द- विकासित्वात् स्वादौ भक्त्यमृतसमुद्रे, अलौकिकरसास्वादे समावेश- १. का० पु० - शिवोऽस्ति - इति पाठः । २. ख० पु० – एककस्य - इति पाठः । ३. ख० पु० – स्वस्थैः इति पाठः । - ४. ख० पु० – संसारतापा पूर्णत्वात् इति पाठः । श्री शिवस्तोत्रावली चमत्कारे, सुखेन तिष्ठन्ति सुस्थाः, तैः भेदगलनात् को नाम गण्यते; तदा व्यतिरिक्तस्य कस्यचिद्ध्यप्रतिभासात् सुखस्थिताः न किंचिद्रण- यन्ति – इत्युचितैवोक्तिः ॥ २१ ॥ माहश: किं न चर्येत भवद्भक्तिमहौषधिः । तादृशी भगवन्यस्या मोक्षाख्योऽनन्तरो रसः ॥ २२ ॥ भगवन् = हे भगवान् ! मादृशैः = ( भक्ति के तत्त्व को जानने वाले ) मुझ जैसे (लोगों ) से तादृशी = वैसी ( अर्थात् अलौकिक ) भवद् = आप की = भक्ति = ( उस ) भक्ति रूपिणी महौषधिः = बड़ी औषधि का = मादृशैः - भक्तितत्त्वज्ञैः, तादृशी इति - अलौकिकी भवद्भक्तिरेव अभी- टप्रदत्वान्महौषधिः, किं न चर्चेत - किं न धार्येत- विचारेणास्वाद्येत इति यावत् । कीदृशी ? यस्याश्चर्वणपरामर्शानन्तरमेव जीवन्मुक्ताख्यः अनन्तरः - अव्यवहितो रसः - चर्बणानन्दः ॥ २२ ॥ ता एव परमर्थ्यन्ते सम्पदः सद्भिरीश याः । त्वद्भक्तिरससम्भोगवित्रम्भपरिपोषिकाः ॥ २३ ॥ ईश = हे स्वामी ! सद्भिः इ = भक्ति-शाली जन ता एव = उन्हीं - सम्पदः = संपदाओं को - परम् = केवल अर्थ्यन्ते = माँगते हैं, याः = जो ( संपदाएं ) - १. ख० पु० - स्वस्थाः - इति पाठः । २. ख० पु० किं न चर्येत मज़ा क्यों न चखा जाय, यस्याः = जिसके ( सेवन करने से ) अनन्तरः – (भक्ति-रस के अतिरिक्त) साथ ही दूसरा मोक्षाख्यः = मोक्ष नामक रसः = रस ( भी ) भवति = प्राप्त होता है ॥ २२ ॥ ३. ख० पु० - विचार्येत - इति पाठः । त्वद्- आपकी भक्ति- = भक्ति रूपी रस = परमानन्द - रस के – किं न इति पदं नास्ति । - - = चमत्कारात्मक संभोग- वित्रम्भ = सप्रत्यय हर्ष को परि- = सब प्रकार से पोषिका: = बढ़ाती हैं ॥ २३ ॥ भक्तिविलासाख्यं प्रथमं स्तोत्रम् सद्भिः–भक्तिशालिभिः, ता एवेति – असमत्वत्समावेशमय्यः, संपदः परं - केवलम् अर्ध्यन्ते न तु अणिमाद्याः । कीदृश्यः ? याः त्वद्भक्तिरससंभोगे – भवत्समावेशामृतचमत्कारे विस्रम्भ - स्वैरं स्वीकार पुष्णन्ति । अत्र च प्रियासंभोगपोषिका एव सर्वस्य संपदोऽर्थनीयाः- इत्यनुरणव्यङ्गयोपमाध्वनिः ॥ २३ ॥ भवद्भक्तिसुधासारस्तैः किमप्युपलक्षितः । ये न रागादिपङ्गेऽस्मिँलिप्यन्ते पतिता अपि ॥२४॥ ( प्रभो = हे प्रभु ! ) - भवद्- = आपके भक्ति-सुधा- = भक्ति-अमृत की = आसारः = धारावाही वर्षा तैः ( एव ) = उन्हीं ( भक्तों ) से किमपि = अलौकिक रूप में उप- = प्रत्यक्ष लक्षितः = देखी गई है (अर्थात् अनुभव की जाती हैं ), ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) - अणिमादिषु = ( स्थूल ) अणिमा आदि (सिद्धियों) से लेकर ये = जो अस्मिन् = इस - राग आदि = राग, द्वेष रूप पंके = कीचड़ में पतिताः अपि = गिर कर भी त्वद्भक्तिसुधाया आसारः- वेगवद्वर्ष, तैः - भक्तैः, किमपि - लोकोत्त w - रतया, उप - समीपे, लक्षित : - परिशीलितः । ये भक्ता व्युत्थाने- शरी- रव्यवहारनान्तरीयकत्वेनायाते रागद्वेषादिकर्दमे पतिता अपि न लिप्यन्ते-न तन्मयीभवन्ति । कर्दमे पतिता न लिप्यन्ते इत्याश्चर्यम् || न अणिमादिषु मोक्षान्तेष्वङ्गेष्वेव फलाभिधा । भवद्भक्तेर्विपक्वाया लताया इव केषुचित् ॥ २५ ॥

( अर्थात् इन रागादिकों का सेवन करने पर भी ) न लिप्यन्ते = ( इन में ) लिप्त नहीं होते ॥ २४ ॥ - १. ख० पु० समृद्धयः- इति पाठः । २. ख० पु० स्वैर स्वीकारम् इति पाठः । २ शि० मोक्षान्तेषु = ( परसिद्धिमय ) मोक्ष ( रूपी सिद्धि ) तक ( या = जो ) फल - अभिधा = ( इन सिद्धियों के ) फल की बात ('कही जाती है ), ( सा= वह ) विपक्काया:: = परिपक्व अवस्थ को प्राप्त हुई भवद्-भक्तेः = आप की भक्ति-रूपिणी लतायाः = लता के 4 श्रीशिवस्तोत्रावली. एव = ही - अणिमादिषु मोक्षान्तेषु - स्थूल परसिद्धिमयेषु वस्तुषु, या फला भिधा – फलत्वेनोक्तिः, सा परिपार्क प्राप्तायाः भवद्भक्तेरेव अङ्गभूतेषु सत्सु तेषु, भक्तिर्हि रुद्रशक्तिसमावेशात्मा समस्तसंपन्मय्येव, न तु तद्यतिरिक्तानि फलानि कानिचित्सन्ति । यथा विपकताविच्छिन्नानि न फलानि कानिचिद् - आम्रादीनि भवन्ति - तेषां तदङ्गत्वात् ॥ २५ ॥ केषुचित् = किन्हीं ( अलौकिक ) अंगेषु - इव ( वर्तते ) = [अंगों में मानो पाई जाती है (अर्थात् अणिमादि सिद्धियों की संप- त्तियां आपकी भक्ति रूपिणी लता के ही फल हैं, उन से तनिक भी भिन्न नहीं हैं ) ॥ २५ ॥ चित्रं निसर्गतो नाथ दुःखबीजमिदं मनः । त्वद्भक्तिरससंसिक्तं निःश्रेयसमहाफलम् ॥ २६ ॥ नाथ = हे स्वामी ! इदं = यह मनः = मन ( रूपी पेड़ ) निसर्गत: = स्वभाव से ही दुख:- बीजे = ( विकल्प रूपी उपद्रवों का हेतु होने से) ऐसा है जिस का बीज ( अर्थात् मूल ) दुःख है । ( इदं तु = किन्तु यह तो ) चित्रम् = आश्चर्य है कि त्वद् - = आप के ( स्वरूप संबन्धी ) भक्ति रस = (समावेशात्मक ) भक्ति- रस से - संसितं = सींचे जाने पर ( यही मन रूपी पेड़ ) निःश्रेयस = परमानन्द रूपी महाफलं = अति उत्कृष्ट ( तथा वाञ्छ- नीय ) फल वाला ( भवति = बन जाता है ) ॥ २६ ॥ हे नाथ -स्वामिन् ! इदं चित्रम्, दुःखकारणमिदं मनः सर्वस्य हेयं यदभिमतं, तदेव त्वद्भक्तिरसायनेन सिक्तं परमानन्दमयमोक्षमहाफलम् । १. ख० पु० परमानन्दमोक्षमहाफलम् इति पा भक्तिविलासाख्यं प्रथमं स्तोत्रम् न हि कदाचित् 'लोकं प्रति विषादेः मधुर आस्वादः । अतस्त्वद्भक्तेरेवायम् अलौकिकः क्रमः- - इति ध्वनित इति शिवम् ॥ २६ ॥ इति श्रीमदीश्वरप्रत्यभिज्ञाकाराचार्यचक्रवर्तिवन्द्याभिधानोत्पलदेवा- चार्यविरचिते भक्तिविलासाख्ये प्रथमस्तोत्रे महामाहेश्वर- श्रीक्षेमराजविरचिता विवृतिः ॥ १ ॥ १९ सर्वात्मप रेभावनाख्यं द्वेय स्तोत्रम् अग्नीषोमरविब्रह्मविष्णुस्थावरजङ्गम- स्वरूप बहुरूपाय नमः संविन्मयाय ते ॥ १ ॥ अग्नि- = अग्नि, सोम- रवि = सूर्य, = चन्द्रमा, ब्रह्म = ब्रह्मा, विष्णु- = नारायण, स्थावर- ( वृक्ष, पर्वत आदि ) | स्थावर ॐ तत् सत् अथ जङ्गम- और ( मनुष्य जङ्गम के = द) | स्वरूप ! = स्वरूपों को धारण करने वाले, हे ईश्वर ! संविद्रूपाय = ( विश्वोत्तीर्ण दशा में ) संविद्रुप बने हुए ( च = और ) बहुरूपाय = ( विश्वमय दशा में ) नाना-रूप-धारी को नमः = प्रणाम हो ॥ १॥ = अग्नीषोमरविभिर्दाहाण्यायप्रकाशकारीच्छाक्रियाज्ञानरूपस्य शक्तित्र- यस्य, ब्रह्मविष्णुभ्यामधिष्ठातृदेवतावर्गस्य, स्थावरजङ्गमाभ्यामधिष्ठितस्य प्रमेयप्रमातृराशेश्च स्वीकृतत्वाद्विश्वात्मनः आमन्त्रणमिदं स्वरूपेत्यन्तम् । तेन अग्नीषोमरविब्रह्मविष्णुस्थावरजङ्गमस्वरूप हे परमेश्वर ! पञ्चभूतानि जङ्गमानामपि भूतदेहत्वात् । एवं च अग्निसोमसूर्यस्थावरजङ्गमैरंष्टमूर्त्ति- तया, ब्रह्मविष्णूपलक्षिताशेषाधिष्ठातृतया विश्वमयत्वम् । अत एव बहुरू- पायेत्युक्तम् । एवं विश्वरूपत्वेऽपि प्रधानमस्य स्वरूपमाह 'संविन्मयाय - इति । एतदेव हि संविन्मयत्वं, यत्स्वातंत्र्योल्लासिताशेषविश्वनिर्भरत्वम् ।। विश्वेन्धनमहाक्षारानुलेपशुचिवर्चसे । महानलाय भवते विश्वैकहविषे नमः ॥ २ ॥ १. ख० पु० परमेश - इति पाठः । २. ग० पु० जंगम अष्ट-इति पाठ सर्वात्मपरिभावनाख्यं द्वितीयं स्तोत्रम् ( च = और ) ( स्वात्म-परामर्शेन = स्वरूप परा- मर्श से ) ( निग्ध- = जली हुई ) विश्व- = जगत रूपी इन्धन- लकड़ी के = = महा-क्षार = बड़े भस्म - पुञ्ज के अनुलेप - मलने से महानलाय = परमप्रमातृ-अग्निस्वरूप, शुचि - = ( अद्वैत - प्रकाश रूपी ) शुद्ध भवते नमः = आप को नमस्कार वर्चसे = तेज से युक्त हो ॥ २ ॥ विश्व - = समस्त संसार को एक = एक ही हविषे = आहुति के रूप में धारण करने वाले भवते महानलाय – परंप्रमातृहये नमः । कीदृशाय ? विश्वस्य - भेदराशेरिन्धनरूपस्य संबन्धि यन्महाक्षारं-भस्म, तत्संहारशेषः संस्कारः, तेन यदनुलेपनम् - संस्कारसंहारेणापि प्रमात्रुत्तेजनं, तेनं शुचि- शुद्ध- मद्वयँरूपं वर्चस्तेजो यस्य तस्मै | अथ “शुचिर्नामाग्निरुदितः संघर्षात्सोमसूर्ययोः ।” इत्यागमिकभाषया शुचिनाम्ने तेजसे । विश्वमेकं हविर्यस्येत्यनेन अत्यन्त - दीप्तत्वमुच्यते । श्रीमन्मताद्यागस्थित्या रहस्यचर्यार्थस्यात्र सूचनाद्विरोध- च्छायापि ॥ २ ॥ परमामृतसान्द्राय शीतलाय शिवाग्नये । कस्मैचिद्विश्वसंप्लोषविषमाय नमोऽस्तु ते ॥ ३ ॥ परमामृत = (चिदानन्द - रस रूपी) परमामृत से सान्द्राय = कोमल और मनोहर बने - हुए, २१. शीतलाय = ( संसार का संतापहर - होने से ) अति शीतल ( च = और ) - विश्व- = जगत ( भेद-प्रथा ) के १. ख० पु० परमप्रमातृवह्नये - इति पाठः । - २. ग० पु० 'तेन' इति पदं न दृश्यते । ३. ख० पु० अद्वयस्वरूपम् – इति पाठः । ४. ख० पु० श्रीमतङ्गाद्यागमस्थित्या - इति पाठः । शिव अग्नये = कल्याण-मय अग्नि- = संप्लोष = जलाने का हेतु होने से विषमाय = अति दारुण भयंकर, कस्मैचित् = एक ( अलौकिक ) स्वरूप, ते = को - नमः अस्तु = प्रणाम हो ॥ ३ ॥ चिदानन्दघनत्वात् परमामृतसान्द्रत्वम् | भवतापहारित्वाच्छीतल- त्वम् | अग्नेञ्च कथमार्द्रत्वशीतलत्वे इति विरोधाभासच्छाया | कस्मैचि- दिति – अलौकिकस्वरूपाय ॥ ३ ॥ श्रीशिवस्तोत्रावली ( प्रमो = हे प्रभु देव ! ) महादेवाय = परम देवता, महादेवाय रुद्राय शङ्कराय शिवाय ते । महेश्वरायापि नमः कस्मैचिन्मन्त्रमूर्तये ॥ ४ ॥ अर्थात् रुद्राय = रुद्र भगवान्, शङ्कराय = कल्याणकारी, शिवाय = मुख स्वरूप, महेश्वराय = ईश्वरों के भी ईश्वर - निकृत्त = काटी हुई निःशेष = समस्त त्रैलोक्य- = त्रिलोकी की विगलत् - = पिघली हुई वसा = चरबी की अपि = और कस्मैचित् (= एक (अलौकिक ) मन्त्रमूर्त्तये = (अहं-विमर्शात्मा) मंत्र - ते स्वरूप = आपको नमः = प्रणाम हो ॥ ४ ॥ देवः– मृष्ट्यादिक्रीडापरः, विश्वोत्कर्षशालितया विजिगीषु:, अशेष- व्यवहारप्रवर्तकः, द्योतमानः, सर्वस्य स्तोतव्यो गन्तव्यञ्च; दीव्यते क्रीडाद्यर्थत्वात् । स च महान् - ब्रह्मादीनामपि संर्गादिहेतुत्वात् । विश्वस्य चित्पड़े रोदनाद् द्रावणाच्च रुद्रः । पूर्णाहन्तापरामर्शमयत्वान्मन्त्रमूर्तिः ||४|| नमो निकृत्तनिःशेषत्रैलोक्यविगलद्वसा- वसेकविषमायापि मङ्गलाय शिवाग्नये ॥ ५॥ विषमाय: = भयंकर (और इसी लिए अमंगलात्मक ) होकर अपि = भी - मंगलाय = मंगल स्वरूप (आप) - शिवा ये = शिव रूपी अग्नि को - अवसेक- = आहुति (के ग्रहण करने से नमः = नमस्कार हो ॥ ५ ॥ - १. स्व० पु० सर्गस्थित्यादिहेतुत्वादिति पाठः । सर्वात्मपरिभावमाख्यं द्वितीयं स्तोत्रम् निकृत्तम्–अख्यातिलक्षणान्मूलात्प्रभृति खण्डशः कृतं भवाभवाति- भवाख्यं यत्त्रैलोक्यं, तत्संबन्धिनी बोधानलोद्दीपिनी आन्तररससाररूपा या वसा, तत्कृतो योऽवसेकः – आहुतिः, ततो विषमाय-अत्यन्तं जाज्व- ल्यमानाय, अत एव संसारामङ्गल्यपरिहृतिप्रदत्वात् मङ्गलाय शिववह्वये नमः - शरीरप्राणादिपरिमितप्रमातृपदं तत्रैव समावेशयामः, इत्यर्थः । सर्ववसावसेक विषमः श्मशानिकाग्निः कथं मङ्गल इति विरोधच्छाया ||५|| समस्तलक्षणायोग एव यस्योपलक्षणम् । तस्मै नमोऽस्तु देवाय कस्मैचिदपि शम्भवे ॥ ६॥ तस्मै = उस कस्मैचिदपि = एक (अलौकिक ) देवाय = प्रकाश स्वरूप तथा शम्भवे समस्त - = सभी (उच्चार, करण आदि) लक्षण- लक्षणों अर्थात् उपायों के साथ अयोगः = संबन्ध रहित होना एव = ही यस्य जिस का = कल्याण स्वरूप शिव को - . उप-लक्षणम् = अति निकट ( स्वरूप - नमोऽस्तु = प्रणाम हो ॥ ६ ॥ बोधक ) लक्षण है, - समस्तानां लक्षणानाम् – अभिज्ञानानां च तथाधिगमहेतूनामुच्चार- करणध्यानादीनां यः अयोगः - असम्बन्धः स एव यस्य उप इति - आत्मसमीपे लक्षणं- हृदयङ्गमीकरणं - समस्तचिन्ताविस्मरणस्यैव तत्प्रा- प्तिहेतुत्वात् । अत एव कस्मैचिदिति संवृतिवकतया स्वात्मविस्फुरद्र- पायेति ध्वनति ॥ ६॥ वेदागम विरुद्धाय वेदागमविधायिने । वेदागमसतत्त्वाय गुह्याय स्वामिने नमः ॥ ७ ॥ वेद-आगम = वेद आदि शास्त्रों के वेदागम = वेद आदि शास्त्रों के विरुद्धाय = विरोधी, - वेदागम - = वेद आदि शास्त्रों का विधायिने = विधान करने वाले, सतत्त्वाय = सारभूत स्वरूप ( च = और ) २३ १. ख० पु० अतिभवलक्षणम् इति पाठः । २. ख० पु० शिवामये — इति पाठः । २४ श्रीशिवस्तोत्रावली गुह्याय = सर्वथा अगोचर बने हुए ( भवते) स्वामिने = स्वामी को नमः = नमस्कार हो ॥ ७ ॥ निःशेषनियमयन्त्रणात्रोटनालभ्यत्वाद्वेविरुद्धः | यश्च यद्विरुद्धः स कथं तद्विधत्ते, तस्य च सतत्त्वरूपः, चिन्नाथस्तु स्वातंत्र्यात् जगदुत्तिष्ठा- पयिषुर्वेदं विधत्ते, वेदान्तदृष्ट्या तत्परमार्थरूपश्च । अत एव सर्वस्य अविषयत्वाद्गुह्यः ॥ ७॥ संसारकनिमित्ता संसारकविरोधिने । नमः संसाररूपाय निःसंसाराय शम्भवे ॥ ८ ॥ 'संसार रूपाय = संसार-स्वरूप (विश्व- मय होते हुए भी ) निःसंसाराय = संसार से अछूते रूप वाले ( विश्व-उत्तीर्ण ) ( भवते) शम्भवे = = कल्याण स्वरूप शिव को नमः = नमस्कार हो ॥ ८ ॥ संसार- = संसार के एक- क- निमित्ताय = ( निर्माण के ) एक - ही कारण ( होते हुए भी ), संसार - = संसार के एक = एक ही विरोधिने = विरोधी अर्थात् संहारक, मायादेः क्षित्यन्तस्य संसारस्य एक एव निमित्तं, तस्य विरोधी- संहर्ता स एव । तथा संसाररूपतया भाति, न पुनश्चिद्रूपशिवव्यतिरिक्तं संसारस्य निजं रूपं किंचित् । एवमपि संसारान्निष्क्रान्तं - निःसंसारं - तेन असंस्पृष्टरूपमिति विरोधाभासः ॥ ८ ॥ मूलाय मध्यायाग्राय मूलमध्याग्रमूर्तये । क्षीणाग्रमध्यमूलाय नमः पूर्णाय शम्भवे ॥ ९ ॥ अप्राय: = अर्थात् अन्तिम स्वरूप बने हुए, ( अक्रमेण = अक्रमरूपता से ) मूल = मूल, ( अस्य जगतः = इस जगत का ) मूलाय = मूल बने हुए, मध्याय = मध्य रूप बने हुए ( च = और ) १. ख० पु० जगत्तिष्ठापयिषुः - इति पाठः ।. - २. ख० पु० निजरूपम् — इति पाठः । सर्वात्मपरिभावनाख्यं द्वितीयं स्तोत्रम् मध्य = मध्य और अग्र-मूर्तये = अन्तिम स्वरूप बने हुए - ( एवं = तथा ) ( परमार्थ-दृष्टि से ) क्षीण अग्र-मध्य-मूलाय = पूर्व, मध्य - = और रूपों से रहित मूल विश्वस्य कारणत्वात् स्वरूपत्वाद्विश्रांतिस्थानत्वाच्च मूलं मध्यममं च | यथा पृथक मूलादिरूपः तथा युगपदपि अक्रमानन्तविश्वरूपत्वात् । न चास्य स्वात्मनि मूलादि किंचित् चिन्मात्रैकरूपत्वात् । अत एव सर्व- सहत्वात् पूर्ण: । विरोधाभासः प्राग्वत् ॥ ६ ॥ ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) यस्य = जिस का - असौ = यह नमः सुकृतसंभारविपाकः सकृदप्यसौ । यस्य नामग्रहः तस्मै दुर्लभाय शिवाय ते ॥ १० ॥ सकृत्-अपि = एक बार भी : नाम-ग्रहः = ( किया गया ) नाम- ( अत एव = अत एव ) पूर्णाय = परिपूर्ण स्वरूप वाले = ( भवते ) शम्भवे = () शिवको नमः = नमस्कार हो ॥ ९ ॥ २५ = संभार = राशि का विपाकः: = फल है, = उस तस्मै : दुर्लभाय = अतिदुष्प्राप्य ते : ( प्रभो = हे स्वामी ! ) चराचर = स्थावर जंगम आकार = शरीरों वाले परेत- = प्रेतों के निचयैः:

= समुदाय के साथ

सदा = सदैव = आप शिवाय = महादेव जी को नमः = नमस्कार हो ॥ १० ॥ स्मरण सुकृत = पुण्यकर्मों की यस्य सकृदेव नामग्रहः असाविति -- लोकोत्तरः, पूर्णविश्रान्तिप्रदत्वात् पुण्यराशेः परिपाकः, तस्मै दुर्लभायेति - महायोगिगम्याय नमः ॥ १० ॥ - नमश्चराचराकार परेतनिचयैः सदा । क्रीडते तुभ्यमेकस्मै चिन्मयाय कपालिने ॥ ११ ॥ = क्रीडते = खेलने वाले, कपालिने = (अशेष ) खप्परों को धारण करने वाले, एकस्मै = अद्वितीय (और). - चिन्मयाय = चिदानन्द-स्वरूप तुभ्यं = आप को नमः = नमस्कार हो ॥ ११ ॥ श्रीशिवस्तोत्रावली कंपालिव्रतित्वं यद्भगवति प्रसिद्धं तत्तत्त्वतो व्यनक्ति । चराचराकारा:- जङ्गमस्थावररूपाः ये परेता:- परं चिन्मयस्वरूपमिताः - प्राप्तोः । तद्विना च निर्जीवत्वापि परेताः । तेषां निचयैः सदा युगपञ्च क्रीडते - तत्सं- योजन वियोजनवैचित्र्यसहस्रविधायिने ॥ ११ ॥ २६ मायाविने विशुद्धाय गुह्याय प्रकटात्मने । - मायाविने = छली ( होते हुए भी ) विशुद्धाय = विशुद्ध स्वरूप वाले, गुह्याय = गुप्त रूप वाले ( होते हुए भी ) प्रकटात्मने = प्रकट स्वरूप वाले, सूक्ष्माय = सूक्ष्म रूप वाले ( होते हुए भी ) सूक्ष्माय विश्वरूपाय नमश्चित्राय शम्भवे ॥ १२ ॥ विश्वरूपाय = महान् जगत-स्वरूप चित्राय = (अतः ) रूप वाले (अथवा ) नाना-रूप-धारी शम्भवे = शिव जी को नमः = नमस्कार हो ॥ १२ ॥ भेदोल्लासहेतुः – स्वातंत्र्यशक्तिर्माया यस्यास्ति सः । चिद्रूपत्वाद्वि- - शुद्ध: । मायावी - व्याजी च कथं विशुद्ध: ? इति विरोधाभासः । एव- मन्यत्र | गुह्यः -- सर्वस्यागोचरः | - प्रकटः -प्रकाशघनस्वात्मरूपः । सूक्ष्मो - ध्यानादिनिष्ठैरपि अलक्ष्यः । विश्वरूपः- स्वातंत्र्याद्गृहीतविश्वा कार: । अत एव चित्रो - विचित्र आश्चर्य रूपश्च ॥ १२ ॥ ब्रह्मेन्द्र विष्णुनिर्व्यूढजगत्संहारकेलये । आश्चर्यकरणीयाय नमस्ते सर्वशक्तये ॥ १३ ॥ ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) ब्रह्मा = ब्रह्मा, इन्द्र- = इन्द्र विष्णु = और नारायण के द्वारा निर्व्यूढ- = विशेष रूप में बनाये गये ( तथा सुरक्षित रखे गए ) जगत्- = इस जगत का संहार - = संहार रूपी केलये : ' = क्रीडा करने वाले, ( इत्येवम् = और इस प्रकार ) - आश्चर्य- - = अद्भुत करणीयाय = कर्मों को करने वाले, ते = आप सर्वशक्तये = सर्व-शक्ति-संपन्न, ( प्रभु ) को नमः = प्रणाम हो ॥ १३ ॥ १. ख० पु० कपालव्रतत्वम् इति पाठः । २. ख० पु० प्रापिताः इति पाठः । सर्वात्मपरिभावनाख्यं द्वितीयं स्तोत्रम् ब्रह्मेन्द्र विष्णुभिः- सृष्ट्यधिष्ठितिस्थितिकरैः कथमपि निर्वाहितत्वात् यत् निर्व्यूढं – संपन्नं जगत्, तस्य सर्वैः सन्धार्यमाणस्य संहारः क्रीडामात्रं यस्य । अत एव आश्चर्यकरणीयः । सर्वशक्तिः - ब्रह्मादिदेवेन्द्राणामपि स्वकर्मणि एतदीयसंजिहीर्षा भावाभावमुखप्रेक्षित्वात् सर्वसामर्थ्ययुक्तो यस्तस्मै नमः ॥ १३ ॥ - तटेष्वेव परिभ्रान्तैः लब्धास्तास्ता विभूतयः । तस्मै यस्य यस्य = जिस के तटेषु = किनारों पर - एव = = ही परिभ्रान्तैः घूमते-घामते नमस्तुभ्यमगाधहरसिन्धवे ||१४||

लब्धाः = पाई जाती हैं,

तस्मै तुभ्यं = उसी आप अगाध = अथाह ( और अन्त से रहित ) ( जनैः = लोगों से ) - तास्ताः = वे ( अर्थात् सुप्रसिद्ध ) विभूतयः = (आदि) सिद्धियाँ हर = शिव रूपी सिन्धवे : 1 = समुद्र को नमः = नमस्कार हो ॥ १४ ॥ २७ तटेषु एव - मन्त्रमुद्राचक्रभूमिकादिज्ञानेषु चिद्रसप्रसर बाह्यभूमिषु परिभ्रान्तै:- - ‘पवनभ्रमणप्राणविक्षेपादिकृतश्रमाः । कुहकादिषु ये भ्रान्ता भ्रान्तास्ते परमे पदे ॥' ऊर्मिकौल तं० ॥ इत्याम्नायस्थित्या अन्तःसारानासाद्नाद् भ्राम्यद्भिः । तास्ता इति - भेदमय्योऽणिमादिका: । अगाधहरसिन्धवे इति - अपरिच्छेद्यान्तस्त- त्त्वाय महेश्वरसमुद्राय | समुद्रस्य च तटेष्वेव ये भ्राम्यन्ति ते तन्मौक्ति- कादि आनुवन्ति, ये तु अन्तर्विक्षेपक्षमाः ते महानिर्वृतिप्रदममृतमपि अश्न- न्तीति रूपकश्लेषेण ध्वनति ॥ १४ ॥ मायामयजगत्सान्द्रपङ्कमध्याधिवासिने । अलेपाय नमः शम्भुशतपत्राय शोभिने ॥ १५ ॥ १. ख० पु० निर्वायत्वादिति पाठः । २. ख० पु० ब्रह्मादीनामपि इति पाठः । ३. ख० पु० समुद्रे – इतिः पाठः । 'श्रीशिवस्तोत्रावली मायामय- –(स्वातंत्र्य-शक्ति के द्वारा ) अधिवासिने = वास करते हुए (भी) सर्वतः मायाकार बने हुए, अलेपाय = निर्लेप और शोभिने = चमकते हुए शम्भु = महादेव रूपी - शतपत्राय = कमल को नमः = नमस्कार हो ॥ १५ ॥ २८. जगत्- = जगत रूपी सान्द्र- = घनी पङ्क- = कीचड़ के मध्य- बीच में = माया - चिन्मयत्वाख्यातिः, सैव प्रकृतं रूपं यस्य जगतः, तदेव सान्द्रः पङ्को–धनः कर्दमः, तन्मध्याधिवासिनेऽपि - व्यापकत्वात् तद्वया. नवतेऽपि अलेपाय - शुद्धचिदेकरूपाय | शम्भुरेव शतपत्रम् - अनन्त शक्तिद्लं तत्तत्संकोचविकासधर्मकं कमलं, तस्मै नमः | पकमध्यस्थि- तेरपि अलेपता भगवतश्चिद्धनत्वेन तदसंस्पर्शादिति विरोधाभासः ||१५|| मङ्गलाय पवित्राय निघये भूषणात्मने । प्रियाय परमार्थाय सर्वोत्कृष्टाय ते नमः ॥ १६ ॥ परमार्थाय = ( तीनों कालों में स्थित होने के कारण ) सत्य-स्वरूप, - ( च =) ( परमात्मन् = हे परमेश्वर ! ) मंगलाय = कल्याण स्वरूप, पवित्राय = अति शुद्ध, निधये = ( सब के लिए ) कोष-स्वरूप, भूषणात्मने = भूषणों के भी भूषण, प्रियाय = अति प्रिय-स्वरूप, ८ मंगलेत्यादि स्पष्टम् । सर्वोत्कृष्टायेति सर्वत्र योज्यम् | येन येन मुखेन विचार्यते तेन तेनोत्तमत्वं सर्वोत्कृष्टत्वात् ॥ १६ ॥ - सर्वोत्कृष्टाय = सर्वश्रेष्ठ ( देवता ) = आप को ते ः नमः = प्रणाम हो ॥ १६ ॥ नमः सततबद्धाय नित्यनिर्मुक्तिभागिने | बन्धमोक्षविहीनाय कस्मैचिदपि शम्भवे ॥ १७ ॥ सतत = सदा बद्धाय = बन्धन में पड़े हुए, नित्य - = सदैव निर्मुक्ति- = पारमार्थिक मुक्ति का भागिने | = पात्र बने हुए, • (तत्त्वदृष्टया तु= किन्तु तत्त्वदृष्टि से ) बन्ध = ( संसार के ) बन्धन : मोक्षः = और मोक्ष से सर्वात्मपरिभावनाख्यं द्वितीयं स्तोत्रम् विहीनाय = परे होने वाले, कस्मैचिदपि = एक ( अलौकिक ) भगवत एव बद्धमुक्ततया अवगमात्तथात्वम् ।' वस्तुतस्तु चिद्धन- त्वात्तद्धीनत्वम् | विरोधाभासः पूर्ववत् । एवमुत्तरत्रापि ।। १७ ।। उपहासैकसारेऽस्मिन्नेतावति जगत्त्रये । तुभ्यमेवाद्वितीयाय नमो नित्यसुखासिने ॥ १८ ॥ ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) ( तुच्छरूपत्वात् तुच्छ रूप होने के कारण ) उपहास = परिहास ही एक- = • केवल सारे = सार है जिसका, ऐसी अस्मिन् = इस वाली २९ शम्भवे = और कल्याण स्वरूप प्रभु को नमः = नमस्कार हो ॥ १७ ॥ - एतावति = अति विस्तृत जगत्त्रये = त्रिलोकी में दृष्टि से ) दक्षिणाचार = दक्षिण-मार्ग के - साराय = सार-स्वरूप, ( वादितंत्रदृष्ट्या = वादि नामक तंत्रों - नित्य = सदैव = तुच्छरूपत्वादुपहसनीयपरमार्थे एतावति-अतिवितते जगत्त्रये -- भवाभवातिभवात्मनि । अद्वितीयाय-असाधारणैकरूपाय, नित्यसुखा- सिने— आनन्दघनायोपादेयतमाय तुभ्यमेव नमः ॥ १८ ॥ के दृष्टिकोण से ) वामाचार- = वाम मार्ग के अभिलाषिणे = अभिलाषी, ( श्रीमतादिशास्त्रदृष्ट्या च = और श्रीमत आदि उच्च शास्त्रों की दृष्टि से ) - सुखासिनेः = आनन्द - घन तथा अद्वितीयाय =धारण स्वरूप वाले तुभ्यमेव = आप ही को नमः = प्रणाम हो ॥ १८ ॥ दक्षिणाचारसाराय वामाचाराभिलाषिणे । सर्वाचाराय शर्वाय निराचाराय ते नमः ॥ १९ ॥ ( भैरवतंत्रदृष्टया = भैरव तंत्रों की सर्व- = सभी ( दक्षिण, वाम आदि ) " आचाराय = चारों को अपनाने वाले ( तथा = और ) – - निराचाराय = ( ध्यान, पूजा आदि ) सभी चारों से रहित अर्थात् उन से परे होने वाले ते शर्वाय = आप प्रभु को नमः = नमस्कार हो ॥ १९ ॥ = श्रीशिवस्तोत्रावली दक्षिणाचारो— भैरवतन्त्रमविपरीतानुष्ठानं च सार:- सारत्वेना- भिमतो यस्य | वामाचारं - - वादितंत्रं विपरीतक्रमं चाभिलषति यस्तस्मै | सर्व आचारो निजः परिस्पन्दो यस्य | निष्क्रान्ता आचारा यस्मात्, आचारेभ्यश्च – ध्यानपूजादिभ्यो निष्क्रान्तो यस्तस्मै । अथ श्रीसंर्वा- चारनिराचारादिरूपं यन्मतक्रमादि शास्त्रार्थतत्त्वं तद्रूपाय नमः ॥ १६ ॥ यथा तथापि यः पूज्यो यत्रतत्रापि योऽर्चितः । योऽपि वा सोऽपि वा योऽसौ देवस्तस्मै नमोऽस्तु ते ॥ २० ॥ ( प्रभो = हे प्रभु ! ) ग्रंथातथापि = जिस किसी भी रूप में देवः = देवता है, ( सः = वह ) यः ( त्वं ) = जो (आप) - पूज्य: = पूजनीय हैं, यत्रतत्रापि = जिस किसी भी (पवित्र - या अपवित्र ) स्थान पर यः ( त्वम् ) = जो (आप) अर्चितः = पूजित हुए हैं, - यः असौ = जो यह ( हमारा )

(

- ...w.. इति ।। २० ।। योऽपि वा = जो भी है, सोऽपि वा = सो भी है, तस्मै = उसी ते येन येन प्रकारेण यत्र क्वचिद्यत्किचिदाचर्यते तत्र स्वात्मदेवता- विश्रान्तिरूपा पूजा अनायासेनैव सिद्धा तत्त्वविदामिति तात्पर्यम् । यत्त च्छब्दाः नियमव्युदासाय | यथागमः— 'यथालाभं प्रपूजयेत् ।' = आप ( परमात्मदेव ) को नमः अस्तु = नमस्कार हो ॥ २० ॥ - मुमुक्षुजनसेव्याय सर्वसन्तापहारिणे । नमो विततलावण्यवाराय वरदाय ते ॥ २१ ॥ १. ख० पु० श्रीमदाचा रनिराचाररूपम् - इति पाठः । २. तात्पर्य यह है कि जो भी इन्द्र आदि देवता, लोगों से पूजे जाते हैं, वे सभी तत्त्व-दृष्टि से आप के ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। अतः उन की पूजा आदि भी आपकी ही पूजा । ( प्रभो = हे प्रभु ! ) - सर्वात्मपरिभावनाख्यं द्वितीयं स्तोत्रम् मुमुक्षु = मुक्ति चाहने वाले - जन- = लोगों से सेव्याय = सेवा किए जाने योग्य, सर्व- = समस्त - सन्ताप - = दुःखों का हारिणे : = नाश करने वाले, वितत = अनन्त लावण्य = ( परमानन्द सौन्दर्य को. ( प्रभो = हे प्रभु ! ) सदा = सदा निरन्तर = लगातार रूपी ) वाराय = राशि से ( सुशोभित होने वाले) ( च = और) वरदाय = ( साधकों को ) अष्टवर - देने वाले = आनन्दरस = चिदानन्द-रस से निर्भरित- = भर दिया है अखिल = सारी = ते साधकानां मन्त्राणां प्राणत्वान्मुमुक्षुभिरेव समनन्तरोक्तयुक्त्या निर्य- न्त्रणं सेवितुं शक्याय | सर्वेषां भेदमयानां सन्तापानां हारिणे - अपहन्त्रे | विततेत्युक्ति:- परमानन्दघनत्वेन अतिस्पृहणीयत्वात् । वारः - समूहः ‘समूहनिवहव्यूहवारसङ्घातसञ्चयाः ।' इत्यमरः । वरदाय — संविनैर्मल्यसारप्रसाद प्रदाय ।। २१ ।। = आप ( प्रभु ) को नमः = नमस्कार हो ॥ २१ ॥ सदा निरन्तरानन्दरसनिर्भरिताखिल- त्रिलोकाय नमस्तुभ्यं स्वामिने नित्यपर्वणे ॥ २२ ॥ त्रिलोकाय = त्रिलोकी को जिस ने, - ऐसे ( तथा ) नित्य = सदा पर्वणे : 1 = उत्सव ( मनाने ) वाले तुभ्यं = आप स्वामिने = स्वामी को - नमः = प्रणाम हो ॥ २२ ॥ प्राग्वत् त्रिलोकस्य – विश्वस्य स्वस्थानन्दरसेन पूरणात् स्वामिने इत्युचितोक्तिः । नित्यपर्वणे - सदा विश्वपूरकरूपाय, पर्व पूरणे इत्यस्य प्रयोगः | सर्वश्च पर्वणि आनन्दरसनिर्भरितं निखिलं करोति || २२ || सुखप्रधानसंवेद्यसम्भोगैर्भजते च यत् । त्वामेव तस्मै घोराय शक्तिवृन्दाय ते नमः ॥२३॥ यत् च = जो - ( शक्तिवृन्दं = इन्द्रिय - देवियों समुदाय ) - सुख-प्रधान- आनन्द प्रधान संवेद्य- = रूप आदि विषयों के संभोगैः = भोग रूपी चमत्कारों से त्वमेव = आपके ही स्वरूप की भजते = सेवा अर्थात् पूजा करता है, श्रीशिवस्तोत्रावली का - यत् शक्तिवृन्दं संविद्देवीचक्रं, आन्त्या सुखप्रधानसंवेद्यसंभोगैः-आनन्दसारविषयप्रासास्वादैः, त्वामेव भजते - त्वय्येव विश्वमर्पयति । तस्मै घोराय सर्वसंहर्त्रे ते तव संब- न्धिने नमः ॥ २३ ॥ - मुनीनाम् = (कपिल आदि तपोनिष्ठ) मुनियों से

मुनीनामप्यविज्ञेयं भक्तिसम्बन्धचेष्टिताः । आलिङ्गन्त्यपि यं तस्मै कस्मैचिद्भवते नमः ॥२४॥ चेष्टिता: = व्यवहार करने वाले (भक्त- जन ) आलिंगन्ति अपि = आलिंग भी - अपि = भी अविज्ञेयं = ( सर्वथा ) न जाने जा सकने वाले यं = जिस ( प्रभु ) का - तस्मै = उसी – घोराय = भयानक ( अर्थात् भेदप्रथा को नष्ट करने वाले ) ते = आपकी शक्ति- = चक्षु आदि शक्तियों के वृन्दाय = समुदाय को. नमः = नमस्कार हो ॥ २३ ॥ · चमत्कारेण - आनन्दघनप्रमातृवि करते हैं, तस्मै = उसी - कस्मैचित् = वाले, भक्ति - = ( समावेश रूपिणी) भक्ति के भवते = आप को - संबन्ध- · = एक अलौकिक स्वरूप संबन्ध में मुनीनामिति – तपोयोगादिनिष्ठानां कपिलादीनामपि ज्ञातुमशक्यम् | भक्तिसम्बन्धचेष्टिताः—समावेशरसानुविद्धव्यापारा: आलिङ्गन्त्यपि - दृढावष्टम्भयुक्त्या स्वसम्भोगपात्रं कुर्वन्त्यपि यं तस्मै कस्मैचित्- स्वात्मनि स्फुरते नमः ॥ २४ ॥ १. ख० पु० विज्ञातुमशक्यम् इति पाठः । नमः = नमस्कार हो ॥ २४ ॥ सर्वात्मपरिभावनाख्यं द्वितीयं स्तोत्रम् परमामृतकोशाय परमामृतराशये । सर्वपारम्यपारम्यप्राप्याय भवते नमः ॥ २५ ॥ परमामृत- ( जो ) परमानन्द रूपी = अमृत का कोशाय = भांडार ( है ), परमामृत = ( जो ) मोक्ष रूपी स्वरूपात का राशये = खजाना ( है ) सर्व- = ( तथा जो ) समस्त ( तत्त्व- वर्ग की ) परमामृतस्य – आनन्दरसस्य कोशो-गञ्जमिव । अतस्तत्पूर्णत्वा - द्राशिञ्च, बहिरपि तन्मयत्वात् । सर्वस्य – मेयोदे: पारम्यं - परमत्वं- प्रकाशमानता | तस्यापि पारम्यम् - आनन्दघनश्चमत्कार : शाक्तः समु- ल्लासस्तेन प्राप्याय ॥ २५ ॥ महामन्त्रमयं नौमि रूपं ते स्वच्छशीतलम् । अपूर्वामोदसुभगं ( प्रभो = हे प्रभु ! ) महा- = ( जो ) अति उत्कृष्ट मन्त्रमयं=अहं परामर्श से संपन्न (है), स्वच्छ - = ( जो ) निर्मल शीतलम् = और शीतल ( है ), अपूर्व - = ( जो ) अलौकिक - पारम्य = ( ईश्वर - तत्त्व आदि रूपी) उच्च काष्ठा की भी पारम्य = अन्तिम सीमा पर (अर्थात् शिव-तत्त्व रूपी परम पदवी पर ) प्राप्याय = प्राप्त होने से सुलभ ( है,) भवते = ( उसी ) - को नमः = प्रणाम हो ॥ २५ ॥ ३३ २. ख० पु० मायादे : - इति पाठः । - परामृतरसोल्वणम् ॥ २६ ॥ आमोद- = सुगंधि से सुभगम् = मनोहारी ( है ) ( एवं = तथा जो ) परामृतरस उल्वणम् = सर्वोत्तम आनन्दरस से पूर्ण ( है ), रूपम् = ( ऐसे ) आप के रूप की नौमि = मैं स्तुति करता हूँ ॥ २६ ॥ ते - महामन्त्रमयम् – अकृत्रिमाहंपरामर्शमयं तव रूपं नौमि - इति प्राग्वत् | स्वच्छं - विश्वप्रतिबिम्बधारणात् । शीतलं - संसारतापहारि- - १. ख० पु० परमानन्दरसस्य कोशः - इति पाठः । ३४ श्रीशिवस्तोत्रावली त्वान् | अपूर्वेण आमोदेन - अलौकिकेन व्यापिना परिमलेन ह्लादिना स्वरूपेण, सुभगं - स्पृहणीयम् । परमामृतरसेन - परमानन्देन उल्वर्ण- बृंहितम् ॥ २६ ॥ - स्वातन्त्र्यामृत पूर्णत्वदैक्यख्यातिमहापटे । चित्रं नास्त्येव यत्रेश तन्नौमि तव शासनम् ॥ २७॥ ईश = हे स्वामी ! ( अहं = मैं ) तब आपके तत् = उस शासनं = आदेश (शास्त्ररूपी - परवाने ) की नौमि = स्तुति करता हूँ, जिस यत्र = पूर्ण- = भरे हुए त्वद् = आप के ऐक्य = स्वरूप अद्वैत को ख्याति • दिखाने वाले महापटे = सर्वोत्तम ( शासन रूपी ) - वस्त्र पर चित्रं = ( त्याग या ग्रहण का समर्थन करने वाली ) नाना प्रकार की वार्ता स्वातन्त्र्य = स्वरूप - स्वातंत्र्य रूपी अमृत अमृत से स्वातन्त्र्यामृतेन संपूर्णा स्वतंत्रता आनन्दघना या त्वदैक्यख्यातिः- भवद्भेदप्रथा, सैव विश्वचित्रतन्तुव्याप्त्या महापटः । तत्र विषये यत् शासनं – शास्यतेऽनेन इति कृत्वा तंदुपदेशको य आगम:, तं नौमि । यत्र विश्वम् आश्चर्यमयं त्वदैक्यप्रथनसारेऽपि चित्रं - नानारूपं नास्त्येव, त्वदैक्यख्यातिप्रतिपादनपरत्वात् । चित्रम् - अद्भुतं च नास्ति, अनुत्त- रत्वादागमस्य सर्वसंभावनाभूमित्वात् । अथ च पटे स्थितं शासनम - विचित्ररूपं चेति चित्रम् ।। २७ ।। | नास्त्येव = कुछ भी नहीं है ॥ २७ ॥ - - सर्वाशङ्काशनिं सर्वालक्ष्मीकालानलं तथा । सर्वामङ्गल्यकल्पान्तं मार्ग माहेश्वरं नुमः ॥ २८ ॥ १. ख० पु० त्वदुपदेशकोय आगमः इति पाठः । - २. स्त्र० पु० त्वदैक्यख्यातिप्रथाप्रतिपादनपरत्वात् — इति पाठः । सर्वात्मपरिभावनाख्यं द्वितीयं स्तोत्रम् सर्व- = सारे अमंगल्य- = आशङ्का- शङ्काओं का अमंगलों को अशनि = ( नाश करने वाला) वज्र ( है ), कल्पान्तं = ( नष्ट करने वाला) कल्पान्त अर्थात् प्रलय ( है ), सर्व- = ( जो ) सारी सर्व- = ( जो ) सारी - अलक्ष्मी = दरिद्रता को कालानलं = ( जलाने वाला) कालाग्नि- मार्ग = मार्ग की रुद्र ( है ) तथा = और (जो ) = = माहेश्वरं = ( उस ) परमेश्वर के = देव = हे भगवान् ! जय = आपकी जय हो । को ते = नमो नमः = बार-बार नमस्कार - अस्तु = हो । इदं सकलं = सारा - जगत् = संसार तव = आप के ( वयं = हम ) - नुमः = स्तुति करते हैं ॥ २८ ॥ - सर्वासामाशङ्कानां - द्रव्यपूजामंत्रादिसंकीर्णत्वाद्युक्तानां, बिचित्रसंसा- रबीजभूतानां, चित्तवृत्तिम्लानिदानाम् अशनिं- स्वरूपध्वंसकम् | आम्ना येऽपि च = यह 'शङ्कापि न विशङ्केत निःशङ्कत्वमिदं स्फुटम् । इत्युक्तम् | अलक्ष्मीणाम् – अनानन्ददशानां कालानलं - महादाहकम् | सर्वामङ्गल्यानाम् – अशुभसूचकानां कल्पान्तं - निःशेपेण नाशकं, माहेश्वरं मार्ग — शाक्तं प्रसरं नुमः ॥ २८ ॥ ३५ जय देव नमो नमोऽस्तु ते सकलं विश्वमिदं तवाश्रितम् । जगतां परमेश्वरो भवान् परमेकः शरणागतोऽस्मि ते ॥ २९ ॥ आश्रितम् = सहारे ठहरा हुआ है । भवान् = आप - जगतां = सारे जगत के परमेश्वरः = स्वामी हैं । ( अहं = मैं ) एकः = केवल एक ही ते = आपकी शरणागतः = शरण में आया अस्मि = हूँ ॥ २९ ॥ - परमेकोऽस्मीति–देहाद्यभिमानेन त्वन्मायाशक्तिक्लृप्तेन विश्वविभेदेन त्वत्तः पृथगिव कृतः । अत एव शरणमागतः । युक्तं चैतत्, यतो विश्व श्रीशिवस्तोत्रावली.. मिदं तवाश्रितं - चिन्मयत्वत्स्वरूपमग्नं । ततश्च जगतां भवानेव परमे - - श्वरः –ब्रह्मादिसंदाशिवान्तेभ्य उत्तमः । अत एव हे देव - क्रीडादिशील ! जय – देहाद्यभिमानमिममुत्युंस्यं स्वरूपेण प्रथस्व, इति शिवँम् ।। २६ ।। - इति श्रीमदुत्पलदेवाचार्यविरचितस्तोत्रावल्यां सर्वात्मपरिभावनाख्ये द्वितीये स्तोत्रे श्रीक्षेमराजाचार्यविरचिता विवृतिः ॥ २ ॥ १. ग० पु० ब्रह्मादिभ्यः - इति पाठः । २. गं० पु० 'उदस्य' - इति पाठः । ३. ग० पु० प्राग्वत् इति पाठः । ॐ तत् सत् अथ प्रणयप्रसादाख्यं तृतीयं स्तोत्रम् सदसत्त्वेन भावानां युक्ता या द्वितयी गंतिः । तामुल्लङ्घ्य तृतीयस्मै नमश्चित्राय शम्भवे ॥ १ ॥ ताम् = उस ( द्विविध गति ) को उल्लङ्घन्य = छोड़ कर ( जो ) तृतीयस्मै = तीसरी ( गति ) है, उस चित्राय = आश्चर्य स्वरूप ( या = जो - - द्वितयी = दो प्रकार की जगत के चित्र स्वरूप ) शम्भवे = शिव जी महाराज को गतिः = गति ( अर्थात् स्थिति ) = युक्ता = उचित रूप में देखी जाती है, नमः = नमस्कार हो ॥ १ ॥ सदसत्त्वेन = सत् और असत्, इस दृष्टि से भावानां = ( सांसारिक ) वस्तुओं की - प्राक्प्रध्वंसाभावादि- भावानां - प्रमेयादीनां, जन्मसत्तादिरूपतया रूपतया च द्वितंयरूपा गँतिर्युक्ता । यतस्ते भावा- भावनीयाः – सम्पा दुनीयाः । तामुल्लंघ्य - उज्झित्वा यस्तृतीयः - सदसत्ताभ्यामव्यपदेश्य- त्वात् तुर्यादिवत्संख्ययैव व्यपदेश्य: स्थितः, तस्मै चित्राय आश्चर्याय विश्वचित्राय शम्भवे नमः - इति प्राग्वत् ॥ १॥ - आसुरर्षिजनादस्मिन्नस्वतन्त्रे जगत्त्रये । स्वतन्त्रास्ते स्वतन्त्रस्य ये तवैवानुजीविनः ॥ २ ॥ १. ख० पु० 'स्थितिः' - इति पाठः । २. ख० पु० द्वितयी रूपा - इति पाठः । ३. ख० पु० स्थितिर्युक्ता इति पाठः, ४० पु० द्वितयीयुक्ता- --- इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली एव = ही = ( प्रभो = हे स्वामी ! ) - अस्मिन् = इस अस्वतन्त्रे = परतन्त्र जगत्रये = त्रिलोकी में = आसुरर्षिजनात् = ( मरीचि अथवा नारद आदि ) देवर्षि-जनों से ले कर ते = वे ( लोग ) -- स्वतन्त्राः = स्वतन्त्र होते हैं, ये = जो - स्वतन्त्रस्य = ( पूर्ण रूप में ) स्वतन्त्र तव = आप के अनुजीविनः = सेवक अर्थात् भक्त ( स्युः = हों ) ॥ २ ॥ जगत्त्रयं प्राग्वत् । सुरर्षिजनात्- मरीच्यादिदेवर्षिजनात् । आ आङ् अभिविधौ । अस्वतन्त्रत्वं - सृष्टिसंहारगोचरत्वम् । स्रष्ट्रादिरूपस्तु शम्भुरेव स्वतन्त्रः | तस्य च ये अनुजीबिन:- तंदात्मकस्वात्मसाक्षा त्कारिणः, तेऽपि तदोवेशात् स्वतन्त्रा एव ॥ २ ॥ अशेष- = ( इस ) सारे विश्व- = जगत से खचित - = परिपूर्ण बने हुए = भवद्- आप के वपुः- = चित्स्वरूप का अनुस्मृतिः = बार बार होने वाला ( स्वात्मावेश रूपी ) स्मरण भव- = संसार के भवरुजां- सांसारिकोपतापानां, अशेष-विश्वखचित भवद्वपुरनुस्मृतिः । येषां भवरुजामेकं - भेषजं ते सुखासिनः ॥ ३ ॥ रुजाम् = रोगों की -- एकम् = अद्वितीय भेषजं = औषधि ( है ) येषां = ( यह ) जिन को ( प्राप्त होती - ते = वे ( लोग ही ) सुखासिनः = स्वात्म-मुख में रमते हैं ॥ ३ ॥ भेषजम् - औषधं । विश्वखचित त्वात् सर्वोपकृतिकरणक्षमा भवद्वपुरनुस्मृतिः - चिदात्मनस्त्वत्स्वरूप- - १. ख० पु० त्वदात्मक - इति पाठः । २. ख० पु० तत्समावेशात् — इति पाठः । ३. ख० पु० संसारैकोपतापानाम्- इति पाठः । प्रणयप्रसादाख्यं तृतीयं स्तोत्रम् - स्यानुगततया स्मरणं - समावेशमयं येषामस्ति, ते सुखासिन:- सत्स्वपि देहादिनान्तरीयकेषु दुःखस्पर्शेषु परमानन्दघने सुखे एव तिष्ठन्ति ॥ ३ ॥ सितातपत्रं यस्येन्दुः स्वप्रभापरिपूरितः । चामरं स्वर्धुनीस्रोतः स एकः परमेश्वरः ॥ ४ ॥ स्वर्धुनी - स्त्रोतः = ( मध्य-शक्ति रूपिणी ) गंगा जी का प्रवाह - ( यस्य = जिस का ) चामरं = चामर है, स एकः = वही एक ( तीय ) परमेश्वरः स्वप्रभा- = अपने चित्प्रकाश से परिपूरितः = परिपूर्ण बनाया गया = इन्दुः = ( प्रमेय रूपी ) चन्द्रमा = यस्य = जिस ( प्रभु ) का - सित- शुभ्र आतपत्रं = छाता है ( च =) = = महान् ईश्वर है ॥ ४ ॥ - इन्दुः – सर्वमेयरूपः, प्रकाशदशायां स्वप्रभाभिः– चैतन्यमरी- चिभिः परिपूर्णतां प्रापितः, यस्य सितं - शुद्धं, स्वात्मलग्नत्वाच्च बद्धं, पाशेबहेयोपादेयतादिकल्पनोत्थात् आतपात् त्रायते - इत्यातपत्रम् | तथा स्वः – स्वर्गं तदुपलक्षितं च निरयं-धर्माधर्मफलं धुनोति - स्वर्धुनी मध्यवाहिनी चिच्छक्तिः, सैव प्रसद्रूपत्वात्स्रोतः तद्यस्य चामरं - माहात्म्यप्रथाहेतुः । स एको नतु अन्यः परम ईश्वरः । स्थूल- दृष्टया तु निजरश्मिपूर्णः खण्डेन्दुः गंगा च यस्य असाधारणं छत्रं चामरं चेति स्पष्टम् ॥ ४ ॥ - प्रकाशां शीतलामेकां शुद्धां शशिकलामिव । दृशं वितर मे नाथ कामप्यमृतवाहिनीम् ॥ ५ ॥ १. ख० पु० पाशवहेयोपादेयत्वादिकल्पनोत्थात् — इति पाठः । २. ख० पु० धुनोति — दूरीकरोतीति स्वर्धुनी - इति पाठः । ग० पु० ध्वनति - इति च पाठः । - ३. ख० पु० स्वात्मप्रथा हेतुः - इति पाठः । ३९ श्रीशिवस्तोत्रावली नाथ = हे स्वामी ! - ! अमृत- = परम- अमृत को शशि- = चन्द्रमा की कलामिव = (अमृत - वर्षिणी ) कला जैसी, प्रकाशां = प्रति प्रकट, वाहिनीम् = धारण करने वाली, कामपि = एक अनूठी ( तथा ) एकां = अद्वितीय शीतलां = शीतल ( अर्थात् सन्तापों दृशं = ( अनुग्रह-प्रदा ) दृष्टि को हरने वाली ), (= अत्यन्त निर्मल, शुद्धाम् - प्रकाशां - सुप्रकटां, शीतलां - सन्तापहरां, शुद्धां - भेदकलङ्कशा तिनीं च, एकाम् – अद्वितीयां, कामपि - अपूर्वा, अमृतवाहिनीम् - आनन्दस्यन्दिनीं, दृशं -संविदं, मेमहां, नाथ ! वितर- प्रयच्छ शशिकलापक्षे श्लिष्टोक्तेः स्पष्टोऽर्थः ॥ ५ ॥ त्वच्चिदानन्दजलधेश्च्युताः संवित्तिविप्रुषः । इमाः कथं मे भगवन्नामृतास्वादसुन्दराः ॥ ६॥ भगवन् = हे भगवान् ! त्वत्- = आप चिदानन्द - = चिदानन्द रूपी जलधेः मे = मुझ पर वितर = डाल दीजिए ॥ ५ ॥

= समुद्र से

च्युताः = निकली हुई इमाः = ये संवित्ति = ( नील सुखादि रूपी ) ज्ञान की | त्रिप्रुषः = बूंदें मे = मेरे लिए - अमृत = परमानन्द - अमृत के आस्वाद- = चमत्कार से सुन्दराः = सुशोभित = कथं न ( भवन्ति ) = क्या नहीं होती हैं ? [ अर्थात् अवश्य होती हैं ] ॥ ६ ॥ त्वत्तः - चिदानन्दसमुद्रात् याः संवित्तिविष: - नीलसुखादिज्ञान- कणिकाः, प्रकाशमानत्वाच्चिदानन्दसारा एव च्युताः - निर्याताः, समका- १. ख० पु० स्वप्रकटाम् – इति पाठः । २. ख० पु० भेदशङ्काशातिनीम् - इति पाठः । - ३. ख० पु० अमृतस्यन्दिनीं च - इति पाठः । प्रणयप्रसादाख्यं तृतीयं स्तोत्रम् लममृतास्वादसुन्दराः, इमा विस्फुरन्त्यो नो कथं भवन्ति - भवन्त्येवे- त्यर्थः ॥ ६ ॥ त्वयि रागरसे नाथ न मग्नं हृदयं प्रभो । येषामहृदया एव तेऽवज्ञास्पदमीदृशाः ॥ ७ ॥ नाथ = हे स्वामी ! - प्रभो = हे प्रभु ! येषां = जिन का हृदयं = '= हृदय त्वयि - आप के राग-रसे = भक्ति - रस में न = नहीं = मग्नं = डूबा, ईदृशाः = ऐसे - भवता = श्राप प्रभुणा = प्रभु के साथ = जिस ( जीव ) के त्वद्विषये यो रागरसो - भक्तिप्रसरः । तत्र येषां हृदयं न ममं - न समाविष्टं, ते अविद्यमानतात्त्विकहृदयाः । ईदृशा इति - संसारक्लेश- भाजनभूताः । अवज्ञास्पदं - भक्तिमतामगणनीया एव ॥ ७ ॥ हृदय = हृदय का मेलनं = मेल - अहृदयाः = ( प्रेम-रस युक्त सच्चे ) हृदय से वंचित बने हुए ते = वे लोग प्रभुणा भवता यस्य जातं हृदय मेलनम् । प्राभवीणां विभूतीनां परमेकः स भाजनम् ॥ ८ ॥ जातं = हुआ हो, - अवज्ञा = अवहेलना (अर्थात् अपमान के ( = स्थान ( अर्थात् पात्र ) आस्पदम् एव = ही - ( भवन्ति = होते हैं ) ॥ ७ ॥ ४१ सः = वह एक: = एक ( ही ) प्राभवीणां = प्रभु की विभूतीनां = विभूतियों का = भाजनं = पात्र ( अस्ति = होता है ) ॥ ८ ॥ - परम् = केवल - १. ख० पु० विस्फुरन्त्यः कथं न भवन्ति इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली - उक्तार्थप्रातिपक्ष्येणोक्तिः : यस्येति – कस्यचिदेव | अहृदयास्तु प्रायशो बहव इति बहुवचनमत्र नोक्तम् । हृदय मेलनं - समावेशेनैक ध्यम् | विभूतयः - अद्वयानन्दसम्पदः | यस्य च लौकिकेश्वरेण हृदय- मेलनं भवति, स एवैकस्तद्विभूतीनां पात्रं नान्य इति श्लेषेण ध्वनति ॥ ८॥ ४२ हर्षाणामथ शोकानां सर्वेषां प्लावकः समम् । भवद्ध्यानामृतापूरो निम्नानिम्नभुवामिव ॥९॥ ( प्रभो = हे प्रभु ! ) भवद् - = आप के ध्यानामृत- = ध्यान रूपी अमृत का आपूरः = प्रवाह सर्वेषां = सभी - हर्षाणाम् = हर्षो अथ = तथा शोकानां = शोकों को, ईश = हे ईश्वर ! तेषां = नीची- निम्न- अनिम्न = ऊँची = उन ( भक्त - जनों ) की भुवामिव = भूमियों की तरह, समं , भवद्धयानं – समावेशरूपं त्वञ्चिन्तनमेव अमृतापूरः । स यथा निम्नानिम्नभुवाम् – अशुद्धेतररूपमायाविद्याभूमीनां समं - युगपत् प्ला- वकः - सामरस्यापादकः । तथा लौकिक शोकहर्षादीनामपि | समावि- ष्टस्य हि युगपदेव निखिलं परमानन्दव्याप्तिमयं जायते । जलापूरच निम्नोन्नता भूमी: प्लावयति ॥ ६ ॥ का इव = भला कौन सी दशा = दशा = एक साथ केव न स्याद्दशा तेषां सुखसम्भारनिर्भरा | येषामात्माधिकेनेश न क्कापि विरहस्त्वया ॥ १० ॥ प्लावकः = बहाने चाला ( अर्थात् नष्ट करने वाला ) ( भवति = होता है ) ॥ ९ ॥ सुख-संभार = सुख के भंडार से निर्भरा = परिपूर्ण नहीं स्यात् = होती, १. ख० पु० प्रायो बहवः - इति पाठः । २. ख० पु० समावेशेनैकत्वम् इति पाठः । - येषाम् = जिन का. आत्म = (अ) अधिकेन = अधिक ( अर्थात् प्रिय ) त्वया = आपके यत् = जो एषः = यह त्वं प्रणयप्रसादाख्यं = आप मम = मेरे येषामात्माधिकेन, ईश ! देहादि निमज्ज्य चिद्धनत्वेन स्फुरता त्वया, क्वापि - कदाचिदपि न वियोगः, तेषां सुखसम्भारनिर्भरा - परमानन्दपूर्णा, का इव दशा न स्यात् — सर्वैव भवतीत्यर्थः । जीवन्तः ईश्वरावियुक्ताश्च सदा सुखिनो भवन्ति ॥ १० ॥ तृतीयं स्तोत्रम् ( सह = साथ ) - अत्यन्त = बहुत ही रोचनः = प्रिय ( शोभायमान ) स्वामी = स्वामी घटितः = हो पाये, ( तर्हि = सो ) - क्वापि = किसी अवस्था में भी = गर्जामि बत नृत्यामि पूर्णा मम मनोरथाः । स्वामी ममैष घटितो यत्त्वमत्यन्तरोचनः ॥ ११ ॥ विरहः = वियोग न ( भवति ) = नहीं होता ॥ १० ॥ ४३ मम = मेरे मनोरथाः = मनोरथ पूर्णाः = पूरे हो गये । ( इत्येवमहं = इसी लिए मैं ) गर्जामि = ( उल्लास में ) गरजता हूँ (और) बत = सौभाग्य से - नृत्यामि | = नाचता हूँ ॥ ११ ॥ अतिभक्तिरसानन्दघूर्णितस्येयमुक्तिः । अत्यन्तं रोचन:- अतिशयेन - प्रियः । एष इति - वक्तुमशक्य: स्वानुभवसंसिद्धः । तथा च अत्यन्त- रोचनः– विश्वप्रासकत्वेन अतिदीप्तप्रकाशवपुर्यतस्त्वं स्वामी मम - घटितः - समावेशेन मया आसादितः, ततो गर्जामि - महारवमुच्चां- रयामि । नृत्यामि - हर्षप्रसरभरेण सर्वतो मायोप्रमातृभावधूनन सारं गात्रविक्षेपं करोमि । ममच मनोरथा: पूर्णाः - निराकाङ्क्षोऽस्मि जात १. ख० पु० महारवमुच्चरामि – इति पाठः । २. ख० पु० मायाप्रमादभावधूननसारम्— इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली इत्यर्थ: । बत इति - अनुत्तरचित्स्वरूप प्रत्यभिज्ञानाद्विस्मयमुद्रानुप्रवेशं ध्वनति ॥ ११ ॥ ४४ नान्यद्वेचं क्रिया यत्र नान्यो योगो विदा च यत् । ज्ञानं स्यात् किन्तु विश्वैकपूर्णा चित्त्वं विजृम्भते ॥ १२ ॥ यत्र = जिस (आप जैसे स्वामी के होने की ) दशा में अन्यत् = और कोई - वेद्यं = जानने योग्य ( तत्त्व ) = = न = नहीं, अन्या = और कोई क्रिया = ( करने योग्य ) क्रिया न = नहीं, अन्यः = और कोई योगः = योग-साधना न = नहीं ( अन्या = और कोई ) विदा च = संवित् भी = नहीं, न = ३. ख० पु० तदेवम् – इति पाठः । - ४. ख० पु० यथागमः - इति पाठः । किन्तु = किन्तु ( केवल ) ८ = यत् = जो ज्ञानं = ( पारमार्थिक ) ज्ञान स्यात् = हो सकता है, - ( तत् = वही ) विश्व = भेदप्रथा को ( जलाने के - लिए ) एक पूर्णा = एक पूर्णाहुति है ( तदेव = और वही ) चित्त्वं = चित्-तत्त्व - विजृम्भते = विकसित होता है ॥१२॥ - तथाविधो मम स्वामी घटितो, यत्र स्वामिनि सति अन्यद् भिन्नं वेद्यं, अन्या क्रिया, अन्यो योगः, अन्या च विदा - संविनास्ति । घटितस्वामिव्यतिरिक्तं मम न किंचिदपि भातीत्यर्थ: । क्रिया विदा इत्यत्र अन्या इति योजना | तत्र पूर्णत्वमस्त्येव -- इत्याह किन्तु यज्ज्ञानं स्यात् तद्विश्वस्यैका पूर्णाहुतिः - बोधाग्निप्रज्वालिनी पूर्णाहं पराम" शक्रियाशक्तिस्वरूप मेतज्ज्ञानमिति यावत् | यच्च ईदृग्ज्ञानं तदेव चित्वं- शिवप्रकाशरूपत्वं विजृम्भते नान्यत् | येँदागमः १. ख० पु० विश्वकपूर्णम् – इति पाठः । २. ख० पु० तद्विश्वकपूर्णा – विश्वस्यैका पूर्णाहुतिः - इति पाठः । प्रणयप्रसादाख्यं तृतीयं स्तोत्रम् “न योगोऽन्यः क्रिया नान्या तत्वारूढा हि या मतिः । स्वचित्तवासनाशान्तौ सा क्रियेत्यभिधीयते ॥” गमतं० ॥ इति ।। १२ ।। दुर्जयानामनन्तानां दुःखानां सहसैव ते । हस्तात्पलायिता येषां वाचि शश्वच्छिवध्वनिः ॥ १३ ॥ ( प्रभो = हे प्रभु ! ) = । दुर्जयानाम् = जिन को जीतना कठिन है, ऐसे अनन्तानां = अनन्त 1 दुःखानां = दुःखों के हस्तात् = हाथ से ते = वे ( जन ) सहसैव = एकाएक ही पलायिताः येषां = जिन की उत्तमः पुरुषोऽन्योऽस्ति त्वं महापुरुषस्त्वेको ( प्रभो = हे स्वामी ! ) युष्मद् - = युष्मद् ( शब्द) से (और) शेष = शेष ( अर्थात् तद् शब्द ) से विशेषितः = विशेष रूप चाला उत्तमः पुरुषः = उत्तम पुरुष (म शब्द ) अन्यः = ( कोई ) विरला ही - १. ख० पु० कीटाच्च — इति पाठः । वाचि = वाणी में - = भाग निकले हैं, - शश्वत् = निरन्तर ही शिव- शिव की “आह्मणश्च 'कीटान्तं न कश्चित् तत्त्वतः मुखी । करोति तास्ता विकृतीः सर्व एव जिजीविषुः ॥” इति ॥ १३ ॥ ध्वनिः = गूंज ( वर्तते = रहती है ) ॥ १३ ॥ हस्तात्पलायिता इत्यनेन शिवध्वनिशून्यवाचः सर्वदुःखान्ता इति ध्वनति । तथा चोच्यते ४५ अस्ति = है, = युष्मच्छेषविशेषितः । निःशेषपुरुषाश्रयः ॥१४॥ - त्वं तु = ( पर ) आप तो निःशेष- = सभी (तीनों ) पुरुषों के २ = पुरुष- आश्रयः = एकः = एक ही ( अ ) महापुरुषः = महापुरुष ( हैं ) ॥१४॥ 'श्रीशिवस्तोत्रावली 'हरि: पुरुषोत्तमः' - इति प्रसिद्धः । स युष्मच्छेषेण - तावकेन अभेदसार विद्याधिष्ठातृप्रमातृषु च विलब्धादन्येन अधिष्ठानात्मना स्त्ररूपेण विशेषितः - सम्पादित विशेषः । तथा चागमः “वैष्णव्यास्तु स्मृतो विष्णुः ।” इति । त्वं सकलादिसदाशिवान्त निःशेषपुरुषाश्रयत्वान्महापुरुषः । अन्य शब्दः कश्चिदर्थः । एकः - अद्वितीयः । इति एकः श्लोकार्थः । अपरस्तु व्याकरणप्रक्रियया उत्तमपुरुष: अस्मदर्थे यः स युष्मच्छेषाभ्यां -मध्य- मप्रथमपुरुषाभ्यां विशेषितः – सञ्जातविशेषोऽस्ति, तस्य च तटस्थ - परामृश्यात्प्रथमपुरुषात् युष्मदर्थोन्मुखाच्च मध्यमपुरुषादयं विशेष:, यद- शेषपुरुषाश्रयत्वं तद्विश्रान्तिधामत्वं । सर्वस्येद्न्ताविमृश्यस्याहन्तायामेव विश्रान्तेः–स पचति, त्वं पचसि, अहं पचामि इति विवक्षायां वयं पचामः—इत्यादौ प्रयोगेऽयमेवाशय इत्यास्ताम् | त्वं तु निःशेषाणां - 'तु प्रथममध्यमोत्तमपुरुषाणां कल्पिताना मकल्पितचिद्रूपः आश्रयः । यथोक्तं प्रत्यभिज्ञायां - "ग्राह्यग्राहकताभिन्नावय भातः प्रमातरि ॥” १०, ४०, ०८ ॥ इति । अत एत्र महापुरुष:- महेश्वरो, महादेववन्महच्छब्दस्य त्वय्येव प्रवृत्तत्वात् ॥ १४ ॥ जयन्ति ते जगद्वन्द्या दासास्ते जगतां विभो । संसारार्णव एवैष येषां जगतां विभो = हे ( सभी ) भुवनों जगद् - = जगत में के स्वामी ! बन्द्याः = पूजनीय ते = वे - क्रीडामहासरः ॥ १५ ॥ ते = आप के १. ख० पु० अभेदसार विद्याधिष्ठातृषु २. ख० पु० अस्मदर्थरूपः इति पाठः । ३. ख० पु० चयमेव पचामः - इति पाठः । ४. ख० पु० चिनिःशेषाणाम् इति पाठः । ५. ख० पु० अकल्पितश्चिद्रूपाश्रयः - इति पाठः । ग० पु० अकल्पितचिद्रूपाश्रयः - इति पाठः । - प्रमातृषु - इति पाठः । दासाः = सेवक ( अर्थात् भक्त ) = जयन्ति * = धन्य हैं, येषां = जिनके लिए एषः = यह ( भयप्रद ) संसार- = संसार रूपी = प्रणयप्रसादाख्यं तृतीयं स्तोत्रम् सम्पश्यन् इत्यादि ॥ १५ ॥ - जगद्वन्द्यत्वं - शिवसमावेशपात्रत्वात् । जगतां विभो ! तव दासास्ते जयन्ति, येषां संसारसमुद्र एवैष इति - अतिघोरोऽपि चिद्रूपतया ज्ञातपरमार्थः सन् क्रीडामहासरः कल्पः | यथोक्तं स्पन्दे - " इति वा यस्य संवित्तिः क्रीडात्वेनाखिलं जगत् । इह = इस ( भक्ति-मार्ग ) में भवत्- = आप की जुषाम् = भक्ति करने वालों की = तावत् = अभी अर्णवः एव = समुद्र ही - क्रीडा = क्रीड़ा अर्थात् मनोरञ्जन का ( काम देने वाला ) महा = एक बड़ा सरः = सरोवर ( है ) ॥ १५ ॥ आसताम् = तो दूर रहीं, ...1\" निं०३, श्लो०३ ॥ आसतां तावदन्यानि दैन्यानीह भवज्जुषाम् । इत्यनेनैव लज्ज्यते ॥ १६ ॥ त्वमेव प्रकटीभूया त्वमेव = आप ही प्रकटी-भूयाः इति = अनेनैव तैः = वे = प्रकट हो जायें' ४७ = इस प्रकार की = इस ( प्रार्थना ) से ही अन्यानि = और और - दैन्यानि = दीनताएँ ( अर्थात् अणिमा लज्ज्यते = लजाते हैं ( अर्थात् दूसरी दिसंबन्धी प्रार्थनाएँ ) दीनताओं की संभावना ही नहीं है ) ॥ १६ ॥ 3 अन्यानि दैन्यानि – अणिमादिप्रार्थना | भवजुषां - सततसमावेश. प्रथमानत्वत्स्वरूपाणाम् अत एव प्रार्थनीयान्तरविरहात् | त्वमेव प्रकटी- भूया : – इत्यनेनैव कदाचित्समाविष्टः प्रार्थनीयेन यतो लज्ज्यते ततो दण्डापूपीयन्यायेन दैन्यान्तरसम्भावनैव नास्ति ॥ १६॥ १. ख० पु० अर्थनीयान्तरविरहात् — इति पाठः । ग० पु० अत एव त्वमेवार्थनीयान्तरविरहात् — इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली मत्परं नास्ति तत्रापि जापकोऽस्मि तदैक्यतः । तत्त्वेन जप इत्यक्षमालया दिशसि कचित् ॥ १७ ॥ ऐक्यतः = एकीकरण द्वारा ( साक्षा- - कार करना ही ) = तत्त्व-दृष्टि से ४८ ( शिव = हे मंगल-स्वरूप ईश्वर ! ) - = मत्परं = 'मुझ से बढ़ कर ( अन्यदू- • और कोई ) उत्कृष् = उत्कृष्ट ( दैवतं = देवता ) न अस्ति = नहीं है, तत्रापि = फिर भी ( अहं मैं ) जापकः अस्मि = जप करता हूँ, तत् = इसलिए | तत्त्वेन जपः = जप ( हैं ), ' इति त्वम् = यही आप - क्वचित् = कहीं ( अर्थात् किसी अपने चित्र में ) - 'महेशितुरपि जप्यं देवतान्तरमस्ति- अक्षमालायोगात्, - इति ये मुह्यन्ति तान् बोधयितुमाह; - मत्परं तावन्नास्ति तथापि जापकोऽस्मि यत्, तत् – तस्मात् ऐक्यतः - ऐक्येन चिद्भेदेन परमार्थतो जपः - - 2 पूर्णाहन्ताविमर्शात्मा नित्योदितो भवति - इत्यक्षमालया क्वचित-गौरी- श्वराद्याकृतौ दिशसि – कथयसि । तच्छब्दाद्यच्छन्द आक्षेप्य: । अथवा अक्षमालया- करणीश्वरीपंक्त्या समस्तार्थसार्थसर्गसंहारपरम्परासमा- पत्तये पुनः पुनरावर्तमानया ऐक्यत:- महार्थनयाभेदसारेणैकत्वेन च जपः- अनुत्तर बिमर्शसारो भवतीत्यक्षमालयैव-वर्णलिपिन्यासेन युक्त्या शिक्षयसि ॥ १७ ॥ प्रभो = हे प्रभु ! - अक्षमालया = रुद्राक्षमाला धारण करने से 1 दिशसि = उपदेश करते हैं ॥ १७ ॥ सतोऽवश्यं परमसत्सच्च तस्मात्परं प्रभो । त्वं चासतस्सतश्चान्यस्तेनासि सदसन्मयः ॥ १८ ॥ असत् = असत् ( अव्यक्त ) अवश्यं = अवश्य ही सतः = सत् ( व्यक्त ) से परम् = भिन्न है, - सत् च = और सत् अस्मात् = उस से ( अर्थात् असत् से ) परम् (अस्ति) = भिन्न हैं, त्वं च = आप तो असतः = असत् सतच और सत् ( दोनों ) से अन्यः = न्यारे हैं, तेन = इसी लिए ( ) प्रणयप्रसादाख्यं तृतीयं स्तोत्रम् - - भावाभावौ परस्परं भिन्नौ । त्वमसतः - खपुष्पादे: सतश्च - नील- सुखादेरन्य:- विलक्षण: चिदानन्दघनः । अत एव सदसन्मयः - सद्रूपो- ऽप्य सद्रूपोऽपि, सदसद्रूपोऽपि विश्वात्मकस्त्वम् । नतु सद्रूप एव वा, असद्रूप एव वा, सदसद्रूप एव वा, उभयोज्झित एव वा । तथा च श्रीभर्गशिखायां न सन्न चासत्सदसन्नैव तदुभयोज्झितम् ।” ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) सहस्र- = हज़ारों सूर्य- सूर्यो किरण- = किरणों से अधिक- अधिक इत्युपक्रम्य "दुर्विज्ञेया हि सावस्था किमप्येतदनुत्तरम् || " इत्यनिषेचनीयतयैव विश्वोत्तीर्ण विश्वमयचिदानन्दघनमनुत्तरस्वरूपं - "सदसत्त्वेन' ....।" ३ स्तो०, श्लो० १ ॥ ......... इति लोकेन भावनीयसदसत्ताकोटिद्वय वैलक्षण्यमुक्तम् । अनेन तु सर्व- भावाभावोत्तरत्वम् ॥ १८ ॥ = सदसन्मयः असि '= सत् स्वरूप और असत् स्वरूप दोनों हैं ॥ १८ ॥ सहस्र सूर्यकिरणाधिकशुद्धप्रकाशवान् । अपि त्वं सर्वभुवनव्यापकोऽपि न दृश्यसे ॥ १९ ॥ ४९ शुद्ध- = उज्ज्वल प्रकाशवान् : = प्रकाश वाले अपि = होते हुए भी ( च = और) सर्व = सभी = भुवन = लोकों में - व्यापकः = व्यापक अपि = होने पर भी त्वं = = आप न दृश्यसे = दिखाई नहीं देते ॥१९॥ सहस्रसूर्यकिरणेभ्योऽप्यधिक : - तेषामपि तत्प्रकाशत्वात् । शुद्ध:- BA १. ख० पु० परस्परभिन्नौ~इति पाठः । ४ शि० · श्रीशिवस्तोत्रावली चिदेकरूपः प्रकाशो भून्ना प्राशस्त्येन च यस्य । अत एव सर्वभुवनव्या- पकोऽपि त्वं मायाव्यामूढैर्न दृश्यसे- भासमानोऽपि न प्रत्यभिज्ञायसे इति यावत् ॥ १६ ॥ ५० जडे जगति चिद्रूपः किल वेद्येऽपि वेदकः । विभुर्मिते च येनासि तेन सर्वोत्तमो भवान् ॥ २० ॥ येन = चूँकि ( त्वं = [प] ) किल = सचमुच - जडे = जड जगति = जगत में चिद्रूपः = चेतन–स्वरूप ( असि = हैं ) भवान् = = आप - ८ बेघे-अपि = और जानने योग्य ( तत्त्व सर्वोत्तमः = सब से उत्तम हैं ॥२०॥ के विषय ) ) में नाथ = हे स्वामी ! अन्यैः = और बातों के आक्रन्दितैः = चिल्लाने से अलम् = कोई लाभ नहीं । - - जगति - क्षित्यादिसदाशिवावसाने जडे वेद्ये मिते च असि त्वं चिद्रूपो वेदको व्यापकञ्च यतस्ततः सर्वोत्तमोऽसीति सम्बन्धः ।। २० ।। ( अहं = मैं ) - वेदकः = ज्ञान कराने वाले ( असि = हैं ) मिते च = तथा ससीम में अलमाक्रन्दितैरन्यैरियदेव पुरः प्रभोः । तीव्र विरौमि यन्नाथ मुह्याम्येवं विदन्नपि ॥ २१ ॥ S इयत् = इतना विभुः = व्यापक असि = हैं = एव = ही - प्रभोः = प्रभु के तेन = इस लिए - पुरः = सामने तीव्र = ज़ोर से विरौमि = चिल्ला कर कहता हूँ - - यत् = कि एवं = ऐसा विदन् = जानते अपि = हुए भी मुह्यामि = मैं मोह में पड़ता हूँ ॥२१॥ = १. ख० पु० सर्वभुवनव्यापकत्वम् ––इति पाठः । प्रणयप्रसादाख्यं तृतीयं स्तोत्रम् व्युत्थानदशापरपशः समावेशस्य तत्त्वं जानन्नपि मुह्यामीति- समा- वेशविवंशो भवामीति शिवम् ॥ २१ ॥ इतिश्रीमदुत्पलदेवाचार्यविरचितस्तोत्रावलौ प्रणयप्रसादाख्ये तृतीये स्तोत्रे क्षीक्षेमराजाचार्यविरचिता विवृतिः ॥ ४ ॥ १. ख० पु० समावेशतत्त्वम् — इति पाठः । २. ख० पु० समावेशवशो भवामि – इति पाठः । - ॐ तत् सत् अथ सुरसोइलाख्यं चतुर्थ स्तोत्रम् चपलमसि यदपि मानस तंत्रापि श्लाघ्यसे यतो भजसे । शरणानामपि शरणं त्रिभुवनगुरुमम्बिकाकान्तम् ॥ १ ॥ मानस = हे ( मेरे ) मन ! यदपि = यद्यपि - ( त्वं = तू ) चपलम् = चञ्चल असि = है = तत्रापि = तो भी श्लाध्यसे = = प्रशंसनीय है, यतः = क्योंकि ( त्वं = तू ) शरणानाम् अपि = रक्षकों की भी = शरणं : = रक्षा करने वाले, त्रिभुवन - = तीनों भुवनों के गुरुम् = स्वामी और अम्बिका = पार्वती के = कान्तम् = प्रिय ( महादेवं = महादेव जी को ) ( यदा तदा अपि = जब तब भी ) भजसे : = भजता है ॥ १ ॥ - चौपल्याद्यद्यपि भगवद्भजने न प्ररोहसि तथापि कृतार्थमसि - क्षण- मात्रमपि तत्सेवायाः पूर्णव्याप्तिप्रदत्वात् । अत एव शरणानामपीति- असामान्यतां भगवतः प्रथयति । शरणानां - ब्रह्मविष्ण्वादीनामपि शरणं - समाश्रयं, त्रिभुवनगुरुं विश्वस्योपदेष्टारं पूज्यं च | अम्बिका- पराशक्तिः ।। १ ।। १. ख० पु० तथापि - इति पाठः । २. ख० पु० भुवनगुरुम् - इति पाठः । ३. ख० पु० चापलाद्यद्यपि - इति पाठः । उल्लङ्घ्य विविधदैवत- सोपानक्रममुपेयशिवचरणान् । आश्रित्याप्यधरतरां भूमिं चित्रमुज्झामि नाथापि विविध- = भिन्न भिन्न दैवत- सोपान- = सोपान के = = देवताओं के सुरसोइलाख्यं चतुर्थ स्तोत्रम् क्रमम् = क्रम का = उल्लङ्घन्य = उल्लंघन कर के ( तथा ) उपेय- = प्राप्त करने योग्य शिव-चरणान् = शिव-चरणों का आश्रित्य = सहारा ले कर - अपि = भी - ॥२॥ ( अहम् = मैं ) - - अद्यापि = अभी भी अधर-तरां = अत्यन्त नीच भूमिं = अवस्था को न = नहीं उज्झामि = त्यागता, ( इति तु = यह तो ) चित्रम् = बड़ा आश्चर्य है ॥ २ ॥ - दैवतान्येव विविधानि - ब्रह्मविष्णुरुद्रेश्वर सदाशिवशिवादिरूपाणि सोपानक्रमः | तमुल्लंध्य - विश्रांतिपदीकृत्य, उपेयस्य - उपगन्तव्यस्य आत्मसमीपे प्राप्तव्यस्य शिवस्य, चरणान्– मरीचीन्, आ - समन्तात् श्रित्वा - समावेशयुक्त या स्वीकृत्यापि, चित्रं यदद्यापि अघरतरां भूमि - व्युत्थानपतितां मायीयदेहादिप्रमातृतां न त्यजामि दैवतानां सोपान- क्रमेण अनुपादेयतां भगवतस्तु चरणसमाश्रयेणोपादेयतमतां प्रकाशयन्ना- त्मनस्तत्समाश्रयेण लाध्यतां ध्वनति ॥ २॥ प्रकटय निजमध्वानं स्थगयतरामखिललोकचरितानि । यावद्भवामि भगवं- स्तव सपदि सदोदितो दासः ॥ ३ ५३ १. ख० पु० दैवतान्यैव ——इति पाठः । २. ख० पु० अनुपादेयता-इति पाठः । ५४ भगवन् = हे भगवान् ! - = जब तक यावत् ( अहं = मैं ) तव = तुम्हारा - सदा- = सदैव उदितः = ( सेवा में ) तत्पर - श्रीशिवस्तोत्रावली दासः = सेवक सद शीघ्र ही ( अर्थात् शक्तिपात से) तराम् = पूर्ण रूप में भवामि = बन जाऊं, शिव शिव = हे कल्याण-स्वरूप शिव ! = . शम्भो = हे शांति-दायक ! - • ( तावत् = तब तक ही ) निज़म् : अध्वानं = ( उत्तम ) मार्ग = अपना - प्रकटय = प्रकट करें और ) निजमध्वानं स्वं शाक्तं मार्गम्, रूपस्य, लोकस्य – मेयमातृवर्गस्य अखिलस्य - लोक्यलोकयितृ- सदाशिवान्तस्य चरितानि स्थग- यतरां - निःशेषेण नाशय । यावत् तव सदोदितो दासो भवामि - त्वञ्च - रणसपर्या परो नित्यसमाविष्टः स्फुरामि इति यावत् ॥ ३ ॥ वत्सल = कृपालु प्रभु ! आशु = ( मुझ पर ) शीघ्र ही - करुणां '= दया ( च = अखिल- शिव शिव शम्भो शङ्कर शरणागतवत्सलाशु कुरु करुणाम् । कीजिए, तव चरणकमलयुगल- स्मरणपरस्य हि सम्पदोऽदूरे ॥ ४ ॥

कुरु = हि = क्योंकि = सभी लोक-चरितानि = लोक व्यवहारों को १ . ख० पु० चरितानि चेष्टितानि २. ख० पु० शमय – इति पाठः । - स्थगय = आच्छादित करें ॥ ३ ॥ = शंकर = हे कल्याण कारक - शरणागत- = हे शरणागतों के प्रति स्मरण = ध्यान करने में तव = आप के चरण कमल = चरण-कमलों के युगल = जोड़े का परस्य = लगे हुए ( मे = = मुझ से ) सम्पदः = ( मोक्ष रूपी ) संपदाएं अदूरे = दूर नहीं ( रह सकतीं ) ॥४॥ - इति पाठः । सुरसोइलाख्यं चतुर्थ स्तोत्रम् तव चरणयुगलं – ज्ञानक्रियामयमरीचिद्वयम् | सम्पदः - समावेशसारा परमानन्दमय्यः | अदूरे – निकटे ॥ ४ ॥ - तावकाधिकमलासनलीना ये यथारुचि जगद्रयन्ति । ते विरिश्चिमधिकारमलेना- लिप्तमस्ववशमीश हसन्ति ॥ ५ ॥ ते = वे अधिकार = अधिकार के ईश = हे ईश्वर ! - ये = जो ( भक्त-जन ) तावक = आपके अङ्घ्रि- = चरण रूपी कमल- - कमलों के आसन- = आसन पर लीना: = ( सुख से ) बैठे हुए = यथारुचि = (अपनी) रुचि के अनुसार जगत्- = जगत का रचयन्ति = निर्माण करते हैं, = = मलेन = विकार से आ- = पूर्ण रूप में लिप्तम् = लिप्त ( अत एव = और इसीलिए ) अस्ववशं = पराधीन बने हुए | विरिचि = ब्रह्मा जी पर हसन्ति = हंसते हैं ॥ ५ ॥ - संकोच विकासपरत्वन्मरीचिविश्रान्ताः, तत एव आस्वादितस्वा- तन्त्र्याः, यथारुचि – करणेश्वरीप्रसरयुक्त था ये जगद्रयन्ति ते विरिचि ब्रह्माणम् अधिकारमलेन आ-समन्तात् लिप्तमत एव नियतिपरतन्त्रत्वा दस्ववशम्— अस्वतन्त्रम् | हे ईश- स्वतन्त्र | हसन्ति - कमलासनोऽकि तेषां हासास्पमित्यर्थः ।। ५ ।। त्वत्प्रकाशवपुषो न विभिन्नं किंचन प्रभवति प्रतिभातुम् । तत्सदैव भगवन् परिलब्धो- उसीश्वर प्रकृतितोऽपि विदूरः ॥ ६ ॥ ५५ १. ख० पु० ज्ञानक्रियामयं मरीचिद्वयम् – इति पाठः । ग० पु० ज्ञानक्रियामरीचिद्वयमिति पाठः । ५६. भगवन् = हे भगवान् ! ( यतः = चूंकि ) त्वत् - = आप के श्रीशिवस्तोत्रावली प्रकाशवपुषः = प्रकाश-स्वरूप से विभिन्नं = भिन्न किंचन = कुछ ( अपि = भी ) प्रतिभातुं = चमक न प्रभवति = नहीं सकता, तत् = इसलिए, ईश्वर = हे स्वामी ! प्रकृतितः = स्वभाव से = विदूरः = दूर अर्थात् अप्राप्य अपि = होते हुए भी ( त्वं = []) ( मया = मुझे ) सदैव = सदा ही परिलब्धः = प्राप्त असि = हैं ॥ ६ ॥ हे ईश्वर असि त्वं प्रकृतित: विदूरोऽपि - स्वरूपगोपनादप्राप्योऽपि सदैव परिलब्धः अस्माभिरिति शेषः । यतः यत्किंचित्प्रतिभातुं प्रभवति- भासते, तत्त्वत्तः प्रकाशवपुषश्चिद्रूपात् न भिन्नं प्रकाशमयस्यैव प्रकाशा- र्हत्वात् | यथोक्तम् 'यस्मात्सर्वमयो जीवः .. ।' स्पं० २ नि०लो० ३ || इत्यादि । 'भोक्तैन भाग्यभावेन सदा सर्वत्र संस्थितः' । स्पन्द० २ नि० श्लो० ४ ॥ इत्यन्तम् ॥ ६॥ प्रभो = हे ईश्वर ! केचित् = कुछ लोग भेद- = (स्वरूप-अप्रथनात्मक) भेद रूपी = पर्युषित - = बासी ( अर्थात् नीरस) वृत्तिम् = वृत्ति से पादपङ्कजरसं तव केचिद् भेदपर्युषितवृत्तिमुपेताः । केचनापि रसयन्ति तु सद्यो भातमक्षंतवपुयशून्यम् ॥ ७॥ उपेताः = युक्त होकर तव = आप के पाद-पंकज- = चरण कमलों का र = आनन्द-रस रसयन्ति = चखते हैं, १. ख० पु० तत् तत्त्वतः - इति पाठः । २. ख० पु० अक्षयवपुः - इति पाठः । ( किन्तु = किन्तु ) केचनापि = कुछ बिरले ( आप के भक्त तो ) एकबारगी सद्य:- - - भातम् : अक्षत- = ते सुरसोइलाख्यं चतुर्थ स्तोत्रम् = प्रकट बने हुए, • निरन्तर प्रथित नाथ = ( हे अभिलषणीय ) प्रभु ! अमृत = परमानन्द से दिग्धा = सनी हुई - या = जो = आपकी तब ज्ञानक्रियामरीचियमयचरणकमलरसं केचित् द्वैतनिष्ठाः, भेदेन पर्युषिता - झगिति उपभोगानासादनेन शुक्तीकृतप्राया वृत्तिः– स्वरूपं यस्य तमुपेताः -- प्राप्ताः, न तु सद्य आस्वादयन्ति । केचित्पुनः- परशक्तिपातपवित्रिताः सद्यो भातं - झगिति उपनतम् अक्षतवपुषं- 'नित्यस्फुरत्स्वरूपं द्वयशून्यं - चिदानन्दैकंघनं रसयन्ति - चमत्कुर्वन्ति । 'केचिदिति अपकर्ष केचनापीति उत्कर्ष ध्वनति ॥ ७ ॥ - - विभा वपुः = स्वरूप वाले द्वय- और भेद-भाव से शून्यं = रहित आपके चरण कमलों का आनन्द - रस ( रसयन्ति = चखते हैं अर्थात् लूटते हैं ) ॥ ७ ॥ नाथ विद्युदिव भाति विभाते या कदाचन ममामृतदिग्धा । सा यदि स्थिरतरैव भवेत्तत् पूजितोऽसि विधिवत्किमुतान्यत् ॥ ८ ॥ सा = वह (आप की झलक ) यदि = यदि स्थिरतरा एव = भवेत् = बन जाती, तो फिर तत् = प्रभा ( त्वं = आप मुझ से ) · कदाचन = कभी ( अर्थात् किसी विधिवत् = विधिपूर्वक - - समाधि-काल में ) ५७ पूजितः = पूजित = असि = होते । - मम = मुझे विद्युदिव = बिजली की भांति ( क्षण किम्-उत-अन्यत् = इससे बढ़कर और - मात्र के लिए ) भला क्या ( मेरे लिए वाञ्छनीय भाति = प्रकाशित होती है, होता ) ॥ ८ ॥ श्रीशिवस्तोत्रावली हे नाथ ! तव विभा– परः शाक्त: स्पन्दः | अमृतदिग्धा - परमा नन्दोपचिता | विद्युदिव - क्षणमात्रं या कदाचिन्ममावभाति-समावेशेन स्फुरति, सा यदि बलबद्युत्थान मपंहस्त्य नित्योदिता स्यात्, तद्विधिवत्- यथातत्त्वं पूजितोऽसि | किमुतान्यत् परिसमाप्तं करणीयं कृतकृत्यता च जायते इत्यर्थः ॥ ८ ॥ ५८ सर्वमस्यपरमस्ति न किंचिद् वस्त्ववस्तु यदि वेति महत्या । प्रज्ञया व्यवसितोऽत्र यथैव त्वं तथैव भव सुप्रकटो मे ॥ ९ ॥ ( प्रभो = हे स्वामी ! ) वस्तु = सत् पदार्थ यदि वा = अथवा अवस्तु = सत् पदार्थ, = सब कुछ सर्वम् असि = आप ही हैं, अपरं = ( आप के बिना ) और S किञ्चित् = कुछ भी न अस्ति = नहीं है, - इति = इस प्रकार महत्या = बड़ी प्रज्ञया = बुद्धि से यथा एव = जैसे ही S 1. ख० पु० २. ख० पु० - अत्र = इस जगत में ( मया = मैंने ) त्वं = आप के स्वरूप का व्यवसितः = निश्चय किया है, - = तथा एव = वैसे ही ( त्वं = आप ) मे = मुझे सुप्रकटः = अच्छी तरह प्रकट भव = हो जायें ॥ ९ ॥ असि त्वं सर्वम् । अपरं वस्तु यदि वावस्तु न किंचिदस्ति, सर्वस्य चिद्धनत्वात् प्रकाशमयत्वेन प्रकाशनात् । इत्येवं शुद्धविद्यामय्या यथैव महत्या प्रज्ञया अत्र - जगति त्वं निश्चितस्तथैव मे सुष्ठु - व्युत्थानेऽपि समावेशवशात् प्रकटो भव ॥ ६ ॥ समावेशे स्फुरति — इति पाठः । अपहस्तय्य - इति पाठः । भगवन् = हे भगवान् ! ( भवता = []) - प्रभुणा = प्रभु ने = सुरसोइलाख्यं चतुर्थ स्तोत्रम् स्वेच्छयैव भगवन्निजमार्गे कारितः पदमहं प्रभुणैव । तत्कथं जनवदेव चरामि स्वत्पदोचितमवैमि एव = ही - स्वेच्छया एव = अपनी ही इच्छा से (अर्थात् निरपेक्ष अनुग्रह-शक्ति से ) अहं = मुझे निजमार्गे = अपने (ज्ञान के) मार्ग पर पदं = पैर कारितः = रखवाया है, तत् = तो - देव = हे देवता ! तावकः कोऽपि : हे भगवन् ! अहं प्रभुणैव – न तु अन्येन केनचित् । स्वेच्छयैव- निरपेक्षशक्तिपातयुक्त था, निजमार्गे - विकस्वरस्वशक्तिवर्त्मनि, पदं कारितः– विश्रान्ति लम्भितः । तत्कथं जनवदेव - लोकवदेव चरामि - व्युत्थाने व्यवहरामि । त्वत्पदोचितं - त्वम्मरीचिपरिचयसमुचितं समा- वेशवशान किंचिदवगच्छामि ।। १० ।। - = आपके स्वरूप की न किंचित् ॥ १० ॥ कथं = क्या बात है कि ( मैं ) जन-वदेव = सांसारिक लोगों की भाँति ही चरामि ' = व्यवहार करता हूँ त्वत् - = और आपको पद्- = पदवी के कोऽपि देव हृदि तेषु तावको जृम्भते सुभगभाव उत्तमः । त्वत्कथाम्बुदनिनादचातका येन तेऽपि सुभगीकृताश्चिरम् ॥ ११ ॥ = एक अलौकिक उचितं = योग्य ( अर्थात् आपकी पदवी पर पहुँच कर जानने योग्य ) किंचित्-न = कुछ भी नहीं = अवैमि = जानता हूँ ॥ १० ॥ , उत्तमः = और उत्कृष्ट सुभग-भावः = आनन्द - दशा तेषु = = उन ( भक्तों ) के ० हृदि = हृदय में जृम्भते = विकसित होती है, येन = जिससे ते = वे - त्वत्- = श्राप की कथा- = कथा रूपी श्रीशिवस्तोत्रावली निनाद - = गड़गड़ाहट ( को चाहने वाले ) चातका: = (आपके भक्त रूपी) चातक अपि = भी - चिरं = चिर काल तक - सुभगीकृताः = ( स्वरूप - समावेश के ) आनन्द में लीन ( स्वामिन् = हे स्वामी !) त्वज्जुषां = आप के भक्तों का त्वयि = आप के प्रति - एषः = यह (असामान्य ) रागः = अनुराग कयापि = ( आपकी ) अलौकिक लीलया = अनुग्रह - लीला से परिपोषम् - = ( इतना ) बढ़ अम्बुद- मेघों की = - हे देव ! तेषु-केषुचित्प्रागुक्तभक्तिमत्सु हृदि तावकः उत्तमः— उत्कृष्टः सुभगभावः कोऽपि उच्छलदानन्दरसोल्बणत्वं किंमपि जम्भते, येन तेऽपीति – समावेशे सम्भिन्नहृदया अपि, अत एव त्वत्कथैव अम्बुद - निनादः, तत्र चातका इव - समावेशशालिप्रतन्यमान शिवकथाकर्णन- प्रहृष्टहृया अपि चिरं सुभगीकृताः- समावेशभूमिं लम्भिताः । यत्कथा- मात्रेण समावेशोऽवतरतीत्यर्थः ॥ ११ ॥ ( भवन्ति = हो जाते हैं ) ॥ ११ ॥ w त्वज्जुषां त्वयि कयापि लीलया राग एष परिपोषमागतः । यद्वियोगभुवि सङ्कथा तथा संस्मृतिः फलति संगमोत्सवम् ॥ १२ ॥ आगतः = जाता है - यत् = कि ( तेषां = उन भक्त-जनों के ) वियोग- - भुवि = दशा में भी वियोग (अर्थात् व्युत्थान) की तथा = वह (आप के स्वरूप को ) संकथा = चर्चा (और) संस्मृतिः = स्मृति १. ख० पु० किमप्युज्जृम्भते - इति पाठः । २. ख० पु० समावेशसंभिन्नहृदया - इति पाठः । - ३. ख० पु० कथावर्णनप्रहृष्टहृदया - इति पाठः । ( त्वत् - = आपके ) संगम- = स्वरूप - समागम के विचित्र- - कया पीति - अनुत्तर समावेशशालिन्या लोलया त्वज्जुषां - त्वां प्रोत्या सेवमानानाम् । एष इति - असामान्यो रागः परिपोषं प्राप्तः । यद्वियोग- भुवि - व्युत्थाने संकथा संस्मृतिश्च कर्त्री संगमोत्सवं फलति | वियोगभुवि संभोगदशां संगमोत्सवम् इत्युक्तचा अलौकिकत्वमनुरागस्य ध्वनति ॥ १२ ॥ यः सुरसोइलाख्यं चतुर्थ स्तोत्रम् - यो जो विचित्ररससेकवर्धितः शङ्करेति शतशोऽप्युदीरितः । शब्द आविशति तिर्यगाशये- ब्वप्ययं नवनवप्रयोजनः ॥ १३ ॥ अनूठे रस- = आनन्द - रस के सेक- = सींचने से वर्धितः = वृद्धि को प्राप्त हुआ शतशः अपि = और सैकड़ों बार उदीरितः = उच्चारण में आया हुआ उत्सव = उत्सव को फलति = उत्पन्न करती है ॥ १२ ॥ ते जयन्ति मुखमण्डले भ्रमन् अस्ति येषु नियतं शिवध्वनिः । यः शशीव प्रसृतोऽमृताशयात् स्वादु संस्रवति चामृतं परम् ॥ १४ ॥ - ( स्वरूप समावेश के ) अयम् = यह शङ्कर - इति = 'शिव' - = ६१ लोगों के ) आशयेषु = हृदयों में -- शब्द: = शब्द तिर्यग् = पशुओं के समान ( मूर्ख अपि = भी. - [ युगलकम् ] १. ख० पु० त्वद्वियोगभुवि - इति पाठः । २. ख० पु० यैर्विचित्ररस - इति पाठः । ३. ख० पु० विसृतोऽमृताशयात् — इति पाठः । नव-नव- = अपूर्व ( चमत्कार के ) ६२ श्रीशिवस्तोत्रावली. प्रयोजनः = प्रयोजन से युक्त ( सन् = होकर ) आविशति = प्रस्फुरित होता है । यः च = और जो (यह 'शिव' शब्द ) येषु = जिन ( भक्तों ) के · शशी इव = चन्द्रमा की नाई मुखमण्डले = मुख-मण्डल में नियतं = निश्चित रूप में अमृताशयात् = अमृतमय कला से प्रसृतः = प्रसारित होता हुआ स्वादु- मधुर

और

= परममृतं = उत्कृष्ट अमृत संस्रवति = खूब बहाता है, 1 ( सः ) = वही (अचिन्त्य महिमा से युक्त ) शिव-ध्वनिः = शिव-ध्वनि - भ्रमन् - = घूमती अस्ति = रहती है, - ते = वे - ( एव = ही ) जयन्ति = धन्य हैं ॥ १३॥१४ ॥ यो' विचित्रेति ते जयन्तीति युगलकम् । ते जयन्ति येषु मुखमण्डले नियतं - निश्चितं कृत्वा भ्रमन् शिवध्वनिरस्ति । यः स्वादु परं चामृतं सम्यक् स्रवति - आनन्दरसं समुच्छलयति । कीदृक् ? अमृताशयात् साक्षात्कृत चिद्धन परमेश्वरस्वरूपात् प्रसृतः - स्वरसेनोचारितः, अमृताशयात् शशी–चन्द्रमा: प्रसृतः मण्डले स्फुरन्, परं स्वामृतं स्रवति | यश्चैव विचित्रेण समावेशरससेकेन वर्धितः, अत एव शतशोऽ 'प्युदीरितः शङ्करेत्ययं शब्दः, तिर्यगाशयेषु – पशुहृदयेष्वपि, नवनव- प्रयोजन: - प्रतिक्षणं तत्तदपूर्वचमत्कारकारी, आविशति- परिस्फुरति || • परिसमाप्तमिवोग्रमिदं जगद् विगलितोsविरलो मनसो मलः । तदपि नास्ति भवत्पुरगोपुरा- र्गलकवाट विघट्टनमण्वपि ॥ १५ ॥ १. ख० पु० यो विचित्रेत्यादि युगलकमित्यन्तं पदकदम्भकं नास्ति ।

२' ख० पु० परमेश्वररूपात् — इति पाठः ।

३. ख० पु० स्फुरत् — इति पाठः । ४. ख० पु० यच्चैव — इति पाठः । ७५. ख० पु० वर्धितोऽपि - इति पाठः । ( प्रभो = हे प्रभु ! ) - इदम् = यह उग्रं = भयंकर सुरसोलाख्यं चतुर्थ स्तोत्रम् विगलितः तदपि = तो भी - भवत् = आपकी पुर- आनन्द पुरी के = फाटक के अर्गल - = अर्गलायुक्त — कवाट = किवाड़ अणु अपि = ज़रा भी नास्ति = नहीं खुलते ॥ १५ ॥ -- जगत् = जगत - परिसमाप्तम् इव = समाप्त होने को है, गोपुर- ( च = और ) मनसः = ( मेरे ) मन का अविरलः = बहुत बड़ा मलः = मल ( विकार ) - = नष्ट हुआ है, - प्रस्फुरत्प्रत्यप्रसमावेशसंस्कारस्य व्युत्थानभूमिमबतितीर्षोरियमुक्तिः । उग्रं-भेदमयत्वाझीषणम् | जगत् - बिश्वं, परिसमाप्तमिव समाविष्टस्य हि न बाह्यं विश्वं विभाति, अथ च संस्कारशेषतया आस्ते इति इव शब्दः | मनसश्च अविरलो घनः मलः - अविद्या कलात्मा विगलितः । तथापि निःशेषशान्ताशेष विश्वमयप्रफुल्लमहाविद्योद्यज्जगदानन्दमयस्य पूरकत्वात्पुररूपस्य यद्गोपुरं पुरंद्वारं; परमशक्तिरूपं तत्र अर्गलयुक्त- कवाटविघट्टनम् अतिदृढाख्यातिपुटविपाटनं मम मनागपि नास्ति । अनेन प्रविगलितनिःशेषदेहादिसंस्कारां परां भूमिमेवोपादेयत्वेन ध्वनति | यदुक्तं 'सर्वथा त्वन्तरालीनानन्ततत्त्वौघनिर्भरः । , शिव: चिदानन्दधनः परमाक्षरविग्रहः ॥' प्र० ४ अ ०, १ श्र० १४ का० ॥ १. ख० पु० स्फुरत् इति पाठः । २. गोपुरं द्वारमिति ख० पु० पाठः । इत्यादि श्रीप्रत्यभिज्ञायाम् । 'सर्वातीतः शिवो ज्ञेयो यं विदित्वा विमुच्यते । इति श्रीपूर्षशाको ॥ १५ ॥ सततफुल्लभवन्मुखपङ्कजो- दरविलोकनलालसचेतसः । A ६४ श्रीशिवस्तोत्रावली किमपि तत्कुरु नाथ मनागिव स्फुरसि येन ममाभिमुखस्थितिः ॥ १६ ॥ नाथ = हे स्वामी ! - सतत = सदा फुल्ल - = खिले हुए भवत् = आप के मुखपङ्कज = मुख कमल के उदर = मध्य भाग को विलोकन - = देखने के लिए लालस- लालायित बने हुए = मन वाले चेतसः मम = मुझ पर - मनाक् इव = ज़रा सा तत् = वह किमपि = अलौकिक ( अनुग्रह ) - कुरु = कीजिए: येन = जिससे किं - अभिमुख- = ( मेरे ) सामने स्थितिः सन् = ठहरे हुए रूप में स्फुरसि = आप प्रकट हो जायें ॥ १६॥ सततं फुल्लं- नित्यं विकसितं यत् त्वन्मुखकमेलम् 'शक्तयवस्था प्रविष्टस्य निर्विभागेन भावना | तदासौ शिवरूपी स्यात् शैवीमुखमिहोच्यते ॥ वि० भै० श्लो० २० ॥ इति स्थित्या त्वत्पराशक्तिरूपं यंत्पद्मं तस्य यदुदरं मध्यं, परं तावकं परशक्तिसामरस्यमयं शाम्भवं रूपं, तस्य विलोकनं समावेशः, तत्र लालसं - सातिशयाभिलाषं चेतो यस्य, तस्य मे, किमपि तत्- असंभाव्यमुपायप्रदर्शनं, मनागिव - हेलामात्रेण कुरु, येन ममाभिमुख- स्थितिः सन् स्फुरसि ॥ १६ ॥ त्वदविभेदमतेरपरं नु किं सुखमिहास्ति विभूतिरथापरा । तदिह तावकदासजनस्य किं कुपथमेति मनः परिहृत्य ताम् ॥ १७ ॥ १. ख॰ पु० त्वन्मुखकमलम् - इत्यनन्तरं 'शैवीमुखमिहोच्यते’–इत्येव पाठः । २. ख० पु० पद्मम् इति पाठः २. ग० पु० त्वत्पराशक्तिपद्मम् - इति च पाठः ( ईश = हे प्रभु ! ) - इह = इस संसार में त्वद् - = आप की दास-जनस्य अविभेदमतेः = अभेद - बुद्धि को छोड़कर मनः = मन किं नु अपरं = दूसरा सरसोइलाख्यं चतुर्थ स्तोत्रम् = भला कौन सा सुखम् = सुख अस्ति = ( हो सकता ) है अथ = और अपरा = ( कौन सी ) दूसरी विभूतिः = संपदा ( हो सकती ) है । - तत् = तो ( फिर ऐसा होते हुए भी ) तावक = आप के दास का ( प्रभो = हे स्वामी ! ) चेत् = यदि अहं = मैं आदरात् = बड़े आदर से - ( च = और ) अविरतं = लगातार भवद् = आप के तां = उस ( अद्वयानन्दरूपा बुद्धि ) को परिहृत्य : = त्याग कर किं = क्यों - १. ख० पु० धावति — इति पाठः । = - कुपथम् = ( व्युत्थानरूपी ) कुत्सित मार्ग को ही समावेशस्फुरितायास्त्वदद्वयसंविदः अपरं सुखं - विभूत्यादि च न किंचिदस्ति; - तस्या एव सर्वातिशायित्वात् । ततः किमिति तावकदास- जनस्य तां - त्वविभेदसंविदं परिहृत्य, मनः कुपथमेति - व्युत्थान- भूमिमेवाधावति ।। १७ ।। - - क्षणमपीह न तावकदासतां प्रति भवेयमहं किल भाजनम् । भवदभेदरसासवमादरा- दविरतं रसयेयमहं न चेत् ॥ १८ ॥ 1 पति = ग्रहण करने लगता है ॥ १७ ॥ = अभेद-रस- = अद्वयानन्द - रस रूपी आसवम् = मदिरा का न रसयेयम् = स्वाद न लेता रहूं, ( तर्हि = तो फिर ) अहं = मैं = यहां तावक- = आप के दासतां प्रति = दासभाव का भाजनं = पात्र क्षणमपि = क्षण भर के लिए भी श्रीशिवस्तोत्रावली यदि भवदद्वयानन्दरसासवम् अहमविरतं नास्वादयेयं, तत्तव दासतां प्रति क्षणमपि भाजनं न भवेयम्; - आनन्दघनत्वत्स्वरूपापरि- चितत्वात् ॥ १८ ॥ ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) - अयं = यह - जनः = जीव न किल पश्यति सत्यमयं जन- स्तव वपुर्द्वयदृष्टिमलीमसः । तदपि सर्वविदाश्रितवत्सलः किमिदमारटितं न शृणोषि मे ॥ १९ ॥ 'सत्यं = सचमुच द्वयदृष्टि - = भेद-दृष्टि से मलीमसः = मलिन बना हुआ किल = निश्चित रूप में = • किल = कदापि न भवेयम् = न बन जाऊं ॥ १८ ॥ तव = आप के "वपुः = चिदात्मा स्वरूप को न पश्यति = नहीं देख पाता है, तदपि = पर तो भी ( त्वं = []) सर्ववित् = सर्वज्ञ और = आश्रित = भक्तों के प्रति - वत्सलः = अनुकूल ( सन् = होते हुए ) इदं मे = इस मेरी आरटितं = पुकार को = किं न = क्यों नहीं शृणोषि = सुनते ॥ १९ ॥ अयं तावज्जनः भेददृष्टिमलीमसत्वात् तव सत्यं चिद्धनं वपुः न पश्यति । तथापि त्वं सर्ववित्- सर्वज्ञः । आश्रितवत्सलः - भक्तानु- कूलः । अत एव स्वयमेवोचितस्वात्मदर्शनदानेऽपि मे किमिति, आरटितम् - आकन्दितं न शृणोषि दर्शनं तावत् झगिति, मम आरटितं — भक्तिविवशचित्तस्य आक्रन्दितमात्रं तु शृणु इति प्रार्थयते || स्मरसि नाथ कदाचिदपीहितं विषयसौख्यमथापि मयार्थितम् । सुरसोइलाख्यं चतुर्थ स्तोत्रम् सततमेव भवद्वपुरीक्षणा- मृतमभीष्टमलं मम देहि तत् ॥ २० ॥ नाथ = हे स्वामी ! किं त्वं = क्या आपको स्मरसि = याद है ( यत् = कि ) मया = मैंने = कदाचित् = कभी = अपि = भी = विषय-सौख्यम् = विषय-सुख की ईहितम् = चेष्टा की है अथापि तत् (= सुख ) अर्थितं = मांगा है ? ( वह विषय- महेश = हे परमेश्वर ! = किल = सचमुच यदा एव = ज्यों ही ( अहं = मैंने ) - ( सच तो यह है कि ) मम ( तु ) = मुझे तो ( केवलं = केवल ) - भवद्वपुः = आप के स्वरूप का ईक्षण- = साक्षात्कार रूपी अमृतम् = अमृत एव = ही - सततम् = सदैव अलम् = अत्यन्त अभीष्टम् = प्रिय है तत् ( एव ) = वही - ( मह्यं ) देहि = मुझे दीजिए ॥ २० ॥ - ईहितं—चेष्टितं' प्रयत्नेनार्जितं, अथाप्यथितं कातिं कदाचिदपि मया विषयसौख्यमिति नाथ स्मरसीति निर्यन्त्रणोक्त्या गाढप्रभुपरिचयं ध्वनति | केवलं मम सदैव भवद्वपुरीक्षणामृतं - त्वत्स्वरूपप्रकाशनरसाय- नम् अलमभीष्टम | तदेव च देहि — प्रयच्छ ।। २० ।। किल यदैव शिवाध्वनि तावके कृतपदोऽस्मि महेश तवेच्छया । शुभशतान्युदितानि तदैव मे किमपरं मृगये भवतः प्रभो ॥ २१ ॥ ६७ तव = आप की इच्छया = इच्छा से तावके = आप के शिव- = कल्याण मय १. च० पु० 'चेष्टितम्' इति न दृश्यते । ६८ अध्वनि = मार्ग पर = कृतपदः अस्मि = पदार्पण किया, तदा एव = त्यों ही - मे = मेरे - भवतः = आप से शुभ-शतानि = सैकड़ों ( प्रकार के ) अपरं = और = - कल्याण का किं उदितानि = उदय हुआ 1 श्रीशिवस्तोत्रावली भगवान् - शिवाध्वनि - श्रेयः शतशालिनि परे शाक्ते मार्गे, प्राप्त विश्रान्तिः ॥ २१ ॥ यत्र = जिस ( अवस्था ) में सः = वह विवस्वान् = ( प्राण रूपी ) सूर्य - = = (रूपी ) चन्द्रमा सह = सहित - चन्द्रमः- प्रभृतिभिः = आदि सर्वैः = सभी (विकल्प रूपी तारागणों) अस्तमयम् = - ( इत्यतः = इस लिए ) प्रभो = हे प्रभु ! ( अहं = मैं ) यत्र सोऽस्तमयमेति विवस्वाँ- चन्द्रमः-प्रभृतिभिः सह सर्वैः । कापि सा विजयते शिवरात्रि: स्वप्रभाप्रसरभास्वररूपा ॥ २२ ॥ = अस्त = क्या मृगये = मांगूं ? ॥ २१ ॥ 1 कृतपदः- एति = हो जाता है, सा = वह अपनी स्व-प्रभा- = कांति के प्रसर = प्रसर से - भास्वररूपा = देदीप्यमान् रूप वाली कापि = अलौकिक ( चिद्रूपिणी ) शिवरात्रिः = शिव-रात्रि = विजयते: `= धन्य है ॥ २२ ॥ १. ख० पु० परमे शाक्ते मार्गे - इति पाठः । २. ख० पु० समस्तमायीयप्रथासंहरणात् — इति पाठः । - सा कापि - लोकोत्तरा, शिवरात्रि :- शिवसमावेशभूमि:, समस्त- मायीयप्रथायाः संहरणाद्रात्रिरिव रात्रिः । कीदृशी ? स्वप्रभाप्रसरेण - चित्प्रकाशजृम्भणेन आसनशीलं रूपं यस्यास्तादृशी । स इति - अशेष- सुरसोइलाख्यं चतुर्थ स्तोत्रम् प्रपञ्चप्रथमाङ्कुरः विवस्वान् प्राणः । चन्द्रमः प्रभृतिभिः- अपानादिभिः सह अस्तमयमेति – प्रशाम्यति । यदि वा विवस्वान्– प्रमाण-प्रकाशः । चन्द्रमः- प्रभृतयः – प्रमेयादयः ॥ २२ ॥ - अप्युपार्जितमहं त्रिषु लोके- ब्वाधिपत्यममरेश्वर मन्ये । नीरसं तदखिलं भवदधि- स्पर्शनामृतरसेन विहीनम् ॥ २३ ॥ अमरेश्वर = हे देवेश्वर ! अहं = मैं त्रिषु = तीनों लोकेषु = लोकों के भवत् = आपके = अङ्घ्रि- = चरणों के स्पर्शन- = स्पर्श रूपी अमृतरसेन = अमृत रस के विहीनं = बिना उपार्जित = प्राप्त किए गए त्रैलोक्यराज्यमपि त्वन्मरीचिसंस्पर्शरसं विना विरसं मन्ये || २३ || नाथ = हे स्वामी ! - बत = अहो ! त्वया = आप से एव = =ही क्लृप्तः = बनाई गई ( और ) तत् = उस अखिलम् = संपूर्ण आधिपत्यम् = स्वामित्व को अपि = भी - नीरसं = रसहीन अर्थात् तुच्छ - मन्ये = समझता हूँ ॥ २३ ॥ बत नाथ ढोऽयमात्मबन्धो भवदख्यातिमयस्त्वयैव क्लृप्तः । यदयं प्रथमानमेव मे त्वा- मवधीर्य श्लते न लेशतोऽपि ॥ २४ ॥ न १. ख० पु० अस्तमेति — इति पाठः । भवत् = आपके ( स्वरूप को ) - अख्यातिमयः = छुपा रखने वाली अयम् = यह आत्म = मानसिक ७० श्रीशिवस्तोत्रावली बन्धः = गांठ दृढः = ( ऐसी ) मज़बूत ( अस्ति = है ) = यद् - = कि = = यह अयं प्रथमानम् एव = भासमान होने वाले - आश्चर्यम् अयमात्मबन्धो- देहादिषु प्रमातृताभिमानः त्वदप्रथारूपः । त्वयैव - अतिदुर्घटकारिणा दृढः क्लृप्तः । न त्वत्र अन्यस्य शक्तिः | यस्मान्मम त्वौं प्रथमानसेव–समावेशे भान्तमेव अवधीर्य - न्यग्भाव्य लेशतोऽपि न लथते - व्युत्थाने प्राधान्यमेवावलम्बते इत्यर्थः ॥ २४ ॥ - अमरेश = हे देवताओं के स्वामी ! ( त्वं = आप ) अनिशं = निरन्तर = . महताममरेश पूज्यमानो- ऽप्यनिशं तिष्ठसि पूजकैकरूपः । बहिरन्तरपीह दृश्यमानः स्फुरसि द्रष्टृशरीर एव शश्वत् ॥ २५ ॥ पूज्यमानः = पूजे जाते हुए अपि = भी - महतां = महापुरुषों अर्थात् भक्तजनों के लिये पूजक-एक-रूपः = केवल पूजक के रूप में ही तिष्ठसि = ( प्रकाशित ) होते हैं । ( च = और) - ८ त्वाम् = आपकी अवधीर्य = उपेक्षा ( यावा ) - करके लेशतः = ज़रा सी अपि = भी न श्लथते = ढीली नहीं होती ॥ २४ ॥ १ . च० पु० 'मम' न दृश्यते । २. ख० पु० त्वामेव प्रथमानम् ३. ख० पु० व्युत्थानप्राधान्यमेव इह = इस जगत में अन्त:- = = भीतर तथा बहिः = बाहर से दृश्यमानः = दिखाई देते हुए अपि = भी = शश्वत् = सदैव द्रष्टृ-शरीरः = द्रष्टा अर्थात् देखने वाले के रूप में एव = ही - स्फुरसि [ = प्रकट होते हैं ॥ २५ ॥ इति पाठः । – इति पाठः । सुरसोइलाख्यं चतुर्थं स्तोत्रम् - बहिर॑न्तः– पूजाद्यवसरे । आपाते भेदेनैव प्रकाशमानत्वात् पूज्य- मानो दृश्यमानञ्च, त्वम मरेश - देवेश, महतां - भक्तिमतां पूजकैकरूपो द्रष्टृशरीरच समावेशसामरस्याद्बोधमयप्रमात्रेकरूपस्तिष्ठसि - स्फुरसि चेति शिवम् ॥ २५ ॥ - इति , श्रीमदुत्पलदेवाचार्यविरचितस्तोत्रावलौ सुरसोद्वलनामके चतुर्थे स्तोत्रे श्रीक्षेमराजाचार्यकृता विवृतिः ॥ ४ ॥ १. ख० पु० बहिरन्तश्च - इति पाठः । २. ख० पु० पूजाद्यवसरेषु इति पाठः । ३. ख० पु० आपात भेदेनैव-इति पाठः । ७१ स्वदेशनाख्यं पञ्चमं स्तोत्रम् त्वत्पादपद्मसम्पर्कमात्रसम्भोगसङ्गिनम् । गलेपादिकया नाथ मां स्ववेइम प्रवेशय ॥ १ ॥ नाथ = हे स्वामी ! त्वत् - = तुम्हारे = पाद-पद्म = चरण कमलों के संपर्क - मात्र- = केवल स्पर्श रूपी सम्भोग = आस्वाद में ॐ तत् सत् अथ ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) - - अहं = मैं भवत् = आपके पाद-अम्बुज- रजः- = धूलि के राजि - पुञ्ज से रञ्जित = रंगे हुए = मूर्घजः = केशों वाला पादाः- मरीचयः । सम्पर्कमात्र सम्भोगः- समावेशास्वादः | गेले- पादिका–हठशक्तिपातक्रमः | स्ववेश्म - चित्स्वरूपमौचित्यात् ॥ १ ॥ - - भवत्पादाम्बुजरजोराजिरञ्जितमूर्धजः । अपाररभसाव्धनर्तनः स्यामहं कदा ॥ २ ॥ = संगिन = आसक्त बने हुए मां = मुझे - चरण कमलों की - गलेपादिकया = हठशक्तिपात के क्रम से स्व- वेश्म = [अपने (चित् रूपी ) घर में प्रवेशय = प्रवेश कराइये ॥ १ ॥ - ( एवं फलतः = और फलस्वरूप ) - अपार = असीम रभसा = हर्ष से आरब्ध = आरम्भ किए नर्तनः = नृत्यवाला कदा = भला कब = स्याम् = बनूं ॥ २ ॥ - १. ख० पु० गलेपादिकया— इति पाठः । २. ग० पु० सदा—इति पाठः । स्वबलनिदेशनाख्यं पञ्चमं स्तोत्रम् एव भवदीयेन पादाम्बुजरजसा अनुप्रहप्रवृत्तपरशक्तिकमलपरागेण, रञ्जितमूर्धजः—अधिवासितान्तंः प्रसरः तदूर्ध्वमध्यशक्तचङ्कुरः । प्रहर्षवशादपारम् - अपर्यन्तं, रभसारब्धं- झगिति गात्रंबितेपो मायाप्रमातृताविघूननं येन । नित्यसमावेशविकस्वर- तमाशास्ते ॥ २ ॥ प्रवर्तितं, नर्तनं- त्वदेकनाथो भगवन्नियदेवार्थये सदा । त्वदन्तर्वसतिर्भूको भवेयं मान्यथा बुधः ॥ ३ ॥ ! वसतिः = वास करता हुआ मैं मूकः = गूंगा ( एव = ही ) भवेयम् = बना रहूँ, ( किन्तु = पर ) अन्यथा भगवन् = हे भगवान् ! त्वद् - = आप ही एक- = एक · नाथः = स्वामी हैं जिसके, - ( अहं = ऐसा मैं ) - इयत् = ( केवल ) इतना एव = ही सदा = सदैव 'अर्थये = मांगता हूं कि त्वद् - अन्तर्- = आपके स्वरूप में - = स्वरूप से विमुख होकर ) बुध: ( अपि ) = ज्ञानवान् भी मा ( भवेयम् ) = न बनूं ॥ ३ ॥ (आप के इयदेव - नीपरमर्थये । यत्त्वमेवैको नाथो - नाथ्यमानः समभिलष- णीयो यस्य सः । त्वदन्तर्वसतिः - चिर्द्धनत्वत्स्वरूपसमाविष्टा मूकोऽपि स्याम् | अन्यथा बुधः—विद्वानपि माभूवम् ॥ ३ ॥ - अहो सुधानिधे स्वामिन् अहो मृष्ट त्रिलोचन । अहो स्वादो विरूपाक्षेत्येव नृत्येयमारटन् ॥ ४ ॥ - १. ख० पु० अधिवासितान्तःप्रसरदूर्ध्वाष्टशक्तयङ्करः—इति पाठः । २. ख० पु० गात्रविक्षेपम् – इति पाठः । ३. ख० पु० नान्यदर्थये - इति पाठः । ४. ख० पु० चिद्धनत्वात्स्वरूपसमाविष्टः इति पाठः । ५. ग० पु० बुधोऽपि - विद्वानपि - इति पाठः । Lab स्वामिन् = हे ईश्वर ! = श्रीशिवस्तोत्रावली - अहो सुधानिधे = हे आनन्द-सागर ! अहो मृष्ट ! = हे चमत्कार स्वरूप प्रभु ! त्रिलोचन = हे त्रिनेत्रधारी ! अहो स्वादो = हे मधुर स्वरूप वाले ! विरूपाक्ष = हे डरावनी आंखों वाले ! = - इत्येव = इसी प्रकार आरटन् = ( करुण स्वर में ) पुका- विजृम्भेय = ( प्रभो = हे प्रभु ! ) ( अहं = मैं ) त्वत्- = आप के पाद-पद्म = चरण कमलों के • स्पर्श से संस्पर्श- = परिमीलित = अन्तर्मुख बने हुए लोचनः = नेत्रों (अर्थात्र) - वाला रता हुआ ( अहं = मैं ) - - प्राग्वन्नित्यसमाविष्टतामाशास्ते । सुधानिधे - आनन्दान्धे । मृष्ट- चमत्कारपद्पतित | स्वादो— अंविच्छिन्नमाधुर्य | नृत्येयमिति प्राग्वत् । आरटन्— स्फुटं परामृशन् ॥ ४ ॥ त्वपादपद्मसंस्पर्शपरिमीलितलोचनः । भवद्भक्तिमदिरामदघूर्णितः ॥ ५ ॥ ( तथा = तथा ) आपकी नृत्येयम् = नाचता रहूं ॥ ४ ॥ - भवत् भक्ति- • भक्ति रूपिणी मदिरा - = मदिरा की मद् - = मस्ती से घूर्णितः = मतवाला (सन् = होकर ) = विजृम्भेय = नाचता रहूं ॥ ५ ॥ त्वच्छत यानन्देन अन्तर्मुखीकृतकरणः । विजृम्भेय - चित्स्वरूपो न्मज्जनागात्रं विनमयेय चिद्गुणीभावं नयेयम् । कीदृक् ? भवति साक्षात्कृते, या भक्तिः - आसेवा, सैव मदिरामदः - कादम्बरीचमत्कारः, तेन घूर्णित:– * महाव्याप्तिं लम्भितः ॥ ५ ॥ - - १. ग० पु० अच्छिन्नमाधुर्य — इति पाठः ।

  • तदुक्तं श्रीतन्त्रालोके -

'ततः सत्यपदे रूढो विश्वात्मत्वेन संविदम् । संविंदन् घूर्णते घूर्णिमहाव्याप्तिर्यतः स्मृता ॥' इति । स्वबलनिदेशनाख्यं पञ्चमं स्तोत्रम् चित्तभूभृद्भुवि विभो वसेयं कापि यत्र सा | निरन्तरत्वत्प्रलोपमयी विभो = हे व्यापक प्रभु ! ( अहं = मैं ) चित्त- चित्त रूपी - भूभृत्- पर्वत की भुवि = भूमि अर्थात् तराई पर क्वापि = कहीं = = एकान्त ) स्थान पर वसेयं = निवास करूं, - सा = वह ( अलौकिक ) किसी ( ऐसे महारसा = परमानन्द-रस- पूर्ण - ( भगवन् = हे ईश्वर ! ) = यत्र = जिस (चिदानन्द रूपी नगरी में देवी समेतः = पराशक्ति के साथ वृत्तिर्महारसा ॥ ६ ॥ यत्र = जहां निरन्तर- = लगातार त्वत्- = आप के स्वरूप में प्रलापमयी = परामर्श करने वाली - त्वम् = आप - आ-सौधात् = ( [अन्तरङ्ग उच्च पर प्रमाता रूपी ) भवन से लेकर आ च गोपुरात् = ( इन्द्रियों के विषय रूपी ) द्वार तक वृत्तिः: ( प्राप्यते = प्राप्त होती है ) ॥ ६ ॥ चित्तमेव अनुल्लङ्घयत्ववासनाश्रयत्वकंठोरत्वादिभिः भूभृत् । तस्य सम्बन्धिन्यां कस्यांचिद्विवेकप्रदायां भुवि - भूमिकायां, वसेयम्, यत्र सा इति - प्राक् परिशीलिता, महारसा – समावेशानन्दमयी, निरन्तरो- घनः, त्वत्प्रलापः— भवत्परामर्श: प्रकृतं रूपं यस्यास्तादृशी वृत्ति:- स्थितिः ॥ ६ ॥ - ७५ ः = स्वरूप स्थिति यत्र देवीसमेतस्त्वमासौधादा च गोपुरात् । बहुरूपः स्थितस्तस्मिन्वास्तव्यः स्यामहं पुरे ॥७॥ बहु-रूपः ( सन् ) = अनेक रूपों को धारण किये हुए स्थितः = ठहरे हैं, तस्मिन् = उसी पुरे = नगरी में अहं = मैं १. ग० पु० प्रतापमयी – इति पाठः । २ ख० पु० कठोरत्वाभिः - इति पाठः । - वास्तव्यः = = निवास स्याम् = करूं ॥ ७ ॥ श्रीशिवस्तोत्रावली तस्मिन् पुरे - त्वदीये पूरके चिदात्मनि रूपे, वास्तव्यः - समाविष्टः स्याम् । यत्र आसौधात् - आन्तरात्सुधासमूहरूपात् प्रतिभालक्षणा- दुच्चाद्धान: आ च गोपुरान्- इन्द्रियविषयरूपाद्वारात्, त्वं देव्या-- परशक्तचा समेतो- नित्यप्रमुदितः । 'न सा जीवकला काचित् इत्यादिनीत्या वससि | बहुरूप : – विश्वात्मा । अत्र अनुरणनशक्तया लौकिकेश्वरंपरिचर्यार्थः स्पष्टः । तथोत्तरत्राप्यनुसर्तव्यः ॥ ७ ॥ - समुल्लसन्तु भगवन् भवद्भानुमरीचयः । विकसत्वेष यावन्मे हृत्पद्मः पूजनाय ते ॥ ८ ॥ भगवन् = हे भगवान् ! भवद् = आप भानु- - • सूर्य भगवान् को मरीचयः = ( अनुग्रह-प्रद ) किरणें ( तावत् = तव तक ) समुल्लसन्तु = चमकती रहें, यावत् = जब तक कि एषः = यह मे = मेरा = हृत् पद्म: = हृदय रूपी कमल की ते = पूजनाय = पूजा के लिए - विकसतु = ( पूर्ण रूप में ) खिल जाय ॥ ८ ॥ मरीचयः–अनुग्राहिकाः शक्तयः | तव पूजनाय – त्वत्पद्समावेशाय ॥ ८ ॥ विकैसतु - व्याप्तिमासादयतु । - प्रसीद भगवन् येन त्वत्पदे पतितं सदा । मनो मे तत्तदास्वाद्य क्षीवेदिव गलेदिव ॥ ९ ॥ १. ख० पु॰ लौकिकैश्वर्यपरिचर्यार्थः -- इति पाठः । २. ग० पु० अनुमन्तव्यः - इति पाठः । ३. ग० पु० विकसन्तु — इति पाठः । ४. ग० पु० व्याप्तिमासादयन्तु — इति पाठः । ५. ग० पु० त्वदसमसमावेशाय – इति पाठः । भगवन् = हे ( सर्व-ऐश्वर्य सम्पन्न ) प्रभु ! प्रसीद = (आप) प्रसन्न हो जाइये, - येन = ताकि त्वत्- पदे = आप के चरणों में सदा = सदैव पतित = पड़ा हुआ मे मनः = मेरा मन स्वबलनिदेशनाख्यं पञ्चमं स्तोत्रम् प्रभो = हे ( सर्वशक्तिमान ) प्रभु ! प्रहर्षात् = हर्ष = अथ वा = या शोकात् = शोक में से - यदि वा - प्रसादः—अम्भस इव स्वयमेव आबिलीभावशान्त्या नैर्मल्यगमनम् । एव मुत्तरत्र | त्वत्पदे – शाक्ते मार्गे, पतितं – लुठितम् । तत्तदिति - ते ते लोचने इति वर्णयितुमशक्यतां स्फीततां चास्वाद्य वस्तुनो ध्वनति | क्षीवेदिव गलेदिव इति ससन्देहोत्प्रेक्षया सम्भावनालिंगाश्च स्वानुभव- साक्षिकानुत्तरानन्दरसपरवशताशंसां ध्वनति ॥ ६ ॥ प्रहर्षाद्वाथ शोकाद्वा यदि कुड्योद्धटादपि । बाह्यादथान्तराद्भावात्प्रकटीभव मे प्रभो ॥ १० ॥ - अथवा = दीवार कुड्यात् : ( अथवा = या ) - तत् तत् = उन (अवर्णनीय अव- स्थाओं) का घटात् अपि = घड़े में से ( अथवा = अथवा ) आस्वाद्य = अनुभव करके - क्षीवेत् इव = ( आनन्द से ) मस्त सा हो जाय (और) गलेत् इव = ( उसी आनन्द में ) लय हो जाय ॥ ९ ॥ - ७७ | बाह्यात् = ( किसी ) बाहरी अथ = या आन्तरात् = भीतरी - भावात् = पदार्थ में से ( यथा तथा अपि = जैसे तैसे भी ) ( त्वं = []) मे = मेरे लिए प्रकटीभव = प्रकट हो जाइये ॥ १० ॥ वाप्रभृतिशब्दैः यतः कुतश्चित्स्फुटीभव नास्माकं कचिद्रहः इत्याह । प्रभो – सर्वतः प्रभवनशील ॥ १० ॥ १. ख० पु० यद्वर्णयितुमशक्यताम् इति पाठः । २. प्रहर्षाद्वाथवा शोकात् — इति पाठः । ३. ग० पु० कुड्याद्गृहादपि - इति पाठः । ७८ श्रीशिवस्तोत्रावली मे । बहिरप्यन्तरपि तत्स्यन्दमानं सदास्तु भवत्पादाम्बुजस्पर्शामृतमत्यन्तशीतलम् ॥ ११ ॥ ( भगवन् = हे ईश्वर ! ) तत् = वह अत्यन्त = अत्यन्त शीतलं = शीतल - ( एवं = और ) - बहिः अपि = बाहर तथा अन्तः अपि = भीतर से - 1 स्यन्दमानं = ( अमृत ) बहाने वाला ( नाथ = हे स्वामी ! ) ( यत् = जो ) त्वद् - = आप के पाद- चरणों के संस्पर्श- = स्पर्श रूपी सुधा = अमृत के सरसः = सरोवर के = = पादाम्बुजं शीतलमित्यादि प्राग्वत् ॥ ११ ॥ त्वत्पाद संस्पर्शसुधासरसोऽन्तर्निमज्जनम् 1 कोऽप्येष सर्वसम्भोगलङ्घी भोगोऽस्तु से सदा ॥ १२ ॥ - - अन्तर् = बीच में निमज्जनम् = डूबना ( या करना ) है भवत्- = आप के पाद्-अम्बुज = चरण कमलों का

स्पर्श रूपी

= स्नान स्पर्श- अमृतं = अमृत मे = मुझे सदा = सदैव अस्तु = प्राप्त होता रहे ॥ ११ ॥ एषः = ( वही ) यह - कोऽपि = अलौकिक - ( च = तथा ) सर्व- संभोग- = समस्त भोगों से लंघी भोगः = अत्युत्कृष्ट ( स्वात्मा- = = नन्द रूपी ) भोग मे = मुझे सदा अस्तु = सदैव प्राप्त हो ॥ १२॥ त्वत्पादसंस्पर्श:- रुद्रशक्तिसमावेश: । स एव सुधांसर: - रसाय नाब्धिः । तत्र अन्तर्निमज्जनम् - निःशेषं ब्रर्डनं यत्, एष मम कोऽपीति- असामान्यः भोगः सदा अस्तु । कीदृक् । सर्वान्– सदाशिव पर्यन्तान् भोगान् लँङ्घयते – विरसत्वाभिभवति, तच्छीलः ।। १२ ।। १. ग० पु० शीतलमिति - इति पाठः | २. ख० पु० सुधारसरः -- इति पाठः । ३. ग० पु० ब्रुडनं — इति पाठः । ४. ख० पु० लङ्घते – इति पाठः । स्वबलनिदेशनाख्यं पञ्चमं स्तोत्रम् निवेदितमुपादत्स्व रागादि भगवन्मय । आदाय चामृतीकृत्य भुङ्क्ष्व भक्तजनैःसमम् ॥१३॥ अपने भगवन् = हे भगवान् ! - मया = मुझ से निवेदितं = अर्पित किये गये = राग आदि = राग, द्वेष आदि को = समम् = समेत उपादत्स्व = ( आप ) ग्रहण कीजिए | ( तान् = उनका ) ( एवं ) च = और ( उन्हें ) स्वामिन् = हे स्वामी ! अशेष- = सभी - • लेकर चित्प्रकाश से ) भुवन- = भुवनों का = आदाय = आहार = ग्रास करने से नित्य = सदैव • तृप्तः = परमानन्दघन बने हुए त्वं हे भगवन् – चिन्म॑यस्वात्मन् | आसंसारं यत् मयार्जितं रागादि, तद्वित्तेशाठ्यादिविवर्जनया निवेदितं - त्वय्यर्पितं, निःशेषेण वेदितं चेति । तत्स्वरूपमुपादत्स्व - गृहाण, स्वप्रकाशात्मतामधिष्ठाय समीपे कुरु | अमृतीकृत्येति–परशक्तिस्पर्शामृतेन आप्लाव्य | भक्तजनैः समम्- इत्युक्तया स्वैसमावेशव्याप्तिसमये समस्तभक्तानामपि तन्मयतामा शंसति ।। १३ ।। = आप अमृतीकृत्य = आनन्दमय बना कर भक्त जनैः = हम भक्त जनों के अशेषभुवनाहारनित्यतृप्तः सुखासनम् । स्वामिन् गृहाण दासेषु प्रसादालोकनक्षणम् ॥ १४॥ ( तथा भुंक्ष्व = भोग कीजिये ॥ १३ ॥ दासेषु = ( हम ) सेवकों के लिये सुखासनं = आनन्द-व्याप्ति-मय = प्रसाद - = अनुग्रह - पूर्ण आलोकन- क्षणं = समय = १. ख० पु० चिन्मयस्वामिन् - इति पाठः । २. ग० पु० वित्तशाठ्य चिवर्जनया - इति पाठः । ३. ग० पु० स्वप्रकाशात्मकतामधिष्ठाय—–—इति पाठः । ४. ख० पु० स्वसमावेशतासमये - इति पाठः । - दृष्टि-पात का गृहाण = ग्रहण कीजिए ( अर्थात् अब हम पर अनुग्रह कीजिये ) ॥१४॥ ८० श्रीशिवस्तोत्रावली हे स्त्रामिन् अशेषभुवनाहारेण नित्यतृप्तः– परमानन्दघन: । दासेषु व्याख्यातरूपप्रसादालोकनावसरं गृहाण - प्रकाशार्हत्वमधिष्ठापय कीदृशं ? सुखेन आस्यते यत्र तत् आनन्दव्याप्तिमयम् ॥ १४ ॥ अन्तर्भक्तिचमत्कारचर्वणामीलितेक्षणः नमो मह्यं शिवायेति पूजयन् स्यां तृणान्यपि ॥१५॥ ( अहं = मैं ) ( प्रभो = हे स्वामी ! ) अन्तर्- = ( श्रहं परामर्श रूपिणी ) मह्यं = 'मुझ ( चिद्रूपी ) शिवाय = शिव को भीतरी भक्ति- भक्ति के चमत्कार = चमत्कार का चर्वण- = आस्वाद लेने से आमीलित- = बन्द की हुई ईक्षणः = आंखों वाला (अर्थात् अन्त र्मुखीभूत इन्द्रियों चाला ) नमः = नमस्कार हो' इति = ऐसा कहते हुए तृणानि तिनकों की अपि = भी पूजयन् = पूजा करता = स्याम् = रहूं ॥ १५ ॥ अन्तः- पूर्णाहन्तायां भक्तिचमत्कारीमीलितेक्षणः - इति प्राग्वत् । - - महां - - चिद्रूपाय शिवाय नमः - इति कृत्वा तृणान्यपि पूजयन् स्याम् शिवतया परामृशेयम् ॥ १५ ॥ अपि लव्धभवद्भावः स्वात्मोल्लासमयं जगत् । पश्यन् भक्तिरसाभोगर्भवेयमवियोजितः ॥१६॥ - जगत् = जगत को = स्वात्म = अपनी ही की उल्लास-मयं: = झलक से युक्त ( भगवन् = हे भगवान् ! ) - लब्ध-भवत्-भावः = आपके अया अपि = भी नन्द को प्राप्त करके ( अहं = मैं ) - ( इदं = और इस ) भक्ति रस = भक्ति-रस के आभोगैः = चमत्कारों से अवियोजितः = वंचित न भवेयम् = रहूँ ॥ १६ ॥ - - | पश्यन् = देखते हुए १. ख० पु० प्रकाशात्मकत्वम् इति पाठः । २. ख० पु० चमत्कारोन्मीलितेक्षणः- इति पाठः । स्वबलनिदेशनाख्यं पञ्चमं स्तोत्रम् लब्धो भवद्भावः - त्वदात्मैक्यं येन । अत एव स्वात्मनः - शिवरूपस्य उल्लास एव प्रकृतं रूपं यस्य, तथाविधं जगत् - विश्वं पश्यन्, भक्तिरसा भोगैः- समावेशप्रबल चमत्कारैः अवियोजितः स्याम् ;- । 'तमनित्येषु भोगेषु योजयन्ति विनायकाः ॥' मा० वि० इत्याम्नायस्थित्या मा कदाचित् स्वात्माभिमानविनायको भक्तचन्त- रायं मे कार्षीदिति यावत् ।। १६ ।। आकाङ्क्षणीयमपरं येन नाथ न विद्यते । तव तेनाद्वितीयस्य युक्तं यत्परिपूर्णता ॥ १७ ॥ नाथ = हे स्वामी ! येन = चूंकि - तव = आप को यत् = जो अपरम् = ( किसी ) दूसरी वस्तु की परिपूर्णता = परिपूर्णता आकांक्षणीयं = अभिलाषा ( सर्वत्र = समस्त शास्त्रों में ) उक्ता = कही गई है ) न = नहीं विद्यते = है, तेन = अतः ( प्रभो = हे स्वामी ! ) = ( अहं = मैं ) तव = आप अद्वितीयस्य = अद्वितीय ( प्रभु ) की - सर्वतो निराकांक्षत्वात् त्वमेव परिपूर्ण इत्यर्थः ॥ १७ ।। हस्यते नृत्यते यत्र रागद्वेषादि भुज्यते । पीयते भक्तिपीयूषरसस्तत्प्राप्नुयां पदम् ॥ १८ ॥ नृत्यते = नाचा जाता है 4 राग-द्वेष-आदि = राग और द्वेष आदि = प्राप्नुयां यत्र = जहां हस्यते = हंसा जाता है, - ( तत्तु = वह तो ) - = प्राप्त करूं युक्तम् = ठीक ( है ) ॥ १७ ॥ - तत् पदं = उस (स्वरूप - समावेशमय ) भुज्यते = भोगे जाते हैं ( च = और ) स्थान को भक्ति- = भक्ति रूपी पीयूष-रसः = अमृत-रस पीयते = पिया जाता है ॥ १८ ॥ १. ग० पु० त्वदैकात्म्यम् इति पाठः । २. ख० पु० स्वाभिमा नविनायकः - इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली - नृत्यते - अन्तःप्रहर्षभरेण देहादिप्रमातृता दोधूयते । भुज्यते- ग्रस्यते रागद्वेषादि-इत्यनेन पुर्यष्टकप्रमातृताया गुणीभाव उक्तः । पीयते-चमत्क्रियते भक्तिपीयूषरसः समावेशानन्दरसः । सर्वस्य च हास्यनृत्यप्रधानभोजनपानक्रिया स्पृहणीया | सात्विह अलौकिकत्वेनोक्ता || तत्तदपूर्वामोद- त्वचिन्ताकुसुमवासना दृढताम् । एतु मम मनसि याव- न्नश्यतु ( प्रभो = हे स्वामी ! ) - तत्-तत् - = उस अनूठे अपूर्व- = तथा अलौकिक आमोद- = आनन्द से युक्त त्वत् - = आप के चिन्ता - = चिन्तन रूपी कुसुम- = फूल की वासना = सुगन्धि मम = मेरे = दुर्वासनागन्धः ॥ १९ ॥ मनसि = हृदय में ( तावत् = तब तक ) - - दृढताम् = स्थिरता को एतु = प्राप्त हो जाय (स्थिर = होकर बनी रहे ), यावत् = जब तक कि दुर्वासना = बुरी वासना रूपिणी गन्धः = दुर्गन्धि नश्यतु = ( समूल ) नष्ट हो जाय ॥ १९॥ - सँस इति विचित्रः, अपूर्वोऽलौकिकः, आमोदो - हर्षो यस्याः त्वच्चिन्तायाः, सैव स्पृहणीयत्वात् कुसुमवासना, दृढतां - प्ररूढत्वं ममैतु मनसि, बावद्रागादिदुर्वासना नश्यतु ॥ १६ ॥ , व नु रागादिषु रागः क्व च हरचरणाम्बुजेषु रागित्वम् । इत्थं विरोधरसिकं बोधय हितममर मे हृदयम् ॥ २० ॥ १. ख० पु० समावेशानन्दप्रसरः –– इति पाठः । २. ख० पु० हासनृत्यप्रधान इति पाठः 1 ३. ग० पु० ममेति इति पाठः । अमर = हे अमर प्रभु ! - क्व नु = "कहां = रागादिषु: = राग आदि विषयों के प्रति हितं = कल्याण की बात विरोध = विरोध के रागः = : आसक्ति च= और - क्क = कहां — हर- = महादेव जी के चरण- = चरण कमलों अम्बुजेषु = के प्रति - स्वबलनिदेशनाख्यं त्वञ्चिन्तामदिरामद- तरलीकृतहृदय ( प्रभो = हे नाथ ! ) - हे अमर ! मम हृदयं विरोधरसिकं— समावेशे त्वत्परं, व्युत्थाने तु विषयोन्मुखम् । हितं बोधय - विवेकितं कुरु, येन व्युत्थाने रागादिरसि- कतां त्यक्त्वा त्वंदनुरक्तमेव आस्ते ॥ २० ॥ विचरन्योगदशास्वपि योगदशासु = योग सम्बन्धी अव- - स्थाओं में विचरन् = फिरता हुआ अपि = भी ( च = तथा ) विषय- पञ्चमं स्तोत्रम् - रागित्वम् = भक्ति” इत्थं = ऐसी विषयव्यावृत्तिवर्तमानोऽपि । - विषयों से रसिक प्रेमी (अर्थात् इन दोनों ) विरोधी बातों में लगे हुए मे = मेरे हृदयं = मन को बोधय = समझाइये ॥ २० ॥ ८३ एव स्याम् ॥ २१ ॥ वर्तमानः अपि = लगा हुआ भी ( अर्थात् इन्द्रियों को वश में रखता हुआ भी ) ( अहं = मैं ) त्वत्- चिन्ता- आप के चिन्तन रूपिणी मदिरा - = मदिरा की मदः = मस्ती से 44 तरलीकृत = चंचल बने हुए व्यावृत्ति = (अपने मन को ) हृदयः एव = हृदय वाला ही हटाने में स्याम् = बना रहूँ ॥ २१ ॥ १. ख० पु० त्वदनुरसिकमेव — इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली योगदशाः – भूमिकाज्ञानानि । विषयेभ्यो व्यावृत्तयः इन्द्रियाणां प्रत्याहाराः, तत्र वर्तमानः । त्वञ्चिन्ता - त्वत्स्मृतिरेव मदिरामदः, तेन तरलीकृतं -- त्याजितं मितभूमिकाप्ररूढि क्षीत्रस्येव घूर्णमानं निजचम- त्कारव्यतिरेकेण कुत्रचिपि भूमिकाज्ञानादावरोहत् हृदयं यस्य तादृगेव स्याम् | अपिशब्देन प्रसङ्गापतितत्वेन अनादरणीयतामाह ॥ २१ ॥ ८४ वाचि मनोमतिषु तथा शरीरचेष्टासु करणरचितासु । सर्वत्र सर्वदा मे पुरःसरो भवतु भक्तिरसः ॥ २२ ॥ ( भगवन् = हे भगवान् ! ) वाचि = वाणी, मन:- = मन मतिषु = और बुद्धि करण- = • इन्द्रियों द्वारा रचितासु = की गई शरीर- = शारीरिक चेष्टासु = चेष्टाओं - तथा = तथा सर्वत्र = सभी अवस्थाओं में ( भवत्- = आपकी ) भक्ति रसः = भक्ति का रस सर्वदा मे = मेरा - = सदा पुरःसरः = साथी = बना रहे ( अर्थात् मुझे उप- लब्ध होता रहे ॥ २२ ॥ भवतु = मनोमतयः– कल्पनाप्रधाना धियः । करणरचितासु बुद्धिकर्मेन्द्रिय- कार्यासु | दर्शनश्रवणादिपूर्वकत्वात्सर्वप्रवृत्तीनाम् । सर्वत्र — सर्वावस्थासु | पुरःसर: आदावेव स्फुरैन् । भक्तिरसः - समावेशचमत्कारः ॥ २२ ॥ शिव- शिव-शिवेति नामनि तव निरवधि नाथ जप्यमानेऽस्मिन् । १ . ख० पु०, च० पु० इन्द्रियेभ्यः इति पाठः । २. ख० पु०, च० पु० त्वत्प्राप्तिरेव - इति पाठः । ३. ख० पु० ज्ञानादवरोहत्— इति पाठः । ४. ग० पु० स्फुरत् - इति पाठः । आस्वादयन् भवेयं कमपि नाथ = हे प्रभु ! शिव- = "हे शिव ! शिव- = हे शिव ! - शिव = हे शिव ! ” इति = इस प्रकार तव = आप के स्वबलनिदेशनाख्यं पञ्चमं स्तोत्रम् अस्मिन् = इस नामनि = नाम का निरवधि = लगातार महारसमपुनरुक्तम् जप्यमाने | = जप करते हुए ( अहं = मैं ) - कमपि = ( उस ) अवर्णनीय - अपुनरुक्तं = नित-नये रूप वाले महा- = पारमार्थिक रसम् = - ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) परिनिपीत- = नष्ट किए जाते हैं समस्त- सारे जड- = जड रूपी अध्वनि = प्रमेय - मार्ग जिससे (और) अगणित- = कुछ भी नहीं समझीजाती अपर = दूसरी ( अर्थात् स्वरूप - व्यतिरिक्त ) = रस का आस्वादयन् = स्वाद - अगणितापरचिन्मयगण्डिके भवेयम् = लेता रहूं ॥ २३ ॥ - ॥ २३ ॥ जप्यमाने- प्रकृष्ट मन्त्रमयतया परामृश्यमाने । अस्मिन्निति - स्वानु- भवैकसाक्षिके अनुत्तरे । भूयो नामग्रहणं समावेशवैवश्यं ध्वनति । कमपीति – अलौकिकम्, अंत एव महच्छन्दः । अपुनरुक्तं- नवनवा- नन्दप्रसरम् ॥ २३ ॥ स्फुरदनन्तचिदात्मक विष्टपे परिनिपीतसमस्तजडाध्वनि । प्रविचरेयमहं भवतोऽर्चिता ॥ २४ ॥ चिन्मय = चित् रूपिणी - गण्डिके = नगरी जिसमें, ऐसे ८५ १. च० पु० 'त' इत्यारभ्य आग्रिमः पाठः न दृश्यते । स्फुरत् - = देदीप्यमान ( चमकते हुए ) अनन्त-= ● और असीमित चिदात्मक = चित् रूपी विष्टपे = भुवन - में ( अहं = मैं ) - . २. ग० पु० नवनवप्रसरानन्दम् – इति पाठः । ८६ भवतः = आप की अर्चिता = पूजा करता हुआ श्रीशिवस्तोत्रावली - स्फुरत्- अनन्तमपरिच्छिन्नं यच्चिदात्मकं विष्टपं - भुवनं विश्वविधा - न्तिस्थानं तत्र । कीदृशे ? परितः - समन्तात् निपीतः समस्तो निःशेषो जडो वेद्यरूपोऽध्वी — तत्त्वादि प्रसरो येन | तथा न गणिता अपरा चिन्मयी गण्डिका - पुरी यत्र; - शिवात्मकचिद्रूपव्यतिरेकेण अन्यस्या- भावात् । अनेन – भिन्नशिववाद निरास उक्तः । तत्र प्रकर्षेण विचरेयं - समावेशेन प्रसरेयं । कीदृक ? भवतः प्रभोरचिता - अद्वैयरूपत्वत्पूजनै- कनिष्ठः ॥ २४ ॥ - ( प्रभो = हे स्वामी ! ) स्फुट- = "अत्यन्त भासिनि = प्रकाश स्वरूप ( तथा = तथा ) शाश्वते = अविनाशी स्व- वपुषि = अपनी स्वरूप ) - ( एव = ही ). प्रविचरेयम् = विहार करूं ॥ २४ ॥ स्ववपुषि स्फुटभासिनि शाश्वते स्थितिकृते न किमप्युपयुज्यते । इति मतिः सुदृढा भवतात् परं मम भवञ्चरणाब्जरजः शुचेः ॥ २५ ॥ ( चिदानन्द- 1 स्थिति- = स्थिति के कृते ( सति ) = स्थिर होने पर किमपि = ( ध्यान, जप आदि ) किसी - ( दूसरी बात का न उपयुज्यते = उपयोग नहीं होता " इति मतिः = ऐसी बुद्धि भवत्- = आप के १. ख० पु० निःशेषेण - इति पाठः । २. ग० पु० अध्या- तन्त्रादिप्रसरः – इति पाठः । ग० पु० तत्त्वाध्वादीति पाठः । ख० पु०, च० पु० ध्वान्तत्वादि प्रसरो येन- ३. ग० पु० व्यतिरेकदैन्यस्याभावात्—इति पाठः । - - ४. ख० पु० श्रद्वयरूपत्वत्पूजैकनिष्ठः- इति पाठः । ग० पु॰ अद्वयरूपत्वात्पूजैकनिष्टः- इति पाठः । पाठः । चरण-अब्ज- = चरण कमलों की रजः- = धूलि से शुचे: = पवित्र बने हुए मम ( अस्तु ) = मुझ को प्राप्त हो भवत्- नाथ = हे स्वामी ! = आपके -- स्वस्मिन् – अनपायिनि, बपुषि- चिदात्मस्वरूपे | स्फुटभासिनि- प्रकाशघने | शाश्वते – नित्ये । स्थितिं कर्तुं न किमपि - ध्यानजपादिकम् उपयुज्यते – उक्तरूपत्वादेव । एतादृशी मम भवञ्चरणाम्बुजरजःशुचे:- त्वच्छक्तिकमल प्रसर परिशीलनेन शुद्धस्य | सुदृढा मतिः - निश्चलनिश्चय- रूपा धी:, परम् – अतिशयेन भवतीत् - नित्योदित समावेशैकघनः स्यामिति यावत् ॥ २५ ॥ - - स्वबल निदेशनाख्यं पञ्चमं स्तोत्रम् किमपि नाथ कदाचन चेतसि स्फुरति तद्भवदंघितलस्पृशाम् । गलति यन्त्र समस्तमिदं सुधा- अंघ्रि-तल- = चरण-तलों के स्पृशां = स्पर्श से युक्त (भक्त जनों) के - चेतसि = मन में कदाचन = कभी - - तत् = वह समाधि-काल में ) सरसि विश्वमिदं दिश मे सदा ॥ २६ ॥ (अर्थात् किसी यत्र = जिस में - ! किमपि = अलौकिक (अवस्था ) = = (साच ) और वह परं : = अत्यन्त. सुदृढा = स्थिर स्फुरति = प्रकट होती है, = L भवतात् = रहे ॥ २५ ॥ इद = यह समस्तं = सारा विश्वं = ( भेद-प्रथा - रूप ) संसार - सुधा- = ( स्वात्मानन्द रूपी ) [अमृत के सरसि = सरोवर में - गलति = लय हो जाता है; ) ( इंदी - मे = मुझे सदा = सदैव दिश १. ख० पु० निश्चयरूपा - इति पाठः । २. ख० पु०, च० पु० भवेत् इति पाठः । = प्रदान कीजिए ॥ २६ ॥ श्रीशिवस्तोत्रावली - हे नाथ ! भवदङ घितलस्पृशां - त्वच्छक्तिस्पर्शशालिनां, कदाचिद्- वसरे, तत्किमपि - असामान्यं वस्तु चेतसि स्फुरति, यत्र समस्तमिदं विश्वं, सुधासरसि - परमानन्दसागरे गलति- तन्मयीभवति । तत्तथा विधमिदं वस्तु मह्यं सदा दिश-प्रयच्छ, यथा नित्यसमावेशानन्दघन एव भवानि – इति शिवम् ॥ २६ ॥ ८८ ● इति श्रीमदुत्पलदेवाचार्यविरचितस्तोत्रावलौ स्वबलनिदेशनाख्ये पञ्चमे स्तोत्रे श्रीक्षेमराजाचार्यविरचिता विवृतिः ॥ ५॥ १. ख० पु त्वद्भक्ति स्पर्श - इति पाठः । २. ख० पु० भवामि इति भद्रम् इति पाठः । उn तत् सत् अथ अध्ववेस्फुरणाख्यं षटं स्तोत्रम् क्षणमात्रमपीशान वियुक्तस्य त्वया मम । निबिडं तप्यमानस्य सदा भूया दृशः पदम्॥ १ ॥ ईशान = हे ईश्वर ! मम = ( आप ) मेरे क्षणमात्रम् = क्षण मात्र के लिए दृशः = ज्ञानचक्षु का अपि = भी पदं = विषय त्वया = श्राप से सदा = सदा अर्थात् लगातार वियुक्तस्य = अलग होने पर ( मैं ) निबिडं = अत्यन्त भूयाः = बने रहें ( अर्थात् मैं क्षण तप्यमानस्य = सन्तप्त होता हूँ । भर भी आप के साक्षात्कार के ( अतः ) आनन्द से वञ्चित न रहूँ ) ॥१॥ व्युत्थानरूपे क्षणमात्रवियोगे, गाढानुरागवैवश्यात् निबिडम् अत्यर्थं, तप्यमानस्य–स्वयमेव सन्तापमनुभवंतो न तु विषयविवशस्य । मम सदा दृशः-ज्ञानस्य, पदं भूयाः—परिस्फुरेत्यर्थः ।। १ ।। बियोगसारे संसारे प्रियेण प्रभुणा त्वया । अवियुक्तः सदैव स्यां जगतापि वियोजितः ॥ २ ॥ ( प्रभो = हे स्वाम !) (अस्मिन् = इस ) संसारे = संसार में वियोजितः = अलग होते हुए प्रियेण = अत्यन्त प्रिय अपि = भी त्वया = आप ( अहं = } ) प्रभुणा = प्रभु से वियोग- = वियोग ही अवियुक्तः एव सदा स्याम् = कभी सारे = सार है जिस का, ऐसे अलग न हो जाऊं ॥ २ ॥ जगता = जगत स १. ख९ पु०, च० पु० अनुभावयतः- इति पाठः । ________________

श्रीशिवस्तोत्रावली अवियुक्तः-समाविष्टः । जगता-क्षित्यादिशिवान्तेन विश्वेनापि वियोजितः-विश्लेषितः । समावेशे च विश्वं' प्रत्यस्तमयो वस्तुतो भवत्येव ॥२॥ कायवाझनसैयंत्र यामि सर्व त्वमेव तत् । इत्येष परमार्थोऽपि परिपूर्णोऽस्तु मे सदा ॥ ३ ॥ (भगवन् = हे भगवान् ! ) परमार्थः = (सैद्धान्तिक रूप में) सत्य काय- = "शरीर, . . . होते हुए वाक्- = वाणी अपि = भी मनसैः = और मन से मे = मेरी दशा में यत्र = जहाँ कहीं भी . . यामि = ( मैं ) विचरता हूँ, सदा = सदा तत् सर्व = वह सब कुछ परिपूर्णः = ( समावेश में प्रत्यक्ष रूप त्वम् एव = आप का ही स्वरूप है" में ) सिद्ध इति एषः = यह बात . अस्तु = होती रहे ॥ ३ ॥ - यत्रेति-विषये । त्वमेव तदिति-चिदेसारत्वात् । इत्येष परमार्थ इति - "यत्र यत्र.................." इत्युपक्रम्य ............ “सर्वं शिवमयं यतः” ॥ स्व० सं० ४ प०, लो० ३१३ ॥ इत्यान्नातत्वात् । परिपूर्ण इति-समावेशेनं साक्षात्कृतः ॥ ३॥ निर्विकल्पो महानन्दपूर्णो यद्वद्भवांस्तथा। भवत्स्तुतिकरी भूयादनुरूपैव वाझम ॥ ४॥ १. ख० पु० विश्वप्रत्यस्तमयो भवत्येव-इति पाठः । २. ग० पु० चिदेकसारं त्वाम् - इति पाठः। ३. ख० पु० समावेशसाक्षात्कृतः--इति पाठः। % - - 2 - - %- वाक् = वाणी % 3D अध्वविस्फुरणावं षष्ठं स्तोत्रम् (प्रभो= हे प्रभु !) स्तुति-करी = स्तुति करने वाली. . यद्वत् = जिस तरह मम = मेरी भवान्-आप निर्विकल्पः = निर्विकल्प (अपि = भी) (च = (भवत्- = आपके) महानन्दपूर्णः = परमानन्द-पूर्ण हैं, अनुरूपा एव = समान ही (अर्थात् तथा = उसी तरह निर्विकल्प और परमानन्द-पूर्ण) भवत्- = आप की भूयात् = हो जाय ॥ ४ ॥ निर्विकल्पः-शुद्धचिद्रूपः । तथेति-निर्विकल्पा महानन्दमयी च | अत एव स्तुत्यसमुचितत्वात् अनुरूपा ॥४॥ और) % % भवदावेशतः पश्यन् भावं भावं भवन्मयम् । विचरेयं निराकाङ्क्षः प्रहर्षपरिपूरितः ॥५॥ (प्रभो = हे ईश्वर !) ( एवं = और) भवत् = आप (के स्वरूप ) में निराकांक्षः = आकांक्षाओं से रहित आवेशतः = समाविष्ट होने से (तथा = तथा) ( अहं = मैं ) प्रहर्ष- = परमानन्द रूपी हर्ष से भावं भावं = प्रत्येक वस्तु को परिपूरितः = पूर्ण =आप का ही स्वरूप । सन् = होकर पश्यन् = समझता रहूं । विचरेयम् = विहार करता रहूं ॥५॥ भावं भावमिति वीप्सया विश्वाक्षेपः । निराकोङ्क इत्यत्र विशेषण- द्वारको हेतुः प्रहर्षेत्यादिः,-प्रकृष्टेन महानन्दात्मना हर्षेण परिपूरित- त्वादेव हि निराकांक्षता भवति ॥५॥ - भवत्-मयं % " भगवन्भवतः पूर्ण पश्येयमखिलं जगत् । तावतैवास्मि सन्तुष्टस्ततोन परिखिद्यसे ॥६॥ १. ख० पु०, च० पु० स्तुत्ये समुचितत्वात्-इति पाठः । २. ख० पु०, च० पु० निराकांक्ष इति विशेषणद्वारकः-इति पाठः । ९२ श्रीशिवस्तोत्रावली %3 - जगत् = संसार को -- - - भगवन् = हे भगवान् सन्तुष्टः = (मैं) .संतुष्ट (अर्थात् ( अहं = मैं ) परनानन्द-पूर्ण ) अखिलं समस्त अस्मि = हो जाऊंगा। ततः = उस के पश्चात् भवतः = आप के स्वरूप से (त्वं = आप ) पूर्ण = परिपूर्ण (ही) न नहीं पश्येयम् = समझता रहूं। परिखिद्यसे खिजाये जाएंगे (अर्थात् तावता = उतने से फिर में अपनी प्रार्थनाओं से आप एव%3 ही को कभी नहीं खिजाऊंगा)॥६॥ भवतः-चिन्मयस्य सम्बन्धितया “प्रदेशोऽपि ब्रह्मणः सार्वरूप्यमनतिकान्तश्चाविकल्पश्च"। इति स्थित्या अखिलं जगत् पूर्ण पश्येयम् । भवता पूर्णमिति पाठे तु स्पष्टोऽर्थः । सन्तुष्टः-परमानन्दमयीं प्रीतिमितः । अतो हेतोर्न परि- खिद्यसे; हे भगवन् चिद्रूपस्वात्मन् ! अणिमादिप्रार्थनाभिः न व्याकु- लीक्रियसे इत्यर्थः॥६॥ विलीयमानास्त्वय्येव व्योनि मेघलवा इव । भावा विभान्तु मे शश्वत्क्रमनैर्मल्यगामिनः ॥७॥ (प्रभो = हे ईश्वर !) नैर्मल्य- = निर्मलता ( अर्थात् शुद्ध व्योनि = आकाश में चिद्रूपता) को विलीयमानाः = लीन बने हुए गामिनः = प्राप्त हो कर मेघ-लवाः = मेघ-खंडों की त्वयि = आप के स्वरूप में इव = भान्ति एव%D ही भावाः = ( संसार के सभी ) पदार्थ (विलीयमानाः = लीन बने हुए) शश्वत्- सदा के लिए मे = मुझे क्रम- 3 क्रमपूर्वक (बिना प्रत्यवाय के) विभान्तु - दिखाई दें ॥ ७ ॥ यत एवोल्लसितास्तत्र त्वय्येव क्रमाक्रमं संस्कारशेषतयापि विर्ग: १. ख० पु० उल्लासिताः-इति पाठः । २. ग० पु० विगलन्तु इति पाठः । = % % - % = ९३ % % - %D - अध्वविस्फुरणाख्यं षष्ठं स्तोत्रम् लन्ते | यथा व्योनि मेघलवाः । ते हि तत एव प्रसृतास्तत्रैव विलीयन्ते । शश्वत्-सदा । क्रमेण नैर्मल्यं शुद्धचिद्रूपत्वं गच्छन्ति तच्छीलाः, इत्यनेन चिदात्मतेवैषां तात्त्विक रूपमिति ध्वनति ॥ ७ ॥ स्वप्रभाप्रसरध्वस्तापर्यन्तध्वान्तसन्ततिः। सन्ततं भातु मे कोऽपि भवमध्यावन्मणिः ॥ ८॥ (भगवन् = हे ऐश्वर्य-संपन्न प्रभु !) कोऽपि = अलौकिक स्व-प्रमा- = अपनी दीप्ति के भवत्- = आप ( का स्वरूप रूपी) प्रसर-प्रसार से मणिः = (चिन्तामणि ) रत्न ध्वस्त- = समूल नष्ट किया है मे = मुझे अपर्यन्त- अथाह भव-मध्यात् = इस संसार में ही ध्वान्तः = अज्ञान रूपी सन्तत सन्ततिः = घना अंधकार जिस ने, ऐसा भातु = दृष्टिगोचर होता रहे ॥ ८ ॥ भवमध्यात्-विश्वस्य मध्यतः । कोपीति-शुद्धचिद्रूपः । भवानेव मणिः-सर्वाभिलाषपूरकत्वात् मम सन्ततम्-अव्युत्थानं कृत्वा, भातु- समावेशेन स्फुरतु । स्वप्रभाप्रसरेण-निजरश्मिपरिस्पन्देन ध्वस्ता अप- र्यन्ता ध्वान्तसन्ततिः-अख्यातिप्रतीतिर्येन ।। ८॥ का भूमिकां नाधिशेषे किं तत्स्याद्यन्न ते वपुः । श्रान्तस्तेनाप्रयासेन सर्वतस्त्वामवाप्नुयाम् ॥९॥ (शंकर = हे कल्याण कारी भगवान् !) = नहीं (त्वं = आप) अधिशेषे = रहते हैं (अर्थात् सभी कां% किस अवस्थाओं में ठहरे हुए हैं) भूमिकां = अवस्था में (च = और) =सदा - - न- %3D % % १. ख० पु० तेषाम्-इति पाठः । २. ख० पु०, च० पु० ध्वस्तपर्यन्त इति पाठः । ३. ग० पु० पूर्णत्वात्-इति पाठः । ४. ख० पु० प्रवृत्तियन-इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली - - - - यत् जो -आपका %3D तत् = वह श्रांतः % ( स्वरूप-अप्रथा से संसार में किं = कौन सी चिर काल से) दुःखी बना हुआ (वस्तु = वस्तु है ) ( अहं = मैं ) त्वाम् =आप को ते: अप्रयासेन = बिना प्रयास के ही वपुः स्वरूप सर्वतः = प्रत्येक स्थान पर (अर्थात् न% नहीं स्यात् = हो सकती ? (अर्थात् प्रत्येक जहां कहीं भी मैं चाहूं) वस्तु आप का ही स्वरूप है । ) अवाप्नुयाम् = प्राप्त करूं (अर्थात् तेन = इस लिए देखू ) ॥ ९ ॥ श्रान्त इति-अप्रत्यभिज्ञातस्वरूपत्वाचिरं संसारे खिन्नः । त्वां- चिद्रूपम अप्रयासेन-ध्यानपूजाद्यायासं विना, सर्वतः-यतः कुतश्चित् अवाप्नयां-समावेशेन स्वीकुर्याम् । यतः का भूमिकाम्-अवस्थिति नाधिशेषे-नाधितिष्ठसि । तद्बाह्यमान्तरं वा वस्तु किं यत्तव वपुः- स्वरूपं न स्यात् ॥६॥ भवदङ्गपरिष्वङ्गसम्भोगः स्वेच्छयैव मे । घटतामियति प्राप्त किं नाथ न जितं मया ॥१०॥ नाथ = हे प्रभु ! घटताम् = सिद्ध हो जाय (अर्थात् भवत्- = आप के प्राप्त होता रहे ), अंग- शरीर के परिष्वंग- आलिंगन का प्राप्ते (सति) = प्राप्त होने पर संभोगः = ( परम-समावेश रूपी ) किं = क्या मया = मैं ने मे = मुझे न जितम् = नहीं जीता ? [अर्थात् स्वेच्छया = अपनी इच्छा से उस दशा में मैं सर्वोच्च अात्मस्थान एव%ही को प्राप्त करूंगा] ॥१०॥ अङ्गपरिष्वङ्गः-परसमावेशस्पर्शः । स्वेच्छया-न तु कादाचित्क- त्वेन । किं न जितं-सर्वोत्कृष्टेन मयैव स्थितमित्यर्थः ॥ १० ॥ १. ख० पु०, च० पु० परमसमावेशस्पर्श:-इति पाठः । - % इयति = इतना - D % चमत्कार %D 34 त्वय्यानन्दसरस्वति मम = ॐ तत् सत् अथ 'वेधुर वैजयनामधेयं सप्तमं स्तोत्रम् चेतः: परिहरतु सकृदियन्तं नाथ = हे स्वामी ! त्वयि समरसतामेत्य नाथ मम चेतः । = आप आनन्द - सरस्वति = आनन्द-सागर में समरसताम् : = समरसता तन्मयता को एत्य = प्राप्त हो कर मेरा भेदाधीनं महानर्थम् ॥ १ ॥ = हृदय भेद्-अधीनं = भेद-प्रथा पर आश्रित ( अर्थात् भेद-प्रथा से होने वाली ) इयन्तं = (ज्ञानरूपी ) इतनी : महा-अनर्थ = बड़ी आपत्ति को - सकृत् = एक बार ही ( अर्थात् सदा के लिए ) परिहरतु दूर करें ॥ १ ॥ = - आनन्दसरस्वति – हर्षसमुद्रे, समरसतां - - समावेशैकभ्यम् सकृत्— एकवारं, परिहरतु - यथा न पुनर्भवतीत्यर्थः । इयन्तम्- अपर्यन्तम् ॥१॥ एतन्मम न त्विदमिति रागद्वेषादिनिगडदृढमूले । -- १. ख० पु० प्रहर्षसमुद्रे — इति पाठः । २. ख० पु०, च० पु० समावेश कैवल्यम् – इति पाठः, ग० पु० समावेशं प्राप्य —— इति च पाठः । - ३. ख० पु० पुनर्भवेत् — इति पाठः । मम = मुझे - नाथ भवन्मयतैक्य- नाथ = हे स्वामी ! एतत् = "यह ( सुखदायक वस्तु ) ( - विधुर विजयनामधेयं सप्तमं स्तोत्रम् तु = तो न = न ( मिले ) " इति: ( अस्तु = मिले ), इदं = यह ( दुःखदायक वस्तु ) = इस प्रकार के प्रत्ययपरशुः पतत्वन्तः ॥ २ ॥ राग-द्वेष- = राग, द्वेष आदि- = आदि रूपी निगड- = बेड़ियों की

भगवन्नानन्दरस- श्रुतास्तु दृढ-मूले = कठिन जड़ पर - भवन्मयता = आपके स्वरूप के साथ : भगवन् = हे भगवान् ! ( मे = मेरे ) - विकल्प- = संकल्प - विकल्प रूपी कलंक- = कलंक की आवली = माला ऐक्य- = एकता का प्रत्यय = पूर्ण विश्वास (अथवा पूर्ण-आनन्द ) रूपी - एतत् - सुखं तद्धेतुरूपं मम अस्तु, इदं तु – दुःखं तद्धेतुरूपं मम मा भूत्, – इत्येवं भेदावग्रहरूपं रागद्वेषाद्यात्मनो निगडस्य - बन्धनस्य दृढे – कठिने मूले अन्तर्- मध्ये भवन्मयतैक्यप्रत्ययः - चिदैक्यप्रतीति- रेव परशु: - कुठार: पततु ॥ २ ॥ - - गलतु विकल्पकलङ्कावली परशुः = फरसा अन्तः = बीच में ही पततु = आ पड़े (अर्थात् राग, द्वेष आदि को तहस-नहस कर दे) ॥२॥ समुल्लसतु हृदि निरर्गलता । ९७ मे चिन्मयी मूर्तिः ॥ ३ ॥ गलतु = नष्ट हो जाय, हृदि = ( मेरे ) हृदय में निरर्गलता = पूर्ण स्वतंत्रता ( का भाव ) समुल्लसतु १. ख० पु० भेदावग्रहरूपरागद्वेषाद्यात्मनः—— इति पाठः । = चमक उठे ९८ ( एवं = और) - मे = मेरी चिन्मयी = चैतन्यमयी मूर्तिः = मूर्ति रांगादिमयभवाण्डक- श्रीशिवस्तोत्रावली विकल्पानां भेदप्राधान्यात् कलङ्कता । निरर्गलता - निःशङ्कता - स्वातन्त्र्यम् | मम चिन्मयी मूर्ति :- प्रमातृता, आनन्द्रसप्लुता - समावे- शानन्दोच्छलिता अस्तु ॥ ३ ॥ आप्याययतु रसैम मय-

भरे हुए

- भव- = ( इस ) संसार रूपी अण्डक- = अंडे में लुठितं = लोटते हुए मां = मुझे - = आनन्द-रस- = आनन्द के रस से - प्लुता = प्लावित लुठितं त्वद्भक्तिभावनाम्बिका तैस्तैः । अस्तु = हो जाय ॥ ३ ॥ - प्रवृद्धपक्षो यथा भवामि खगः ॥४॥ ( परमात्मन् = हे परमेश्वर ! ) अम्बिका = माता राग-आदि- = राग, (द्वेष) आदि सेतैः तैः = उन ( अलौकिक ) = त्वदू- = आप की भक्ति- = भक्ति की भावना = भावना रूपिणी रसैः = ( परमानन्द के ) रसों से = आप्याययतु = पुष्ट करे, यथा = जिस के फल-स्वरूप ( अहं = मैं ) प्रवृद्ध-पक्षः = बढ़े हुए ( आण रूपी ) परों वाला खगः = पक्षी भवामि = बन जाऊं ॥ ४ ॥ १. पूर्ण व्याख्या—जिस प्रकार पक्षिणी अंडे में लोटते हुए अपने बच्चे को रसों से पुष्ट करती है, जिस से उस के पर बढ़ जाते हैं और वह आकाश में उड़ने योग्य हो जाता है, उसी प्रकार की भक्ति की भावना राग, द्वेष आदि से भरे हुए इस संसार में फंसे हुए मुझ को परमानन्द के रस से पुष्ट करे, ताकि मैं स्वतंत्रता पूर्वक चिदाकाश में विहार करूं ॥ ४ ॥ विधुर विजयनामधेयं सप्तमं स्तोत्रम् ९९ रागादिमये भवाण्डके - संसारगोलके, लुठितम् - अधोध: पतन्तं मां, त्वद्भक्तिभावनैव अम्बिका - माता, तैस्तैः - परमानन्दसारैः रसै- राण्याययतु - तर्पयतु । यथा प्रवृद्धपक्षः – प्रकर्षेणासादितव्याप्तिज्ञान- क्रियामयस्वात्मपक्षः । खगः - निर्मलचिद्रगनगतिर्भवामि । - लुठितच पक्षी मात्रा रसैराण्यायित: प्रवृद्धपक्ष: खे' उड्डीनो गच्छतीति श्लेषोपमाध्वनिः ॥ ४ ॥ अण्ड- त्वच्चरणभावनामृत- रससारास्वादनैपुणं लभताम् । चित्तमिदं निःशेषित- - ( प्रभो = हे प्रभु ! ) निःशेषित- = समाप्त कर ली है विषय- = विषय रूपी = विष- विष की आसंग- आसक्ति की विषयविषासङ्गवासनावधि मे ॥ ५ ॥ आप के चरण- चरणों की भावना-

भक्ति-भावना रूपी

अमृत रस = अमृत रस के सार- = सार का आस्वाद = स्वाद लेने (अर्थात् चमत्कार करने ) की नैपुणं = निपुणता को - लभताम् = प्राप्त करे ॥ ५ ॥ = = यह वासना = इच्छा की अवधि = अवधि जिस ने, ऐसा इदं - मे = मेरा चित्तं = मन त्वत्- - त्वच्चरणभावना – त्वंद्भक्तिचिन्ता, सैव - अमृतरससारः - उत्कृष्टः ww आनन्दप्रसरः, तत्र आस्वादे – चमत्कारे, नैपुणं – वैदग्ध्यं ममेदं चित्तं लभताम् | कीदृशम् ? निःशेषितः - समाप्तो विषयविषासंगवासनानां- वेद्यहालांहलव्यसनसंस्काराणामवधिर्मर्यादा येन ॥ ५ ॥ १. ख० पु०, च० पु० खे गच्छति - इति पाठः । - २. ख० पु० त्वच्छक्तिचिन्ता - इति पाठः । त्वद्भक्तितपनदीधिति- संस्पर्शवशान्ममैष दूरतरम् । चेतोमणिर्विमुञ्चतु ( प्रभो = हे स्वामी ! ) एष = यह मम =

मेरा

वशात् - = पा कर राग- = राग चेतः- मणिः = हृदय रूपी ( सूर्यकांत ) आदिक- रत्न श्रीशिवस्तोत्रावली रागादिक-तप्तवह्निकणान् ॥ ६ ॥ 1 संस्पर्श- = स्पर्श क = त्वद् = आप की भक्ति- = भक्ति रूपी तपन = = सूर्य की दीधिति- = किरणों के तस्मिन्पदे भवन्तं आदि तप्त- वह्नि- कणान् = ( वासनाओं के संस्कार रूपी ) आग के गर्म ज़रों को मम चेतोमणिरौ चित्याञ्चित्तसूर्यकान्तरत्नं, त्वद्भक्तितपनदीधिति- संस्पर्शवशात् - भवत्समावेशसूर्यकरासङ्गात्, कणान् मृष्टुमशक्यान् स्फुलिंगान्, दूरतरम् — अत्यर्थ, मुतु- - रागादिकानेव तप्तवह्नि- नहातु ॥ ६ ॥ हरिहर्यश्वविरिञ्चा दूरतरं = पूर्ण रूप में विमुञ्चतु = छोड़ दे ॥ ६ ॥ सततमुपश्लोकयेयमत्युच्चैः । ( अहं = मैं ) सततं = = सदा तस्मिन् = उस अति-उच्चैः = अत्यन्त ऊंचे ( अर्थात् अलौकिक ) = अपि यत्र बहिः प्रतीक्षन्ते ॥ ७ ॥ दे = स्थान पर ( तिष्ठन्तं = ठहरे हुए ) - भवन्तं = = आप की उपश्लोकयेयं = स्तुति के गीत गाता १. ख० पु० द्रष्टुमशक्यान्– इति पाठः । विधुर विजयनामधेयं सप्तमं स्तोत्रम् अपि = भी - यत्र = जहां • भगवान् विष्णु, हरि- हर्यश्व- = इन्द्र विरिंचा: = और ब्रह्मा - . तस्मिन्नत्युच्चैः पदे – परशक्तिमार्गे त्वामुपश्लोकयेयं - श्लोकैः स्तवेयं सम्यक् परामृशेयम। हर्यश्व: – इन्द्रः | बहिः प्रतीक्षन्ते - लिप्सवोऽपि वार्तानभिज्ञा इति यावत् ॥ ७ ॥ भक्तिमदजनितविभ्रम- शिवमयमखिलं लोकं वशेन पश्येयमविकलं करणैः । - क्रियाश्च पूजामयी सकलाः ॥ ८ ॥ अविकलं = पूर्ण रूप में अखिलं = ( इस ) समस्त -- ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) ( अहं = मैं ) भक्ति- = () (र्थात् लोकं = जगत को समावेश ) के मद- = हर्ष से - जनित- = उत्पन्न हुए विभ्रम- स्वरूप - विलास के वशेन = कारण करणैः (अपनी आंख आदि) इन्द्रियों से बहि: ( एव ) = बाहर ( ही ) प्रतीक्षन्ते = प्रतीक्षा करते हैं ॥ ७ ॥ १. ख० पु० स्तुवीय - इति पाठः । - २. श्रीभैरवीयमुद्राया लक्षणं यथा- शिवमयं = शिव के रूप में - और सकला: = (अपने ) सारे = क्रिया: = कार्यों को - १०१ ( त्वत् - = आपकी ) पूजामयी: = पूजा के रूप में पश्येयम् = देखता रहूं ॥ ८ ॥ = भक्तिमदेन- समावेशप्रहर्षेण जनितो यो विभ्रमो - लोकोत्तरो - - विलासस्तद्वशेन | करणैः चक्षुरादिभिः | अविकलं - पूर्ण कृत्वा, करण प्रसरात्मनि व्युत्थानेऽपि श्रीभैरवीयमुद्राप्रवेशयुक्त या समाविष्ट एव भूत्वा ‘अन्तर्लक्ष्यो बहिर्हष्टिर्निमेषोन्मेषवर्जितः । इयं सा भैरवीमुद्रा सर्वतन्त्रेषु गोपिता ॥” इति । १०२ श्रीशिवस्तोत्रावली अखिलं लोकं - विश्वं लोकं शिवमयम्, क्रियाश्च – वाङ्मनःकाय- व्याप्तीः सकलाः पूजामयीः - चिन्मयस्वरूपोल्लासरूपाः पश्येयम् ॥ ८ ॥ मामकमनोगृहीत- त्वद्भक्तिकुलाङ्गनाणिमादिसुतान् । ममेति वुद्धिं दृढीकुरुताम् ॥ ९ ॥ सूत्वा सुबद्धमूला - ( नाथ = हे स्वामी ! ) मामक = मेरे गृहीत - = मनः- = मन ( रूपी प्राणेश्वर ) से = ( प्राणेश्वरी के रूप में ) स्वीकार की गई त्वद् - = आप की भक्ति- = भक्ति रूपिणी - कुल- अंगना = कुल-स्त्री अणिमा आदि = (-) - सुतान् = पुत्रों को - सूत्वा = उत्पन्न कर के ( इत्येवं = और इस प्रकार ) सु-बद्ध-मूला = सुदृढ मूलों वाली (होकर ) मम = ( ( ये ) मेरे ( ही अपने हैं )', इति = ऐसी - बुद्धिं = ( अपनी ममता-भरी ) बुद्धि को = दृढीकुरुताम् = पुष्ट करे, ( जिस के फलस्वरूप वह मेरे मन से कभी बिछुड़ न सके ) ॥ ९ ॥ - - मामकेन मनसा गृहीता - प्राणेशत्वेन स्वीकृता येयं भक्तिरति- स्पृहणीयत्वात् सर्वजनागोचरत्वाच्च कुलाङ्गना – पत्नी, अथ च आगम- भाषया श्रीकुलेश्वरीरूपा । ६सा अणिमादीनेव सुतान् सूत्वा - अन्त:- स्थितानेवाभिव्यक्ति नीत्वा, महाव्याप्त्या सुस्फुटतया परामृश्य, सुष्ठु बद्धमूला - प्ररूढा सति, 'मम इयद्विश्वं न तु अन्यस्य' - इति बुद्धि दृढीकुरुतां - प्ररूढिं नयतु । अत्र च अभेदसारा अणिमायोऽभिप्रेताः । तथाहि - चित्पद् एव सर्वान्तर्भावक्षमत्वाद् अणिमा, व्यापकत्वान्महिमा, भेदमयगौरवाभावात् लघिमा, विश्रान्तिस्थानत्वात्प्राप्तिः, विश्ववैचित्र्य- ग्रहणात् प्राकाम्यम्, अखण्डितत्वादीशित्वं, सर्व सहत्वाद्यत्र कामाव- १. ख० पु० 'विश्वं लोकम् - इति पदद्वयं नास्ति । विधुरविजयनामधेयं सप्तमं स्तोत्रम् १०३ सायत्वं च | सत्यतः परिपूर्णतया विद्यते, अन्यत्र तु तत्प्रसादादति- परिमितं प्राप्तमिति कृत्वा पूर्णमेवात्र तदभिप्रेतं न त्वन्यत् पूर्णत्वेन नैराकाङ्क्षात्, 'आतां तावदन्यानि दैन्यानि ।' शि० स्तो०, स्तो० ३, श्लो० १६ ॥ इत्यायुक्तेर्व्याघातप्रसंगाच्च । एवमुत्तरत्रापि स्मर्तव्यमिति शिवम् ॥ ६ ॥ इति श्रीमदुत्पलदेवाचार्यविरचितस्तोत्रावलौ विधुर- विजयनामके सप्तमे स्तोत्रे श्रीक्षेमराजाचार्य- विरचिता विवृतिः ॥ ७ ॥ ॐ तत् सत् अथ अलौ केकोद्वलनाख्यमष्टमं स्तोत्रम् यः = यः प्रसादलव ईश्वरस्थितो या च भक्तिरिव मामुपेयुषी । तौ परस्परसमन्वितौ कदा तादृशे वपुषि ( देव = हे परमात्मा ! ) ईश्वर- = ( आप ) ईश्वर के पास स्थितः = ठहरा हुआ जो प्रसाद लवः = थोड़ा सा अनुग्रह है या च = और जो - भक्तिः इव - थोड़ी सी भक्ति माम् = मेरे पास उपेयुषी = आई है, तौ = वे दोनों - - रूढिमेष्यतः ॥ १ ॥ परस्पर = एक दूसरे के साथ समन्वितौ = सम्मिलित हो कर तादृशे = वैसे ( अलौकिक ) - = वपुषि = ( सच्चिदानन्द ) स्वरूप में कदा = कब रूढिम् = विकास को एष्यतः = प्राप्त होंगे ? ( अर्थात् ऐसा समय कब आएगा, जब मैं भक्ति करता रहूंगा और आप अनुग्रह करते रहेंगे ? ) ॥ १ ॥ मायाकालुष्योपशान्त्या चितो नैर्मल्यं प्रसादः । तस्य लव:- अल्पता | पूर्णतायां तु देहापगमाच्छिवतैव । ईश्वर इति सप्तमी अनंन्य- भावे, – ईश्वरे एव स्थित इत्यर्थः । स एव हि चिद्रूपः तथा स्वयमेव प्रसीदति भक्तिप्रसादात् । ईश्वरस्य रूपोपमाव्यप्रत्वम् । इव शब्दो भक्तेः १. ख० पु० अनन्यत्र भावे — इति पाठः । २. ख० पु० ईश्वरस्य रूपोपमाव्यङ्ग्यत्वमिति पाठः । ग० पु० ईश्वरस्वरूपोपमाव्यप्रत्वमिति पाठः । अलोकिकोद्वलनाख्यमष्टमं स्तोत्रम् - परिमिततामाह; - काष्ठा प्राप्त ह्यसौ मोक्षास्वादमय्येव । उपेयुषी- उपगतवती । तौ — भक्तिप्रसादौ परस्परं सम्यगन्वितौ तरुणाविव प्रेम- निर्भरतया स्वानुरूप्येण सम्बद्धौ | तादृशे वपुषि इति - परमानन्दघनतै कमये पूर्णे स्वरूपे | रूढिं – विश्रान्तिम् ॥ १ ॥ त्वत्प्रभुत्व परिचर्वणजन्मा कोऽप्युदेतु परितोषरसोऽन्तः । सर्वकालमिह मे परमस्तु ज्ञानयोगमहिमादि विदूरे ॥ २ ॥ मे = मेरे ( ईश्वर = हे स्वामी ! ) इह = इस संसार में - परं = = केवल = त्वत् - = आप के - प्रभुत्व = स्वामित्व के परिचर्वण- = स्वादन से जन्मा = उत्पन्न हुआ कोऽपि = अलौकिक = अन्तः = : हृदय में उदेतु, = विकसित होता रहे; ज्ञान- = ज्ञान योग- = और योग की महिमा आदि:- = महिमा आदि ( तो ) १०५ - परितोष रस:- = आनन्द - रस सर्वकालं = सदैव ( अर्थात् व्युत्थान - में भी ) त्वत्प्रभुत्वस्य - त्वत्स्वामित्वस्य 'गर्जामि बत' ।' स्तो० ३, लो० ११ ॥ इति प्रागुक्तश्लोकयुक्तथा यत् परिचर्वणं, ततो जन्म यस्य मम

  • कोऽपि - अलौकिकः, परितोषरसः - आनन्दप्रसरः, इति - जगति |

४ विदूरे = दूर ही अस्तु = रहे, ( अर्थात् उनसे मुझे कोई प्रयोजन नहीं ) ॥ २ ॥ १. ख० पु० प्रेमनिर्भरौ - इति पाठः । २. ख० पु० परानन्दघनतैकमये—–—इति पाठः । ग० पु० परमानन्दघनतैकसारे - इति पाठः । - ३. ख० पु० त्वत्स्वामिकत्वस्येति पाठः । ४. ग० पु० स कोऽपि - इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली - सर्वकालं - व्युत्थानावसरेऽपि | परं - केवलम् | उदेतु – उल्लसतु | ज्ञानं विश्वमयस्वात्मप्रतिपत्तिः | योगः – तत्तभूमिकालाभ: । तयोर्महिमा - प्रकर्षः । आदिपदात्त॑त्तत्सिद्धयुदरूपः फलम् ॥ २ ॥ लोकवद्भवतु मे विषयेषु स्फीत एव भगवन्परितर्षः । केवलं तव शरीरतयैतान् लोकयेयमहमस्तविकल्पः ॥ ३ ॥ भगवन् = हे भगवान् ! - लोक-वत् = ( अन्य ) लोगों की तरह अस्त- = नष्ट हुए - मे = मुझे ( अपि = भी ) विषयेषु = विषयों के प्रति - स्फीतः एव = बहुत बड़ी परितर्षः = तृष्णा भवतु = बनी रहे केवलं: = पर केवल इतनी सी बात हो कि - अहम् = मैं - विकल्पः = विकल्पों वाला ( सन् = होकर ) एतान् = इन ( विषयों ) को तव = आप के ३. ख० पु० भेदमुपेतः - इति पाठः । - शरीरतया = स्वरूप से ही - लोकयेयम् = देखता रहूं ॥ ३ ॥ महाथं मुद्रामुद्रित॑स्येयमुक्ति: । हे भगवन् मम लोकस्येव विषयेषु - रूपादिषु, स्फीतः - बहल एव परितर्ष:- स्पृहयालुता अस्तु, किन्तु एतान् – विषयान् अहम् अस्तविकल्प:- गलितभेदप्रतिपत्तिः सन्, तव - चिदात्मनः शरीरतया - अहन्तासारत्वेन, लोकयेयं – पश्येयम् ॥ ३ ॥ देहभूमिषु तथा मनसि त्वं प्राणवर्त्मनि च भेदंमुपेते । संविदः पथिषु तेषु च तेन स्वात्मना मम भव स्फुटरूपः ॥ ४ ॥ १. ख० पु० तत्सिद्धयुदयरूपः फलम् - इति पाठः । - २. ग० पु० मुद्रितस्योक्तिः इति पाठः । ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) देह - = देह-भूमियों भूमिषु = ( अर्थात् बुढ़ापा, मृत्यु = आदि अवस्थाओं ) में तथा = और - मनसि = ( संकल्प - विकल्प-मय ) मन में च = तथा भेदम् = भेद को - अलौकिकोद्वलनाख्यमंष्टमं स्तोत्रम् उपेते = प्राप्त हुए प्राण- वर्त्मनि = प्राण-मार्ग में (अर्थात् सुख-दुःख आदि अवस्थाओं में) एवं च = तेषु = उन संविदः = ज्ञान सम्बन्धी पथिषु = मार्गों में ( अर्थात् सभी व्यावहारिक नील-पीत आदि ज्ञानों में ) = त्वं तेन = उस ईश = हे स्वामी ! - इमाः = ये मम = मेरी = आप स्वात्मना = चिदानन्दरूपौकिक स्वरूप में मम = मुझे स्फुट रूपः = प्रत्यक्ष दर्शन भव = दीजिए ॥ ४ ॥ S देहभूमिषु– जरामरणाद्यवस्थासु, मनसि – कल्पैनासारे, प्राण- वर्त्मनि–सुखदुःखादिस्पर्शमये, सम्विदः पथिषु – नीलादिज्ञानेषु, तेषु इति - विचित्रेषु, भेदमुपेते इति - नपुंसकशेषः, सर्वस्मिन्नस्मिन्नभिहिते प्रकारे भेदमये सतीति यावत् | तेनेति - स्वात्मनि चमत्कृतेन चिद्धनेन, स्वात्मना – स्वरूपेण, मम स्फुटरूपः – स्वप्राधान्येन स्फुरन् भव ॥ ४ ॥ - निजनिजेषु पदेषु पतन्त्विमाः करणवृत्तय उल्लसिता मम । क्षणमपीश मनागपि मैव भूत् त्वदविभेदरसक्षतिसाहसम् ॥ ५ ॥ उल्लसिताः: = उल्लास अर्थात् श्रानन्द से भरी हुई करण- = इन्द्रियों की १. ख० पु० विकल्पनासारे -- इति पाठः । २. ग० पु० भेदमुपेतः - इति पाठः । ३. ख० पु० नपुंसक विशेषः - इति पाठः । १०८ वृत्तयः = वृत्तियां - निज-निजेषु = अपने-अपने पदेषु = विषयों में पतन्तु = लगी रहें, ( परन्तु = किन्तु ) ८ ( मम = मुझे ) त्वद् = आप के श्रीशिवस्तोत्रावली - ( प्रभो = हे स्वामी ! ) भवत् = आपके आवेश- = स्वरूप- समावेश के अविभेद-रस- = अद्वयानन्द - रस से = वञ्चित होने का क्षति- साहसं इमाः मम करणवृत्तयः -- चक्षुरादिसंविद्देव्यः । उल्लसिताः - अलौ किकेन निजौजसा सोल्लासाः । स्वेषु स्वेषु रूपादिषु विषयेषु प्रसरन्तु । त्वदविभेदरसक्षतिः—त्वंत्समावेशच्युतिः, सैव साहसम्— अंबिमृश्य- 9 कारित्वं मैव भूत | पूंर्वत्र विषयेषु परितर्षः आकांक्षीत्मा उक्तः, इह तु तत्र सम्विदां प्रसरः, - इति विशेषः ॥ ५ ॥ लघुमसृणसिताच्छशीतलं वशेन = प्रभाव से ( अहं = मैं ) लघु- = ( माया के गौरव से रहित होने से ) हल्के, क्षणम् अपि : = क्षण भर के लिए भी मनाक् अपि = और जरा सा भी मैव भूत् = न हो ( अर्थात् मैं आप के विरह को न सह सकूं ) ॥ ५ ॥ ४. ख० पु० आकांक्षा - इति पाठः । - = साहस भवदावेशवशेन भावयन् । चपुरखिलपदार्थपद्धते- व्र्व्यवहारानतिवर्तयेय तान् ॥ ६ ॥ १. ख० पु० समावेशच्युतिः - इति पाठः । २. ख० पु० अविमृश्यकारिता - इति पाठः । - ३. ख० पु० सर्वत्रेति पाठः । - मसृण = ( सुखदायक स्पर्श वाला होने से ) कोमल, सित - = ( प्रकाश-स्वरूप होने से) श्वेत, अच्छ- = ( विश्व - प्रतिबिम्ब-धारी होने से ) निर्मल, शीतलं = और ( संसार-ताप- हारक होने से ) शीतल वपुः = ( आप के आनन्द-मय ) स्वरूप की अलौकिकोइलाख्यमष्टमं स्तोत्रम् भावयन् = भावना करते हुए तान् = उन अखिल- = सब भवदावेशवशेन मायीयगुरुत्वहान्या लघु | सुखस्पर्शत्वान्मसृणं । प्रकाशघनत्वात्, सितं | अच्छं शीतलं चेति प्राग्वत् | भावयन्– सम्पा- दयन्, निखिलायाः पदार्थपद्धतेः- मातृमेयराशेः सम्बन्धिनो व्यवहारान्- लौकिकान् परिस्पन्दान्, अतिवर्तयेय - निवर्तयेय ॥ ६ ॥ विकसतु स्ववपुर्भवदात्मकं समुपयान्तु जगन्ति ममाङ्गताम् । व्रजतु सर्वमिदं द्वयवल्गितं ( प्रभो = हे भगवान् ! ) स्व-वपुः = मेरी आत्मा भवत् = आप का आत्मकं = स्वरूप = पदार्थ - = भाव-वर्ग-सम्बन्धी पद्धते::

= प्रणालियों के

अंगतां = अंग = समुपयान्तु व्यवहारान् = ( भेद-रूप लौकिक ) व्यवहारों को अतिवर्तयेय = छोड़ दूं ॥ ६ ॥ स्मृतिपथोपगमेऽप्यनुपाख्यताम् ॥ ७ ॥ = बन जाये ! इदं = यह - सर्व = सारा • भेद - प्रथा का द्वय- वलिगत = विकास ( सन् = होकर ) विकसतु = खिल उठे । स्मृत-पथ- = स्मृति-पथ में उपगमे = आकर - जगन्ति = ( पृथ्वी से लेकर सदाशिव अपि = भी ( अर्थात याद पड़ने पर तक के सारे ) लोक मम = मेरे - भी ) अनुपाख्यतां व्रजतु = सर्वथा भूल जाये ( अर्थात् इस के साथ मेरा दूर का सम्बन्ध भी न रहे) ॥७॥ = स्वं - चिन्मयं भवदात्मकं वपुः - स्वरूपं विकसतु । अत एव जगन्ति - धरादिसदाशिवान्तानि मम अङ्गताम्-अभिन्नतां, सम्यक् - अपुनरुत्था १. ख० पु० सुखस्पर्शादिति इति पाठः । ११० श्रीशिवस्तोत्रावली नेनोपयान्तु | ततश्च सर्व द्वयवगितं-भेदविजृम्भितं, स्मृतिपथोप- गमेऽपि' अनुपाख्यतां – स्मृतेरविषयतां व्रजतु ॥ ७॥ समुदियादपि तादृशतावका- ननविलोकपरामृतसम्प्लवः । मम घटेत यथा भवदद्वया- प्रथनघोरदरीपरिपूरणम् ॥८॥ ( नाथ = हे स्वामी ! ) तादृश- = ( काश ) उस तावक- ( स्वातन्त्र्य-शक्ति रूपी ) अद्वय- - आप के आनन- = मुख का विलोक- = दर्शन रूपी पर अमृत = परमामृत की संप्लव:: = बाढ़ अपि = भी - समुदियात् = ( कभी ) आ जाती, यथा = जिस से मम = मेरे लिए - भवद् = आप के स्वरूप का अप्रथन- = दर्शन रूपी घोर- दरी- खंदक परिपूरणं घटेत = पूर्ण रूप में भर जाये ( अर्थात् जिस से आप के स्वरूप का दर्शन करने में कोई बाधा न रहे ) ॥ ८ ॥ = = १. ख० पु० पथोपगमे - इति पाठः । २. ख० पु० विलोकने अनुग्रहः - इति पाठः । ३. ग० पु०, च० पु० विलोकः - इति पाठः । ४. ग० पु० परः स्पर्शरसौघोऽपीति पाठः । = • भयंकर - भवद्द्वयाप्रथनं — चिदैक्याप्रथा, सैव घोरा- दुष्पूरा संसारभयप्रदा दरी — खदा, तस्याः परिपूरणं - चिदैक्यसाक्षात्कार :, मम यथा घटेत तथा तादृशं - परमानन्दनदी प्रसरहेतुः यत्तावकमाननं ।' वि० भै०, श्लो० २० ॥ 'शैवी मुखम् " इत्यादि स्थित्या परशक्तिरूपं, तेन यो विलोक:- अवलोकन मनुग्रहः, तस्य वावलोकः—स्मरणं, स एव परामृतसम्वः - परस्पर्शरसौघोऽपि समुदियात् इति रुद्रशक्तिसमावेशप्रकर्षमाशास्ते ॥ ८ ॥ अलौकिकोद्वलनाख्यमष्टमं स्तोत्रम् अपि कदाचन तावकसङ्गमा- मृतकणाच्छुरणेन तनीयसा । सकललोकसुखेषु पराङ्मुखो न भवितास्म्युभयच्युत एव किम् ॥ ९ ॥ ( नाथ = हे ईश ! ) - कदाचन = किसी समय होने वाले = जरा से तनीयसा: तावक = आप के संगम- = समागम रूपी अमृत = अमृत की कण- = बूंदों के आच्छुरणेन = छिड़काव से - सकल- = समस्त लोक = सांसारिक = सुखेषु = सुखों से पराङ्मुखः = विमुख बना हुआ ( अहं = मैं ) - किम् = क्या उभय- = • दोनों ( अर्थात् परमार्थ तथा लौकिक सुख ) से • = च्युतः = वञ्चित एव = ही तो नहीं भवितास्मि = हो जाऊंगा ? ॥ ९ ॥ - तावकसङ्गमः - त्वत्समावेश एव अमृतकणाच्छुरणं सुधाशीकरां- प्लावः | तनीयसा — प्रसरन्निर्मलस्वरूपेण | सकलेषु लौकिकेषु सुखेषु ‘सर्वं दुःखं विवेकिनः' । - १. ख० पु० लावनमिति पाठः । इति स्थित्या हेयेवप, परामृताच्छुरितत्वात् पराङ्मुखो न भवि- तास्मि - सम्मुख एव भविष्यामि । कीदृक् ? उभयस्मात् - द्वैताच्च्युत एव – हेयोपादेयहान्या सर्वमभेदेन पश्यन्नित्यथः ।। ९ ।। सततमेव भवचरणाम्बुजा- करचरस्य हि हंसवरस्य मे । उपरि मूलतलादपि चान्तरा- दुपनमत्वज भक्तिमृणालिका ॥ १० ॥ ११२ अज = हे जन्म-रहित प्रभु ! - सततम्: = सदा एव = हो - भवत् = आप के श्रीशिवस्तोत्रावली चरण-अम्वुज = चरण-कमलों के आकर = ( पराशक्ति रूपी ) सरो- वर में चरस्य = संचार करने वाले मे = मुझ हंसवरस्य = राजहंस को ( भवत् - = आपकी ) भक्ति - = भक्ति रूपिणी S = कमल की डण्डी = ऊपर से ( अर्थात् स्वरूप- प्रवेश के समय ), मूलतलात् अपि = नीचे से ( अर्थात् स्वरूप-विश्रांति के समय ) और मृणालिका उपरि: च अन्तरात् अपि = मध्य में ( अर्थात् स्वरूप - साक्षात्कार रूपी मध्य-काल. में भी ) विभो = हे व्यापक ईश्वर ! समस्त = ( संसार की ) सारी वस्तूनि = वस्तुएँ उपनमतुः = प्राप्त हो ( अर्थात् मेरी आपकी भक्ति का आनन्द सदा उठाती रहे ) ॥ १० ॥ मम हंसबरस्य — भेदाभेद्योर्हानसमादानधर्मिणो व्याख्यात शा सततमेव भवंचरणाम्बुजानाम् आकर:- उत्पत्तिस्थानं पराशक्तिभूस्तत्र विचारिणः । भक्तिरेव मृणालिकाबिसाङ्करः । उपनमतु उपभोग्या अस्तु । उपरि - इत्यादि प्रवेशमध्यविश्रान्तिभूमिभ्य: सर्वाभ्य एवेत्यर्थः । हंसः - आत्मा ॥ १० ।। उपयान्तु विभो समस्तवस्तून्यपि चिन्ताविषयं दृशः पदं च । मम दर्शनचिन्तनप्रकाशा- मृतसाराणि परं परिस्फुरन्तु ॥ ११ ॥ अपि = भी मम = मेरी - चिन्ता - = चिन्ता (अर्थात् विकल्पों) के १. ख० पु० भवच्चरणाम्बुजमाकर - इति पाठः । २. ग० पु० पराशक्तिभूः–इति पाठः । ३. ख० पु० उपभोग्यमस्तु इति पाठः । विषयं = विषय = च= और - दृशः = (मेरे ) नेत्र (आदि इन्द्रियों) के पदं = विषय अलौकिकोद्वलनाख्यमष्टमं स्तोत्रम् चिन्तन- उपयान्तु = बन जाएं, परं = पर केवल ( इतनी सी बात । हो कि ) दर्शन- = दर्शन = सार वाले ( हो कर ) खिल उठें ॥ ११ ॥ चिन्ताविषयं — विकल्प्यताम् । दृशः पदं - साक्षात्कार्यत्वम् । दर्शन- चिन्तनयोरविकल्पस विकल्पयोः प्रकाशामृतं - बोधरसायनमेव सारम् - उत्कृष्टं रूपं येषां, तानि हेयोपादेयकलङ्कशून्यानि समस्तानि वस्तूनि परं - केवलं परितः - समन्तात् स्फुरन्तु ॥ ११ ॥ - परमेश्वर = हे परमेश्वर ! अहं = मैं तेषु तेषु = कृच्छ्रेषु = दुःखों के उपनमत्सु = आने पर - अपि = भी - = उन अनेक निर्भय ) ( एव = ही ) ११३ और चिन्तन के समय (वे ) = प्रकाशं परमेश्वर तेषु तेषु कृच्छ्रे - ष्वपि नामोपनमत्स्वहं भवेयम् । न परं गतभीस्त्वदङ्गसङ्गा- = प्रकाश अमृत- और अमृत (अर्थात. = विमर्श ) रूपी साराणि दुपजाताधिकसम्मदोऽपि यावत् ॥ १२ ॥ भवेयं = बना रहूं कृच्छ्रेषु — क्लेशेषु न केवलमहं - यावत् = बल्कि सङ्गात् उपजात- न परं = न केवल अधिक- = अत्यन्त गत-भीः = दूर हुए भय वाला (अर्थात् सम्मदः = हर्ष को अपि = भी त्वद् = आप के अङ्ग- = ( चित् रूपी ) शरीर के • स्पर्श से = होने वाले भवेयम् = प्राप्त करता रहूं ॥ १२ ॥ गतभी:- त्यक्तभयस्त्वदङ्गसङ्गात्- १. ख० पु०, च० पु० कल्पन्तामिति - पाठः, ग० पु० विकल्पतामिति च पाठः । २. ग० पु० साक्षात्कार्यत्वादिति – पाठः । ११४ श्रीशिवस्तोत्रावली - -X रुद्रशक्तिसमावेशात्, यावदुपजात अधिकः - कृष्टः सम्मदो - हर्षो यस्य तादृगपि भवेयम् | अधिकशब्दस्यायमाशयः यदुत तत्तद्दुःखेष्व- प्युदितेष्व विलुप्तस्थितिस्तत्कवलनक्रमेण महावीरतया पूर्णामेव चिवृत्ति प्राप्नुयाम् ।। १२ ।। भवदात्मनि विश्वमुम्भितं यद् भवतैवापि बहिः प्रकाइयते तत् । यदृढनिश्चयोपजुष्टं तदिदानीं स्फुटमेव भासताम् ॥ १३ ॥ बाहर से भी प्रकाश्यते = प्रकाशित किया जाता है, " इति ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) यत् = "जो ( इदं = यह ) विश्वं - जगत भवत्-आत्मनि: = आप के ( तुर्यानन्द- मय ) स्वरूप ( रूपी सूत्र ) में उम्भितं = पिरोया गया है, तत् = वह भवता = आपके स्वरूप से इति = इस प्रकार यत् = जो ( यह बात मैं ने ) दृढ निश्चय = दृढ़ निश्चय से उपजुष्टं = [अपनाई है ( अर्थात् समा वेश में अनुभव की है ) तदिदानीम् ( अपि) = वह ( अर्थात् में भी ) एव = ही -- बहिः अपि = ( भेद-प्रथा के रूप में ) भासताम् = दिखाई दे स्फुटम् एव = प्रत्यक्ष रूप में १३॥ ८ - यद्विश्वं – व्योमकलातः कालानलान्तं भवदात्मनि उम्भितं - त्वच्चि- त्सूत्रप्रोतं, तद्भवतैव न तु अन्येन | बहिरिति- तत्तत्प्रमात्रपेक्षया बाह्यत्वेन प्रकाश्यते । अपिशब्दो बहि:प्रकाशनेऽपि अन्त:प्रकाशनाविरहमाह | इति यद्वस्तु वाक्यार्थरूपं दृढेन - निश्चलेन निश्चयेन उप-आत्मसमीपे, जुष्टं - प्रीत्या सेवितं, समावेशेनास्वादितं, तदिदानीमिति–व्युत्थानेऽपि, स्फुटमेव भासतां - प्रत्यक्षीभवतु इति शिवम् ॥ १३ ।। इति श्रीमदुत्पलदेवाचार्यविरचितस्तोत्रावलौ अलौकिकोद्वलना- ख्येऽष्टमे स्तोत्रे श्रीक्षेमराजाचार्यविरचिता विवृतिः ॥ ८ ॥ १. ख० पु० अन्तः प्रकाशाविरहमाह - इति पाठः । अब भी ( मुझे ) ॐ तत् सत् अथ = %3D नव- 3 अन्यत् (सर्व) और सब कुछ % -अत्यन्त % स्वातन्त्र्य वेजयाख्यं नवमं स्तोत्रम् कदा नवरसा- सम्भोगास्वादनोत्सुकम् । प्रवर्तेत विहायान्यन् मम स्वस्पर्शने मनः ॥१॥ (नाथ = हे स्वामी !) मनः = हृदय नित नये रस- = ( भक्ति के ) रस से (अर्थात् कल्पनाओं का जाल आई-आई- कोमल आदि ) (अर्थात् अत्यन्त स्पृहणीय ) विहाय = छोड़कर सम्भोग- = ( समावेश रूपी ) त्वद्- सम्भोग का स्पर्शने = स्पर्श करने में आस्वादन- = चमत्कार करने के कदा = भला कब लिये प्रवर्तेत = लग जाये ? ( अर्थात् कब उत्सुकं = लालायित बना हुआ श्राप के समावेश का अनुभव मम = मेरा करेगा?)॥१॥ नवरसेन-नूतनभक्तिप्रसरेण आर्द्राः-सातिशयं स्पृहणीयो यः समावेशात्मा सम्भोगः, तदास्वादे उत्सुकं-सोत्कण्ठं मम मनः, अन्यत्- कल्पनाजालं विहाय त्वत्स्पर्शने प्रवर्तेत-त्वत्समावेशमयं भवेत् ॥ १ ॥ त्वदेकरक्तस्त्वत्पाद- पूजामात्रमहाधनः। -आप का % १. ख० पु० प्रसारेण च- -इति पाठः। ११६ श्रीशिवस्तोत्रावली कदा साक्षात्करिष्यामि ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) - त्वद्-एक-रक्तः = केवल आप में ही - भवन्तमयमुत्सुकः ॥ २ ॥ अनुरक्त बना हुआ त्वदू- = ( तथा ) आप के पाद- चरणों की पूजा- = पूजा ही मात्र- = : केवल महाधनः = जिसकी बड़ी धन-सम्पत्ति है, ऐसा उत्सुकः = (और इसी लिये आपको पाने के लिए ) लालायित बना हुआ अयम् ( अहं ) = मैं भवन्तं = - ( के चिदानन्द त्वय्येवैकत्र न तु विभूतिषु रक्तः । अत एव त्वत्पादपूजामात्रं - त्वन्मरीचिसपर्यैव महत्— स्फीतं धनं यस्य | 'प्रमा समाप्तोत्सवम्' इति स्थित्या क्षणमात्रमपि व्युत्थानमसहमान : उत्सुकः सन् कदा त्वां साक्षात्करिष्यामि ॥२॥ ततोऽपि - गाढानुरागवशतो स्वरूप ) का कदा = भला कब साक्षात् = प्रत्यक्ष दर्शन | करिष्यामि = करूंगा ? ॥ २ ॥ निरपेक्षीभूतमानसोऽस्मि कदा । पटपटिति विघटिताखिल- ( परमात्मन् = हे परमेश्वर ! ) - गाढ- = अत्यन्त अनुराग = अनुराग के वशतः = कारण ( अहं = तो मैं ) - महार्गलस्त्वामुपैष्यामि निरपेक्षीभूत- = आकांक्षा-रहित = ॥ ३ ॥ मानसः = हृदय वाला अस्मि ( एव ) = हूँ ही, पटपट् - इति - = ( अब ) पट पट = शब्द करके विघटित = तोड़ी हुई = अखिल- = समस्त स्वातन्त्र्यविजयाख्यं - महा-अर्गलः = ( अविद्या आदि रूपिणी ) बड़ी अर्गलाओं वाला (तोड़े हुए समस्त बन्धनों वाला ) - निरपेक्षीभूतम्-उच्चारकरणध्यानाद्यन्तर्मुखं तत्सर्वं परिहरत् मानसं यस्य स तथाविधः, कदा त्वामुपैष्यामि – ऐकण्येन प्राप्स्यामि । कीदृक् ? पटपटिति विघटितानि - झटिति त्रुटितानि, अखिलानि मायीयानि अर्गलानि–अविद्यादिपाशा यस्य | पटपटिति - इत्यायुक्तचा अंपुन रुत्थानत्रुटितपाशान्तरसाधर्म्यमुक्तम् ॥ ३ ॥ W स्वसंवित्सारहृदया- नवमं स्तोत्रम् - ( सन् = होकर ) कदा = कब त्वाम् = आपके पास उपैष्यामि = पहुंच जाऊंगा ॥ ३ ॥ नाथ = हे स्वामी ! - कदा नाथ वशीकुर्या धिष्ठानाः सर्वदेवताः । भवत्- = आपकी भक्ति- भवद्भक्तिप्रभावतः ॥ ४ ॥ सार- = सार हृदय- = = ( समावेश रूपिणी ) भक्ति के अधिष्ठानाः = ठहरने वाली = स्वसंवित्सारं – प्रकाशविमर्शात्मकं ताः सर्वाः ब्राह्मयादिका देवताः, याभिः सर्व देवताः = सभी इन्द्रिय- देवियों को = (चित्प्रकाश रूपी ) हृदय में प्रभावतः = प्रभाव से ( अहं = मैं ) कदा = भला कब - स्व-संवित् - = ( प्रकाश और विमर्श - वशीकुर्याम् = वश में करूं ( अर्थात् रूप ) स्वात्म-संवित्ति के इन को अपने अधीन बना सकूं ) 2 हृदयमधिष्ठानम् - आश्रयो यासां

  • अर्थात् आपके स्वरूप की एकता प्राप्त करूंगा ।

१. ख० पु० अपुनरुत्थानम् – इति पाठः । गतः' ॥ स्पं०, ३ नि०, १३ श्लो० ॥ - इति स्थित्या पशवः पाशिताः । ताः कदा भवद्भक्तेः – समावेशात्मनः प्रभावाद्वशीकुर्या–तश्चक्रैश्वर्यं प्राप्नुयामिति यावत् ।। ४ ।। श्रीशिवस्तोत्रावली 'शक्तिचक्रस्य भोग्यताम् । कदा मे स्याद्विभो भूरि भक्तयानन्दरसोत्सवः । यदालोकसुखानन्दी आनन्द-रस- ( वह ) उत्सवः = उत्सव कदा = भला कब मे = मुझे भूरि =

= प्रभूत मात्रा में

स्यात् = प्राप्त होगा, यदा विभो = हे व्यापक ईश्वर ! = इति । पृथङ्नामापि लंप्स्यते ॥ ५ ॥ भक्ति = (आपकी ) भक्ति रूपी = = आनन्द - रस का. = जब (अर्थात् जिस अवस्था में ) पृथक् - = भिन्न भिन्न नामा = नामों वाला ( होते हुए ) अपि = भी ( अयं = यह ) W ( भाववर्गः = भाव-वर्ग ) आलोक- = चित्- प्रकाश के सुख-आनन्दी = आनन्द रस से प्रभू- रित बना हुआ लप्स्यते = कहलायेगा ? ॥ ५ ॥ = भूरि प्रभूतः । उत्सवोक्त या आशास्ते । पृथङ्नामेत्यनेन परं सामरस्यं सूचयति ॥ ५ ॥ १. तदुक्तं श्रीस्पन्दे- अतिस्पृहणीयत्वात्तदेव्यप्रतामात्मन 'शब्दराशिसमुत्थस्य शक्तिवर्गस्य भोग्यताम् । कलाविलुप्तविभवो गतः सन् स पशुः स्मृतः ॥ १३ ॥ २. घ० पु० लप्स्यसे - इति पाठः । - ३. ख० पु०, च० पु० ४. ग० पु० पूरयतीति तदैकव्यप्रमात्मानमाशास्ते — इति पाठः । - – पाठः । स्वातन्त्र्यविजयाख्यं नवमं स्तोत्रम् ईश्वरमभयमुदारं सहसाभिज्ञाय कदा पूर्णमकारणमपहुतात्मानम् । स्वामिजनं लज्जयिष्यामि ॥ ६ ॥ - ( प्रभो = हे प्रभु ! ) ईश्वरम् = सर्व-ऐश्वर्य सम्पन्न = अभयम् = अभय-स्वरूप उदारं = उदार चित्त पूर्णम् = पूर्ण अर्थात् आकांक्षारहित -- अकारणम् = कारण-रहित अर्थात् नित्य स्वरूप ( तथा = और ) अपह्नुत-आत्मानं = (अपनी स्वातंत्र्य- शक्ति से ) छिपाये हुए स्वरूप वाले - स्वामि-जनं = ( प ) स्वामी को सहसा = ( शांभव-आवेश से ) एक- बारगी ११९ अभिज्ञाय = पहचान कर ( अर्थात् प्रत्यक्ष दर्शन करके ) ( अहं = मैं ) - कदा = भला कब लज्जयिष्यामि = लज्जित करूंगा ? (कोभक्त-जनों में प्रकट करूंगा ) ? ॥ ६ ॥ )? - अशेषविभूत्यास्पदत्वादीश्वरम् | अप्रतियोगित्वादभयम् । सर्वप्रदत्वा- दुदारम् | निराकाङ्क्षत्वात्पूर्णम् | नित्यत्वादकारणम् । अथ च अकारणं - निनिमित्तमेव जगद्रूपतामहणेन स्वरूपगोपनासारत्वादपहुतात्मानम् | यो हि अनीश्वरादिरूपः स गोपायतामात्मानं भगवांस्तु नैवम् । अथ च गोपितात्मैवेति । ईदृशं स्वामिजनं– निजप्रभु, सहसेत- शाम्भवावेश युक्तया कदा अभिज्ञाय – साक्षात्कृत्य, लज्जयिष्यामि - अपह्नुतिप्रधान तद्रूपगुणीकारेण पूर्णचिदेकरूपतयैव प्रथेयेत्यर्थः ॥ ६ ॥ १. ख० पु० जगद्रूपताग्रहणे - इति पाठः | २. ख० पु० गोपनसारत्वादिति पाठः । ग० पु० गोपनसतत्त्वादिति च पाठः । ३. ख० पु० गोपयतामात्मानमिति पाठः । ४. ख० पु० नैवेति पाठः । ५. ख० पु० अथ चागोपितात्मैवेति पाठः ६. ग० पु० प्रथयेति पाठः । १२० तब = आप की तां: श्रीशिवस्तोत्रावली कदा कामपि तां नाथ नाथ = हे स्वामी ! - = उस यया मां प्रति न कापि कामपि = अलौकिक - चल्लभताम् तव वल्लभतामियाम् । कृपापात्रता को ( अहं = मैं ) - कदा = भला कब युक्तं ते स्यात्पलायितुम् ॥ ७ ॥ यया = जिस ( कृपा के प्रभाव ) से - ते का प्रेमपात्रता अर्थात् पलायितुं = भागना ( स्वरूप को छुपाना ) कापि = किसी दशा में भी युक्तं ठीक न स्यात् = नहीं होगा ? ॥ ७ ॥ - इयाम् = प्राप्त करूं ( अर्थात् मैं कब आपकी कृपा का पात्र बनूं ), मां प्रति = मेरे विषय में ( अर्थात् - मेरे सामने से ) 'तव बल्लभताम्' - इत्युंक्तयां इदमाह- मम तावत्यन्तवल्लभोऽसि । तव तु अहमलौकिकभक्तिप्रकर्षात् कदा कामपि - असामान्यां प्रसाद - पात्रतां प्राप्नुयां यया वल्लभतया मां प्रति — मदाभिमुख्येन तव न क्वापि पलायितुं - स्वात्मानं गोपंयितुं युक्तं स्यात्; सततमेव अन्तराविश्य ति॑िष्ठेरित्यर्थः ॥ ७ ॥ ——— तत्त्वतोऽशेषजन्तूनां दृष्ट्यानुमोदितरसा- = भवत्पूजामयात्मनाम् । लावितः स्यां कदा विभो ॥ ८ ॥ १. ख० पु० इत्युक्त्वा - इति पाठः | २. ख० पु० गोपायितुमिति पाठः ।

३. ग० पु० तिष्ठ इत्यर्थः -- इति पाठः ।

विभो = हे व्यापक प्रभु ! ( अहं = मैं ) कदा = भला कब अशेष- सभी जन्तूनां = प्राणियों को तत्त्वतः = यथार्थ रूप में भवत्- आपकी पूजा= पूजा करने में मय- = लगे हुए आत्मनां = स्वरूप वाले ( दृष्ट्वा = देखकर ) दृष्ट्या = ( इस पारमार्थिक ) दृष्टि का आश्रय लेकर अनुमोदित-रस- = आनन्द - रस से आप्लावितः = आप्लावित अर्थात् = व्याप्त स्याम् = हो जाऊं ? ॥ ८ ॥ - सर्वे जन्तवः परमार्थतो यत्किंचित्कुर्वाणा: स्वात्मदेवताविश्रान्तिसार- भवत्पूजामया: । एतेषां सम्बन्धिन्या तत्त्वत्तो दृष्टया - त्वदनुग्रह महि- मोत्थेनं स्वात्मप्रत्यभिज्ञानेन हेतुना, तैरेवानुमोदितः -लाधितो यो रसो- भक्तचानन्दप्रसरस्तेन आप्लावित : - व्याप्तः कदा स्याम् | तत्त्वत इत्या - वृत्त्या योज्यम् । अथ वा अशेषजन्तूनामिति कर्मणि षष्ठी । ततश्चायमर्थ:- कदा अशेषजन्तून् तत्त्वतो भवत्पूजामयान् दृष्टा अनुमोदनरसेन - आनन्दप्रसरेण आप्लावितः स्याम् - इति । अत्रौनुमोदित इति भावे क्तः । उभयत्रापि व्याख्याने 'मत्सम: सर्वोऽस्तु' - इत्याशंसातात्पर्यम् ॥ ८ ॥ - विभो = हे व्यापक स्वामी ! या = जो त्वद्-भक्तिः = ( स्वरूप- समावेश रूपिणी ) आपकी भक्ति ज्ञानस्य परमा भूमि- योगस्य परमा दशा । त्वद्भक्तिर्या विभो कहि - पूर्णा मे स्यात्तदर्थिता ॥ ९ ॥

ज्ञानस्य = ज्ञान की परमा = सर्वोत्कृष्ट भूमिः = अवस्था ( तथा = और ) १. ख० पु० महिमोक्तेनेति पाठः । २. घ० पु० दृष्टया - इति पाठः । ३. ग० पु० अत्रानुमोदितमिति पाठः । १२२ योगस्य = योग की परमा दशा ( मता ) = पराकाष्ठा ( मानी गई ) है, तदर्शिता मे=उस के लिए मेरी प्रार्थना कहि = कब पूर्णा = पूर्ण अर्थात् कृतार्थ स्यात् = होगी ? (अर्थात मुझे वह भक्ति कब प्राप्त होगी ? ) ॥ ९ ॥ सर्वशास्त्रेषु ज्ञानं मुक्तिहेतुत्वेनोक्तं, मुक्तेश्च समावेशसंतत्वयैव व्यव- स्थापनात् | तद्रूपा या त्वद्भक्तिः ज्ञानस्य परमा भूः | 'योगमेकत्वमिच्छन्ति श्रीशिवस्तोत्रावली इत्यागमलक्षितस्य विचित्र समावेशात्मनो योगस्य परमा - चैतन्यभैर- वैक्यापत्तिरूपा दशा च या त्वद्भक्तिः, तदर्थिता मम कर्हि - कदा पूर्णा- - कृतकृत्या स्यात् ॥ ६ ॥ सहसैवासाद्य कदा वस्तुनोऽन्येन वस्तुना ।' मा० वि० [अ० ४, लो० ४ ॥ " गाढमवष्टभ्य हर्षविवशोऽहम् । त्वञ्चरणवरनिधानं सर्वस्य ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) त्वत्- = आप के चरण-चर- = ( परा शक्ति रूपी ) उत्कृष्ट चरणों के निधानं = कोष को - आसाद्य = प्राप्त कर के ( एवं = और ) - सहसा एव = एकबारगी ही (अर्थात् - आपकी अनुग्रहिका शक्ति से ही ) गाढम्: = भली भांति प्रकटयिष्यामि ॥ १० ॥ अवष्टभ्य = अपना कर ( अर्थात् उसे सुरक्षित रख कर ) ( तथा फलतः = तथा फलस्वरूप ) हर्ष - विवशः = परमानन्द- पूर्ण ( सन् = होकर ) अहं = मैं कदा = भला कब - ( तत् निधानं = उस कोष को ) सर्वस्य = सभी भक्तों के सामने - प्रकटयिष्यामि = प्रकट करूंगा ? ॥ १. ख० पु०, च० पु० सतत्त्वतयैवेति पाठः । ग० पु० सतत्त्वेनैवेति पाठः । घ० पु० सतत्त्वैवेति च पाठः । २. ख० पु० सर्वत्रेति पाठः । स्वातन्त्र्यविजयाख्यं नवमं स्तोत्रम् १२३ सहसैव – झटिति परप्रतिभाविकासेन, आसाद्य - आ - समन्तात् स्वात्मसम्भोगपात्रीकृत्य, तथा गाढमवष्टभ्य–व्युत्थानपरिक्षयार्थ प्रयत्ने- नात्मीकृत्य, तत एव हर्षविवश: - परमानन्दनिर्भरोऽहं कदा त्वच्चरणवर- निधानं – समस्तसम्पन्मयं भवत्परशक्तिनिधिं सर्वस्य प्रकटयिष्यामि - छन्त्रतयान्तः स्थितमपि सूचितोपदेशयुक्त या उन्मुद्रयिष्यामि । परप्रतिभा- बलप्रयत्नावष्टम्भपूर्वमनु॑माह्यावलोकनादिकं यत्समावेशसंक्रमोपदेशे तत्त्वं, तत्परम सर्वानुग्रहसमर्थं स्यादित्यर्थ: । अनेन स्वात्मनः परिपूर्णत्वाद्विश्व- जनानुजिघृक्षापरतां सूचयति ।। १० ।। परितः प्रसरच्छुद्ध- त्वदालोकमयः कदा । स्यां यथेश न किञ्चिन्मे ईश = हे स्वतन्त्र स्वामी ! ( अहं = मैं ) परितः = चारों ओर मायाच्छायाबिलं भवेत् ॥ ११ ॥ प्रसरत्- = व्याप्त हुए शुद्ध = (और) अत्यन्त निर्मल त्वद् - = आप के आलोक = चित्- प्रकाश से = मयः = सम्पन्न कदा = कब परितः - समन्तात् प्रसरच्छुद्धः - - स्याम् = बनूं, यथा = जिस के फलस्वरूप मे = मेरा = किंचित् = कुछ भी माया- • भेद-प्रथा रूपी = छाया- = अन्धकार से आबिलं = मलिन - न =न भवेत् = होने पाये ? ॥ ११ ॥ - १. ख० पु० अनुग्रहावलोकनादिकमिति पाठः । २. ख० पु० पूर्णत्वादिति पाठः । ३. ख० पु० मायाच्छाययाबिलमिति पाठः । ग० पु० मायाबिलमिति च पाठः । - अद्वयरूपो यस्त्वदालोकः - चित्प्र- काशः, तन्मयः कदा स्याम् | यथा मौयाच्छायाबिलम् - अद्वयाख्याति १२४ श्रीशिवस्तोत्रावली कुहरं मम न किञ्चिद्भवेत्न किचिच्छिष्येत छायाशब्देन मायाबिल- स्यावास्तवतामाह | मायाच्छायया आबिलं - कालुष्यं न किञ्चिदिति वा योज्यम् ।। ११ ।। आत्मसात्कृतनिःशेष- मण्डलो निर्व्यपेक्षकः । कदा भवेयं भगवं- स्त्वद्भक्तगणनायकः ॥ १२ ॥ | ( सन् = होकर ) ( अहं = मैं ) कदा = भला कब त्वद् = आपके मण्डलः = भुवनों वाला - भक्त-गण- = भक्त-जनों का नायकः = प्रधान नियन्ता निपेक्षकः = (और इसी लिए ) भवेयम् = वन जाऊँ ? ॥ १२ ॥ आकांक्षा शून्य – = = भगवन् = हे भगवान् ! आत्म-सात्कृत = चित् स्वरूप के साथ अभिन्न बनाये हुए निःशेष- = ( सदाशिव से पृथ्वी तक के ) सभी आत्मसात्कृतानि - चिदैकध्यमापितानि निःशेषाणि - सदाशिवादि- क्षित्यन्तानि मण्डलानि - भुवनानि येन सः । निर्यपेक्ष:-अद्वितीयः । त्वद्भक्तगणनायकः – प्रधानं कदा स्याम् ॥ १२ ॥ - नाथ लोकाभिमानाना- मपूर्वं त्वं निबन्धनम् । महाभिमानः कर्हि स्यां त्वद्भक्तिरसपूरितः नाथ = हे स्वामी ! लोक- = लोक अर्थात् रुद्र तथा क्षेत्रज्ञ- प्रमाताओं के १. ख० पु०, च० पु० निर्व्यपेक्षकः ॥ १३ ॥ अभिमानानाम् = अभिमान के अपूर्व = विशेष निबन्धनं = कारण ( तो ) - - इति पाठः । त्वम् = आप ( एव = ही ) - ( असि = हैं ), ( परम् = पर ) ( अहं = मैं ) त्वद् - = आप की भक्ति- भक्ति के स्वातन्त्र्यविजयाख्यं नवमं स्तोत्रम् रस = रस से पूरितः = परिपूर्ण - ( भगवन् = हे ईश्वर ! ) = 'स्रष्टास्मि, स्थापयितास्मि, संहर्तास्मि; तथा पण्डितः शूरो यज्ञवा- नस्मि' - इति नानाविधानां ऋरुद्रक्षेत्रज्ञाभिमानानां त्वमेव चिद्रूपो निबन्धनं – कारणम्, अपूर्व - निर्निमित्तं कृत्वा स्वस्वातन्त्र्येणैवेति यावत् | वस्तुतो हि तवैव सर्वकर्तृत्वान्न ब्रह्मादीनां स्रष्टत्वादि न वा पाण्डि- त्यादि कस्यचित् । केवलं त्वमेव तत्र तत्र तथाभिमानमुत्थापयसि । यथा चैवं तथा कर्हि—कदा त्वदिच्छात एव महाभिमानः– 'विश्वात्मा चिदानन्दघन: शिव एवास्मि' - इति दृढोत्साहावष्टंभो भक्तिरसेन पूरितो - व्याप्तः स्याम् | भक्तिरसपूरित इति वदतोऽयमाशयः यदासा- दितमहाभिमानस्यापि समावेशास्वामयः प्रभुविषये दासभाव एवोचितः ।। १३ ।। 15 अशेषविषयाशून्य- श्रीसमाइलेषसुस्थितः । शंयीयमिव शीताघि- = अशेष- सभी विषय- = (रूप आदि) विषयों से १२५ ( एवं = तथा ) महाभिमानः = ( पूर्णाहन्ता रूपी ) = महान् अभिमान से युक्त कहि = भला कब स्याम् = बन जाऊं ? ॥ १३ ॥ कुशेशययुगे कदा ॥ १४ ॥ अशून्य = पूर्ण श्री = भक्ति - लक्ष्मी के समाश्लेष- = आलिंगन से १. ग० पु० स्थापितास्मि - इति पाठः ।

  • ब्रह्मादि पांच मुख्य कारणों को रुद्रप्रमाता कहते हैं, और सांसारिक

समृद्धि-शाली व्यक्तियों को क्षेत्रज्ञ-प्रमाता कहते हैं । २. ख० पु० शयीय शिवशीताङ घ्रिकुशेशययुगे - इति पाठः । १२६ सुस्थितः = सुखी ( सन् = होकर ) ( अहं = मैं ) - शीत- = (आपके) शीतल (अर्थात् संसार का संताप हरने वाले ) अङ्घ्रि- = चरण रूपी ( प्रभो = हे प्रभु ! ) ( अहं = मैं ) - भक्ति- = भक्ति रूपिणी = श्रीशिवस्तोत्रावली - शीतोधिकमलयुग्मं - प्राग्वत् । शेयीयं-- विश्राम्याम् । कीदृक्- अशेष विषयाशून्या – विश्वनिर्भरा येयं श्रीः - भक्तिलक्ष्मीः। तत्कृतेन समा श्लेषेण - दृढावष्टम्भेन सुस्थितः । काव्यार्थः स्पष्टः ।। १४ ।। - भक्तवासवसमृद्धाया- आसव = मदिरा से = समृद्धायाः = बढ़ी हुई त्वत् - = आपकी पूजा- पूजा के भोग- संपदः = संपत्ति की = कदा पारं गमिष्यामि उपयोग रूपी कुशेशय- = कमलों के युगे = जोड़े में कदा = भला कब - - शयीयम् इव = सो जाऊँ अर्थात् विश्राम करूं ? ॥ १४ ॥ स्त्वत्पूजाभोगसम्पदः । 1 भविष्यामि कदा कृती ॥ १५ ॥ | पारं: २. ख० पु० शयीय - इति पाठः । C = चरम सीमा को कदा = कब - गमिष्यामि = प्राप्त करूंगा ( अत एव = और इस प्रकार ) कदा = कब कृती = कृतार्थ ( अर्थात् सफल- - मनोरथ ) भविष्यामि = हो जाऊंगा ! ॥ १५ ॥ भक्तचासवेन–सेवारसेन, समृद्धा - स्फीता या त्वत्पूजाभोग- - → संपत्- समावेशविश्रांतिश्री: तस्याः पारं- प्रान्तकोटिं कदा गमिष्यामि, अत एव कदा कृतार्थ: स्याम् ॥ १५ ॥ १. ख० पु०, च० पु० शीता किमलयुगे - इति पाउः । ग० पु० शीताङ्घ्रिकमलं प्राग्वत् — इति च पाठः । स्वातन्त्र्यविजयाख्यं नवमं स्तोत्रम् चिरव्युत्थानान्तरितां समावेशदशामेव आकांक्षति- आनन्दबाष्पपूर- हांसोल्लासितवदन - स्त्वत्स्पर्शरसं स्खलितपरिभ्रान्तगद्गदाक्रन्दः । ( प्रभो = हे स्वामी ! ) आनन्द- = आनन्द के बाष्प- = की पूर- = धारा से स्खलित - = रुकी हुई परिभ्रान्त- = गद्गद् - = परान्त विस्मयान्वित ) आक्रन्दः = पुकार वाला ( एवं = तथा ) पशुजनसमानवृत्ता- कदाप्स्यामि ॥ १६ ॥ हास - = ( परमानन्द रूपी ) अट्टहास से उल्लासित = खिले हुए वदनः = मुख वाला ( होकर ) ( अहं = मैं ) - त्वत्- = आप के (अर्थात् स्पर्श-रसं = स्पर्श-अमृत के रस को आस्वादयेय तावक- आनन्दबाष्पपूरेण – अन्तःसमावेशहर्षवशविसरदनुसन्तत्या, स्ख- लितः— अस्थानप्रतिहृतः । परिभ्रान्तः - चिरमनुरणन् । गद्गदः – अस्पष्टाक्षरः, आन्दो- महानादो यस्य | हासेन — विकासेन उल्लासितं वदनं – शक्तिमार्गो यस्य; अत एव हासेनोल्लासितं - व्यात्तं शोभितं च वक्त्रं यस्य ॥ १६ ॥ १२७ कदा = भला कब आवस्यामि = ( समाधि तथा व्युत्थान दोनों अवस्थाओं में ) प्राप्त करूंगा ! ॥]१६ ॥ मवधूय दशामिमां कदा शम्भो । भक्तोचितमात्मनो रूपम् ॥ १७ ॥ १. ख० पु० हासोल्लसितवदनः— इति पाठः । २. ख० पु० उल्लसितमिति पाठः ।. ३. ख० पु० आसादयेयेति पाठः । १२८ शम्भो = हे महादेव ! - पशु-जन- = तुच्छ लोगों के समान = समान श्रीशिवस्तोत्रावली वृत्ताम् = व्यवहार वाली इमां = इस दशाम् = ( अज्ञान की ) दशा को - अवधूय = झाड़ कर ( अहं = मैं ) = त्वद्भक्तिरसायनपान- क्रीडानिष्ट: तावक = आप भक्त- भक्त-जनों के उचितम् = योग्य आत्मनः = अपने रूपं व्युत्थान पतित भेदमयीम् इमामिति - स्फुटं भान्तीं दशामवधूय- निवार्य | अथ च समावेशप्रसरत्सर्वाङ्गा वधून नेनाभिभूय, तात्रकभक्तो-

– न त्वन्यस्य कस्यचिद्

रूपं - स्वरूपं, कदा आस्वादयेय-चमत्कुर्याम् ।। १७ ।। चितं -- नित्योदित परमानन्दमयम् आत्मन:- - लब्धाणिमादिसिद्धि- ( अत एव = और इस लिए ) विगलित- = नष्ट हो गए हैं = स्वरूप ( अर्थात् चिद्रूप स्वात्म- स्थिति ) का विगलितसकलोपतापसन्त्रासः । सकल = सभी = उपताप- = सन्त्रासः = भय जिसके, ऐसा कदा = कब आस्वादय = चमत्कार करूं ? 1॥ १७॥ ( प्रभो=हे प्रभु ! ) लब्ध प्राप्त की हैं अणिमा (अ आदि- = आदि ) अणिमा सिद्धिः = (अष्ट-) सिद्धियां जिसने, ऐसा रसायन = रसायन ( अर्थात् = कदासीय ( सन् = होकर ) ( मैं ) कदा = कब त्व की भक्ति- = भक्ति रूपी अमृत ) का पान- पान करने की क्रीडा- निष्ठः आसीय १. ख०, ग० पु० रसनिपानक्रीडेति पाठः । • क्रीडा में ॥ १८ ॥ 1 = लीन = बना रहूं ! ॥ १८ ॥ स्वातन्त्र्य विजयाख्यं नवमं स्तोत्रम् .१२९ अणिमादिसिद्धिः – प्राग्वदभेदमयी । अत एव विगलितः - शान्तः उपतापः सन्त्रासश्च यस्य | ब्रह्मादीनां तु भेदमयाणिमादियोगेऽपि मरणादित्रा सस्यावश्यंभावात् । तथाभूतोऽपि त्वद्भक्तयमृतपानप्रमोदपरः स्याम् ॥ १८ ॥ नाथ कदा स तथाविध 4 आक्रन्दो में समुचरेद् वाचि । यत्समनन्तरमेव स्फुरति पुरस्तावकी नाथ = हे स्वामी - आक्रन्दः = पुकार मे वाचि = मेरी वाणी में से = 1 कदा = भला कर समुच्चरेत् = निकलेगी = सः = वह तथाविधःः = उस प्रकार की ( अर्थात् तावकी = आपका क) = यत्- जिसके समनन्तरम् एव = साथ ही मूर्तिः ॥ १९ ॥ १. घ० पु०, च० पु० ममेति पाठः । २. च० पु० 'स्वयम्' इति पाठः । मूर्तिः = ( परमानन्द - पूर्ण ) स्वरूप ( मे = मेरे ) = पुरः =सामने ( अर्थात् समावेश में ) स्फुरति = चमक उठे ! ॥ १९ ॥ चिरव्युत्थितस्योक्तिः । स तथाविध इति – वक्तुमशक्यः । आक्रन्दो – महानादः, समुच्चरेत् - स्वयमेवोल्लसेत्, स्फुरति-समावेशेन दीप्यते, मूर्तिः– स्वरूपम् ।। १६ ।। गाढगाढभवदङ्घिसरोजा- लिङ्गनव्यसनतत्परचेताः वस्त्वव स्त्विदमयत्नत एव , त्वां कदा समवलोकयितास्मि ॥ २० ॥ १३० ( प्रभो = हे स्वामी ! ) गाढ-गाढ- = अत्यन्त दृढ़ता से सरोज कमलों के आलिंगन = आलिंगन के व्यसन- = व्यसन में तत्पर लगे हुए चेताः श्रीशिवस्तोत्रावली भवत् = आप के अंघ्रि- = ( ज्ञान और क्रिया रूपी ) त्वाम् = आप के स्वरूप में चरण- = हृदय वाला ( अहं = मैं ) | इदं वस्तु अवस्तु च = सत् तथा असत् पदार्थों से युक्त (अर्थात् भाव-भाव-मय ) इस (विश्व ) को अयत्नतः एव = बिना प्रयास के ही (बिना ध्यान, जप आदि के ही ) कदा = भला कब सम् = भली भांति - अवलोकयितास्मि = देखूंगा ॥२०॥ वीप्सया व्यसनतत्परशब्दाभ्यां च भक्तिप्रकर्षवैवश्यमाह | वस्त्वव- स्त्विदमिति – भावाभावरूपं विश्वम् । अयनत एव - ध्यानजपादि विना, त्वामपि - त्वद्रूपम् सम्यक् — तत्त्वतोऽवलोकयितास्मि-द्रयामीति शिवम् ॥ २० ॥ इति श्रीमदुत्पलदेवाचार्यविरचितस्तोत्रावलौ स्वातंत्र्य- विजय - नामके नवमे स्तोत्रे श्री क्षेमराजाचार्य- विरचिता विवृतिः ॥ ९ ॥

  • अवेच्छेदभङ्गाख्यं दशमं स्तोत्रम्

न सोढव्यमवश्यं ते जगदेकप्रभोरिदम् । माहेश्वराच लोकांनामितरेषां समाश्च यत् ॥ १॥ ( प्रभो = हे प्रभु ! ) जगत्- = जगत के एक- = अद्वितीय प्रभोः = स्वामी ते = आप को अवश्यम् = निःसन्देह इदं = यह - न = नहीं सोढव्यं = = सहन करना चाहिए अथ - - यत् = कि ( वयं = हम ) - माहेश्वराः = (आप) महेश्वर के भक्त च = भी हों (और) इतरेषां = अन्य लोकानां = (ी ) लोगों के - समाः च = समान भी ( अर्थात् ज्ञानही ) ( स्याम = बने रहें ) ॥ १ ॥ - | माहेश्वराः– विश्वेश्वरस्वरूपसमाविष्टाः, इतरेषां - भेदमयानां ब्रह्मा- दीनां समाः – इतीदं ते - तव न सोढव्यं - त्वयैवैतन्न सह्यते । स्वभाव- सिद्धमेवैतत् ; यतस्त्वमेवैकः- अद्वितीयो जगतः प्रभुः । चकारौ विरोध- हेतुमाहतुः । 'तत्कथं जनवदेव चरामि स्तो० ४, लो० १० ॥ इति स्थित्या व्युत्थाने इतरेषां लोकानां माहेश्वराः समाः - इति तव न सोढुं युक्तमित्यन्ये ॥ १ ॥ १. ख० पु० जगतामिति पाठः । २. ग० पु० जगति इति पाठः । ३. ख० पु० विरोधमाहतुः- इति पाठः । १३२ ये सदैवानुरागेण भवत्पादानुगामिनः । यत्र तत्र गता भोगांस्ते कांश्चिदुपभुञ्जते ॥ २ ॥ ( भगवन् = हे भगवान् ! ) - ये = जो = ( जनाः = लोग ) की ) ( भवत्- = अनुरागेण = भक्ति से -- सदैव = सदा ही भवत् = आपके पाद- = ( प्रकाश-विमर्श चरणों के ( स्वामिन् = हे प्रभु ! ) यत्र = जहां काल = महाकाल के अन्तकः = नाशक, भवान् = प भर्ता: श्रीशिवस्तोत्रावली '= रक्षा करने वाले. अनुरागेण – आसक्त्या, ये त्वन्मरीचिसम्बद्धास्ते यत्रतत्रेति- सर्वावस्थास्थिताः, कांश्चित् - परमानन्दमयान् भोगानुपभुञ्जते ॥ २ ॥ - ( स्यात् =हों ) रूपी ) भर्ता कालान्तको यत्र भवांस्तत्र कुतो रुजः । तत्र चेतरभोगाशा का लक्ष्मीर्यत्र तावकी ॥ ३ ॥ तत्र = वहां - रुजः = रोग ( या दुःख ) कुतः = कहां ? अनुगामिनः = अनुयायी ( भवन्ति बने रहते हैं, ) ते = वे, चाहे यत्र तत्र = जिस किसी अवस्था में भी गताः = हो, कांश्चित् = अलौकिक भोगान् = ( परमानन्द रूपी ) भोगों = का ही उपभुञ्जते = चमत्कार करते हैं ॥ २ ॥ और यत्र = जहां तावकी = आपकी लक्ष्मीः = ( भक्ति रूपिणी ) लक्ष्मी ( स्यात् = हो ) तत्र = वहां इतर-भोग- = अन्य ( सांसारिक की विषयरूपी ) भोगों आशा = अभिलाषा का = कहां ? ॥ ३ ॥ ● १. ख• पु०, च० पु० परानन्दमयान् इति पाठः । अविच्छेदभङ्गाख्यं दशमं स्तोत्रम् - कालान्तकः – इत्यनेन महाकालसञ्चार्यमाणाः सर्वा रुजः कालग्रा- सिनि प्रभौ सति कुतः ? मूलोच्छेदान्नैव भवन्तीत्यर्थः । इतरभोगाशा - सदाशिवादिपदलक्ष्मीस्पृहा का ? ने काचित् भेदस्य प्रस्तत्वात् । लक्ष्मीः— अद्वयप्रकाशसंपत् ॥ ३ ॥ क्षणमात्रसुखेनापि विभुर्येनांसि लभ्यसे । तदैव सर्वः कालोऽस्य त्वदानन्देन पूर्यते ॥ ४ ॥ ( नाथ = हे स्वामी ! ) - येन = जिस ( भक्त ) ने = क्षण-मात्र- तदा एव = उसी वक्त से - अस्य = उस का ( समाधि काल के ) सर्वः कालः = ( व्युत्थान- दशा- - संबन्धी ) सारा समय त्वद् = आप ( चिद्रूप ) के आनन्देन = आनन्द - रस से - विभुः = व्यापक प्रभु को लभ्यसे = प्राप्त किया हो, पूर्यते = भरा रहता है ॥ ४ ॥ येन - भक्तेन, क्षणमात्रेण समावेशस्पन्देन हेतुना, असि- त्वं लभ्यसे, अस्य – भक्तस्य त्वया तदैवावसरे सर्वः कालः - व्युत्थानदशा- भाव्यपि आनन्देन पूर्यते- अकलकिलतचिदानन्दस्वरूपानुप्रवेशेन तन्मयीक्रियते; उत्तरकालं च तत्संस्कारेणाप्लाव्यते । विभुः - स्वामी - व्यापकच ॥ ४॥ क्षण-मात्र के सुखेन = सुख से ( भी ) असि = आप आनन्दरसबिन्दुस्ते चन्द्रमा गलितो भुवि । सूर्यस्तथा ते प्रसृतः संहारी तेजसः कणः ॥ ५ ॥ बलिं यामस्तृतीयाय नेत्रायास्मै तव प्रभो । अलौकिकस्य कस्यापि माहात्म्यस्यैकलक्ष्मणे ॥ ६ ॥ [ युगलकम् ] १. ग० पु० न काचिदत्र भेदस्य ग्रस्तत्वादिति पाठः । २. ख० पु० येनापि लभ्य से - इति पाठः । ३. ख० पु० अपि - इति पाठः । ४. ग० पु० अकालकलितम् – इति पाठः । ५. ख० पु०, च० पु० विभो - इति पाठः । = विभो = हे व्यापक स्वामी ! ( अयं = यह ) चन्द्रमाः = चन्द्रमा तो = आपके ( स्वरूपसंबन्धी ) ते : आनन्दरस = आनन्द रस का बिन्दु: = एक बिन्दु ( है जो ) भुवि = इस जगत में = गलितः = प्रसारित हुआ है तथा = और ( अयं = यह ) सूर्यः = सूर्य ते आपके ( स्वरूप-संबन्धी ) श्रीशिवस्तोत्रावली तेजसः = तेज का ( एकः = एक ) - संहारी = संहारक ( अर्थात् भेद- प्रासी ) कणः = कण है ( जो ) प्रसृतः = प्रकाशित हुआ है ॥ ५ ॥ ( वयं तु = हम तो ) कस्यापि = ( इन सूर्य, चन्द्रमा आदि के प्राण-प्रद ), असामान्य अलौकिकस्य = अलौकिक माहात्म्यस्य = महिमा के = एक- = अद्वितीय लक्ष्मणे = चिह्न स्वरूप, = आप के तव अस्मै : तृतीयाय = तीसरे ( प्रमातृ-रूप ) - नेत्राय = नेत्र पर बलिं = निछावर यामः = होते हैं ( स्वरूप नेत्र में अपनी मातृत समर्पित करते हैं ) ॥ ६ ॥ - - ते – तव, भुवि – अग्नीषोमात्मकमध्यशक्तिमार्गे, आनन्दरसबिन्दुर्यः से एवाह्लादकारित्वाञ्चन्द्रमा, गलित: द्रुतस्वभावः । इन्दुश्चन्द्रमाञ्च – गलितः - मनः- प्रमेयराशिसहितं तत्रैव विलीनम् । तथा तत्रैव संहारी- भेदमासी तेजँसः कणः - परमाग्निस्फुलिङ्गो यः, स एव प्रकाशकत्व- तमोपहत्वादेः सूर्यः प्रसृतः । सूर्यश्च प्राणे विलीन:; द्रावितसोमसूर्या हि परो शाक्ती भूमिः । अस्मै शक्तिरूपाय नेत्राय बलिं यामः | अपि १. ग० पु० स एव चन्द्रमाः - आह्लादकारित्वादिति पाठः । २. ख० पु०, च० पु० बिन्दुश्चन्द्रमा इति पाठः । ३. ख० ग० पु० तेजः कणः --- -इति पाठः । ४. घ० पु० प्रमाणो - इति पाठः । ५० ख० पु०, च० पु० परा शक्तिभूमिः इतिः पाठः । अविच्छेदभङ्गाख्यं दशमं स्तोत्रम् १३५ च, भुवि यश्चन्द्रमाः स त्वदीयआनंन्दरसबिन्दुः गलितः - स्रुतः 1 सूर्यश्च तव सम्बन्धिन: तेजसः कणः प्रसृतः - स्फुरितः । यथागमः 'ज्ञानशक्तिः प्रभोरेषा तपत्यादित्यविग्रहा ॥' स्व० तं०, १० प०, श्लो० ४९९ ॥ 'तपते चन्द्ररूपेण क्रियाशक्तिः परस्य सा ॥' स्व० तं०, १० प०, श्लो० ५०२ ॥ इति । अस्मै - एतदर्थं सूर्यचन्द्रोल्लासिनाय तब यत् तृतीयं नेत्रं तस्मै, बलिं यामः – अत्रैव महावह्निमये मायीयदेहादिप्रमातृतां समर्प याम: । कीदृशाय ? कस्यापि - असामान्यस्य ब्रह्मेन्द्रोपेन्द्राद्यगोचरस्य अलौकिकस्य माहात्म्यस्य एकलक्ष्मणे - असाधारणाभिज्ञानाय | अस्मै इति – तार्थ्ये चतुर्थी ।। ५-६ ।। - तेनैव दृष्टोऽसि भवदर्शनाद्योऽतिहृष्यति । कथञ्चिद्यस्य वा हर्षः कोऽपि तेन त्वमीक्षितः ॥ ७ ॥ ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) = असि = है वा = और [ शक्ति- समावेशेन = शक्ति-समा- कथञ्चित् = किसी प्रकार (अर्थात वेश के क्रम से ] शांभव- समावेश के क्रम से ) यः = जो भक्त = भवत् = आप का दर्शनात् = दर्शन कर के अति- = अत्यन्त हृष्यति = आनन्दित हो जाता है, तेन एव = उस ने ( त्वं = आपको ) दृष्टः = देखा - यस्य = जिसे कोऽपि = अलौकिक हर्षः = आनन्द प्राप्त होता है, तेन = उसी ने त्वम् = आप (के तात्विक स्वरूप ) का ईक्षितः = साक्षात्कार किया है ॥७॥ 'उच्चाररहितं वस्तु चेतसैव विचिन्तयन्' ॥ मा० वि० [अ० २, श्लो० २२ । 2, इति शाक्तसमावेशयुक्त्या भवन्तं दृष्ट्वा योऽतिहृष्यति – आनन्दमयो १. ग० पु० आनन्दबिन्दुः – इति पाठः । २. ख० पु० सूर्यचन्द्रोल्लासनाय – इति पाठः । य २३. ग० पु० ब्रह्मोपेन्द्राद्यगोचरस्येति पाठः । भवति, तेनैव क्वापि त्वद्भेदोपासापरेण असि- त्वं दृष्टः । कथञ्चिदिति- 'अकिञ्चिञ्चिन्तकस्य ...।' मा० वि०, अ० २, लो० २३ ॥ • pag इति शाम्भवसमावेशक्रमेण वा यस्य कोऽपि हर्षो न तु भेदो- पासापरेण हर्षः, तेन कोऽपीति - चिद्घनस्त्वमीक्षितः - प्रत्यभिज्ञातः ॥ येषां प्रसन्नोऽसि विभो यैर्लव्धं हृदयं तव । आकृष्य त्वत्पुरात्तैस्तु बाह्यमाभ्यन्तरीकृतम् ॥ ८ ॥ विभो = हे व्यापक प्रभु ! येषां = जिन के प्रति - ( त्वं = []) प्रसन्नः = दयालु अर्थात् अनुकूल असि = होते हैं ( तथा = और ) यैः = जिन्हों ने - तव = आपके हृदयं = हृदय श्रीशिवस्तोत्रावली लब्धं : विमर्शात्मक संविद्धाम ) को = प्राप्त किया है, त्वत्- = आपके पुरात् = ( चिद्रूप ) स्थान से बाह्यम् = ( इस ) बाहरी ( जगत् ) को (अर्थात् - आकृष्य = निकाल कर प्रकट कर के ) ( अर्थात् प्रकाश - ( पुनरिदम् = फिर इसे ) तैः = उन्हों ने तु = तो - आभ्यन्तरीकृतम् = भीतर (चित - पद में ही ) लीन किया है ॥ ८ ॥ प्रसन्नोऽसीति प्राग्वत् । अत एव हृदयं - प्रकाशविमर्शात्मकं रूपं लब्धम् - आत्मीकृतं यैस्तैस्त्वत्पुरात्- त्वदीयात्पूर काच्चिद्रपात् आकृष्य - विस्फार्य, देहाद्यपेक्षया बाह्यं विश्वमिदं पुनराभ्यन्तरीकृतम् 1 - 'सृष्टिं तु सम्पुटीकृत्य' प० त्रि२ श्लो० ३० ॥ इति श्रीत्रिंशकोक्ततत्त्वार्थदृशा संविद उदितं संविदद्भेदेन चाभासमानं विश्वं चिन्मयमेवैषामिति यावत् | अनुरणनशक्त्या लौकिकेश्वरार्थः प्राग्वत् ॥ ८ ॥ त्वहते निखिलं विश्वं समहग्यातमोक्ष्यताम् । ईश्वरः पुनरेतस्य त्वमेको विषमेक्षणः ॥ ९ ॥ १. ख० पु० अभेदोपासनापरेणेति पाठः ॥ २. ख० पु० प्रभो - इति पाठः । ( विभो हे स्वामी ! ) त्वद्- आपके ऋते = विना = ईक्ष्यतां = देखने में - = आता है, यातम्: एकः = अद्वितीय ईश्वरः = स्वामी ( इदं = यह ) निखिलं = सारा विश्वं = जगत तो त्वं = आप के समदृक् = ( भेद-दृष्टि के कारण ) विषम-ईक्षण: = ( अभेद-दृष्टि सम-नेत्र अर्थात् दो नेत्रों वाला कारण ) विषम- नेत्र अर्थात् तीन नेत्रों वाले अविच्छेदभङ्गाख्यं दशमं स्तोत्रम् = पुनः = किन्तु त्वद् - = आप की दूषण- कथा = बात ( असि = हैं ) ॥ ९ ॥ समहगिति | समा — तुल्या भेदमयी दृक् – संवित्तिर्यस्य तत्, द्विनयनं च, ईदयतां – प्रमेयतां यातम् | एक इति - अद्वितीयः, विषमं - भेदप्लोषकमीक्षणं-ज्ञानं यस्य, त्रिनेत्रश्च ॥ ६ ॥ आस्तां भवत्प्रभावेण विना सत्तैव नास्ति यत् । त्वदूदूषणकथा येषां त्वते ( प्रभो = हे स्वामी ! ) येषां = 'जिन ( चार्वाक श्वरवादियों ) से की गई • निन्दा की = दिनी एतस्य = त्वद् - = आप ( चिद्रूप ) के ऋते = बिना - न उपपद्यते = हो ही नहीं सकती, इस ( जगत ) के इत्यादि श्रीतन्त्रोक में । १३७ नोपपद्यते ॥१०॥ (चिदात्मा ) के भवत् - = प्रभावेण = प्रभाव के = विना = बिना तेषां = उन की सत्ता एव = सत्ता ही न अस्ति = नहीं हो सकती', ( इति ) यत् = ( यह ) जो बात है, ( तत् = उसे )

  • आस्ताम् = रहने दिया जाय ॥१०॥

- १. ख० पु० तुल्या - अभेदमयी - इति पाठः । - २. नास्तिक्यवासना शास्त्रों में निन्द्य कही गई है, इसी आय से स्तोत्रकार इस विषय में आलोचना नहीं करना चाहते हैं । कहा भी है 'नास्तिक्यवासनामाहुः पापात्पापीयसीमिमाम् ।' श्रीशिवस्तोत्रावली - येषां - बौद्धसांख्य मीमांसकादीनां त्वदूषणकथा दूषयित्रात्मक- ग्रस्फुरच्चिद्रूपं त्वत्स्वरूपं विना नोपपद्यते, येषां विचित्रतनुकरणप्रज्ञानां बुद्धिमत्प्रभावं विना सत्तैव नास्ति - इत्यादि युक्तिवृन्दं पतितपार्ष्या- घातकल्पमास्ताम् ॥ १० ॥ - १३८ बाह्यान्तरान्तरायालीकेवले चेतसि स्थितिः । त्वयि चेत्स्यान्मम विभो किमन्यदुपयुज्यते ॥ ११ ॥ स्थितिः = स्थिति विभो = हे व्यापक ईश्वर ! - बाह्य- = ( भेद - प्रथा रूपी ) बाहरी आन्तर = ( तथा संकल्प विकल्प रूपी ) भीतरी अन्तराय- = विघ्नों की आली - = पंक्तियों से केवले = रहित बने हुए - मम = मेरे चेतसि = हृदय में = यदि त्वयि = ( चित्-स्वरूप ) की चेत् = स्यात् = प्राप्त हो जाय, ( अर्थात् मुझे समावेश - एकाग्रता प्राप्त हो ), ( ततः = तो फिर ) किम् = भला कौन सो अन्यत् = दूसरी वस्तु उपयुज्यते = उपयोग में आ सकती है ( फिर किसी दूसरी चीज़ या उपाय की अपेक्षा नहीं रहेगी । ) ? ॥ ११ ॥ - बाह्याः- शरीरप्रमातृतापेक्षतत्तद्वस्तुसंयोगवियोगादयः । आन्तराः -- बुंद्ध याद्यपेक्षकामनासङ्कल्पादयो ये अन्तराया : - स्वविश्रान्त्युपरोधिनः, तेषामाली - पङ्किस्तया केवले - रहिते, त्वद्विषये चेतसि यदि मम स्थितिः—समावेशैकामता स्यात्, तत्किमन्यदुपयुज्यते; - प्राप्तव्यस्यैव -0 प्राप्तत्वात् ॥ ११ ॥ अन्ये भ्रमन्ति भगवन्नात्मन्येवातिदुःस्थिताः । अन्ये भ्रमन्ति भगवन्नात्मन्येवातिसुस्थिताः ॥ १२ ॥ १. ख० पु० बुद्धयाद्यपेक्षका मनः कल्पनादयः - इति पाठः । ग० पु० बुद्धयाद्य- पेक्षकामनाकल्पनादयः - इति च पाठः । २. घ० पु० ‘तेषामाली पङ्किस्तया' - इति स्थाने 'तैः’ इति पाठः । भगवन् = हे भगवान् ! अन्य = कई ( अर्थात् अज्ञानी लोग ) आत्मनि एव = अपने ही स्वरूप में अति- = अत्यन्त दुःस्थिताः = दुःखी ( सन्तः = हो कर ) = - भ्रमन्ति = ( जन्म, मरण आदि के असीम चक्कर में ) घूमते रहते हैं, ( तथा = और ) अविच्छेदभङ्गाख्यं दशमं स्तोत्रम् अपीत्वापि त्वामीश ईश = हे ईश्वर ! = - - अन्य इति – नैरात्म्यजडात्मवादिनः संसारिणश्च, आत्मनि - निज एव स्वरूपे, भ्रमन्ति - विपर्यस्यन्ति; जन्ममरणादिपरम्परामपर्यन्तां भजन्ते । अतिदुःस्थिताः तत्त्वज्ञत्वाभावात् किश्यन्ते । अन्ये इति - केचिदेवापश्चिमाः, आत्मन्येव - चिद्रूपेनं तु परत्र क्वचिदपि, अति- सुस्थिताः - परमानन्दैकघनाः सन्तो, भ्रमन्ति- विरहन्ति ।। १२ ।। - . अपि = भी = भवत्- = आप के भक्ति-सुधाम् = ( समावेश = भक्ति-अमृत का अपीत्वा = पान न करके भवद्भक्तिसुधामनवलोक्य च । त्वत्समाचारमात्रात्सिद्ध्यन्ति जन्तवः ॥१३॥ रूपी ) ( तथा = तथा ) त्वाम् = आपके स्वरूप का अनवलोक्य = साक्षात्कार न करके भगवन् = हे ईश्वर ! | अन्ये = कई (अर्थात् ज्ञानवान् भक्तजन) आत्मनि एव = ही ( चिदा- नन्द-मय ) स्वरूप में - १३९ अति- = अत्यन्त सुस्थिता::= सुखी ( परमानन्द- पूर्ण ) ( सन्तः = हो कर ) भ्रमन्ति = ( इस जगत में ) बिहार करते हैं ॥ १२ ॥ - - च = भी = त्वत् - = आप ( चिद्रूप ) की समाचर मात्रात् = केवल ( बाह्य जप आदि चर्या रूपिणी ) कथा करने से ( ही ) १. ख० ग० पु० क्लिश्यन्तः— इति पाठः । २. ग० पु० न त्वपरत्रेति पाठः । जन्तवः = (आप के भक्त ) जन = सिद्धयन्ति = ( स्वरूप- समावेश रूपी ) सिद्धिं को पाते हैं ॥ १३ ॥ श्रीशिवस्तोत्रावली त्वद्भक्तिसुधां- शाक्तसमावेशानन्द्रसम् अपीत्वापि—अचमत्कृ- - त्यापि, अनवलोक्य च त्वामिति - चित्स्वरूपं त्वां मनागप्यप्रत्यभिज्ञाय, जन्तवः - जन्मादिभाजोऽपि, त्वत्समाचारमात्रादिति – तत्तदानायचर्या- पादोक्तात् सिद्धयन्ति - परसिद्धिभाजो भवन्ति । अपिशब्देन मात्र शब्देन च विस्मयो ध्वन्यते | तथा ह्यागमे १४० 'कदाचिद्भक्तियोगेन चर्यया ।' श्रीवीर तं० ॥ ... इत्युपक्रम्य 'संसारिणोऽनुगृह्णाति विश्वस्य जगतः पतिः ॥' श्रीवीर० तं० ॥ इत्यन्तमुक्तम् | अस्मद्गुरुभिरपि तन्त्रसारेऽभिहितं-- २

  • परमेसरु सच्छन्दु बहुकोणबित्र अप्पाइइच्छ ।

चरितुणणिजपाहुं कि अभबणो अइअच्छ॥' इति ।। १३ ।। भृत्या वयं तव विभो तेन त्रिजगतां यथा । बिभर्यात्मानमेवं ते भर्त्तव्या वयमप्यलम् ॥ १४॥ ( अर्थात् अपने विभो = हे व्यापक प्रभु ! वयं = हम: = आपके तव भृत्याः = सेवक ( स्मः = हैं, ) तेन = इसलिए - यथा = जैसे = ( त्वं = []) त्रिजगताम् = तीनों लोकों की आत्मानं = स्वरूप ) को विभर्षि = धारण तथा पोषण करते हैं, एवं = इसी तरह - वयम् अपि = हम ( सेवक ) भी ते = आप से अलं = पूर्ण रूप में - भर्त्तव्याः = धारण और पोषण किए जाने योग्य ( स्मः = हैं ) ॥ १४ ॥ १. ख० पु० अचमत्कृत्वापि - इति पाठः । २. ख० ग० पु० – 'अमिणणिजजणहुं किमु भवनो अचि अच्छ । परमेसरुसच्छन्दु बहुकोणविअप्पाइइच्छचरीति | ' इति पाठः । अविच्छेदभङ्गाख्यं दशमं स्तोत्रम् त्रिजगतामिति प्राग्वत् | बिभर्षि इति - चारयसि पोषयसि च । आत्मानं – स्वं रूपम् । वयमप्यलम्-इत्यंत्रायमाशयः यथा त्वया विश्वमन्तर् अभेदेन बिभ्रतापि देहाद्यभिमानग्रहणेन वस्तुतस्त्वन्मया अपि वयं व्यतिरेकोचिता इव यन्न भिन्नमेव विश्वं जानीमः, ततोऽलम् - अत्यर्थं ते - तव वयं धारणीयाः पोषणीयाश्च यतो भृत्याः स्मः ।। १४ ।। परानन्दामृतमये दृष्टेपि जगदात्मनि । त्वयि ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) पर आनन्द = परमानन्द रूपी अमृत- मये = अमृत स्वरूप, त्वयि = आप स्पर्शरसेऽत्यन्ततरमुत्कण्ठितोऽस्मि ते ॥ १५ ॥ जगदात्मनि = विश्वात्मा ( प्रभु ) का - दृष्टे = अपि = भी = साक्षात्कार करने पर ( अहं = मैं ) ते त्वयि परीनन्दसारे, नीलंपीतादिरूपेण जगदात्मनि दृष्टेऽपि - व्युत्थाने तन्मुखेन प्रत्यभिज्ञातेऽपि, स्पर्शरसे - गाढ समावेशस्पर्शप्रसरे, ते - तव भृशमुत्कण्ठितोऽस्मि ॥ १५ ॥ - देव = हे लीलामय प्रभु ! = = यानि = जो ( अर्थात् जितने ) भी अशेषाणि = समस्त दुःखानि = (आध्यात्मिक, दैविक और ( भवन्ति = होते हैं, ) आधि- भौतिक ) दुःख = आप के स्पर्श-रसे = ( समावेश रूपी ) स्पर्श का आनन्द पाने के लिए अत्यन्ततरम् = अत्यन्त ही उत्कण्ठितः = लालायित - अस्मि = होता हूं ॥ १५ ॥ देव दुःखान्यशेषाणि यानि संसारिणामपि । धृत्याख्यभवदीयात्मयुतान्यायान्ति सह्यताम् ॥ १६॥ १. ख० पु०, च० पु० २. ख०, ग०, घ० पु० = ( तानि = वे ) ' धृति आख्य = धृति नाम वाले भवदीय- = आप के आत्म = स्वरूप से युतानि = संबन्ध रखते ( सन्ति = हैं, ) परमानन्दसारे -- इति पाठः । नीलपीतादिरूपे - इति पाठः । १४२ ( अतः = अतः ) संसारिणाम् = संसारी जनों के लिए अपि = भी सह्यतां = सहनीय = श्री शिवस्तोत्रावली आयान्ति = हो जाते हैं (अर्थात् आप धैर्यात्मा प्रभु के प्रभाव से सभी दुःख सहन किये जा सकते हैं ) ॥ १६ ॥ हे देव - क्रीडादिशील ! अशेषाणि - कीटब्रह्मादिविस्पन्दितानि तावद्दुःखानि भेदमयत्वात् । तान्यपि संसरणपराणां प्रमातॄणां सोढव्यतां गच्छन्ति । यतो धृत्याख्येन । नाथ = हे स्वामी ! - = त्वयि = आप चिन्मये = चिद्रूप के सर्वज्ञे = सर्वज्ञ और सर्वशक्तौ = सर्वशक्तिमान् सति = होने से 'इदमद्य मया लब्धमिदं प्राप्स्ये मनोरथम् ।' भ० गी० | १६, १३ ॥ इत्याद्यभिमानावष्टम्भग्राहिणा त्वदीयेनात्मना युतानि - संपृक्तान्ये- तानि ॥ १६ ॥ सर्वज्ञे सर्वशक्तौ च त्वय्येव सति चिन्मये । सर्वथाव्यसतो नाथ युक्तास्य जगतः प्रथा ॥ १७ ॥ अपि = ही - असतः = • सत्ताहीन अस्य = इस जगतः = जगत का प्रथा = प्रकाश अर्थात् अस्तित्व ( सर्वथा = सर्वथा ) युक्ता = पूर्ण रूप से सिद्ध ( भवति = हो जाता है ) ॥ १७ ॥ - एव = ही सर्वथा = सब प्रकार से PA - अस्य जगतः - विश्वस्य, सर्वथापि - देशकालाकारार्थक्रियाकारि- त्वादिना स्वरूपेण प्रकाशबाह्यस्यानुपपद्यमानत्वादविद्यमानस्य, त्वयि १ ख० पु० क्रीडादिस्वभाव - इति पाठः । २ ग० पु० अशेषकीटब्रह्मादि - इति पाठः । ३ ख० पु० यान्ति - इति पाठः । ४. घ० पु० युक्तानि - इति पाठः । ५. ख० पु० देशकालनानार्थक्रियेति–पाठः । ६. ख० पु० अनुपदृश्यमानत्वादिति पाठः । अविच्छेदभङ्गाख्यं दशमं स्तोत्रम् १४३ चिन्मये सर्वशक्तौ – स्वतंत्रे सर्वावभास के च सति, सर्वथापि प्रथा युक्ता । सर्वथेत्युभयन्त्र योज्यम् ॥ १७ ॥ त्वत्प्राणिताः स्फुरन्तीमे गुणा लोष्टोपमा अपि । नृत्यन्ति पवनोद्धूताः कार्पासपिचवो यथा ॥ १८ ॥ यदि नाथ गुणेष्वात्माभिमानो न भवेत्ततः । केन होयेत जगतस्त्वदेकात्मतया प्रथा ॥ १९ ॥ [युगलकं] नाथ = हे स्वामी ! यथा = जैसे - कार्पास = रूई के = पिचवः = छोटे-छोटे टुकड़े = पवन- = = = (श में ) वायु से उद्धूताः = उड़ाये जाने पर नृत्यन्ति लगते हैं, ( तथा = वैसे ही ) जगतः = ( इस ) जगत की लोष्ट - = मिट्टी के त्वद् - =प के स्वरूप के साथ उपमाः = समान ( अत्यन्त जड़ होती एक-आत्मतया = अभेद-रूप अपि = भी - इमे = ये गुणाः = इन्द्रियां त्वत्- (की चिद्रूपता ) से प्राणिताः (सन्तः) = जीवित होकर ही नाचने स्फुरन्ति = स्फूर्ति को प्राप्त करती हैं । = यदि = यदि - गुणेषु = ( इन ) इन्द्रियों में - आत्म-अभिमानः = न भवेत् = न होता ततः = : तो अभिमान प्रथा = स्थिति ( अर्थात् स्वात्म-परामर्श की स्थिति ) को केन = कौन -

  • हीयेत = त्यागता ? ॥ १८,१९ ॥
  • भाव यह है – हे भगवन् ! ये इन्द्रियां तो मिट्टी आदि के समान ही

जड़ पदार्थ हैं, किन्तु आप की चिद्रूपता से अनुप्राणित होकर ये अपने कार्य करने के योग्य हो जाती हैं । इन इन्द्रियों को अपना-अपना काम कर सकने का अभिमान होता है, जैसे – “मैं देखता हूं, मैं खाता हूं” – इत्यादि । उन के इस अभिमान का कारण की सत्ता ही है । अतः इन इन्द्रियों के विषय- - सेवन रूपी सामान्य व्यवहार में ही स्वात्म-परामर्श के स्पर्श का सब व्यक्तियों को मिलता है । फलतः वे विषय ग्रहण करने की दशा में भी श्रीशिवस्तोत्रावली गुणाः–बुद्धचादिपरिस्पन्दाः, लोष्टोपमा अपि-जडाः, त्वत्प्राणिता:- त्वज्जीविताः सन्तः स्फुरन्ति, अन्यथा न कथंञ्चिच्चकास्युः । अत्र दृष्टान्तः -- यथा कार्पासानां पिचव: - लेशा: पवनेन - वायुना उचैर्धूताः सन्तो नृत्यन्ति – नभसि विलसन्ति । एवं च हे नाथ यदि भक्तेषु गुणेषु त्वंन्मायाशक्तिदन्त आत्माभिमानो न भवेत्ततोऽस्य जगतः त्वदेकात्मतया - त्वहभेटेन या प्रथा, सा केन हेतुना हीयेत – न केनचिन्नवार्येत; भक्तानां विश्वस्य त्वदैक्येन स्फुरणात् । - “गुणादिस्पन्दनिःष्यन्दाः १४४ ...स्सुईस्यापरिपन्थिनः ॥” स्पं०, १ नि, १९ श्लो० ॥ । इत्युक्तम् ||१८|१६|| वन्यास्तेऽपि महीयांसः प्रलयोपगता अपि । त्वत्कोपपाव कस्पर्शपूता ये परमेश्वर = हे परमेश्वर ! ते अपि = वे ( महाकाल, कामदेव, तथा अन्धकासुर त्रिपुरासुर आदि ) भी महीयांसः=(अलौकिक) महिमा वाले वन्द्या: = पूजनीय हैं, परमेश्वर ॥ २० ॥ ये = जो प्रलय- उपगताः = प्राप्त होने पर अपि = भी त्वत् = आप के i कोप- = क्रोध रूपी १ ख० पु० न कथञ्चित्काः स्युः - इति पाठः । २ ग० पु० त्वन्मयः शक्तिदत्तः - इति पाठः । - = ( आप के द्वारा ) नाश को आप की अहंता होने के कारण अपनी तात्त्विक आत्मस्थिति को त्याग देते हैं । यदि इन्द्रियों में अभिमान न होता और आप के स्वरूप - स्पर्श की प्राप्ति न होती तो स्वात्म-परामर्श-स्थिति को कोई भी व्यक्ति न त्यागता ॥ १८,१९ ॥ ३ ख० पु० हीयते - इति पाठ । `४ ख० पु० निवार्यते — इति पाठः | ग० पु० निवर्तेत — इति पाठः ।

  • भाव यह है – यद्यपि महाकाल और अन्धक आदि राक्षस आपकी

क्रोधाग्नि भस्म हो गए, तो भी वे उसके स्पर्श से पवित्र होने के कारण मुक्त हो गए । फलतः वे धन्य हैं । पावक- = स्पर्श - = स्पर्श अग्नि के तेऽपीति – कालकाम त्रिपुरान्धकाद्याः । न केवलं साक्षादनुगृहीता: भक्तिमन्तः - इति अंपिशब्दार्थः । महीयांस इति-अलौकिकमाहात्म्ययुक्ताः । प्रलयं - विनाशमुपगता अपि ये ते - तव श्रीकण्ठाद्यवतारवपुषः सम्बन्धिना निर्ब्रहद्वारकानुग्रहात्मना - क्रीडाको पानिस्पर्शेन पवित्रताः ॥ २० ॥ ईश = हे स्वामी ! भवति = आपके अविच्छेदभङ्गाख्यं दशमं स्तोत्रम् महाप्रकाशवपुषि विस्पष्टे भवति स्थिते । सर्वतोऽपीश तत्कस्मात्तमसि प्रसराम्यहम् ॥ २१ ॥ विस्पट्टे = महाप्रकाशवपुषि-महा-प्रकाश-स्वरूप ( तथा = तथा ) सर्वतः = पूर्ण रूप में = = प्रकट - स्वरूप विश्व - प्रकाश-मय ) स्थिते = होने पर - पूताः = पवित्र ( सन्ति = हो गए हैं ) ॥ २० ॥ ( अर्थात् अपि = भी अहं = मैं - तत् - कस्मात् = क्यों तमसि = ( व्युत्थान - संबन्धी प्रथात्मक ) अन्धकार में प्रसरामि फिरता ( अर्थात् भटकता) हूँ ? ॥ २१ ॥ भेद- व्युत्थान वैवश्यात् साक्षात्कारभूमिमलभमानस्य उक्तिरियम् । यतः कानिचित्र समावेशोत्कर्षशंसीनि, अन्यानि व्युत्थानप्रहाणाकांक्षा- पराणि, अपराणि सार्वात्म्यप्रथाप्रथयितृणी पराणि निःशेषभेदोपशम मयशिवताशंसापराण्यस्य सूतानि | तानि च यथायोगं संयोजितानि १ ख० पु० अपिशब्द: - इति पाठः | २ ख० पु० निग्रहद्वारकात्मना अनुग्रहात्मना - इति पाठः, ग० पु० निग्रहद्वारकात्मना क्रीडेत्यादि च पाठः । ३ ख० पु० साक्षात्कारमलभमानस्येति पाठः । ४ ग० पु० व्युत्थानप्रहरणाकांक्षेति पाठः । ५ घ० पु० यथायोग्यम् - इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली संयोजयिष्यन्ते च इति नास्यास्मत्परमेष्ठिन ईहगुक्तिषु अपूर्णता मन्तव्या | विस्पष्टेऽपीति - विश्वप्रकाशमये । तमसि प्रसरामीति - व्युत्थानविवशो भवामीति ॥ २१ ॥ १४६ अविभागो भवानेव स्वरूपममृतं मम । तथापि मर्त्यधर्माणामहमेवैकमास्पदम् ॥ २२ ॥ ( प्रभो = हे प्रभु ! ) अविभाग: भवान् = आप -स्वरूप २ एव = ही मम = मेरे अमृतं = अमृतमय (अर्थात् आनन्द- घन ) स्वरूपम् = ( तात्त्विक ) स्वरूप - - ( अस्ति = हैं, ) तथापि = तो भी - - अहं = मैं मर्त्यधर्माणाम् = ( मनुष्य आदि ) मरण-शील प्राणियों के स्वाभा- विक गुणों का ( अर्थात् जन्म- मरण के चक्कर का ) एव = ही - ( प्रभो = हे स्वामी ! ) “महेश्वर” = 'हे महेश्वर !' - इति = ऐसा - एकम् = एक आस्पदम् (= स्थान ( या आश्रय ) ( अस्मि = बना रहा हूँ ) ॥ २२ ॥ इयमप्युक्तवदेवोक्तिः | भवानेव - न त्वन्यत् किंचित् | अमृतम् - आनन्दघनं । मर्त्यधर्माणां - हानादानादिप्रयासानाम् | अहमिति - व्युत्थाने देहायभिमानमयः, न तु चिद्रूपः | एक एवेति प्राग्वत् ॥ २२ ॥ महेश्वरेति यस्यास्ति नामकं वाग्विभूषणम् । प्रणामाङ्कश्च शिरसि स एवैकः प्रभावितः ॥ २३ ॥ नामक = ( आपका पवित्र ) नाम = यस्य = जिस की = वाकू- वाणी का = १ ग० पु० नियोजयिष्यन्ते चेति पाठः । २ ख० ग० पु० व्युत्थानवशी भवामीति पाठः । ३ ० ० अस्पदमिति पाठः । ४ ग० १० नामाङ्कमिति पाठः । - विभूषणम् = भूषण अस्ति = बना रहता है च और = ( यस्य = जिस के ) - अविच्छेदभङ्गाख्यं दशमं स्तोत्रम् शिरसि = सिर अर्थात् माथे पर - प्रणाम- = (आपके प्रति ) प्रणाम का भगवन् = हे भगवान् ! येन = चूंकि सत् = ( घट, पट आदि ) सत् असत् च = और नामकं – यद्वन्दिनः पठन्ति, तत् महेश्वर ब्रह्मादिविश्वेश्वर, प्रभो - इति यस्य वाचो विभूषणमस्ति, तथा शिरसि प्रणामाङ्क:- परस्वभावप्रहृताभिज्ञानं च यस्यास्ति, स एवैक:- अद्वितीयः, प्रभौ- महेश्वरे इतः–सम्बद्धः । अथ वायं प्रणामाङ्कितः - समाविष्टो भक्तिशाली भगवद्भेदस्पर्शप्राप्तेः नामाङ्कत्वात् प्रभावितः — प्रख्यातः ॥ २३ ॥ पुष्प आदि) पदार्थ (अर्थात् भाव-भाव-मय जगत ) भवान् = आप - एव = ही हैं तेन = इसलिए अङ्कः (अस्ति) =चिह्न (लगा रहता है ), स एव = वही ( - का भक्त ) एकः = अद्वितीय प्रभावितः = महिमा वाला (अर्थात् धन्य ) ( अस्ति = होता है ) ॥ २३ ॥ - सदसच भवानेव येन तेनाप्रयासतः । स्वरसेनैव भगवंस्तथा सिद्धिः कथं न मे ॥ २४ ॥ १४७ - तथा = वैसी ( अर्थात् अलौकिक ) सिद्धिः = ( आप - रूपिणी ) सिद्धि १ ग० पु० नामाङ्कमिति पाठः । २ ग० पु० भगवदभेदस्पर्शे प्राप्तेः - इति पाठः । की साक्षात्कार- मे = मुझे अप्रयासतः = ( ध्यान आदि के ) के बिना स्वरसेन एव =ही प कथं न = क्यों नहीं = ( भवति = प्राप्त होती है ? ) ॥ २८ ॥ - सदसदिति - भावाभावरूपं विश्वं त्वमेव यतः, ततो मम अप्रयासत:- उपायजालं विना, स्वरसेनैव - नित्योदितत्वेन कथं तथा न सिद्धि:- त्वत्साक्षात्कारः सदोदितो न कस्मादस्ति ॥ २४ ॥ शिवदासः शिवैकात्मा किं यन्नासादत्येसुखम् । तर्थोऽस्मि देवमुख्यानामपि ( भक्त-जनाः = हे भक्तजनो ! ) ( तत् : वह ) किं = कौन सा सुखम् = सुख ✔ ( अस्ति = है, ) - यत् = जिसे शिव- श्री शिवस्तोत्रावली = ( प्रभो = हे स्वामी ! ) प्राणिनां = ( मनुष्य आदि ) प्राणियों के हृत्- = हृदय नाभ्योः = और नाभि के येनामृतासवैः ॥ २५ ॥ ५ सकता ( अर्थात् वह परमानन्द - पूर्ण हो ही जाता है ), शिव में एक- मिली हुई आत्मा = आत्मा चाला अमृत-आसवैः शिव-दासः = शिव का भक्त न आसादयेत् = प्राप्त नहीं कर ः = अमृत रसों से तर्भ्यः = तृप्त किये जाने योग्य अस्मि = हूं ॥ २५ ॥ - यत एव शिवदासस्तत एव समाविष्टत्वात् शिवैकात्मा, तंत्कि यंन्न सुखमासादयेत्, परमानन्दमयो भवत्येवेत्यर्थः । यतो देवमुख्यानाम्- अन्यैस्तर्पणीयानामपि ब्रह्मादीनां हृदयादिस्थानस्थितानामिन्द्रिय- देवतानां च, अमृतासवैः- प्रमेयप्रथासमयस्फूर्जदद्वयप्रकाशानन्द सरैः, तर्प्य :- परिपूरणीयोऽस्मि, न तु पशुवोग्यः ॥ २५ ॥ येन = क्योंकि ( अहं = मैं ) - देव- = दूसरों से तृप्त किये - मुख्यानाम् = जाने वाले ब्रह्मा आदि प्रमुख देवताओं के द्वारा अपि = भी हृन्नाभ्योरन्तरालस्थः प्राणिनां पित्तविग्रहः । ग्रससे त्वं महावह्निः सर्व स्थावरजङ्गमम् ॥ २६ ॥ अन्तराल = बीच में = स्थः = ठहरे हुए, पित्त- = जठर-अल- विग्रहः = स्वरूप - १ ख० पु० किं – इति पाठः । २ ग० ५० यत्सुखं नासादयेदिति पाठः । ३ ख० पु० परानन्दमयो भवत्येवेति पाठः । अविच्छेदभङ्गाख्यं दशमं स्तोत्रम् महा-वह्निः = महान् अनि त्वं = आप सर्व = सारे स्थावर जंगमं = जड चेतन-मय ( जगत् = जगत ) का

  • ग्रससे = ग्रास करते हैं ॥ ॥ २६ ॥

हृन्नाभ्योरन्तराले – घटस्थाने स्थितः प्राणिनां - सर्वेषां पित्तविग्रह:- पित्तरूप: उष्णान्नाद्याहरणाद्वाह्यस्य तेजसोऽपि ग्रसनान्महावह्निस्त्वम् । अत एव स्थावरजङ्गमप्रासित्वम् । अनेन सर्वप्रमातृजठरादिस्थानेन विवेक एक एव परमेश्वरः परमार्थसन्निति शिवम् ॥ २६ ॥ इति श्रीमदुत्पलदेवाचार्यविरचितस्तोत्रावलौ अविच्छेद- भङ्गाख्ये दशमे स्तोत्रे श्रीक्षेमराजाचार्य - विरचिता विवृतिः ॥ १० ॥

  • भाव यह है – हे भगवन् ! मनुष्य का रूप धारण करके आप समस्त

जड-वर्ग का ग्रास करते हैं अर्थात् उसे निगल जाते हैं और पशु, पक्षी आदि के रूप में चेतन-वर्ग का स्वाद लेते हैं ॥ २६ ॥ १ ख० पु० बाह्यतेजसोऽपीति पाठः । २ ग० पु० स्थावरजङ्गममश्नासि त्वमिति पाठः । ३ ग० पु० सर्वत्र प्रमातृजठरादिस्थानेनेति पाठः । ४ ख० पु० विश्वभक्षक एवेति पाठः । औत्सुक्य वैश्व सतनामैकादशं स्तोत्रम् जगदिदमथ वा सुहृदो बन्धुजनो वा नं भवति मम किमपि । त्वं पुनरेतत्सर्व यदा तदा

  • ( प्रभो = हे ईश्वर ! )

इदं = यह = जगत् अथवा = अथवा सुहृदः = मित्र जन वा = या = जगत बन्धु-जनः = बन्धुबान्धव, मम = ( इन में से ) मेरा - किमपि = कोई भी - न = नहीं भवति = है । - ॐ तत् सत् अथ यदा पुनः = जब - ( तत्त्वतः = वास्तव में ) कोऽपरो मेऽस्तु ॥ १ ॥ त्वम् = = आप ( एव = ही ) मे = मेरे - एतत् = यह सर्वम् = सब कुछ ( अर्थात् मित्र, बन्धु-बान्धव आदि ) ( असि = हैं ), तदा = तो अपरः = ( आप के अतिरिक्त ) दूसरा ● कौन कः = - ( मे ) अस्तु = (मेरा) हो ? ( अर्थात् किसी दूसरे सखा या संबन्धी की अपेक्षा नहीं है । ) ॥ १ ॥ १ ख० पु० न भवति किमपि - इति पाठः, ग० पु० भवति न मे किमपि - इति च पाठः ।

  • आशय यह है — हे परमेश्वर ! आप ही मेरी दुनिया हैं, आप ही

मित्र तथा संबन्धी है और आप ही मेरे सब कुछ हैं । औत्सुक्य विश्वसितनामैकादशं स्तोत्रम् जगदादित्रयं लोकक्रमेण अन्तरङ्गमपि मम न किंचित् ; - तद्विल- क्षणचिन्मात्रैकरूपत्वात् । यदा पुनः प्रकाशमयत्वादेतत्सर्वं त्वमेव, तदा मम अपरः–व्यतिरिक्तः कोऽस्तु, न किश्चित् ; जगदपि स्वरूपमेवेति यावत् ॥ १ ॥ स्वामिन्महेश्वरस्त्वं साक्षात्सर्व जगत्वमेवेति । वस्त्वेव सिद्धिमेत्विति याच्या तत्रापि याच्चैव ॥ २ ॥

  • स्वामिन् = हे स्वामी !

- त्वं = आप महेश्वरः = परमेश्वर = - ( असि = हैं ) ( तथा इदं और यह ) = सर्व = सारा जगत् = जगत साक्षात् त्वम् = आप का एव = ही स्वरूप ( असि = है ), = = प्रत्यक्ष रूप में इति = इस लिए - वस्तु = " ( कोई निश्चित ) वस्तु एव = ही = सिद्धिम् = सिद्धि को = प्राप्त करे, " एतु: इति = ऐसी = याच्या = प्रार्थना तत्रापि = ऐसी दशा में तो = १५१ याच्या एव = प्रार्थना ही ( भवति = रह जाती है ) ॥ २ ॥ - महेश्वर इति प्राग्वत् | साक्षादिति – अंद्वयदृष्टया, नांशाधिष्ठानेन । इति वस्त्वेव-पारमार्थिकमेवैतत् । तत्रापि एंवमवस्थितेऽपि । एतत्सिद्धि- मेतुः इति या याचना, सा याचबैव-

  • भाव यह है — हे भगवन् ! सर्व-सिद्धि-प्रद हैं ।

आपके सांनिध्य के कारण संसार में होने वाली कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो मुझे सहज में ही उपलब्ध न हो । अतः किसी वस्तु के लिए आप से प्रार्थना करने का कोई अवकाश ही नहीं है ॥ २ ॥ १ ख० पु० श्रद्वयदृष्टया चाधिष्ठानेनेति पाठः । २ ख० पु० एवमेव स्थिते - इति पाठः । १५२ इति स्थित्या न युक्तैवेत्यर्थः । "होन्ति कमलाइ कमलाइ" इति न्यायेन द्वितीयो • याच्याशब्द: अचारुत्वनै प्रयोजन्यादिमात्रता- ध्वननपरः ॥ २॥ श्रीशिवस्तोत्रावली “त्वमेव प्रकटीभूया इत्यनेनैव लज्ज्यते ॥' यत् = = जो त्रिभुवनाधिपतित्वमपीह य- तृणमिव प्रतिभाति भवजुषः । किमिव तस्य फलं शुभकर्मणो नाथ = हे स्वामी ! इह = इस संसार में त्रि- = तीनों = शि० स्तो, स्तो० १६ श्लो० ॥ - ( तत् = वह ) अपि = भी भवति नांथ भवत्स्मरणाहते ॥ ३॥ - भुवन = लोकों का अधिपतित्वम् = स्वामित्व ( अस्ति = है ), इव = समान ( तुच्छ ) प्रतिभाति = दिखाई देता है, ( अतः = अतः ) तस्य = उस ( स्वरूप-संपन्मय ) शुभ-कर्मणः = शुभ-कर्म का ( अर्थात् उस कर्म के करने वाले का ) - = आप के भवत्- स्मरणात् = स्मरण के ऋते = बिना = भवत्- = आप के जुषः = ( समावेशयुक्त ) भक्त जनों को फलं = फल तृणम् = तृण के = किम् इव = भला और क्या - भवति = हो सकता है !॥ ३ ॥ - भवज्जुषः – समावेशयुक्तान्, इति प्रतियोगे शस् । इहेति-अस्मिन्नेव समये । त्रिभुवनाधिपतित्वं - भूर्भुवस्स्वः – स्वामित्वमपि, तृणमिव प्रतिभाति । तस्य — तथा प्रतिभानलक्षणस्य शुभकर्मणो:, भवत्स्मरणा- १ ख० पु० निष्प्रयोजनत्वादिपात्रताध्वननपरः, ग० पु० निष्प्रयोजनत्वा दिमात्रताध्वननपुरःसरः इति च पाठः । औत्सुक्य विश्वसितनामैकादशं स्तोत्रम् १५३ हते - भवत्स्मृति विना, किं फलं, न किंचिदन्यद्वयतिरिक्तमस्तीति यावत् प्राप्तव्यस्यैव प्राप्तत्वात् ॥ ३ ॥ येन नैव भवतोऽस्ति विभिन्नं किञ्चनापि जगतां प्रभवश्च । त्वद्विजृम्भितमतोऽद्भुतकर्म- स्वप्युदेति न तव स्तुतिबन्धः ॥ ४ ॥

  • ( प्रभो = हे ईश्वर ! )

येन = चूंकि भवतः आप (के स्वरूप ) से विभिन्नं = भिन्न किंचन अपि = भी - - न अस्ति = नहीं है और जगतां = ( समस्त ) जगत को प्रभवः = उत्पन्न करने वाला ( अपि = ( ब्रह्मा ) भी ) त्वदू- = आप के ही स्वरूप का - = कुछ विजृम्भितम् एव (अस्ति) = स्फार है, अतः = इस लिए तव = ( संसार की उत्पत्ति तथा नाश - के अद्भुत- = चमत्कार-पूर्ण कर्मसु = कार्यो में - अपि = भी (भेद के भाव के कारण) स्तुति- बन्धः = ( आपकी ) स्तुति करने ( का प्रश्न ही ) न = नहीं - उदेति = उठता ॥ ४॥ - त्वत्तो भिन्नं किंचनापि नास्ति, - सर्वस्य प्रकाशकरूपत्वात् | जगतां प्रभवोऽपि - ब्रह्माद्याः तवैव जृम्भा येन हेतुना, अतः अद्भुतेषु विश्वसर्ग - १. ख० पु० भवत्स्मरणं विनेति पाठः ।

  • भाव यह है— हे प्रभु !

का करना आपके बायें हाथ का तथा स्तुति कर्ता आदि के रूपों में स्तुति करे ? ४॥ २. ख० पु० प्रकाशरूपत्वादिति : पाठः इस संसार में अत्यन्त चमत्कार - पूर्ण कार्यो खेल है । जब आप ही स्तुत्य, स्तोत्र, स्तुति भासमान हैं, तो कौन किस की और कैसे श्रीशिवस्तोत्रावली संहारादिष्वपि कर्मसु तंव स्तुतिबन्धः स्तोत्रादिभेदाभावान्नास्ति; - त्वमेव स्तोत्रस्तुतिस्तुत्यरूपतया भासि, इत्ययमत्र तत्त्वार्थः ॥ ४ ॥ त्वन्मयोऽस्मि भवदर्चननिष्ठः १५४ सर्वदाहमिति चाप्यविरामम् । भावयन्नपि विभो स्वरसेन सर्वदा = सदैव - विभो = हे व्यापक ईश्वर ! अहं = मैं - स्वप्नगोऽपि न तथा किमिव स्याम् ॥ ५॥ इति भवत् = अर्चन- = पूजन में निष्ठः (चित्-स्वरूप ) के = लगा हुआ और त्वद् - = आप ( के स्वरूप ) से मयः = अभिन्न अस्मि = बना रहता हूँ, = इस प्रकार - अविरामम् = लगातार अपि = ही ( भवन्तं = आपकी ) भावयन् = भक्ति-भावना करता हुआ = अपि = भी = ( अहं = मैं ) - स्वप्नगः = स्वप्न अवस्था में जा कर अपि = भी - स्वरसेन =प से प ( एव = ही ) - तथा = वैसा ( अर्थात् आपके पूजन – में लगा हुआ ) किम् इव = भला क्यों न = नहीं -

  • स्याम् = होता हूं ! ॥ ५ ॥

- - त्वन्मय इति – त्वमेव प्रकृतं रूपं यस्य, तथा भूतोऽस्मि | त्वय्येव चिन्मये विश्वार्पणक्रमेणाहं सर्वदा अर्चननिष्ठः- इत्याविरामं कृत्वा भाव- यन्नपि - व्युत्थाने अनुसन्दधदपि स्वप्नगोऽपि स्वरसेनैव- स्वेच्छा- - १. ख० पु० तव न स्तुतिबन्धः - इति पाठः । २. ख० पु० स्तोत्रादिभेदाभावात् — इति पाठः ।

  • भाव यह है— हे भगवान् ! मुझे स्वप्न अवस्था में भी उस समावेश सुख

का अनुभव क्यों नहीं होता, जो मुझे जागरण अवस्था में सदा और सहज में ही उपलब्ध होता है ॥ ५ ॥ ३. ख० ग० पु० स्वेच्छया चशेनैवेति पाठः । औत्सुक्य विश्वसितनामैकादशं स्तोत्रम् बशेनैव किमिति न तथैव भवामि कस्मात्स्वप्नेऽपि - संस्कारप्रबोध- सारेऽपि जागरावत् त्वदर्चापरो न भवामि - न समाविशामीति यावत् ॥ - येन मनागपि भवचरणाब्जो- भूतसौरभलवेन विमृष्टाः । तेषु विस्रमिव भाति समस्तं भोगजातममरैरपि मृग्यम् ॥ ६ ॥ ( प्रभो = हे स्वामी ! ) - ये = जो ( भक्ताः = भक्त-जन ) भवत्- = आप के लवेन = लेश मात्र का = तेषु = उन्हें ( तो ) अमरैः = देवताओं के लिए अपि = भी वाञ्छनीय मृग्यं समस्तं = समस्त भोग- = ( स्वर्ग आदि) भोगों का चरण-अब्ज = चरण कमलों से उद्भूत- = निकली हुई सौरभ - = ( चिदानन्द रूपी ) सुगंधि के जातं = समूह मनाक् = ज़रा सा अपि = भी - विमृष्टाः = स्पर्श प्राप्त करते हैं, = - विस्रम्* = दुर्गन्धि से भरा हुआ इव = जैसा ( अर्थात् अत्यन्त तुच्छ राज्य ) भाति = प्रतीत होता है ॥ ६ ॥ चरणाब्जं - प्राग्वत् । सौरभम् – अवस्थास्नुरामोदसंस्कारस्तस्य लंब:- अंशमात्रं न तु पूर्णं रूपं, तेन ये विमृष्टाः~ मनाङ्मात्रेणापि पात्रीकृताः, तेषु समस्तं - सदाशिवान्तं भोगजातं देवैरपि प्रार्थनीयं वि- दुरामोदमिव प्रतिभाति । एवं च पूर्णसमावेशशालिनां दण्डा- पूपिकयैव दूरोत्सारित: सिद्धयभिलाषः ॥ ६ ॥ १. ख० पु० जागरवत् - इति पाठः ।

  • जब सामान्य भक्त की ऐसी दशा होती है, तो उनका भला क्या कहना,

जिन्हें पूर्ण समावेश-सुख का अनुभव होता है। उनके हृदय से तो विषय- सम्बन्धी सुख की अभिलाषा आप से आप ही दूर भाग जाती है ॥ ६ ॥ २. ख० पु० लवो लेशमात्रम् - इति पाठः । १५६ श्रीशिवस्तोत्रावली हृति ते न तु विद्यतेऽन्यदन्य- द्वचने कर्मणि चान्यदेव शंभो । परमार्थसतोऽप्यनुग्रहो वा यदि वा निग्रह एक एव कार्यः ॥ ७ ॥ शम्भो = हे महादेव ! ते : = आप के हृदि = हृदय ( अर्थात् संकल्प ) में अन्यत् = = कुछ, चचने = वाणी में अन्यत् = कुछ च = और तथा कर्मणि = कर्म ( अर्थात् व्यवहार ) में अन्यत् = कुछ और - एव = ही विद्यते = हो, ( इति ) तु = ( ऐसी बात ) तो न = नहीं अस्ति = है (अर्थात् आपके मन, वचन और कर्म में पूर्ण साम्य है ), ( तस्मात् = इस लिए ) ( आपको ) परमार्थसतः अपि (मम) = ( मुझ) - सच्चे भक्त तथा सरल स्वभाव वाले पर . (अर्थात् के स्वरूप के साथ एकता ) चित् अनुग्रहः वा = अनुग्रह यदि वा = अथवा निग्रहः = निग्रह ( स्वरूप की प्रथा ) एक: एव = एक ही कार्यः : = करना चाहिए ॥ ७ ॥ चिवयप्रथारूपो महादेवः यत्र प्रथितुं प्रवृत्तः तत्र हृद्यानुष्ठान- पर्यन्तं प्रथते | यत्र तु गूहितात्मा, तत्र हृदि, वचसि कर्मणि च गृहिता- त्मैव, यतः परमार्थेन सतः - साधोः सात्त्विकस्य च वस्तुतो निग्रहानु- ग्रहयोर्मध्यादेकमेव कर्त्तव्यं भवति न तु शबलचेष्टितत्वम् - इति अर्था न्तरन्यासाद् भेदः । प्रकृतेऽर्थे निग्रहानुग्रहौ – स्वरूपनि मीलनोन्मीलने, अप्रकृतेऽपि — अपकारोपकाराविति श्लेषच्छायापि ॥ ७ ॥ मूढोऽस्मि दुःखकलितोऽस्मि जरादिदोष- भीतोऽस्मि शक्तिरहितोऽस्मि तवाश्रितोऽस्मि । १. ख० पु० अर्थान्तरन्याससम्भेदः - इति पाठः । शम्भो तथा कलय शीघ्रमुपैमि येन सर्वोत्तमां शम्भो = हे महादेव ! = ( अहं = मैं ) मूढः = मूर्ख अर्थात् अज्ञानी = अस्मि = हूँ, - दुःख. कलितः = फंसा हुआ = = औत्सुक्य विश्वसितनामैकादशं स्तोत्रम् ( संसार के ) दुःखों में अस्मि = हूँ, - जरा = बुढापा आदि आदि दोष - = दोषों से = भीतः = भयभीत = अस्मि = हूँ, ( परश्च = किन्तु ) तव = आप की धुरमपोज्झितदुःखमार्गः आश्रितः = शरण में . अस्मि = आया हूँ | तथा = ( तस्मात् त्वं = इसलिए ) • ऐसा कलय = ● कीजिए येन = कि - ( अहं = मैं ) अपोज्झित दुःखमार्गः = ( स्वरूप- अप्रथन रूपी ) दुःख-मार्ग को अस्मि = हुआ हूँ, शक्ति-रहितः = सामर्थ्य-हीन सर्वोत्कृष्ट धुरं = पदवी को - शोघ्रम् = ( शाम्भवोपाय त्याग कर सर्वोत्तमां = ( स्वरूप- समावेश-रूपिणी ) तुरन्त उपैमि: ( प्रभो = हे स्वामी ! ) मम = मेरी तुच्छतराणि = अति तुच्छ - = प्राप्त करूं ॥ ८॥ वंशान्तरालपतितानि जलैकदेश- खण्डानि १५७ ॥ ८॥ व्युत्थानापेक्षयैवैतदित्युक्तप्रायम् । 'तवाश्रितोऽस्मि’ — इत्यत्र भरं - कृत्वा उत्तरार्ध योज्यम् । कलय – सम्पादय | सर्वोत्तमां- सम्पूर्णसमा- वेशमयीम् ॥ ८ ॥ त्वत्कर्णदेशमधिशय्य महार्घभाव - माक्रन्दितानि मम तुच्छतराणि यान्ति | द्वारा ) मौक्तिकमणित्वमिवोद्वहन्ति ॥ ९॥ आक्रन्दितानि = करुण-स्वर-पूर्ण पुकारें त्वत्- = आप के १५८ कर्ण- = कानों के देशम् = पास - अधिशय्य = पहुँच कर ही महाघभावं = बहुमूल्यता (अर्थात् बड़े गौरव ) को यान्ति, = प्राप्त करती हैं, श्रीशिवस्तोत्रावली इव = जिस प्रकार ( स्वाति नक्षत्र में ) जल- = ( चर्षा के ) जल की - नाथ = हे ईश्वर ! p क्षणम् (= क्षण मात्र के लिए थवा अपि च = = कैतवात् = छल-कपट से - एक- देश - खण्डानि = छोटी-छोटी बूंदें वंश = बांस के अपि = भी - अन्तराल- पतितानि : = अधिशय्य - प्राप्य, महार्धभावम् अनर्घत्वम्, तुच्छतराणीति अनौद्धत्यं ध्वनति । यान्तीति तु अतिंभक्तत्वेन निश्चितप्रतिपत्तित्वात् । वंशान्तरे इत्यर्थान्तरन्यासः स्पष्टः ॥ ६ ॥ मौक्तिक-मणित्वम् = मोतियों के रूप = को 1

  • उद्वहन्ति = धारण करती हैं ॥९॥

किमिव च लभ्यते बत न तैरपि नाथ जनैः क्षणमपि कैतवादपि च ये तव नाम्नि रताः । शिशिरमयूखशेखर तथा कुरुं येन मम क्षतमरणोऽणिमादिकमुपैमि यथा विभवम् ॥ १० ॥ ये = जो = बीच में पड़ कर तव = आप के नाम्नि १ ख० पु० अतिभक्तित्वेनेति पाठः । ग० पु० प्रतिभक्तत्वादिति च पाठः । २ ख० पु० न- इति पाठः । ३ ग० पु० कुरुषे न ममेति पाठः । = नाम ( के स्मरण ) में रताः = अनुरक्त होते हैं, ः = उन

  • कवि-परम्परा-

गत वर्णन के अनुसार कहा जाता है कि स्वाति नक्षत्र में वर्षा के जल की बूंदें सीप में मोती, बाँस में वंशलोचन- मणि और सांप के मुख में विष बनती हैं । जनैः = लोगों से अपि = भी - औत्सुक्यविश्वसितनामैकादशं स्तोत्रम् किमिव च = भला क्या कुछ वतन लभ्यते = प्राप्त नहीं किया जाता ! ( अर्थात् वे भी इच्छा- नुसार सब कुछ पाते हैं ) ! ( तस्मात् = इसलिए ) शिशिर मयूख-शेखर = हे शशि- शेखर ! ( महादेव जी ! ) - मम = मेरे लिए तथा कुरु = ऐसा कीजिए येन ( अहं) = कि ( मैं ) इत्यादि च व्याहतमेव ।। १० ।। १. ख० पु० स्पृहणीयत्वेनेति पाठः । क्षत-मरणः ( सन् ) = मृत्यु - पाश छूटकर ( अर्थात् अकाल-कलित हो कर ) यथा विभवम् = ऐश्वर्य-पूर्वक अणिमादिकम् = अणिमा ( सिद्धियों ) को उपैमि = प्राप्त करूँ ॥ १० ॥ 'वित्रमिव भाति समस्तं भोगजातम्...' ॥ शि० स्तो० ११, श्लो० ६ ॥ १५९ - कैतवात् – व्याजादपि ये जनास्तव नाम्नि – न तु तात्त्विके स्वरूपे रतास्तैरपि कि न लभ्यते-पूजासत्काराद्यभीष्टमपरिज्ञाततदाशयेभ्यः सकाशात्प्राप्यत एव | ये तु परमार्थतः सततं च त्वयि रताः, ते अर्थादेव परमार्थमया एव । अतो हे शिशिरमयूखशेखर - सर्वसन्तापहारिन् ! तथा कुरु यथा प्राग्व्याख्यातरूपाणिमादिकं विभवमुपैमि । क्षतमरण:- अकालकलितः । अस्य पदस्यायमाशयः – यद् ब्रह्माद्यः अणिमादिविभूति- युक्ता अपि मृतिधर्माण एव | यथोक्तमस्मद्गुरुभिः क्रम केलौ - 'श्रीमत्सदाशिवपदेऽपि गतोग्रकाली भीमोत्कटभ्रुकुटिरेष्यति भङ्गभूमिः ॥' इति । अतो मां क्षतमरणं - चिदानन्दघनमद्वयाणिमादिपात्रं कुरु । ये तु विभूतिस्पृहापरत्वेनैतद्वचा कुर्वते तेषां 'स्मरसि नाथ कदाचिदपीहितं ॥ शि० स्तो०, ४, श्लो० २० ॥ इति, 'सत्येन भगवन्नान्यः ॥ शि० स्तो०, १६, श्लो० ६ ॥ इति, आदि १६० श्रीशिवस्तोत्रावली शम्भो शर्व शशाङ्कशेखर शिव त्र्यक्षाक्षमालाधर श्रीमन्नुग्रकपाललाञ्छन लस ड्रीमत्रिशूलायुध | कारुण्याम्बुनिधे त्रिलोकरचनाशीलोग्रशक्त्यात्मक श्रीकण्ठाशु विनाशयाशुभभरानाधत्स्व सिद्धिं पराम्|| - - शम्भो = हे कल्याण-कारक ! शर्व = हे ( पापियों को ) सन्ताप देने वाले ! शशाङ्क - शेखर = हे चन्द्र-शेखरं ! शिव = हे कल्याण स्वरूप ! त्र्यक्ष = हे त्रिनेत्रधारी ! अक्षमालाधर = हे जप मालाधारी ! श्रीमन् = हे मोक्ष - लक्ष्मी वाले !

हे भयंकर

उग्र- = कारुण्य-अम्बुनिधे = हे द-सागर ! त्रि-लोक-रचना-शील = हे तीनों, लोकों के निर्माता ! उग्र = हे भयंकर शक्ति-आत्मक = शक्ति-स्वरूप श्रीकण्ठ = हे श्रीकण्ठ ! - अशुभ = ( मेरे ) पापों की भरान् = गठरियों को - कपाल लाञ्छन = खोपड़ियों के चिह्न आशु = तुरन्त वाले ! लसत् - = हे चमकीले भीम = तथा भयानक त्रिशूल- = त्रिशूल रूपी - आयुध = आयुध को धारण करने सिद्धिम् = सिद्धि ( मुझे ) वाले । 1 विनाशय = तहस-नहस कीजिए ( तथा = और ) परां = ( मुक्ति-रूपिणी ) उत्कृष्ट आधत्स्व = प्रदान कीजिए ॥ ११ ॥ उग्राणि - भीषणानि अशेषब्रह्मादिसम्बन्धीनि कपालांनि लाञ्छनं यस्य | उग्राः – विश्वसंहर्ग्यः शक्तयः आत्मा यस्य | अशुभभरान् भेदोल्लासान् | परां - परमाद्वयानन्दसारोम् ॥ ११ ।। तल्कि नाथ भवेन्न पत्र भगवान्निर्मातृतमश्नुते भावः स्यात्किमु तस्य चेतनवतो नाशास्ति यं शङ्करः । १. ख० ग० पु० 'उग्र' इत्यादि, 'आत्मा यस्य' – इत्यन्तं नास्ति । २. ख० पु० रूपाम् इति पाठः । औत्सुक्यविश्वसितना मैकादशं स्तोत्रम् सदा संश्रितः क्लिश्याम्यहं केवलम् || शङ्करः = ( आप ) महादेव न आशास्ति = अनुशासन नहीं करते? - इत्थं ते परमेश्वराक्षतमहाशक्तेः संसारेऽत्र निरन्तराधिविधुरः नाथ = हे स्वामी ! परमेश्वर = हे महेश्वर ! तत् = वह = किं = कौन सी वस्तु भवेत् = हो सकती है, यत्र = जहाँ ( अर्थात् जिस के ) भगवान् = आप प्रभु निर्मातृतां = निर्माता के रूप में न अनुते = व्याप्त नहीं होते ? ( तथा = और ) तस्य = उस चेतनवतः = ( सकल आदि) चेतन - ( प्रमातृ-वर्ग ) का किमु = ( वह ) कौन सा - भावः = ( भूत, भुवन आदि रूपी ) पदार्थ स्यात् = हो सकता है, यं = जिस पर - इत्थं = इस प्रकार - अक्षत = पूर्ण महा-शक्तः = महाशक्ति वाले की ते = संश्रितः = शरण में आकर ( अपि = भी ) - अहम् = मैं अत्र = इस संसारे सदा = सदैव निरन्तर = लगातार आधि- = संसार में

= = मानसिक पीडाओं से विधुरः ( सन् ) = व्याकुल हो कर केवलं = केवल = १६१

  • क्ष्यिामि = दुःख का ही अनुभव

- करता हूँ ॥ १२ ॥ तदिति – तत्त्वंभूतभावभुवनादि, भावः - सत्ता, चेतनवतः—सक- लादेर्मन्त्रमहेश्वरान्तस्य आशास्तीति ‘प्रवृत्तिर्भूतानामैश्वरी ।' इति स्थित्या सर्वप्रमातृनियोमकत्वरूपं शासितृत्वं भगवत एव । सदेति -

  • भाव यह है — हे शंकर ! आप सारे जगत के उत्पादक, रक्षक तथा

संहारक हैं। मैं आपकी शरण में आया हूँ, किन्तु फिर भी दुःखी हूँ। आप ऐसे सर्वशक्तिमान प्रभु का शरणागत हो और वह दुःखी हो ! यह क्यों ? १ ख० पु०, च० पु० तत्त्वभूतभावो भुवनादिभावः - इतिः पाठः । २ ख० पु०, च० पु० नियामकरूपमिति पाठः । १६२ न तु कदाचित्, निरन्तराधिविधुरत्वं व्युत्थाने समावेशानासाद्नात् | अहं केवलम् इत्यत्रायमभिप्रायः; - मायीया इयं देहादिप्रमातृता चेद्द्र- लिता, तत्सर्वभिदं त्वन्मयमेवोच्यते | देहाद्यन्तैबोन्मूलनीया वर्तते ॥ १२ ॥ यद्यप्यन्त्र वरप्रदोद्धततमाः पीडाजरामृत्यवः श्रीशिवस्तोत्रावली एते वा क्षणमासतां बहुमतः शब्दादिरेवास्थिरः । तत्रापि स्पृहयामि सन्ततसुखाकाङ्क्षी चिरं स्थास्नवे भोगास्वादयुतत्वदधिकमलध्यानाग्र्यजीवातवे ॥१३॥ वर-प्रद = हे वर-दायक ( प्रभु ) ! यद्यपि = यद्यपि असह्य ( भवन्ति = होते हैं ), एते वा = तो भी इन को क्षणम् = अभी आसताम् = रहने दीजिए, ( किन्तु = किन्तु ) अत्र = इस संसार में पीडा- = दुःख, जरा = बुढ़ापा मृत्यवः = और मृत्यु ( अहं = मैं ) -- उद्धततमाः = अत्यन्त भयंकर अर्थात् चिरं स्थानवे = चिर-स्थायी, बहुमतः = बहु- मान्य - शब्द-आदिः = शब्द आदि विषय 1 एव = ही तो अस्थिरः = 1 ( भवति = हैं ) । - तत्रापि = ऐसा होते हुए भी संतत-सुख (याद रूपी ) स्थायी सुख को 1 - आकाङ्क्षी = चाहने वाला = भोग-आस्वाद - = (चित्-आनन्द के ) - चमत्कार से युत = युक्त = त्वद् - = (चित्- प्रकाश संबन्धी प्रकाश- विमर्श रूपी ) आपके अङ्घ्रि कमल = चरण-कमलों के ध्यान- = ध्यान से युक्त अग्रयजीवातवे = ( और इसीलिए ) श्रेष्ठ जीवन के लिए - अस्थिर अर्थात् क्षणभंगुर स्पृहयामि = कामना करता हूँ ॥१३॥ अत्रेति - संसारे । उद्धततमाः - असह्या: । क्षणमासतां - साम्प्रतं तिष्ठन्तु – इति लौकिक्युक्ति: । बहुमतः विश्वस्याभिलषितः सन्ततम्- अद्वयानन्दरूपं सुखेमाकाङ्क्षति तच्छील: चिरं स्थानवे - चिरमवस्थान- १ ख० पु०, च० पु० सुखमाकाङ्क्षतीति तच्छीलः - इति पाठः औत्सुक्यविश्वसितना मैकादशं स्तोत्रम् १६३ शीलाय, जीवातवे - जीविताय, स्पृहयामि । कीदृशाय ? भोगास्वाद- युतत्वदधिकमलध्यानाग्र्याय – परमानन्द चमत्कारयुक्तत्वन्मरीचिपद्म- चिन्तनप्रधानाय | अत एव स्पृहणीयत्वम् ॥ १३ ॥ हे नाथ प्रणतार्तिनाशनपटो श्रेयोनिधे धूर्जटे दुःखकायतनस्य जन्ममरणत्रस्तस्य मे साम्प्रतम् ! तचेष्टस्व यथा मनोज्ञविषयास्वादप्रदा उत्तमाः जीवन्नेव समझनुवेऽहमचलाः सिद्धीस्त्वदर्चापरः || हे नाथ = हे नाथ ! प्रणत- हे शरणागतों के आर्ति- = दुःखों को नाशन- = नष्ट करने में पटो = प्रवीण ! श्रेयः - निधे = हे कल्याण सागर ! - - धूर्जंटे = हे धूर्जट शङ्कर ! दुःख-एक- • केवल दुःखों का = आयतनस्य = घर बने हुए जन्म-मरण- = = ( तथा ) जन्म-मृत्यु से त्रस्तस्य = भयभीत बने हुए - मे = मेरे लिए - साम्प्रतं = अब त्वद् = आप की अर्चा- = पूजा में - तत् = ऐसा चेटस्व = कीजिए = यथा = कि अहं = मैं - परः = तत्पर ( सन् = हो कर ) मनोज्ञ - = ( चिदानन्द रूपी ) मनोहर विषयों के विषय- = आस्वाद = चमत्कार को प्रदाः = देने वाली उत्तमाः = श्रेष्ठ अचलाः = तथा चिर-स्थायी सिद्धीः = ( स्वरूप प्रथनात्मक ) सिद्धियों को जीवन्नेव = जीते जी ही - (अर्थात् समञ्जुवे = प्राप्त करूं । समाविष्ट हो कर ही मैं आपकी पूजा में लीन होता रहूँ और इस प्रकार जीवन्मुक्त बनूँ ) ॥ १४ ॥ मनोज्ञं – चिदानन्दसुन्दरं, विषयाणां - रूपादीनां चमत्कारास्वादं प्रदे- दति यास्ताः, उत्तमा अचलाः सिद्धीरिति प्राग्वत् | जीवन्नेवेति - नंतु देह- १ ख० पु० च० पु० ददति - इति पाठ | २ ग० पु०, च० पु० न देहपाते - इति पाठः । १६४ श्रीशिवस्तोत्रावली पाते, अपि तु जीवंदवस्थायामेव | समाविष्ट एवाहं त्वदर्चापर इति - त्वयि - चिदानन्दात्मनि विश्वार्पणपरः ॥ १४ ॥ - नमो मोहमहाध्वान्त- ध्वंसनानन्यकर्मणे । सर्वप्रकाशातिशय- प्रकाशायेन्दुलक्ष्मणे ॥ १५ ॥ अतिशय- = बढ़ चढ़ कर = प्रकाशाय = तेज को धारण करने वाले ( च = और ) इन्दु-लक्ष्मणे = चन्द्रमा हो चिह्न वाले ( अर्थात् सोम-कला-धारी ) ( नाथ = हे स्वामी ! ) मोह- मोह रूपी महा- = महान् ध्वान्त = अन्धकार को ध्वंसन- = नष्ट करने में अनन्य सर्व- -कर्मणे = सदा उग्रत रहने वाले, = समस्त प्रकाश - = ( [[अग्नि, सूर्य और चन्द्र आदि के ) प्रकाश से ( भवते = आपको ) = नमः ( अस्तु) = नमस्कार (हो) ॥ १५ ॥ = महामोहध्वान्तस्य — मायातमसः ध्वंसने अनन्यकर्मा- सदोयुक्तः, सर्वान्– अग्नीषोमसूर्यप्रकाशानतिशेते यस्तथाभूतः प्रकाशो यस्य, तस्मै | ध्वान्तध्वंसे - प्रकाशनव्यापारे चानुगुणमभिधानमिन्दुलक्ष्मणे इति शिवम् ।। १५ ।। इति श्रीमदुत्पलदेवाचार्यविरचितस्तोत्रावल्यामौत्सुक्यविश्वसितनाम्नि एकादशस्तोत्रे श्रीक्षेमराजाचार्यविरचिता विवृतिः ॥ ११ ॥ - १ ख० पु० जीवद्दशायामेवेति पाठः । २ घ० पु० एव – इति पाठः । ३ ख० पु०, च० पु० चिदात्मनि - इति पाठः ।

  • 'इन्दुलक्ष्मणे' Srkris (सम्भाषणम्) यह महादेव का नाम अत्यन्त सार्थक है । इससे सूचित

होता है कि भगवान् शङ्कर प्रकाश फैला कर अन्धकार को दूर करने की पूरी क्षमता रखते हैं । ॐ तत् सत् अथ न= नहीं है, हि = क्योंकि - रहस्य निर्देशनाम द्वादशं स्तोत्रम् सहकारि न किञ्चिदिष्यते भवतो न प्रतिबन्धकं दृशि | भवतैव हि सर्वमाप्लुतं कथमद्यापि तथापि नेक्षसे ॥ १ ॥ ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) - भवतः = आप का दृशि = साक्षात्कार करने में किञ्चित् = ( [अन्तः करण की शुद्धि दि) किसी सहकारि = सहायक ( साधन ) की - न इष्यते = अपेक्षा नहीं है ( तथा किचित् = तथा कोई ) प्रतिबन्धकं = रोकने वाला भी = सर्व = ( यह ) सारा ( जड-चेतन-मय जगत ) भवता = आप ( चिद्रूप ) से - एव = ही आप्लुतं = व्याप्त है । तथापि = ऐसा होते हुए भी, कथम् = क्या बात है कि अद्य-अपि = अभी भी ( व्युत्थान में ) ( त्वं = [])

  • न ईक्षसे = ( प्रत्यक्ष रूप में )

दिखाई नहीं देते ॥ १ ॥ भवतो दृषि त्वत्प्रकाशने, मलपरिपाकादिकं सहकारि न किश्चित् नापि प्रतिबन्धकं किश्चिदस्ति, यस्मात् सहकार्याद्यभिमतं त्वयैव व्याप्तं,

  • भाव यह है — हे प्रभो ! समावेश की भांति व्युत्थान में भी मुझे आप

के साक्षात्कार का आनन्द मिलता रहे, यही मेरी कामना है और इसी से मैं सफल - मनोरथ हो जाऊंगा । १६६ श्रीशिवस्तोत्रावली तथापि कथंमद्यापि - इयति व्युत्थाने नेक्षसेन प्रकाश सेऽस्माकमिर्थः । भवतः – इति कर्मणि षष्ठी ॥ १ ॥ अपि भावगणादपीन्द्रिय- प्रचंयादव्यवबोधमध्यतः । प्रभवन्तमपि स्वतः सदा परिपश्येयमपोढविश्वकम् ॥ २ ॥ ( प्रभो = हे स्वामी ! ) - स्वतः = आप से ही - भाव- गणात् = ( घट, पट आदि) प्रभवन्तं = प्रकट बने हुए वस्तु-वर्ग से अपि = भी इन्द्रिय - = इन्द्रियों के -- प्रचयात् = समूह में से अपि = भी - - अवबोध-मध्यतः अपि = ( और ) चित् - प्रकाश रूपी तुर्य अवस्था में भी ( त्वाम् = आप के स्वरूप को ) ( अहं = मैं ) - सदा = सदा अपोढ - विश्वकं = भेद-भाव को तिला- जलि दे कर परिपश्येयम् = सर्वथा (अर्थात् = व्युत्थान में भी, देखता रहूँ ॥ २ ॥

भावेभ्यः, इन्द्रियेभ्यः, ज्ञानेभ्य आत्मनश्च सकाशात् त्वामेव प्रभुं नित्यं परितः— समन्तात् पश्येयम् । कथम् ? अपोढविश्वकं - तिरस्कृता- शेषभेदं कृत्वा ॥ २ ॥ कथं ते जायेरन्कथमपि च ते दर्शनपथं व्रजेयु: केनापि प्रकृतिमहताङ्केन खचिताः । १ ख० पु० कथमद्यापीति - व्युत्थाने - इति पाठः । ग० पु०, च० पु० कथमद्यापीति इयति व्युत्थाने - इति च पाठः ।

  • भाव यह है — चाहे समावेश हो अथवा व्युत्थान, सभी दशाओं में मैं

प्रत्यक्ष रूप में आप के साक्षात्कार का आनन्द उठाता रहूँ । यही मेरी कामना है और इस के सिवा मेरे सुख का कोई दूसरा साधन नहीं है । २ ख० पु०, च० पु० इन्द्रियप्रथमादिति पाठः । t ३ ग० पु० आत्मनः - इति पाठः । ४ ग० पु० महता केन— इति पाठः । रहस्यनिर्देशनाम द्वादशं स्तोत्रम् तथोत्थायोत्थाय स्थलजलतृणाढेरखिलतः पदार्थाद्यान्सृष्टिस्रवदमृतपूरैर्विकिरसि ( नाथ = हे नाथ ! ) - स्थल = स्थल, जल = जल और तृण-आदे = तृण आदि अखिलतः = समस्त पदार्थात् = वेद्य वर्गों से ( = परिमित वेद्य दशा से ) यान् = जिन्हें ( त्वं = []) - तथा अलौकिक अनुग्रह - शक्ति से उत्थाय - उत्थाय = उठा-उठा कर ( अर्थात् - स्रवत् - = बहती हुई अमृत पूरैः = अमृत की धारायें विकिरलि = बरसाते हैं, - ॥ ३ ॥ - केन-अपि = एक अलौकिक प्रकृति = ( पारमार्थिक ) स्वभाव के महता- = बड़े (अर्था अङ्केन = चिह्न से खचिताः = प्रकाशित ( सन्तः = हो कर ) कथं = कैसे - उनका उद्धार कर के ) - सृष्टि- = ( उन पर परमानन्द रूपी ) ( लोकस्य = लोगों की ) सृष्टि से ते ( भक्ताः ) = वे ( भक्त-जन ) = जायेरन् = ( इस संसार में फिर ) जन्म ले सकते हैं च = और कथम् अपि = कैसे - दर्शन-पथं = दृष्टि के मार्ग पर (अर्थात - वेद्य-रूपता में ) व्रजेयुः = सकते हैं ? ( अर्थात् वे ज्ञातृ-रूप हैं, अतः किसी प्रकार से ज्ञेय नहीं बन सकते | ) ॥ ३ ॥ अखिलतः पदार्थात् तथेति - अलौकिकेन प्रकारेण उत्थायोत्थायेति- तत्तद्वेद्यदशायां भेदं निमज्ज्य चिद्रूपतया स्फुरित्वा, यान् ज्ञानात्मक-

  • भाव यह है – हे नाथ ! जिन भक्तों पर की दया दृष्टि, आनन्द-

अमृत-धारा छिटकाती है, वे सदा के लिए जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाते हैं और लोगों से देखे नहीं जा सकते, अर्थात् जीवन्मुक्त हो जाते हैं । १ ग० पु०, च० पु० 'पदार्थात्' इत्यनन्तरं 'उत्यायोत्थायेति वीप्सा'- इत्यधिकः पाठः | २. पु० तत्तद्वेद्यप्रथायामिति पाठः | श्रीशिवस्तोत्रावली प्रसरदमृतोत्करैराँच्छुरयसि, ते केनापि प्रकृतिमहता इति - नित्यैविक- सितरोमाञ्चितत्वादिना चिहेर्न प्रकाशिताः, न जन्मभाजो नापि लोकै: लक्ष्यन्ते । कथमिति - असंभावनायाम् ॥ ३ ॥ १६८ साक्षात्कृतभवद्रूपप्रसृतामृततर्पिताः । उन्मूलिततृषो मत्ता विचरन्ति यथारूचि ॥ ४ ॥ ( भगवन् = हे भगवान् ! ) साक्षात्कृत = साक्षात्कार किये हुये भवत्- = आपके रूप = स्वरूप से प्रसृत- अमृत- = आनन्द रस से तर्पिताः = जो तृप्त हो गये हैं, उन्मूलित-तृषः जिन्हों ने तृष्णा को जड़ से उखाड़ डाला है (अर्थात् ! • बहते हुए = ऐश्वर्य की इच्छा को बिल्कुल शान्त कर लिया है ), मत्ताः = और जो ( पारमार्थिक ) मस्ती से युक्त हैं, ऐसे ( भवद्भक्ताः = आपके भक्तजन ) ( संसारे = इस संसार में ) यथा-रुचि = अपनी इच्छा से ( अर्थात् स्वतन्त्र र निश्चिन्त होकर ) विचरन्ति = विहार करते हैं ॥ ४ ॥ - अमृतम् ~ आनन्दः । उन्मूलिता - अपुनरुत्थानेन शमिता, विभूत्यादिस्पृहा यैः । मत्ताः - हृष्टाः, स्वातन्त्र्येन विहरन्ति । आकाङ्क्षामयाः परतन्त्रा एव ॥ ४ ॥ नं तदा न सदा न चैकदे- त्यपि सा यत्र न कालधीर्भवेत् । १ ख० पु० आस्फुरयसीति पाठः । २ ख० पु० विकसिततर - इति पाठः, ग० पु० नित्यविकसितत्वेति पाठश्च - ३ ख० पु० चिह्नन - प्रकाशेनेति पाठः । च० पु० प्रकाशेन चिह्वेन - इति पाठः । ४ ख०, ग०, च० पु० उन्मूलिततृषः - इति पाठः । - ५ ख०, च० पु० - इति पाठः । तृट् -- अन्ये तु ६ ख०, च० पु० न सदा न तदा - इति पाठः । रहस्यनिर्देशनाम द्वादशं स्तोत्रम् तदिदं भवदीयदर्शनं न च नित्यं न च कथ्यतेऽन्यथा ॥ ५॥ ( प्रभो = हे प्रभु ! ) न सदा = 'सदा नहीं', न तदा = उस समय नहीं' और इति = ऐसी - न एकदा = 'एक बार नहीं', - सा = यह काल - धीः = काल-कलनात्मिका बुद्धि अपि = भी यत्र = जहाँ ( अर्थात् जिस के विषय में ) न भवेत् = ( लागू ) नहीं हो सकती है, - -- तत् = ऐसा ही इदं = यह ( काल-कलना से परे ) भवदीय-: = (के यथार्थ स्वरूप ) का दर्शनम् = दर्शन ( अर्थात् साक्षात्कार ) ( अस्ति = है ) ( इदं = यह ) न च = न तो १६९ नित्यं = नित्य ही - न च = और न अन्यथा अन्यथा ही कथ्यते = कहा जा सकता है ॥ ५॥ - न तदेति, सदेति, एकदेति - परस्परप्रतियोगितया | एकदेति - अस्य प्रकारस्तदेति' । इत्यपि - एवं प्रकारा अपि -यदेति, इदानी- मित्यादिका च यत्र न सा काचित् कालधीरकालकलित्वात् । तदिति - असामान्यम् । इदमिति - स्फुरद्र्पं ज्ञानं, त्वदीयं । न नित्यं कथ्यते नाध्यनित्यम् ;- नित्यत्वा नित्यत्वयोः परस्परप्रतियोगित्वात् सर्वात्मक- साक्षात्कारिणि रूपे व्यवहारानुपपत्तेः ।। ५ ।। त्वद्विलोकनसमुत्कचेतसो योगसिद्धिरियती सदास्तु मे । यद्विशेयमभिसन्धिमात्रत- स्त्वत्सुधासदनमर्चनाय ते ॥ ६ ॥ १ च० पु० तदा इत्यपि ' - इति पाठः । १७० ( परमेश्वर = हे भगवान् ! ) स्वद् - = आप के विलोकन- • दर्शन के लिए - - - यद् = कि ( अहम् = मैं ) अभिसंधि-मात्रतः = केवल इच्छा होते ही ( अर्थात् जब जी चाहे तब ) = आपकी ते अर्चनाय = पूजा करने के लिए त्वत् = आप के सुधा-सदनं = चिदानन्द-सदन ( अर्थात् परमानन्द-धाम ) में विशेयम् = प्रवेश करूँ ॥ ६ ॥ अभिसंधिमात्रतः- इयती इति, न तु परिमितफलोन्मुखी | इच्छामात्रात्, त्वदीयं सुधासदनं - परमानन्दधाम | सदा विशेयं - त्वत्समाविष्टः स्यामित्यर्थः । अर्चनं प्राग्वत् ॥ ६ ॥ निर्विकल्पभवदीयदर्शन-- प्राप्तिफुल्लमनसां महात्मनाम् । उल्लसन्ति विमलानि हेलया = समुत्क = उत्कण्ठित चेतसः = हृदय वाले - मे = मुझे इयती = इतनी सी योग-सिद्धिः = योग-सिद्धि सदा = सदा अस्तु = प्राप्त होती रहे श्री शिवस्तोत्रावली चेष्टितानि च वचांसि च स्फुटम् ॥ ७ ॥ विमलानि = निर्मल ( अर्थात् जगत का उद्धार करने में समर्थ ) चेष्टितानि = चेष्टायें (वर) - ( प्रभो = हे स्वामी ! ) निर्विकल्प भवदीय = आप के निर्विकल्प दर्शन- = दर्शन ( अर्थात् साक्षा- कार ) की = प्राप्ति- प्राप्ति से = फुल्ल - अखिल उठते हैं मनसां '= हृदय जिन के, ऐसे महात्मनां. = महात्माओं का च = तथा वचांसि : = वचन हेलया = सहज में ही ( अर्थात् बिना किसी कठिनाई के ) स्फुटंच और स्पष्ट रूप में -

  • उल्लसन्ति = देदीप्यमान होते हैं ॥७॥

१ ख० पु० इच्छामात्रत्वादिति पाठः । २ ग० पु०, च० पु० तत्समाविष्टः स्याम् - इति पाठः । ,

  • भाव यह है – हे प्रभु ! जो भक्त-जन श्राप के साक्षात्कार का आनन्द १७१

कवलित विकल्पत्वदीयसाक्षात्कारप्राप्त्या विकसितमनसां भक्ति- भाजां, विमलानीति - जगदुद्धरणक्षमाणि, हेलामात्रेण चरितानि वाक्यानि च, स्फुटं कृत्वा समुल्लसन्ति । यदागमः 'दर्शनात्स्पर्शनाद्वापि वितताद्भवसागरात् । तारयिष्यन्ति वीरेन्द्राः कुलाचारप्रतिष्ठिताः ॥' इति ॥ ७ ॥ भगवन् = हे भगवान् ! - भगवन्भवदीय पादयो- निवसन्नन्तर एवं निर्भयः । भवभूमिषु तासु तास्वं प्रभुमर्चेंयमनर्गलक्रियः ॥ ८ ॥ भवदीय = आप के पादयोः चरणों के रहस्यनिर्देशनाम द्वादशं स्तोत्रम् अन्तरे = बीच में एव = ही - ( ज्ञान-क्रिया रूपी ) ( तथा = तथा ) निवसन् = बसता हुआ अहं = मैं - भूमिषु = अवस्थाओं में निर्भयः = निर्भय तासु तासु = उन अनन्त भव- = लौकिक अनर्गल = अनियन्त्रित क्रियः = चेष्टाओं वाला (अर्थात् पूर्ण रूप में स्वतन्त्र ) ( सन् = होकर ) - प्रभुम् = (आप) प्रभु की अर्चेयम् = पूजा करूँ ॥ ८ ॥ - पादयोः– ज्ञान क्रियाशक्तयोः, मध्य एव निवसन्, अत एवाहं तासु तास्विति' — अंतिविततासु, भवभूमिषु निर्भयः सन्, अनियन्त्रित चेष्टितः सर्वदशासु प्राग्वत्पूजापरः स्याम् ॥ ८ ॥ लूटते हैं, उन के सभी व्यवहार और वचन लोकोपकार की भावना से प्रेरित होते हैं, स्वार्थ-सिद्धि की भावना से नहीं । इसीलिए वे देदीप्यमान होते हैं । १ ख० पु०, च० पु० तासु तासु — इति पाठः । २ ख० पु० विततासु — इति पाठः । १७२ भवदघिसरोरुहोदरे ( नाथ = हे स्वामी ! ) भवत्- = आप के अङ्घ्रि-सरोरुह- उदरे = बीच में श्रीशिवस्तोत्रावली अतिमात्रमधूपयोगतः परितृप्तो - परिलीनो गलितापरैषणः । = चरण-कमलों के परिलीनः = अत्यन्त लीन बना हुआ ( च = और ) गलित- = शान्त हुई अन्य अपर एषणः = इच्छाओं वाला ( अहम् = मैं ) -- विचरेयमिच्छया ॥ ९ ॥ अतिमात्र मधु-उपयोगतः = आनन्द- रस (अर्थात् सुख ) के अत्यन्त उपयोग से परितृप्तः = पूर्ण रूप में तृप्त ( सन् = होकर ) इच्छया = (अपनी) इच्छा से (अर्थात् अत्यन्त स्वतन्त्र होकर ) विचरेयम् = विहार करूँ ( अर्थात् स्वात्म-लाभ सम्बन्धी अवस्थाओं का अनुभव करूँ ) ॥ ९ ॥ अंङ घिसरोरुहोदरं प्राग्वत् । तत्र परितः - समन्ताल्लीन: -- लिष्टः सन् इच्छया विचरेयं - पदात्पदं तदाक्रान्ति भाग्भवेयम् । कीश:- गलिताः - शान्ता अपरा:- त्वत्मरीच्याश्लेषाभिलाषव्यतिरिक्ताः एषणा- आकांक्षा यस्य, तादृक् | यतोऽतिमात्रं - भृशं, मधुन: - आनन्दरसस्य उपयोगेन- आस्वादेन परितस्तृप्तः ॥ ६ ॥ - यस्य दम्भादिव भवत्पूजासङ्कल्प उत्थितः । तस्याप्यवश्यमुदितं सन्निधानं तवोचितम् ॥ १० ॥ १ ख० पु० सरोरुहोदरमिति पाठः । २ घ० पु०, च० पु० क्लिष्टः - इति पाठः । ३ ख०, ग० पु० कीदृक् इति पाठः । ४ ख० पु० परितृप्तः - इति पाठः । रहस्यनिर्देशनाम द्वादशं स्तोत्रम् तस्य = उस को अपि = भी = ( भगवन् = हे भगवान् ! ) यस्य = जिस ( मनुष्य के मन ) में - दम्भात् इव = पाखण्ड से ( अर्थात् झूठमूठ ही ) तव = आपका = भवत् = आप ( के स्वरूप ) की पूजा- = पूजा करने का सङ्कल्प: संकल्प (विचार) उत्थितः = उठा हो, सन्निधानम् = सान्निध्य (अर्थात् साक्षात्कार ) अवश्यम् = अवश्य ही = उदितम् = प्राप्त होता है ॥ १० ॥ - इति - विकल्पमात्रम् | यस्येति–आर्तादेः । दम्भादिव - न तु नित्यैभक्तियोगेन | सङ्कल्प अत्रैकवारावलेपमात्र सम्पन्नलिंगोर्चापरिरक्षित- सकलनरकपात स्त्रिँलोकीजनो दृष्टान्तः । उचितामिति – तावन्मात्रार्थिता परिपूर्तिक्षमम् ।। १० ।। एक रसेन उचितं = उचित - भगवन्निंतरानपेक्षिणा नितरामेकरसेन सुलभं सकलोपशायिनं अनपेक्षिणा = न चाहने वाले नितराम् = ( किन्तु ) केवल ( - ( भगवन् = हे भगवान् ! ) किम् = क्या ( अहम् = मैं ) उपशायिनम् : इतर = ( किसी ) दूसरी ( बात ) को ( अतएव = और इसी लिए ) = - की समावेश-भक्ति के लिए ) = = अत्यन्त लालायित बने चेतसा | प्रभुमातृप्ति पिबेयमस्मि किम् ॥ ११ ॥ चेतसा = (अपने ) हृदय से - सकल- • सारे जगत में = १७३ = व्याप्त होने वाले सुलभं = सुलभ (सहज में = ही प्राप्त होने वाले ) ( त्वां = []) = प्रभुम् = स्वामी ( के स्वरूप ) का १ ख० पुo, च० पु० निर्दैन्यैकभक्तियोगेनेति पाठः । २ ग० पु०, च० पु० संपन्नलिंगाच्चेति पाठः । ३ ख० पु० त्रिकोटिहा — इति पाठः, घ० पु० त्रिकोटिवहा — इति च पाठः । - - ४ ख०, ग० पु० भगवन्नपरानपेक्षिणा – इति पाठः । १७४ आतृप्ति = पूर्ण रूप में - (क्या मैं आपके साथ पिवेयम् अस्मि = पान कर सकूंगा ? - - एकात्मता का अनुभव कर सकूंगा ?) किमस्मि त्वां प्रभुं, सकलोपशायिनं - - सर्वगतम्, अत एव सुलभम्, आतृतिचेतसा पिबेयं - गौढत्वदैकात्म्यमनुभवेयम् । कीदृशेन चेतसा;- नितराम्-अतिशयेन एकत्रैव- त्वत्समावेशभक्तौ न तु क्वचिदपि फले, रस: अभिलाषो यस्य तेन । अनेन विशेषणेन प्रागुक्त श्लोकार्थवैपरीत्येन निर्व्याजभक्तिरुक्ता || ११ ।। श्रीशिवस्तोत्रावली त्वया निराकृतं सर्वं हेयमेतत्तदेव तु । त्वन्मयं समुपादेयमित्ययं सारसंग्रहः ॥ १२ ॥ ( प्रभो = हे प्रभु ! ) एतत् = यह सर्व = सब कुछ ( अर्थात् वेद्य-वर्ग ) त्वया आप (चिदात्मा ) से निराकृतं = अलग होने पर हेयम् : (अस्ति) = (है) (अर्थात् सत्ता-हीन है ) = त्याज्य ( सत् = होने पर समुपादेयं ( भवति) = सर्वथा ग्राह्य (अर्थात् स्वरूप - सत्ता सम्पन्न बनता है ) इति अयं = यही तो - सार-संग्रहः (अस्ति) = ( हमारे सम्प्र- दाय के मुख्य सिद्धान्त का संक्षिप्त सार है ॥ १२ ॥ तत् एव तु = किन्तु यही (वेद्य-वर्ग) त्वन्मयं = आप (के स्वरूप ) से = यत्किंचित्त्वदैक्यप्रत्यभिज्ञां विना हेयं, तदेव त्वन्मयं प्रत्यभिज्ञातं, सम्यँगुपादेयम् | सारसंग्रह इति - सर्वसम्प्रदायसतत्त्वम् ।। १२ ।। भवतोऽन्तरचारि-भावजातं प्रभुवन्मुख्यतयैव पूजितं तत् । भवतो बहिरप्यभावमात्रा कथमीशान भवेत्समर्च्यते वा ॥ १३ ॥ १ ख० पु० सर्वगतमेव - इति पाठः । २ घ० पु० गाढं त्वदैकात्म्यमिति पाठः, ग० पु०, च० पु० त्वदैकात्म्य मिति च पाठः । ३ ख० पु०, च० पु० उपादेयम् - इति पाठः । ईशान = हे ईश्वर ! - रहस्य निर्देशनाम द्वादशं स्तोत्रम् भवतः = ( चित्- प्रकाश ) से अनन्तर चारी = भिन्न होने वाला - ( यत् = जो ) ( इदं = ग्रह ) भाव-जातम् = भाव-वर्ग - ( अस्ति = है ), तत् = वह ( तत्त्वज्ञेन = तत्त्वज्ञानी से ) मुख्यतया = प्रधान रूप में प्रभु-वत् = (प) प्रभु की भांति एव = हृी - १७५ पूजितं ( भवति ) = पूजा जाता है, = ( किन्तु = किन्तु ) - भवतः = आप ( के स्वरूप ) से बहिः = भिन्न - अभाव-मात्रा = असद्रूप (अर्थात् - ) अपि = भी कथं भवेत् = कैसे हो सकता है वा (क) = ( कैसे ) समर्च्यते = पूजा जा सकता है ? ( अर्थात् यह सारा जगत आप से अभिन्न ही है ) ॥ १३ ॥ भवतोऽन्तरचारित्वात् त्वदैक्येन स्थितं यद्भावजातं, तत् मुख्य- तथा – प्राधान्येनैव प्रभुरिति पूजितं भवति तत्त्वज्ञेन | भवतस्तु प्रकाशा- त्मनो बहिरौप्यप्रकाशात्मनो बहिरास्तां भावः | अभावमात्रापि न भवति, कुतः पुनः सॅमर्च्यते; सर्वस्य चित्प्रकाशात्मनैव सत्त्वादन्यथात्वंचिन्त्य - त्वात् | मौत्राशब्दोऽतिशयोक्तिपरः । 'भावोऽपि वुद्धयमानो बोधात्मैव' । इत्यादि हि प्रत्यभिज्ञायां निर्णीतमेव | अनेन भेवादिनामर्चनानुपपत्तिः सूचिता ॥ १३ ॥ निःशब्दं निर्विकल्पं च निर्व्याक्षेपमथानिशम् । क्षोभेऽयध्यक्षमी क्षेयं त्र्यक्ष त्वामेव सर्वतः ॥ १४ ॥ १ ख० पु०, च० पु० चारि - इति पाठः । २ ख० पु० पूज्यते इति पाठः । ३ ग० १० बहिः - अप्रकाशात्मनः - इति पाठः । ४ ख० पु०, च० पु० अभ्यते इति पाठः । ५ ख० पु० त्वत्किंचित्वात् — इति पाठः, ग० पु०, च० पुं० अचित्तत्वादिति च पाठः । ६ ग० पु०, च० पु० मात्रशब्दो - इति पाठः । ७ ख०, ग० पु० ईक्षेय — इति पाठः । ध्यक्ष = हे त्रिनेत्रधारी प्रभु ! ( अहं = मैं ) - क्षोभे = व्याकुलता ( अर्थात् ग्राह्य- ग्राहक अवस्था ) ) में अपि = भी निःशब्द (= शब्द - ब्रह्म - पद से परे होने वाले निर्विकल्पं = निर्विकल्प-स्वरूप श्रीशिवस्तोत्रावली च = तथा अध्यक्षं = प्रत्यक्ष स्वरूप त्वाम् = आप ( चित्-प्रकाश ) को शब्दब्रह्मविलक्षणम् 'मम योनिर्महद् ब्रह्म' एव = ही सर्वतः = पूर्ण रूप में अथ = और अनिशं = सदा निर्व्याक्षेपम् = बिना किसी विघ्न- बाधा के हे त्र्यक्ष ! क्षोभेऽपि - प्राग्राहकप्रसरेऽपि । 'अध्यक्षमविकल्पं कृत्वा त्वामेव - चित्प्रकाशैकरूपम्, अनिशं - सदा, निर्व्याक्षेपं - वीतविघ्नं कृत्वा सर्वत्र ईज्ञेयम् -- साक्षात्कुर्याम् । कीदृशं ? निःशब्द - वैयाकरणायुक्त - - ईक्षेयम् = देखता रहूँ ! ( अर्थात् व्युत्थान और समाधि, दोनों अवस्था में मैं आपका साक्षा- त्कार करता रहूँ । ) ॥ १४ ॥ । भ० गी० [अ० १४, लो० ३ ॥ इँति नीत्या भगवतः परब्रह्मणोऽप्युत्तमत्वात् । अत एव विकल्पेभ्यो- भावनादिरूपेभ्यो निष्क्रान्तम् – अनन्त चिन्मात्ररूपम् ॥ १४ ॥ प्रकटय निजधाम देव यस्मि- स्त्वमसि सदा परमेश्वरीसमेतः । १ ग० पु०, च० पु० चिद्रूपमिति पाठः । २ ख० पु०, च० पु० निर्विक्षेपमिति पाठः, ग० पु० निर्व्यापेक्षमिति च पाठः । ३ ख० पु० सर्वतः — इति पाठः । ४ ख० पु० ईक्षेय — इति पाठः । ५ ग० पु०, च० पु० आत्मसाक्षात्कुर्यामिति पाठः । ६ ख० पु० इत्युक्तनीत्या - इति पाठः, ग० पु० इत्यादि नीत्या - इति पाठः । ७ ख० पु०, च० पु० परब्रह्मणोऽत्युत्तमत्वादिति पाठः । ८ ख० पु० 'वसति भवान्' - इति पाठः । त्वं प्रभुचरणरजःसमानकक्ष्याः = देव = हे ज्योतिः-स्वरूप प्रभु ! निज- = अपना धाम = ( वह चिद्रूप ) घर प्रकटय = प्रकट कीजिये, यस्मिन् = जिस में - = आप रहस्यनिर्देशनाम द्वादशं स्तोत्रम् परमेश्वरी- समेतः = साथ - किंम विश्वासपदं भवन्ति भृत्याः ॥ १५ ॥ चरण- = चरणों की

परा-शक्ति के

= सदा = सदा असि = रहते हैं । प्रभु- () स्वामी के धूलि के समान = समान ईश = हे स्वामी ! ( त्वं = []) - रज:- = कक्ष्याः = पदवी वाले ( मादृशाः - मम = मुझ भृत्यस्य = सेवक के दर्शन-पथम् = दृष्टि-मार्ग पर = -- ( तव भृत्या: = सेवक आपके ) निजधाम - चिद्रूपम् । परमेश्वरी - परा भगवती | भृत्या इति - घोर्याः पोण्याञ्च | प्रभुचरणेत्यादि दासस्योचितवोक्तिः | रज:समानकक्ष्य- त्वेन नित्यसंलग्नतामाह ।। १५ ।। दर्शनपथमुपयातोऽप्यपसरसि कुतो ममेश भृत्यस्य । क्षणमात्रकमिह न भवसि मुझ जैसे ) किम् = क्या अविश्वास पदं भवन्ति = विश्वास के पात्र नहीं हो सकते हैं ? ॥ १५ ॥ कस्य न जन्तोर्दृशोर्विषयः ॥ १६ ॥ उपयातः अपि ( दर्शन देकर भी ) कुतः = क्यों अपसरसि: = भाग जाते हैं (अर्थात् फिर अदृश्य हो जाते हैं ) ? १ ग० पु०, च० पु० किमु विश्वासपदमिति पाठः । २ ख० ५० अवधार्या: प्रेष्याश्चेति पाठः । १७८ श्री शिवस्तोत्रावली ( एवं = इस प्रकार ) क्षणमात्रक = क्षण भर के लिये ( त्वम् = ) - इह = इस संसार में कस्य = किस जन्तोः = प्राणी के = - दृशो: विषयः = दृष्टिगोचर न न = नहीं - भवसि = होते ? ( अर्थात् प्रत्येक प्राणी को कभी न कभी क्षण भर के लिये आप दर्शन देते ही हैं । ) दर्शनपथं – साक्षात्कारगोचरमपि प्राप्तो, मम भृत्यस्य — आश्वस्तस्य दासस्य, कुतोऽपसरसि - नैवापसरसि; त्वोमवष्टभ्यैवाहं स्थित इति यावत् । ननु मां साक्षात्कृत्यैव किं न तुष्यसि ? - इत्यंत आह; - कस्य जन्तोदृशो :- ज्ञानस्य, अज्ञातोऽपि 'क्षणमात्रम् 'अतिक्रुद्धः प्रहृष्टो वा ।' स्पन्द०, नि० १, श्लोक २२ ॥ इत्यादिभूमिषु विषयो न न भवसि — सर्वस्य ह्यवश्यं कदाचित्स्फुरसि । अहं तु अनुपचरितो भृत्य: क्षणमपि न त्वां त्यजामि | यदि वा, साक्षा- स्कृतोऽपि त्वं व्युत्थानावरोहणे किमिति मे भृत्यस्य आश्वस्तस्यापि अपसरसि - इति योयं॑म् ।। १६ ।। - ऐक्यसंविद॒मृताच्छधारया सन्ततप्रसृतया कढ़ा विभो । प्लावनात् परमभेदमानयं- स्त्वां निजं च वपुराप्नुयां मुर्दम् ॥ १७ ॥ १ ख० पु० त्वामवष्टभ्यैवमहं— इति पाठः । २ घ० पु०, च० पु० साक्षात्कृत्वैव - इति पाठः । ३ ग० पु० इत्याह - इति पाठः । - ४ ग० पु० कोऽप्याह - इति पाठः । ५ ख० पु०, च० पु० सदेति पाठः । ६ ग० पु० मदम् – इति पाठः । रहस्यनिर्देशनाम द्वादशं स्तोत्रम् निजं = अपने वपुः = स्वरूप को परम अभेदम् = परम-भेद अर्थात् एकात्मता ( की दशा ) को विभो = हे व्यापक ईश्वर ! - सन्तत = लगातार - प्रसृतया = बहती हुई ऐक्य संवित् = अभेद-ज्ञान रूपी अमृत- - (आनन्द-सात्मक) अमृत की निर्मल i धारया = धारा से ( सदा ) = 'प्लावनात् = श्रावित होकर त्वां = आप के EEN = तथा आनयन् = पहुँचाते हुए - ( अहं = मैं ) - कदा = कब ( प्रभो = हे भगवन् ! ) अमुतः = इस अहम् इति पूर्णाहूंं विमर्श रूपी मुदम् = परमानन्द को आप्नुयाम् = प्राप्त करूं ? ॥ १७ ॥ , ऐक्यसंविद् – अद्वैयदृष्टिः, सैवामृतस्य -- परमानन्दस्य संबन्धिनी अच्छा – विश्वप्रतिबिंम्बधारणक्षमा धारा, तथा सन्ततम् अविच्छेदेन प्रसृतथा कृतं यत् प्लावनं - सर्वत आपूरणं, तस्मात् त्वां स्वं च वपुः - संकुचिताभिमतं स्वरूपं, परम् - अतिशयेन अभेदम् - एकात्मतामानयन् कदी मुद - परँसन्तोषमाप्नुयाम् ।। १७ ।। अहमित्यमुतोऽवरुद्धलोका- द्भवदीयात्प्रतिपत्तिसारतो अणुमात्रकसेव विश्वनिष्ठं घटतां येन भवेयमर्चिता मे । ते ॥ १८ ॥ अवरुद्ध - लोकात् = लोकवर्ती भेद-प्रथा से शून्य १७९ भवदीयात् = श्राप के - १ ख० पु० अक् इति पाठः, ग० पु० अद्वया दृक् – इति च पाठः । २ ग० पु० परानन्दस्येति पाठः ।. ३ ख० पु०, च० पु० विश्वप्रतिबिम्बनक्षमा — इति पाठः । ४ ख० पु० सदा – इति पाठः । - ५ ग० पु० मदम् – इति पाठः । ६ ख० पु० परमंसन्तोषम् - इति पाठः, च० पु० 'मुदं सन्तोष' मित्येव पाठः । १८० प्रतिपत्ति- = स्वरूप ज्ञान संबन्धी सारतः = ( परमार्थ- ) सार में से = विश्व- - • व्युत्थान में निष्ठम्: = प्रकाशमान 'अणुमात्रकम् = जरा सा एव = ही मे = मुझे श्रीशिवस्तोत्रावली अपरिमितरूपमहं - विश्वनिष्ठमिति; – यद्यन्मम कुत्रचिद्भाति तत्र सर्वत्र अवरुद्धलोकं- स्वीकृताशेषनिर्भरम्, अहमिति यदेतत्त्वदीयं सर्वप्रतिपत्तीनां संबन्धि सारम् - उत्कृष्टं स्वरूपं, ततोऽणुमात्रकं - मृगमदर्कणवदल्पमपि किंचि- न्मह्यं घटताम्- उपतिष्ठतां, येन घटितेन तत्तद्वेद्यग्रासीकारक्रमेण • तवार्चिता भवामि । अणुमात्रकमिति अंतिस्पृहयालुतयोक्तिः, न तु पूर्णाहन्ताया भागा: संभवन्ति ॥ १८ ॥ त्वामेव विश्वरूपं निजनाथं साधु ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) तं तं घटतां = प्राप्त हो, येन = जिससे ( अहं = मैं ) ✔ ते = तं तं भावं प्रतिक्षणं पश्यन् । [=] उन ( अर्थात् संसार में होने चाले सभी ) ( के स्वरूप ) का अर्चिता = पूजक भवेयम् = बना रहूँ ॥ १८ ॥ पश्येयम् ॥ १९ ॥ भावं = पदार्थों को पश्यन् = देखते हुए - ( अपि = भी ) १ ख० पु० किंचिद्भाति — इति पाठः । २ ख० पु०, च० पु० सर्वत्र - इति पाठः । ३ घ० पु०, च० पु० कणकल्पमपि - इति पाठः । ४ ग० पु० अणुमात्रम् - इति पाठः । ५ ख० पु० अतिशय — इति पाठः । ६ ग० पु०, च० पु० सन्ति इति पाठः । ७ ख० पु० अतिपरिमितरूपमहम् - इति पाठः । रहस्यनिर्देशनाम द्वादशं स्तोत्रम् त्वाम् प्रतिक्षणम् = हर वक्त एव = ही अपरिमित = असीमित ( अर्थात् साधु = अच्छी तरह ( अर्थात् पूर्ण - = अनन्त ) '= स्वरूप वाले, विश्व-रूपं = जगदात्मा, निज- = अपने नाथं = स्वामी अहं = मैं - रूपं : = आप का ( प्रभो = हे प्रभु ! ) रूप में ) पश्येयम् = ( समाधि और व्युत्थान, दोनों करता रहूँ ॥ १९ ॥ - तं तमिति — यं कंचित् | त्वामेवेति तस्य प्रकाशमानत्वेन त्वद्रूपं- त्वात् विश्वरूपमिति - ( मे = मेरा ) - मनः = मन कस्मात् = क्यों = नहीं “प्रदेशोऽपि ब्रह्मणः सार्वरूप्यम्।” इति स्थित्या पूर्णम् | साध्विति - निष्प्रयास सत्यस्वरूपतया च ॥ १६ ॥ भवदङ्गगतं तमेव कस्मा- न्न मनः पर्यटतीष्टमर्थमर्थम् । प्रकृतिक्षतिरस्ति नो तथास्य मम चेच्छा परिपूर्यते परैव ॥ २० ॥ १८१ = आप ( चिद्रूप ) से भवद्- अङ्गगतं = अभिन्न बने हुए - तम् एव = उन्हीं (अर्थात् सभी लौकिक) अस्य = [ इस ( मन ) के इटम् = अभीष्ट प्रकृति- = स्वभाव को अर्थम्-अर्थम् = विषय में में ) साक्षात्कार पर्यटति = घूमता ? तथा = इस प्रकार (अर्थात ऐसी क्षतिः = हानि - नो = नहीं अस्ति = होगी और भावना से विषय - सेवन करने से ) मम = मेरी - १ ख० पु०, च० पु० त्वद्रूपात् - इति पाठः । २ ख० पु० सत्यरूपतया - इति पाठः । १८२ परा = सबसे बड़ी इच्छा = ( स्वरूप लाभ लालसा भी श्रीशिवस्तोत्रावली सम्बन्धी ) = परिपूर्यते एव = पूरी होकर ही रहेगी ॥ २० ॥ तमेवेति – यं यमभिलषितमर्थ मनः पर्यटति तं तं भवदङ्गगतं - चिन्मयत्वेन ज्ञातम्' । अत एवेष्टम् - अभिलषितमर्थ किमिति न पर्यटति ? तथा क्रुरु यथैवं पर्यटतीत्यर्थः । एवं सति अस्य न प्रकृतिक्षतिः काचित्, इच्छाव्याघाताभावात् । मम च परैव-चिद्धनस्वरूपलिप्सासारा इच्छा परिपूर्यते । अनेनैतदाह मनसि यथारुचि पर्यटत्यपि अहं पूर्णप्रथासार एव सदा स्यामिति ॥ २० ॥ शतशः किल ते तवानुभावा- द्भगवन्केऽप्यमुनैव चक्षुषा ये । अपि हालिकचेष्टया चरन्तः परिपश्यन्ति भवद्वपुः सदा ॥ २१ ॥

  • भाव यह है – मन स्वभाव से ही चञ्चल है । वह अपनी चञ्चलता को

छोड़ने वाला नहीं । किन्तु यह मन जिन-जिन अभीष्ट विषयों में घूमता-फिरता है, वे सभी आप चिद्रूप से अर्थात् आपके ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं – यह बात तो मैं समझ चुका हूँ । अतः हे भगवन् ! ऐसा कीजिए कि इसी भावना से अर्थात् इन विषयों को ( चिद्रूप) से अभिन्न समझ कर मेरा मन उन • में लगता रहे । इस प्रकार जहाँ मेरे मन को अपनी चञ्चलता छोड़नी नहीं पड़ेगी, चहाँ मेरी लालसा भी पूरी होगी । अर्थात् मन के इच्छानुसार घूमते रहने पर भी मैं सदा व्यावहारिक रूप में स्वात्म-ज्ञान- संपन्न ही बना रहूँ और भेद- प्रथा को सर्व प्रकार से छोड़ दूँ । १ ख० पु० भान्तमिति पाठः । २ घ० पु० प्रकृतक्षतिरिति पाठः । ३ ख० पु० विघाताभावादिति पाठः । ४ ग० पु०, च० पु० यथेति पाठः । भगवन् = हे सर्वैश्वर्य सम्पन्न प्रभु ! P किल = निस्सन्देह ते = ऐसे अनुभावात् = प्रभाव से केऽपि = विरले अर्थात् अलौकिक भवत्- = आपके पुरुष भी शतशः = सैकड़ों ( विद्यन्ते = होते हैं ), ये = जो - - हालिक चेष्ट्या = किसानों अर्थात् -जन की भाँति चरन्तः = रहस्यनिर्देशनाम द्वादशं स्तोत्रम् • व्यवहार करते हुये ( प्रभो = हे स्वामी ) ! सा = वह = मतिः = बुद्धि न उदेति = चमक नहीं उठती या = जो त्वद् = श्राप की इच्छा- = इच्छा के मयी = नहीं अपि = भी - तव = आप के - ये हालिकचेष्ट्यापि चरन्तः, तवानुभावात् त्वत्प्रयुक्तादनुभवन- व्यापारात्, भवद्वपुः— त्वदीयं चित्स्वरूपम्, अमुनैव चक्षुषा- करणो- न्मीलनदशायामपि. सदा, अग्रे परितः पश्यन्ति–समाविशन्ति, ते शतशः - सहस्रमध्यात् केऽपि - विरला अलौकिका इत्यर्थः ॥ २१ ॥ न सा मतिरुदेति या न भवति त्वदिच्छामयी सदा शुभमथेतरद्भगवतैवमाचर्यते । अतोऽस्मि भवदात्मको भुवि यथा तथा सञ्चरन् = अनुसार चलने वाली भवति = होती । - = वपुः चिदानन्द स्वरूप का सदा सदा (अर्थात व्युत्थान में भी ) अग्रे = प्रत्यक्ष रूप में स्थितोऽनिशमबाधितत्वदमलाङघिपूजोत्सवः ॥ एवं = इस प्रकार - अमुना एव = इन्हीं - चक्षुषा = नेत्रों से परिपश्यन्ति = साक्षात्कार करते हैं । १८३ शुभम् [=] अच्छा ( अर्थात् कल्याण- कारक ) अथ = और इतरत् = बुरा ( सारा मेरा व्यवहार ) सदा-सदा - ( भगवता = ( प ) प्रभु से ही ) • आचर्यते = किया जाता है । अतः = इस लिए ( अहं = मैं ) १८४ भुवि = '= इस संसार में यथा तथा = ज्यों-त्यों सञ्चरन् = व्यवहार करते हुए ( अपि = भी ) भवत् = का ही - आत्मकः = स्वरूप अस्मि = हूँ ( फलतः = फलतः ) ( अहम् = मैं ) श्रीशिवस्तोत्रावली नाथ = हे नाथ ! पुरः = पहले मे = मेरी अनिशम् = निरन्तर - अबाधित = बे रोक-टोक होनेवाले त्वद्- = आप के निर्मल अमल- अंध्रि = चरणों की = प्रतिभा = बुद्धि भवदीय = ( शास्त्रों में दिए गए ) - आप के - सर्वेषां ज्ञानानां प्रथमेन पादेन शिवभक्तिमयत्वं, द्वितीयेन व्यापाराणां भगवत्कृतत्वमुक्तम् | यथातथेति - गतसंकोचम् | अबाधितः -न केनो- व्यपसारितस्त्वंन्मरीचिपूजाप्रमोदो यस्य || २२ ।। भवदीयगभीरभाषितेषु प्रतिभा सम्यगुदेतु से पुरोऽतः । तदनुष्ठित शक्तिरप्यतस्त- पूजा-उत्सवः = पूजा का उत्सव (वाला) होकर ही

  • स्थितः (अस्मि) = रहता हूँ ॥ २२ ॥

द्भवदर्चाव्यसनं च निर्विरामम् ॥ २३ ॥ = • गंभीर अर्थात् रहस्यपूर्ण गभीर- भाषितेषु = वाक्यों ( के समझने ) में सम्यक् = भली भाँति (अर्थात् पूर्ण रूप में ) - उदेतु = चमक उठे ( अर्थात् सफल हो जाय ) 1

  • भावार्थ—हे प्रभु ! मेरी बुद्धि तब

ही चलती है और सार्थक होती है जब वह आप की इच्छा के अनुकूल हो । इसलिए मैं जो कुछ व्यवहार करता हूँ, उसके करने वाले ही हैं, मैं नहीं । श्रीचरणों की पूजा का काम आपकी इच्छा के अनुकूल है, फलतः उस काम के करने का आनन्द मुझे अनायास ही मिलता रहता है ॥ २२ ॥ १ ख० पु०, च० पु० न केनचिदपीति पाठः । २ ख० पु०, च० पु० त्वन्मरीच्यर्चनप्रमोदो यस्येति पाठः । रहस्य निर्देशनाम द्वादशं स्तोत्रम् ततः अपि = उसके बाद तत्- = उन ( वाक्यों ) के अनुसार अनुष्ठित = कार्य करने की शक्तिः = शक्ति ✔ - ( उदेतु = मुझे प्राप्त हो जाय ) | अतः च = और फिर -- गभीरभाषितेष्विति – आमुख्ये भेदार्थत्वेन भासमानेष्वपि गर्भीकृत- रहस्यार्थेषु वाक्येषु ताबकेषु, मम पुरः – पूर्व, प्रतिभा - नवनवोल्लेखिनी प्रज्ञा, सम्यग् - अविपर्यस्तत्वेनोदेतुं अतोऽप्यनन्तरं तत्सेवनसामर्थ्य- मप्युदेतु, अतोऽपि - अनन्तरं तदिति - अलौकिकं निर्विरामं कृत्वा भवदर्चायां व्यसनमुदेतु ॥ २३ ॥ व्यवहारपदेऽपि सर्वदा प्रतिभात्वर्थकलाप एष माम् । भवतोऽवयवो यथा न तु स्वत तत् भवत्- -अर्चा- = आप की ( समावेश रूपी ) पूजा करने की वह ( अर्थात् अलौकिक ) व्यसनं = चाव- पूर्ण भावना निर्विरामम् = ( मुझे ) लगातार ( उदेतु = होतो रहे ) ॥ २३ ॥ - एवादरणीयतां ( भगवन् = हे ईश्वर ) ! पष:- = ( संसार के ) यह अर्थ-कलापः = सभी पदार्थ = यथा = ( वस्तुतः अर्थात् अभेद-प्रथा . से ) जैसे भवतः = श्राप के अवयवः = अंग (अर्थात् स्वरूप के अंश) ( अस्ति = हैं ), व्यवहार - पदे = (सामान्य) व्यवहार में गतः ॥ २४ ॥ अपि = भी S ( स तथा एव = वे वैसे ही ) - मां = मुझे - सर्वदा - सदा = प्रतिभातु = दिखाई दें, - - केतु = किन्तु १८५ स्वतः एव = ( वे ) - १ घ० पु० सम्यगुदेतु — इति पाठः । २ ग० पु० उदेतु — इत्यर्थः - इति पाठः । सेप ही ( अर्थात् भेद - प्रथा से युक्त होते हुए ही ) श्रीशिवस्तोत्रावली आदरणीयतां गतः = ( केवल विषय- 1 ( मां कदापि = मुझे कभी ) सुखरूपता से ) आदरणीय बने हुए * न ( प्रतिभातु) = दिखाई न दें ॥ २४ ॥ एषोऽर्थकलापः व्यवहारेऽपि, भवतः - चिन्मयस्य यथाऽवयवः - अङ्गकल्पोऽभेदेन स्थितस्तथा मां प्रतिभातु - मम प्रतिभासताम् न ! पुनस्त्वन्मयमविदित्वा स्वत एव - सुखा दिहेतुत्वेनादरणीयतां गतः ||२४|| 5. मनसि स्वरसेन यत्र तत्र प्रचरत्यव्यहमस्य गोचरेषु । प्रसृतोऽप्यविलोल एव युष्म- त्परिचर्याचतुरः सदा भवेयम् ॥ २५ ॥ ( ईश = हे प्रभो ) ! = मन के मनसि : स्वरसेन = अपने मज़े से (अर्थात् - अपने स्वाभाविक रूप में ) यत्र-तत्र = जहाँ-तहाँ प्रचरति अपि = घूमते रहने पर अस्य = इस के गोचरेषु = विषयों ( का सेवन करने ) में प्रसृतः = लगा हुआ यत्र तत्रेति - हेयादिविषयेषु । अपि = भी - अहम् = मैं अविलोलः एव ( सन् ) = चञ्चलता से रहित होकर ही सदा सदा युष्मद् = आप की परिचर्या = उपासना करने में चतुरः = प्रवीण भवेयम् = बना रहूँ ॥ २५ ॥' - प्रमृतोऽपि

  • हे भगवन् ! संसार के सभी पदार्थ वस्तुतः

अभिन्न हैं। मैं चाहता हूँ कि सामान्य - प्रहरो प्रवृत्तोऽपि, स्वरूप के अंर्थात् व्यवहार में भी मैं उनको वैसे ही अर्थात् समझें और इसी भावना से उनका आदर करूँ । केवल यह समझ कर कि वे सुख आदि के कारण हैं, मैं उनका आदर न करूं || १ ख० ५०, च० पु० भगवतः - इति पाठः । २ ख० पु० आदरणीयत्वम् - इति पाठः । रहस्य निर्देशनाम द्वादशं स्तोत्रम् - अविलोलः – अलंम्पटः । युष्मत्परिचर्या - त्वद्र्चा, तत्र चतुर एव-कुशल एव सदा स्याम् | एवशब्दो भिन्नक्रमः ॥ २५ ॥ भगवन्भवदिच्छयैव दास- स्तव जातोSस्मि परस्य नात्र शक्तिः । कथमेष तथापि वक्त्रबिम्बं भगवन् = हे स्वामी ! - एव = ही - तव पश्यामि न जातु चित्रमेतत् ॥ २६ ॥ भवत् - = आप की इच्छया = ( अनुग्रह रूपिणी अप्रति तथापि = तो भी, हता ) इच्छा से ( अहं = मैं ) = तव = आपका दासः = अनन्य भक्त जातः = बन गया अस्मि = हूँ | - अत्र = इस विषय में - परस्य = ( मल-परिपाक आदि ) अन्य साधनों का शक्तिः = सामर्थ्य न (अस्ति) = नहीं है । कथम् = = क्या बात है कि ( मैं इस व्युत्थान में ) एषः = इस तव = आप के वक्त्र बिंब = ( पराशक्ति रूपी ) मुख- मण्डल को ५. ग० पु० लब्धे - इति पाठः । - १८७ न जातु = कभी नहीं - - पश्यामि = देख पाता ! एतत् ( तु ) = यह ( तो ) चित्रम् = आश्चर्य की बात है ॥२६॥ भगवन् ! भर्वेदिच्छयैवेति । एवकारेण शक्तिपातस्य स्वतन्त्रता- माह । तथापीति — एवमपि दास्ये लॅब्वेऽपि । वक्त्रबिम्बं– सुन्दरं १ ख० पु० लम्पट:- - इति पाठः । २ ग० पु० चतुर एव सदा स्याम् इति पाठः, च० पु० चतुर एव कुशल एव स्याम् - इति पाठः । ३ ग० पु०, च० पु० भगवन्निति - इति पाठः । - ४ घ० पु०, च० पु० भगवदिच्छयैवेति पाठः । १८८ परशक्तिमार्गम् । एष इति–व्युत्थानावस्थोचितदेहादिप्रमातृरूपः | जातु, इति – कदाचित् व्युत्थाने न पश्यामि - नासादयामि ॥ २६ ॥ , समुत्सुकास्त्वां प्रति ये भवन्तं प्रत्यर्थरूपादवलोकयन्ति ! श्रीशिवस्तोत्रावली तेषामहो किं तदुपस्थितं स्यात् किं साधनं वा फलितं भवेत्तत् ॥ २७ ॥ ( नाथ = हे नाथ ! ) त्वां प्रति = आप ( की प्राप्ति ) के लिए समुत्सुकाः = अत्यन्त उत्कंठित बने = ये = जो ( भक्त-जन ) भवन्तं = ( चित् स्वरूप ) को - प्रत्यर्थ-रूपात् = प्रत्येक वस्तु ( या बात ) में अवलोकयन्ति = देखते हैं, - तेषाम् = उन को - | अहो = भला तत् किं = वह कौन सा भव = हे महादेव ! भवत् = आपके साधनम् = उपस्थितं = उपलब्ध = स्यात् = होता होगा - - वा = और ( उस साधना से उन को ) तत् = वह किं = कौन सा फलितं भवेत् = फल प्राप्त होता होगा (वे किस अवस्थाको प्रात करते होंगे ) ! ॥ २७ ॥ -- - सम्यगुत्सुकाः – भक्तिभरेणोत्कण्ठिताः । प्रत्यर्थरूपादिति – विषयं विषयमासाद्य | किं तदिति - तेनैवानुभाव्यं न वक्तुं शक्यं । किं तत्साध- नमिति – अस्माभिरसंभाव्यम् ॥ २७ ॥ भावा भावतया सन्तु = साधन (अर्थात युक्ति-क्रम) भवद्भावेन मे भव | तथा न किञ्चिदस्तु न किञ्चिद्भवतोऽन्यथा ॥ २८ ॥ भावेन = प्रभाव ( या सत्ता ) से भावाः = ( ये सभी सांसारिक ) पदार्थ - मे = मुझे भावतया = ( श्राप के ) - सत्ता के रूप में ( ही ) रहस्य निर्देशनाम द्वादशं स्तोत्रम् - सन्तु = प्रतीत हो जायें तथा = और - ( यत् = जो कोई वस्तु ) भवतः = ( चिद्रूप ) से अन्यथा = भिन्न हो कर - स्वरूप की ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) = तत् = वह मे = मेरे लिए - किंचित् = कुछ भी न ( अस्ति ) = नहीं है 1 ये भावा इत्यभिधीयन्ते, ते मम त्वन्मयत्वेन भावा - विद्यमाना भव॑न्तु | यच्च॑ नँ किञ्चिदित्युच्यते तत् त्वन्मयतां विना न किंञ्चिव्यस्तु || यन्न किञ्चिदपि तन्न किञ्चिद- प्यस्तु किञ्चिदपि किञ्चिदेव मे । सर्वथा भवतु तावता भवान् सर्वतो भवति यत् = ( चित्- प्रकाश से भिन्न ) जो ( कोई वस्तु ) न किंचित् अपि (अस्ति) = ( अप्रकाशमान होने से ) कुछ भी नहीं है ( अर्थात् कुछ सत्ता नहीं रखती ), (अर्थात् कुछ सत्ता ही नहीं रखती ) ( तन्मे = वह वस्तु मेरे लिए ) किंचित् अपि न अस्तु = कुछ भी न हो ( अर्थात् मैं उस वस्तु को वस्तु ही न समझें ) ॥ २८ ॥ लब्धपूजितः ॥ २९ ॥ १८९ किंचित् अपि = कुछ भी न अस्तु = न हो (अर्थात् मैं उसे कुछ भी न समझें ) = ( यत् च = और जो वस्तु ) किञ्चित् अपि (अस्ति) = ( चिद्रू- पता से भिन्न होने के कारण ) कुछ है ( अर्थात् कुछ सत्ता रखती है ), ( तत्‍ मे = वह मेरे लिए ) १ ख० पु० भान्तु —— इति पाठः । २ ग० पु०, च० पु० यत्र — इति पाठः । — ३ घ० पु० किञ्चिदुच्यते - इति पाठः । ४ ख० पु०, च० पु० न किञ्चिदस्तु - इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली १९० सर्वथा = सर्वथा ( या हर प्रकार से ) | किंचित् एव = कुछ ( सत्ता से युक्त ) ही | - भवतु = हो (अर्थात मैं उस को ऐसा ही समझें ) तावता = इतने से ( अर्थात् ऐसा होने - 1 पर ) - भवान् = आप ( चिद्रूप ) सः ( मया ) = सभाओं में ( अर्थात् समाधि तथा व्युत्थान दोनों में ) मुझसे लब्ध-पूजितः भवति = प्राप्त किये जा सकते हैं और पूजित हो सकते हैं ॥ २९ ॥ लोकेन न किञ्चिदपीति - यत्किञ्चिदनुपादेयतया कथ्यते, तन्मम न किचित् - सर्व भेदमयं न किचिद्भवतु । यत्तूपादेयतयाभिमतं किवि- दित्यभिधीयते, तन्मम किञ्चिदिति – असामान्यं स्वानुभवैकसाक्षिकं वस्तु सर्वथा अस्तु । यद्वा, यल्लोके किञ्चित् चिद्धनं रूपं तदप्रत्यभि ज्ञानात् न किञ्चित्वेन भाति । यत्तु भेदमयमवस्तु न किञ्चित् तन्माया- व्यामोहात्किञ्चित्त्वेन स्फुरति । मम तु न किञ्चित् किञ्चिच्च न किञ्चि दस्तु - लौकिकवद्विपर्यासो मा भूदित्यर्थ: । एतावता भवान् चिद्रूपः सर्वत्र लब्धञ्च पूजितश्च भवतीति शिवम् ॥ २६ ॥ 1 · - इति श्रीमद्रुत्पलदेवाचार्यविरचितस्तोत्रावल्यां रहस्यनिर्देशनाम्नि द्वादशे स्तोत्रे श्रीक्षेम राजाचार्यविरचिता विवृतिः ॥ १२ ॥ -SE १ ख० पु०, च० पु० यन्न किञ्चिदेवानुपादेयतयेतिं पाठः । २ ग० पु०, च० पु० न किञ्चिदित्यनन्तरं – अपितु – इति पाठः । ३ ग० पु०, च० पु० सर्वभेदमयमिति पाठः । ४ ख० पु०, च० पु० भण्यते - इति पाठः । ५ ग० पु०, च० पु० किञ्चिदेव किञ्चिदिति - इति पाठः । ६ ख० पु०, च० पु० विपर्ययो – इति पाठः । अथ संग्रहस्तोत्रनाम त्रयोदशं स्तोत्रम् अथ स्तोत्रकार रचिंतचारुरचना विशिष्टं संग्रहस्तोत्रं व्याकुर्मः | तंत्र तु या प्रयोग रूढिरिति संज्ञा पुस्तकेषु दृश्यते, सावान्तरैव | साक्षात्कारेण चिद्भैरवं समाविश्य व्युत्थानेऽपि बलवत्तत्संस्कारात्तमभिमुखीभाव्य प्रतिभातं वस्तु विज्ञातुमाह - संग्रहेण सुखदुःखलक्षणं सां प्रति स्थितमिदं शृणु प्रभो । सौख्यमेष भवता समागमः प्रभो = हे स्वामी ! = शृणु = सुनिये, - स्वामिना विरह एव दुःखिता ॥ १ ॥ संग्रहेण = संक्षेप में - " मां प्रति = मेरे विषय में - स्थितं = होने वाला = सुख = सुख सहवास ( एव = ही ) दुःख- • और दुःख का ( मम = मेरा - लक्षणम् = लक्षण ( अर्थात् रूप या सौख्यम् = सुख ( है ), सच्चा वर्णन ) इदम् = यह ( अस्ति = है ) - = भवता = ( चिद्रूप ) के साथ एषः = यह ( अर्थात् समावेश में साक्षात्कार द्वारा ) समागमः = ( एकात्मभाव रूपी ) - ( च भवता) स्वामिना = स्वामी का = विरहः = वियोग = १ ख० पु०, च० पु० अत्र तु - इति पाठः । - २ ग० पु० विज्ञप्तुमाह - इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली १९२ एव = ही (अर्थात आपके स्वरूप काही ) ( मम ) दुःखिता = ( मेरा ) दुःख =

  • ( अस्ति = है ) ॥ १ ॥

= - हे प्रभो ! मां प्रति स्थितं- - न त्वन्यस्य कस्यापि स्फुरितं, संत्र- हेण – संक्षेपेण सुखदुःखलक्षणं शृणु । प्रभो इत्यामन्त्रणम् स्वात्मसमा- वेशक्रमेणैव परमेशितुः स्वसंमुखीकरणाय लौकिकै पादशब्दान्त रहस्य- मन्त्रपदवत् | तल्लक्षणमाह - भवता स्वामिना चिन्नाथेन, एप इति- साक्षात्कारेण स्फुरन् समागमः- समावेशक यं यत्तत् सौख्यं — सुखं, स्वार्थे ध्यञ, स एव सौख्यं स च सौख्यमेव | उत्तरत्र स्थित एव शब्दः इहाप्युभयथा योयँः । प्रभुणा कुँ यो विरह: – प्रभुस्वरूपाप्रत्यभि ज्ञानं, सैव दुःखिता ॥ १॥ यत एवं, ततः अन्तरप्यतितरामणीयसी या त्वदप्रथनकालिकास्ति मे । तामपीश परिमृज्य सर्वतः स्वं स्वरूपममलं प्रकाशय ॥ २ ॥ नाथ तेरा संग ही तो सुख है, तुझसे रहना ही जुदा तो दुःख है । - १ ख० पु०, च० पु० सुसंमुखीकरणायेति पाठः । २ अलौकिकेति ग० पु°, च० पु० पाठः, ख० पु० कौलिकपाद्यशब्देति पाठः, घ० पु० लौकिकपाद्य — इति पाठः । ३ ख० पु०, च० पु० रहस्यमन्त्रवदिति पाठः । ४ ख० पु० संगमः— इति पाठः । ५ घ० पु॰ समावेशैक्यमिति पाठः, च० पु० समावेश्यैक्यम् – इति पाठः । ६ ख० पु० प्रयोज्यः - इति पाठः । ७ ग० पु०, च० पु० प्रभुणा हि - इति पाठः । ८ ख० पु०, ग० पु० स्वरूपमिति पाठः । ईश = हे प्रभु ! त्वद् = आप ( चित्-स्वरूप ) को अप्रथन- = अप्रकट ( अर्थात् छुपा ) रखने वाली कालिका = मलिनता (अर्थात् ज्ञान), = अतितराम् = चाहे वह अत्यन्त अणीयसी अपि [=] सूक्ष्म भी ( अर्थात् ज़रा सी भी क्यों न हो ), या = = जो मे = मेरे = संग्रहस्तोत्रनाम त्रयोदशं स्तोत्रम् - अन्तर् अस्ति = चित्त में स्वरूप - साक्षात्कार के होती है, ( नाथ = हे स्वामी ! ) - अपिर्भिन्नक्रमः, अतितरामणीयस्यपि या मम त्वदप्रथनकालिका - भवद्ख्यातिमलिनता, अन्तरिति - समावेशे प्राणादिसंस्काररूपाऽस्ति, तामपीति-बह्री तावदसौ शक्तिपातात्प्रभृत्येव मे त्वया अपहस्तिता, अतिसूक्ष्मामपि तां परिमृज्य-उत्प्रोन्छच, सर्वत इति - अन्तर्बहिश्च स्वं – चिन्मयं सर्वस्यात्मीयं स्वरूपं निर्मलं प्रकाशय - स्फारय ॥ २ ॥ एतदेव च मे परमभिलषितमित्याह्- तावके वपुषि विश्वनिर्भरे चित्सुधारसमये निरत्यये । तिष्ठतः सततमर्चतः प्रभुं निरत्यये = अविनाशी, विश्व - = जगद्रूपता से निर्भरे = पूर्ण = ताम् = उस को अपि = भी सर्वतः = पूर्ण रूप में परिमृज्य = दूर करके स्यम् = अपने ( चिदानन्द-मय ) अमलं = निर्मल - जीवितं मृतमथान्यदस्तु मे ॥ ३ ॥ स्वरूपं = = स्वरूप को प्रकाशय = प्रकट कीजिए ॥ २ ॥ १ ख० पु० उत्पुंस्य - इति पाठः । १९३ आपके समय ) चित् सुधा = चिदानन्द रूपी तावके = ( मेरी यही श्रमिलाषा है रस = अमृत रस से कि मैं ) आप के मये = भरे हुए ८ वपुषि = स्वरूप में तिष्टतः = लीन होकर ( एव = ही ) १९४ श्रीशिवस्तोत्रावली सततं = निरन्तर प्रभुम् = (आप) स्वामी की अर्चतः = पूजा करने में लगा रहूँ, मे = ( चाहे फिर ) मैं जीवितं = जीवित रहूँ, मृतम् = ( या ) मर जाऊँ, अथ अथवा ( मुझे ) - अन्यत् अस्तु = ( कुल ) और हो जाय ( अर्थात् मैं मोक्ष को प्राप्त करूँ ) ॥ ३ ॥ यत्प्रकाशते, तत्प्रकाशरूपमेव सत् प्रकाशितुमर्हति, - प्रकाशस्य च देशकालादिकं प्रकाशमानत्वात् तत्स्वरूपमेव सद्भेदकं नोपपद्यते, इत्यै- यत्नसिद्धं विश्वरूपत्वम् । चिदाहादात्मनः स्वरूपे निरत्यये अविनाशिनि तिष्ठन्नेवार्चा समर्थः, अर्चन्नेव च स्थातुं क्षमः, इति हेतौ शतारौ तौ च नित्यप्रवृत्ततां व्यङ्कः । स्थितिस्तत्तभूमिलाभ: । अर्चा - तदेकपरामर्श- व्यप्रत्वम् । एवमुत्तरत्र | अन्यदित्यनेन चिद्रूपतास्थिति बहुमानेन अव- स्थाविषयमनादरं ध्वनति ॥ ३ ॥ । ननु जीवदादिभूमय: अभिमानमय्यः | ताः किमितीष्यन्ते ? इत्या- शङ्कय, त्वत्स्वरूपेऽवस्थितस्याभिमानोऽपि अलौकिक चमत्कारयुक्तत्वा- युक्तं एव, इतरथा तु निरभिमानतापि न काँचित्, इति वक्तुमाह- ईश्वरोऽहम हमेव रूपवान् पण्डितोऽस्मि सुभगोऽस्मि कोऽपरः । मत्समोऽस्ति जगतीति शोभते मानिता त्वदनुरागिणः परम् ॥ ४ ॥ ( अहं - विमर्श - कारिन् = हे पूर्णाहन्ता- ईश्वरः = ईश्वर ( अर्थात् पूर्ण रूप में स्वरूप स्वामी ! ) स्वतंत्र ) अहम् ( अस्मि = हूँ ), १ घ० पु०, च० पु० प्रकाशयितुमर्हति - इति पाठः । २ ग० ५०, च० पु० सम्भेदकम् इति पाठः । ३ ख० पु० इत्यत्र सिद्धम् — इति पाठः । ४ ख० पु०, च० पु० अभिमाना अपि – इति पाठः । ५. ख० पु०, च० पु० युक्ता एव - इति पाठः । ६ स्व० पु० कदाचित् — इति पाठः । अहम् मैं - एव = ही - संग्रहस्तोत्रनाम त्रयोदशं स्तोत्रम् १९५ ( किंबहुना = ज्यादा क्या कहूँ ? ) जगति = ( इस ) जगत् में = - रूपवान् = सुन्दर (अर्थात् चिदात्मा मत्-समः = मेरे समान के प्रकाश से उज्ज्वल ) - अपरः = दूसरा ( अस्मि = हूँ ), ● कौन अस्ति, = है", ( अहं = मैं ) - पण्डितः अस्मि = ज्ञानवान् (अर्थात् इति = ऐसे - तत्त्वदर्शी ) हूँ, ( अहम् एव = मैं ही ) सुभगः = सौभाग्यवान् (अर्थात पर मानन्द - रस - पूर्ण होने के कारण सब के लिए स्पृहणीय ) अस्मि = हूँ, - मानिता = स्वात्माभिमान की भावना त्वद् - = आप के - अनुरागिणः परं शोभते = उस भक्त को अत्यन्त शोभा देती हैं, ( जो समावेश में आप के साथ एका- त्मता का अनुभव करता है ) ॥४॥ त्वदनुरागिणः– त्वत्समावेशेन प्राप्तत्वदैक्यस्य | परमिति तस्यैव न तु॒ ब्रह्मादेरपि । ईश्वरः – सर्वत्रे स्वतन्त्रोऽहम् | अहमेव च रूपवान्- चिदात्मना प्रशस्तेन स्वरूपेण युक्त: । पण्डा – सम्यक्तत्त्वदर्शिनी प्रज्ञा सञ्जाता यस्य सोऽस्मि | सुभग: - परमानन्दरसोल्वणत्वेन सर्वस्य स्पृहणीयोऽस्मि । किं बहुना, मत्समः कोऽपरोऽस्ति न कश्चित् ;- मयैव चिदानन्दात्मना विश्वस्यात्मसात्कारात् । इति - ईदृशी, मानिता - साभि- मानित्वं शोभते-दीप्यते । अन्यथा पुनर्बोधाद्यभिमता सङ्कोचवती अविकल्पितापि मलिनैव, - - -

  • भावार्थ

- हे भगवान् ! जो भक्त आप के स्वरूप में लीन होता है अर्थात समावेश में आप के साक्षात्कार का आनन्द उठाता है, उसका अभिमान भी अलौकिक चमत्कार से युक्त होने के कारण उसका भूषण ही होता है, किन्तु सांसारिक लोगों का अभिमान उस चमत्कार से रहित होने के कारण दूरण ही होता है । १ ख० पु०, च० पु० सर्वस्वतंत्रोहमिति पाठः | २ ख० पु०, च० पु० विश्वस्यात्मसाक्षात्कारादिति पाठः । ३ घ० पु० साभिमानत्वमिति पाठः । ४ ख० पु० अविकल्पतापीति पाठः । १९६ इति ॥ ४ ॥ त्वदनुरागिणो यत एवं मोनितापि शोभते ततः -- देवदेव भवदद्वयामृता- ख्यातिसंहरणलब्धजन्मना । तद्यथास्थितपदार्थसंविदा श्रीशिवस्तोत्रावली 'खेसोपानपदारुढ्या भर्तुः स्यादन्तिके स्थितिः । इतरस्तु विकल्पानां वैमुख्याद्वाह्यभूमिगः ॥' तद् = इसलिए, देवदेव = हे देवताओं के प्रभु ! - भवत् - = आप के अद्वय-अमृत- = अख्याति- मां कुरुष्व चरणार्चनोचितम् ॥ ५ ॥ रूपी ) अभेद-अमृत की ( चित्-आनन्द वयन्नाह - = अप्रथा अज्ञान ) के संहरण- = नष्ट होने पर लब्ध-जन्मना = जो ( स्वरूप साक्षा- ( अर्थात् यथास्थित अपने रूप में होने वाले (अर्थात् चिद्रूप से अभिन्न होने वाले ) पदार्थ - = ( सभी ) पदार्थों के = संविदा = ज्ञान से मां = मुझे - चरण = ( अर्चन- = पूजा करने के ) चरणों की कार रूपी ज्ञानं ) जन्म लेता है, उचितं = योग्य अर्थात् उत्पन्न होता है, ऐसे कुरुष्व = बना दीजिए ॥ ५ ॥ हे देवदेव-अशेषाधिपते ! भवद्द्वयामृताख्यातेः -- त्वदै क्यानन्दा- M स्वाभाविक प्रथायाः संहरणेन लब्धं जन्म यया तथा यथास्थितानां - चिकात्मनां पदार्थानां संविदा मां स्वमरीच्यचचितं कुरु | तच्छब्दः पूर्वश्लोकापे- क्षया हेतौ ॥ ५ ॥ कीदृशी असावर्चा यदुचितं त्वां करोमि ? इति भगवदुक्तिं सम्भा- १ ग० पु०, च० पु० स्वसोपानेति पाठः । २ ग० पु० मानिता शोभते - इति पाठः । ३ ख० पु० त्वदानन्दैक्या प्रथायाः- - इति पाठः । ४ ग० पु०, च० पु० स्वमरीच्यर्चितं कुरु — इति पाठः ।.. ध्यायते तदनु दृश्यते ततः संग्रहस्तोत्रनाम त्रयोदशं स्तोत्रम् स्पृश्यते च परमेश्वरः स्वयम् । यत्र पूजनमहोत्सवः स मे सर्वदास्तु - ( प्रभो = हे स्वामी ! ) यत्र = जिस ( महोत्सवे = बड़े उत्सव में ) - परमेश्वरः = परमेश्वर का स्वयं = आप से आप अनायास ही ) ध्यायते = ध्यान किया जाता है, तदनु = उसके बाद = (सः - भवतोऽनुभावतः ॥ ६ ॥ ( अर्थात् स्पृश्यते (ही) स्पर्श किया जाता है, = सः = वही पूजन = (आपकी ) पूजा का महा- बड़ा उत्सवः = उत्सव भवतः == आप के अनुभावतः = प्रभाव से मे = मुझे - वह ) दृश्यते = ( समावेश में ) दिखाई सर्वदा = सदैव देता है, ततः च = और फिर अस्तु = प्राप्त होता रहे ॥ ६ ॥ १९७ , 'उच्चाररहितं वस्तु चेतसैव विचिन्तयन् ।' मा० वि० [अ० २, लो० २२ ॥ इति स्थित्या ध्यायते । तदनु दृश्यते - समावेशात्प्रकाशते । ततोऽपि स्पृश्यते-- गाढंगाढ समाश्लेषेणैकीक्रियते । स्वयमिति - न तु उच्चारकर- णादिपारतन्त्र्येण स्वयं चानुपचितेन चिन्मयेन वपुषा अनन्याकारवि- शेषेण | यत्रेति – पूजनमहोत्सवे । महोत्सवशब्देनात्यन्त मुपादेयतामस्य वदन्नात्मनस्तदासक्तया प्रमोदनिर्भरतां ध्वनति । अनुभावत इति- ममौनुभवतस्त्वदीयानुभावकव्यापारात् ॥ ६ ॥ १ ख० पु० गाढगाढमाश्लेषेणैकी क्रियते - इति पाठः । २ ख० पु०, च० पु० स्वयमेव - इति पाठः । - ३ ख० पु०, च० पु० ममानुभावतः - इति पाठः । 4 ४ ख० पु०, च० पु० त्वदीयानुभवकव्यापारात्- इति पाठः । १९८ श्रीशिवस्तोत्रावली एतदेव श्लाघमान आह यद्यथास्थितपदार्थदर्शनं युष्मदर्चनमहोत्सवश्च यः । युग्ममेतदितरेतराश्रयं भक्तिशालिषु सदा विजृम्भते ॥ ७ ॥ = ( उमेश = हे पार्वती-नाथ ! ) यत् यथा स्थित पदार्थ-दर्शनम् = अपने स्वाभाविक स्वरूप में ठहरी हुई ( चिद्रूप से अभिन्न होने वाली ) सभी सांसारिक वस्तुओं का जो दर्शन (अर्थात ज्ञान ) ( अस्ति = है ), यः च युष्मद् - अर्चन महा-उत्सवः = ( अ-आनन्द-रूपिणी ) आप की पूजा का जो बड़ा उत्सव ( अस्ति = है, ) एतत् = ये - युग्मम् = दोनों बातें इतर इतर = एक दूसरी पर आश्रयम् (अस्ति) = [] रहती हैं । ( अर्थात् वस्तुओं की वास्तविक स्थिति से अभि- नता के ज्ञान के विना नन्द- रूपिणी आप की पूजा का बड़ा उत्सव संभव नहीं होता। ऐसे ही उस उत्सव के बिना वस्तुओं की स्थिति का यथार्थ ज्ञान नहीं होता। इसलिए ये दोनों बातें एक साथ होती हैं । ) ( इदं च = और इन दोनों बातों का ) भक्ति-शालिषु = ( आपके ) अन्य - भक्तों में सदा = सदा

  • विजृम्भते = विकास होता है ॥ ७ ॥.

- यथास्थितानां चिदात्मनां पदार्थानां दर्शनं - विज्ञानं विना न त्वद- द्वयपूजा महोत्सवः, तं च विना न यथास्थितवस्तुज्ञानम्, इतीदं द्वयमि- तरेतराश्रयं भक्तिशालिषु सदा विजृम्भते, त्वयैवास्योभयस्य युगपत्प्रका- शनात् ॥ ७ ॥

  • अर्थात् आपके अनुग्रह से भक्त-जन समावेश में इन दोनों बातों का एक

साथ ही अनुभव करते हैं । १ च० पु० चिदात्मनामिति पाठो न दृश्यते । २ ख० पु० ज्ञानमिति पाठः । ३ घ० पु०, ३० पु० युगपत्प्रकाशादिति पाठः | संग्रहस्तोत्रनाम मोदशं स्तोत्रम् स्फुरदुपायपुरःसरमेतदाशंसापर आह- तत्तदिन्द्रियमुखेन सन्ततं युष्मदर्चनरसायनासवम् । सर्वभावचषकेषु पूरिते- ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) : = पूरितेषु = ( मेरी यही लालसा है ' आसवं = मदिरा को कि ) लबालब भरे हुए 1 सन्ततम् रूप में आपिबन् = पीते हुए · अपि = ही = सर्व- भाव- = वापियनपि भवेयमुन्मदः ॥ ८ ॥ = समस्त = पदार्थों रूपी - - चषकेषु = प्यालों में तत् तत् - = सभी इन्द्रिय = इन्द्रियों रूपी रसायन- = रसायन रूपी: ( अहम् = मैं ) - = मुखेन = मुखों से युष्मद्- = आप की | उन्मदः = मतवाला ( अर्थात् मस्त 'या' आनन्द-मन ) अर्चन- = ( स्वरूप - परामर्श रूपिणी ) भवेयम् = बना रहूँ ॥ ८ ॥ पूजा के -

(= लगातार (और) पूर्ण सर्वभावा एवं चषकाणि - पानपात्राणि, तेषु चक्षुरादिमुखेन महार्थ- दृष्टया चिदैक्यामृतेन पूरितेषु - भृतेषु तदोहरणक्रमेण तुर्यारोहरूपं युष्म- त्पूजारसायनपानम् आ-समन्तात्पिबन्. उत्तमदोऽपि नाम भवेयम् - एतत्प्रार्थये ॥ ८ ॥ प्रभुमेवार्थयते - अन्यवेद्यमणुमात्रमस्ति स्वप्रकाशमखिलं यत्र नाथ भवतः पुरे स्थितिं १९९ विजृम्भते । तत्र में कुरु सदा तवार्चितुः ॥ ९ ॥ १ घ० पु० इवेति पाठः । २ ख० पु० तदारोहणकमेरोति पाठः, पु० उदाहरणक्रमेणेति च पाठः । २०० नाथ = हे स्वामी ! यत्र = जिस ( चिदानन्दरूपी नगर ) में अन्य- ( आप से भिन्न कोई ) दूसरी वेद्यम् = जानने योग्य वस्तु = जरा सी अणु-मात्रम्: ( अपि = भी ) न अस्ति = नहीं रहती, ( यत्र च = और जहां ) अखिलं = ( यह ) सारा जगत् - स्वप्रकाशम् ( एव = ही ) - श्रीशिवस्तोत्रावली विजृम्भते तत्र = उसी परमेश्वर = हे सर्वैश्वर्यवान प्रभु ! - एव = ही : त्वया = आप स्वेच्छया = अपनी इच्छा (अर्थात अनुग्रहशक्ति ) से कुरु = स्वप्रकाश रूप हो कर भवतः आपके ( चिन्दानन्द रूपी ) पुरे = नगर में तव = आपकी मे = अर्चितु: = पूजा करने में लगे हुए = मुझ को यत्र नाथ भवतः पुरे – पूरके चिदात्मनि रूपे व्यतिरिक्तस्य कस्ये- चिद्भाबादेवान्यद्भिनं वेद्यम् अणुमात्रमपि नास्ति, अपि तु अखिलं- - आह्यप्राइकरूपं स्वप्रकाशमेव विजृम्भते, तत्र मे - त्वदर्चापरस्य सदाव- स्थितिं - गाढगाढसमावेशरूपां कुरु || ६ || विकसित होता है, सदा = सदा के लिए स्थितिं = स्थान दीजिए ॥ ९ ॥ = एवमर्थितेऽपि जगतीप्सित मनाप्नुवन् खिन्न इवाह- दासधानि विनियोजितोऽप्यहं स्वेच्छयैव परमेश्वर त्वया । दर्शन किमस्मि पात्रितः पादसंवहनकर्मणापि वा ॥ १० ॥ ॥ अहं मुझे - दास-धानि = (अपने ) दास की पदवी पर विनियोजितः अपि = तो भी, १ ग० पु०, च० पु० कस्यचिदेवाभावादिति पाठः । २ ख० पु० अणुमात्रकमपीति पाठः । = लगा चुके हैं, संग्रहस्तोत्रनाम त्रयोदशं स्तोत्रम् कर्मणा: अपि = भी पात्रितः = ( मुझे ) पात्र - किं = क्या बात है कि (आप) दर्शनेन = ( अपने ) दर्शन वा = और - पाद- = ( अपने ज्ञान-क्रिया रूपी ) चरण संवहन - = दबाने के ( विमर्श करने के ) = काम के लिए - न अस्मि = नहीं बनाते । (अर्थात् दर्शन देकर और अपने चरणों

  1. शक्तिपातसमये विचारणं

की सेवा का काम सौंप कर मुझे कृतार्थ क्यों नहीं करते ? ) ॥१०॥ मेव | स्वेच्छयैव-न त्वन्यप्रेरणादिना; निरपेक्षो हि शक्तिपात इत्युक्त- दर्शनेन – शाम्भवसमावेशात्मना परसाक्षात्कारानुप्रवेशनेन, पात्रितः - भाजनीकृतः । पादसंवहनकर्मणा – रुद्रशक्तिसमावेशाह्लादो- दयेन | अनुरणनोक्त्या लौकिकेश्वरार्थः प्राग्वत् ॥ १० ।। सोपालम्भमिव प्रभुमभिमुखयितुमाह - प्राप्तमीश न करोषि कर्हिचित् । अद्य मां प्रति किमीगतं यतः स्वप्रकाशनविधौ २०१ 'विलम्बसे ॥ ११ ॥ १ ख० पु०, च० पु० अनुप्रवेशेनेति पाठः । · c २ ० ० ० ० हादत पाठः । ३ घं० ५० प्राग्वदेवेति पाठः । 3

  • अयं श्लोक आचार्याभिनवगुप्तपादैरेच श्रीतंत्रालोके विवृतः-

श्रीमानुत्पलदेवश्चाप्यस्माकं परमो गुरुः । 'शक्तिपातसमये विचारणं प्राप्तमीश न करोषि कर्हिचित् । मां प्रति किमागतं यतः स्वप्रकाशनविधौ विलम्बसे ॥” कहिंचित्प्राप्तशब्दाभ्यामनपेक्षित्वमूचिवान् । दुर्लभत्वमरा गित्वं शक्तिपातविधौ त्रिभोः ॥ ( तं० लो०, १३०, लो० २९१ ) अपरार्धेन तस्यैव शक्तिपातस्य चित्रताम् ॥ व्यवधानचिरक्षिप्रभेदाद्यैरुपवर्णितः ॥ ( तं० लो० १९२ ) इति । अस्य श्लोकसंदर्भस्यार्थो श्रीतन्त्रालोकविवेके द्रष्टव्यः । २०२ ईश = हे स्वेच्छाचारी प्रभु ! = ( त्वया = आपकी तो ) शक्तिपात- - अर्थात् अनुग्रह करने के समये : = समय ( मुझ पर ) शक्तिपात श्रीशिवस्तोत्रावली अनुग्रह का पात्र हूँ या नहीं ), ( किन्तु त्वं तथा = किन्तु आप ऐसा) कर्हिचित् = कभी विचारणं = विचार करना प्राप्तं = चाहिए था ( कि मैं आपके ( त्वं = आप ) = = न करोषि = करते ही नहीं । - तत्र तत्र = सभी विषये = विषयों में : अद्य = आज मां प्रति = मुझ पर - किम् = क्या आगतं = आ पड़ी है, यतः = जो ( प्रभो = हे स्वामी ! ) - बहिः = बाहर ( अर्थात् इस जगत् में) = अन्तरे च = तथा भीतर ( अर्थात् चित्त में ) विभाति = भासमान प्राप्तमिति – उचितम् । ईशेत्या मन्त्रणं स्वतन्त्रशक्तिपातक्रमानुरू पम् । कर्हिचित्- कदाचित् | अद्येति-संपन्नेऽप्यनुग्रहात्मनि शक्तिपाते। किमागतमिति - क एष प्रकार: यच्चिदात्मकस्वात्मप्रकाशात्मनि विधौं- अवश्य कार्येऽपि विलम्ब से - अद्यापि कालक्षेपं करोषि; मा कृथाः ॥ ११ ॥ पुनरपि भगवत्समावेशाशंसापर आह- तत्र तत्र विषये बहिर्विभा त्यंन्तरे च परमेश्वरीयुतम् । i wi त्वां जगत्तियनिर्भरं सदा लोकयेय स्वप्रकाशन- = अपने चित्- प्रकाश की विधौ = फलक दिखाने में विलम्बसे = देर लगाते हैं ॥ ११ ॥ = निजपाणिपूजितम् ॥ १२ ॥ परमेश्वरी = परा-शक्ति देवी से युतं = युक्त ( च = और ). - - · जगत्-त्रितय - = तीनों लोकों से निर्भर = परिपूर्ण · त्वाम् = आपको.. - ( अहं = मैं ) - १ ख० पु०, च० पु० कृषा: इति पाठः । २ ६० पु० श्रीभगवत्समावेश इति पाठः । ३ ख० पु० विभात्यन्तरेऽथ “इति पीठः 1 संग्रहस्तोत्रनाम त्रयोदशं स्तोत्रम् = अपने निज- पाणि- = हाथ से पूजितं = (की ) पूजा करते हुए ही सदा स्यां - ( परमेश्वर = हे परमेश्वर ! ) ( अहम् = मैं ) अभिसन्धि-मात्रतः = (अपनी ) इच्छा से ही - २०३ = सदा ( अर्थात् समाधि और --- बहिरिति —— बाह्ये नीलादौ, अंन्तरे च - सुखादौ च, विभांति सति - - त्वां परमेश्वर्या परशक्त्या युतं - नित्यसम्बद्धं, प्राग्वज्जगत्त्रयेण विश्वेन निर्भरं लोकयेय - साक्षात्कुर्याम् । निजेन पाणिना - पञ्चावर्तमध्यमध्य- मप्राणशक्त्युद्बोधन माहृत विश्वार्पणसमेर्धंनेनार्चितम् । अत्र पाणि: शक्तिः । यथोक्तमाम्नाये - 'हस्त: शक्ति: प्रकीर्तिता' । व्युत्थान दोनों दशाओं में ) लोकयेय = देखता रहूँ ॥ १२ ॥ 2 इति ॥ १२ ॥ एतत्पूजोचितं नित्योदितसमावेशरूपमेव फर्लमाकाङ्क्षयन्नाह - स्वामिसौधमभिसन्धिमात्रतो निर्विबन्धमधिरुह्य सर्वदा । प्रसादपरमामृतासवा- स्वामि- = (आप) प्रभु के - पानकेलिप रिलब्धनिर्वृतिः ॥ १३ ॥ · सौघं = ( अत्यन्त ऊँचे शाक्त पद रूपी ) महल पर निर्विबन्धम् = बिना रोक टोक के अधिरुह्य = चढ़ कर - = ( भवत्- = आप के ) १ ख० पु०, च० पु० श्रान्तरे - इति पाठः । - २ ग० पु०, च० पु० विभासति त्वाम् – इति पाठः । ३ ख० ५०, च० पु० पारमेश्वर्या - इति पाठः । . ४ ख० पु० परं शक्त्या – इति पाठः । ५ ग० पु०, च० पु० क्रमाद्धृतेति पाठः । ६ ख० पु०, च० पु० समेधेन इति पाठः । ७ ख० पु०, च० पु० प्रकीर्तितः - इति पाठः ८ ग० पु०, च० पु० फलमाकाङ्क्षन्नाह —–—इति पाठः । ९ च० पु० पानकेन इति पाठः । २०४ श्रीशिवस्तोत्रावली प्रसाद = अनुग्रह से क्रीड़ा से परम- = ( समावेश में साक्षात्कार सर्वदा = सदैव रूपी ) अत्युत्कृष्ट अमृत-आसव- = अमृत मधु का आपान-केलि- = पान करने की | स्वामिनः सम्बंन्धिनं सौधम् - अतिस्पृहणीयं सुधासमूहमयमत्युचैः शाक्तं पदम्, अभिसंधिमात्रत इति - उच्चारकरणाचनपेक्षम् इच्छामात्रे जैव, निर्विबन्धं कृत्वा अधिरुह्य-देहादिभूमिन्यग्भावेन स्वीकृत्य, प्राग्व्या- ख्यातप्रसादपरमामृतासवापानक्रीडया परिलब्ध निर्वृतिः - आनन्द परि- पूर्ण: सदा स्याम् | अनुरणनशक्त्या दृष्टान्तालङ्कारध्वनिना लौकिकेश्व- रार्थः प्राग्वत् || १३ || = परिलब्ध- निर्वृतिः = आनन्द-परिपूर्ण स्याम् = बना रहूँ ॥ १३ ॥ प्रतिपादितपूजोपायमाह- यत्समस्त सुभगार्थवस्तुषु स्पर्शमात्रविधिना चमत्कृतिम् । तां समर्पयति तेन ते वपुः पूजयन्त्यचलभक्तिशालिनः ( सदाशिव = हे सदाशिव 1 ) यत् = जो बात ( अर्थात् पारमार्थिक युक्ति ) समस्त-सुभग- अर्थ-वस्तुषु: (चिद्रूप से भिन्न होने के कारण ) सुन्दर प्रयोजन वाली सभी वस्तुओं के विषय में १ ख० पु० संबन्धि – इति पाठः । - ॥ १४ ॥ स्पर्श मात्र विधिना = ( उनके रूप आदि विषयों के ) केवल स्पर्श से ही ( अर्थात् प्राथमिक आलोचन से ही ) तां = एक अलौकिक चमत्कृतिं = स्वात्म- चमत्कार समर्पयति = प्रदान करती है, - = २ ख० पु०, च० पु० स्वधामसमूहमत्युच्चैः - इति पाठः । " ३ ग० पु०, च० पु० विनिर्बन्धं कृत्वा -- इति पाठः । - ४ ख० पु० पूजनोपायमाह - इति पाठः । तेन = उसी युक्ति से - संग्रहस्तोत्रनाम त्रयोदशं स्तोत्रम् अचल-भक्ति- = ( नित नये समावेश रूपिणी ) कीटल भक्ति से शालिनः = सुशोभित ( त्वद्-भक्ताः = आप के भक्त-जन ) ते = आप के तत्समुल्लसति - ( जगत्प्रभो = हे जगत्-प्रभु ! ) ( त्वम् = ) आत्मना = अपने ( चिद्रूप) = भासमान होते ( ही ) स्फुरन्: २०५ वपुः = ( चिन्मय ) स्वरूप की पूजयन्ति = पूजा करते हैं (अर्थात् सच्चिदानन्द स्वरूप में समा मायाशक्त्या यद्यपि हेयोपादेयताभाञ्जि तथापि वस्तुतश्चिन्मयत्वात् सुभगार्थानि सुभग प्रयोजनान्येव समस्तानि वस्तूनि, तेषु विषयभूतेषु, यत्किंचिदिन्द्रियपथंगतं तदीयरूपस्पर्शादि । स्पर्शमात्र विधिना - संवित्स म्पर्कविकल्पेन संविद्वयापारेण | तामिति — असामान्यां चमत्कृतिं सम्यग् अर्पयति - वितरति, तेन - यच्छन्दपरामृष्टेन वस्तुस्वरूपेण, ते वपुः - चिन्मयं स्वरूपम्, अचलभक्त्या - नवनवसमावेशेन शालमानाः, पूज- यन्ति - तर्पणक्रमेण त्वय्येव विश्राम्यन्ति ।। १४ ।। - ननु मलिनैरथैः कथं शुद्धस्वरूपभगवदर्चा ? इत्याशङ्कय सर्वदशासु अर्थानां भगवत्स्वरूपतया शुद्धतां वक्तुमाह- स्फारयस्य खिलमात्मना विश्वमामृशसि यत्स्वयं निजरसेन विष्ट होकर आनन्दमन रह जाते हैं ) ॥ १४ ॥ स्फुरन् रूपमामृशन् । घूर्णसे भावमण्डलम् ॥ १५ ॥ - अखिलं विश्वं = सारे जगत् को स्फारयसि = विकसित करते हैं - (खते हैं ), रूपम् = (अपने) चिन्मय स्वरूप का १ ग० पु० पथपतितम् — इति पाठः । २ ख० पु०, च० पु० संवित्सङ्कल्पविकल्पेन - इति पाठः । - ३ ६० पु०, च० पु० चिन्मयरूपम् - इति पाठः । ४ ख० पु० आत्मनः - इति पाठः । २० ६ श्रीशिवस्तोत्रावली आमृशन् = चमत्कार करते ( ही ) निज-रसेन = अपने चिदानन्द-रस (अखिलं विश्वम् = सारे संसार को) में लीन होकर आमृशसि = श्रामृष्ट करते हैं (अर्थात् पूर्णसे = घूमने लगते ९१ आस्वादन करके आनन्दघन । तदू = तभी तो बनाते हैं ), भवमण्डलं = सभी पदार्थों का ( च = और ) समूह ( अर्थात् यह सारा जगत् ) यदू = जब ( आप ) समुल्लसति = आनन्द से नाच स्वयं = स्वयं (अर्थात् अपनी इच्छा से) उठता है । १५ ॥ आमना-चिन्मयेन, स्फुरन्–भासमानःअखिलं-विधं स्फार यसि–विकस्वरस्वात्मप्रथ्रच्छुरणेन फुल्लयसि । तथा स्वरूपमामृशन् निजं स्वरूपं चमकुर्वन् निखिलं विश्वमामृशसि आस्वादनेन आनन्दघनं घटयसि । यश्च स्वयं निजेन-चिद्रसेन चूर्णसे-पूर्णत्वात्समुच्छलत्तया स्पन्दसे, तद्भावमण्डलम् अखिलं पदार्थ ज्ञातं समुल्लसति-चिङ्गै वुन्मीलति । एवमनेन विश्वस्याभेदसाराः परदशोचिताः स्थितिसंहर- सर्गाः ज्ञानेनछक्रियाशक्तिपरिस्पन्दरूपाः क्रमेणोक्ताः । अक्रमेऽपि हि संबिलॅवे व्यावृत्तिभेदेन सृष्टिस्थितिसंहारशक्त्यवियोगः सनातनत्वेन बण्यैतपि, यदपेक्षयायं क्रमव्यवहारः । तथा च श्रीपूर्वशास्त्रेणूक्तम् ‘सव्यापाराधिपत्वेन दीनप्रेरैकत्वतः । इच्छानिवृत्तेः स्वस्थत्वादभिन्नमपि पञ्चधा ।’ ( मा० वि०,, अ०२, श्लो० ३४ ) इति । सृष्टिस्थितिसंहराणां विपॅर्यस्तत्वेन प्रतिपादनं चिन्मयत्वेन अक्र मतपरमार्थप्रकाशनाय ।। १५ ।। १ घ० पुरै, च० पु° प्रथास्फुरणेनेति पाठः । २ ग० पू० अखिलमिति पाठः । ३ ख० पु० चिद्भूमावेवोन्मीलति–इति पाठः । ४ ख० पू० संवित्तत्त्वेन--इति पाठः।। ५ ग० पु० शक्त्या वियोगःइति पाठः । ६ ख९० पु' तीनपूरकत्वतःइति पाठः । ७ ख० पु० विपर्यस्त्वेन–इति पाठः । घ० पु० विपर्यस्तेनेति च पाठः । संग्रहस्तोत्रनाम त्रयोदशं स्तोत्रम् २०७ ननु श्रीपरमेश्वरभूमावभिन्नानामर्थानामस्तु सदा शुद्धत्वं, मायापदे तु भेदविनव्याकुलिते कथमेतत् ? इत्याशङ्कय भेदविघ्नप्रसरक्षयमाह - योsविकल्पमिदमर्थमण्डलं पश्यतीश निखिलं भवद्वपुः । स्वात्मपक्षपरिपूरिते जग- त्यस्य नित्यसुखिनः कुतो भयम् ॥ १६ ॥ ईश = हे स्वतंत्र प्रभु ! यः = जो आपका भक्त ) = इदं = इस निखिलम् = समस्त अर्थ-मण्डलम् = वस्तु-समूह (अर्थात् सारे जगत् ) को अविकल्पं = निर्विकल्पता से ( अर्थात् - शाक्त- समावेश - क्रम से ) भवत्- = आप का वपुः = स्वरूप ही पश्यति = देखता है - (जिसे प्रत्येक वस्तु में आप चिद्रूप की ही झलक दिखाई देती है ), ( इति = इस प्रकार ) ) स्वात्म-पक्ष- = स्वात्म स्वरूप से ( परिपूरिते = परिपूर्ण बने हुए जगति = संसार में - अस्य = उस नित्य - सुखिनः = सदा सुखी (अर्थात् परमानन्द - घन भक्त ) को भयं कुतः = भयं ( किस से - P कहाँ हो सकता है ? ॥ १६ ॥ हे ईश ! [इदमर्थमण्डलं - प्रमेयजातमविकल्पं कृत्वाहानादानादि- बुद्धिपरिहारेण श्रीभैरवीयमुद्रावीर्यस्थित्या | यो योगिवरो भवद्वपुश्चिद्र- पमेव कृत्वा पश्यति - दर्पणोदरोन्मीलनप्रतिबिम्बवत् साक्षात्करोति, अस्य स्वात्मपक्षेण - चिदैक्येम परितः समन्तात् पूरिते- स्वाभेदमा- पादिते जगति, भेदविघ्नस्योन्मीलनात् नित्यसुखिनः- परमानन्दघनस्य कुतो भयं – न कुतश्रिदेव, इति युक्तमुक्तं प्राकू- - 'तेन् ते वपुः पूजयन्त्यचलभक्तिशालिनः ॥' ( स्तो० १३, श्लो० १४ ) इति ।। १६ ।। } ) २०८ श्रीशिवस्तोत्रावली इमामेवाद्वयदृष्टि प्रशंसन्नाह - कण्ठकोण विनिविष्टमीश ते कालकूटमपि मे महामृतम् । अप्युपात्तममृतं भवद्रपु- र्भेदवृत्ति यदि रोचते न मे ॥ १७ ॥ ईश = हे स्वामी ! ते = आपके - कण्ठ- = गले के कोण- - कोने में विनिविष्टं = पड़ा हुआ कालकूटम् = कालकूट विष = अपि = भी - ( अस्ति = है । ) उपात्तम् = अनायास प्राप्त हुआ अमृतम् = अमृत अपि = भी - यदि = यदि - भवत् वपुः भेद-वृत्तिः = भिन्न हो - मे = (आप से अभिन्न होने के कारण ) ( तर्हि तत् = तो वह ) मे = मुझे मेरे लिए महामृतम् = बहुत बड़ा - - कालकूटं - महाविषमपि ते कण्ठकोणविनिविष्टं - त्वदङ्गसङ्गतया स्थितं त्वद्भेदेन प्रथमानं, मे महामृतं - परमव्याप्तिप्रदत्वात् । उक्तं हि = आप के स्वरूप से न रोचते = अच्छा नहीं लगता ॥१७॥ 'विषमप्यमृतायते ।' (शिवस्तो०, स्तो० २०, श्लो० १२ ) - इति । अमृतं तूपात्तमपि - लब्धमपि यदि भवद्वपुषो भेदवृत्ति - चिवय- शमस्पृशद्भाति, तवास्तवत्वान्मह्यं न रोचते - नाभिलाषपदं ममेति यावत् ॥ १७ ॥ एवमद्वयसमावेशमात्मनि सदोदितत्वेनेप्सन्नाह - त्वत्प्रलापमयरक्तगीतिका- नित्ययुक्तवदनोपशोभितः । स्यामथापि भवदर्चनक्रिया- प्रेयसीपरिगताशयः सदा ॥ १८ ॥ १ ख० पु०, च० पु० सदोचितत्वेनेति पाठः । ( प्रभो = हे स्वामी ! ) - ( अहं = मैं ) - त्वत् - = ( चित्-स्वरूप ) की प्रलाप = कथाओं ( के अमृत ) से मय- = पूर्ण, रक्त- ( और भक्ति के कारण ) www संग्रहस्तोत्रनाम त्रयोदशं स्तोत्रम् अथापि = और भवत् = की अर्चन क्रिया- = पूजा- क्रिया रूपिणी प्रेयसी- = परम- प्रिया से परिगत- मधुर तथा सुन्दर गीतिका- = गीतों ( के गाने ) - नित्य- = सदा युक्त- वदन- - लगे हुए मुख से - उपशोभितः = सुशोभित – समावेशवैवश्यादनभिसन्धान मुच्चरन्तीभिस्त्वत्प्रलापमयीभिर्भक्त्यनु रागव्यञ्जनाद्रक्ताभिर्मधुरसुन्दराभिर्गीतिकाभिर्नित्ययुक्तेन वदनेन उपशो- भितः - अतिसुन्दररुचिः स्याम् । अथापीति - अपि च, व्याख्यात सत- स्त्रया भवदर्चन क्रिययैव प्रेयस्या - परमवल्लभया, परिगतः - स्वीकृतः आशयः - चित्तं यस्य तस्याश्च परिगतः - सम्यग् ज्ञातः, आशय:- स्वरूपं येन, तथाभूतः सदा स्याम् || १८ || ननु च लब्धसमावेशचमत्कारोऽपि किमर्थं भूयो भूयः समावेशा काङ्क्षापरोऽसि ? इति शङ्कित्वैवाह- ईंहितं न बत पारमेश्वरं शक्यते गणयितुं तथा च मे । दत्तमप्यतनिर्भरं वपुः = • स्वीकृत किये गए बत = श्रोह, कितना आश्चर्य ! - आशय:- (अ) हृदय वाला अथवा आपकी पूजा-क्रिया रूपिणी परम- प्रिया के स्वरूप अर्थात् मर्म) को पूर्ण रूप में जानने वाला | सदा = सदैव स्याम् = बना रहूँ ॥ १८ ॥ स्वंन पातुमनुमन्यते तथा ॥ १९ ॥ पारमेश्वरम् = परमेश्वर की - २०९ ईहितं = करनी - गणयितुम् = समझी १ ख० पु०, च० पु० व्याख्यातसतत्वतयेति पाठः । २ ग० पु० परमवल्लभतयेति पाठः । श्री न शक्यते = नहीं जा सकती, - तथा च = क्योंकि मे = मुझे - = अमृत = ( चिदानन्दरूपी ) अमृत- रस से निर्भर = भरा हुआ स्वं = अपना शिवस्तोत्रावली = वपुः = ( आनन्दमय ) स्वरूप पातुं = पीने (अर्थात् स्वाद लेने) के लिए दत्तम् = प्रदान करके अपि = भी - तथा = वैसे ही (अर्थात् इच्छा पूर्वक) ( पातुं ) = ( उस अमृत रस को ) लगातार पीना अर्थात् लेना उमेश = हे उमापति ! अगाधम् = ( अपार ), अविकल्पम् = निर्विकल्प, अद्वयं, = प्रभेद-रूप, स्वं स्वरूपम् = स्वात्म-स्वरूप अखिल- (और) सभी - न अनुमन्यते नहीं मानते, ( अर्थात् समावेश का आनन्द प्रदान करके भी मुझे फिर व्युत्थान-भूमि में ही भेजते हैं ) ॥ १९ ॥ - 'श्रीपरमेश्वरसम्बन्धी विलसितं, बत- आश्चर्य, गणयितुं - कलयितुं न शक्यते । तथा च मे – महान, अमृतनिर्भरम्-आनन्दघनं षपुः - स्वरूपं, पातुं - रसयितुं दत्तमपि - प्रसादीकृतमपि तथेति - यथारुचि निविरामं पातुं नानुमन्यते-नाङ्गीकरोति, पुनव्युत्थानभूमिमेव प्रेरयति । इत्यत इयमाकाङ्क्षयर्थः ॥ १६ ॥ यत एवं ततः - त्वामगाश्रम विकल्पमद्वयं स्वं स्वरूपमखिलार्थघस्मरम् । आविशन्नहमुमेश सर्वदा पूजयेयमभिसंस्तुवीय च ॥ २० ॥ अर्थ- = ( भेदात्मक ) पदार्थों को घम्मरं = निगल डालने वाले, - त्वाम् = (= ( चिद्रूप ) में आविशन् = समावेश करते हुए अहं = मैं सर्वदा = सदैव १ ख० पु० परमेश्वरसम्बन्धीहितमिति पाठः, ग० पू० परमेश्वरस्य सम्बन्धीहितमिति च पाठः । ॐ तत् सत् अथ जयस्त नाम चतुर्दश् स्तोत्रम् ॐ जयलक्ष्मीनिधानस्य निजस्य स्वामिनः पुरः । जयोद्घोषणपीयूषरसमास्वादये ( अहं = मैं ) - सर्वोत्कृष्ट जय- = लक्ष्मी- = मोक्ष-लक्ष्मी के निधानस्य = आश्रय, निजस्य = अपने - उद्घोषण- = ध्वनिरूपी पीयूषरसं = ( परमानन्द-मय ) - स्वामिनः = स्वामी के अमृत रस का क्षणम् = प्रतिक्षण पुरः = सामने ( अर्थात् समावेश में ! आस्वाद्ये = आस्वादन करता रहूँ || = क्षणम् ॥ १ ॥ साक्षात्कार होते ही ) जय जय जय कार की - - एक रुद्र = हे अद्वितीय रुद्र ! एक - शिव = हे अतीय शङ्कर ! - इदमपि जयस्तोत्रं ग्रन्थंकाराशयमेव | जयलक्ष्म्याः - सर्वोत्कर्षश्रियो निधानं - समुचित मास्पदं । पुर इति - साक्षात्कारसमनन्तर मेव, जयो- द्घोषणमेवानन्दप्रदत्वात् पीयूषरसम् आस्वादये - चमत्करोमि, क्षणं मुहुर्मुहुः | क्षणशब्दश्चास्य आस्वादस्य सुलभतां ध्वनति ॥ १ ॥ जयेकरुद्रैकशिव महादेव महेश्वर । पार्वतीप्रणयिञ्शर्व सर्वगीर्वाणपूर्वज ॥ २ ॥ - महादेव = हे महादेव ! महेश्वर = हे सर्व ऐश्वर्यवान् प्रभु ! - १ ख० ग० पु० ग्रन्थकाराशय्यैवेति पाठः । २ घ० पु० सारोत्कर्षश्रियः — इति पाठः । - ३ ख० पु० सूचितमास्पदम् - इति पाठः । ४ ख० पु० समुत्कर्षसाक्षात्कारसमनन्तरमेव - इति पाठः । जयस्तोत्रनाम चतुर्दशं स्तोत्रम् सर्व- = हे सभी पार्वती = हे पार्वती (अर्थात् परा- शक्ति ) के प्रणायन् = प्रिय स्वामी ! शर्व = हे (पापियों को ) नष्ट करने ( त्वं ) = वाले ! प्रथममामन्त्रेणद्वयमद्वयसारताप्रथनाय 'एको रुद्र' ··1' इति श्रुतिरस्ति | एकः शिवः – नतु भेदवादस्थित्या बहवः | पार्वती - परा शक्तिः । सर्वेषां गीर्वाणानां - देवानां पूर्वज - आद्य ॥ २ ॥ - एक- = एक जय जय त्रैलोक्य - = तीनों लोकों के नाथ = स्वामित्व के = गीर्वाण = देवताओं के पूर्वज = पूर्वज अर्थात् आद्य प्रभु ! की जय जय हो ॥ २ ॥ त्रैलोक्यनाथैकलाञ्छनालिकलोचन | पीतार्तलोकार्तिकालकूटाङ्ककन्धर ॥ ३ ॥ (और अलौकिक ) लाञ्छन = चिह्न के रूप में अलिक = माथे पर लोचन = ( तीसरा ) नेत्र धारण करने वाले ( त्रिलोचन ) ! = आपकी जय हो । जय पीत- - हे पिये गए आर्तलोक- = ( सभी ) दुःखी लोगों (अर्थात देवताओं मनुष्यों और असुरों ) के आर्ति- = दुःख ( के कारण ) कालकूट = कालकूट विष की अंक = छाप से युक्त कंधर = गले वाले, ( नीलकण्ठ ) ! जय = आप की जय हो ॥ ३ ॥ त्रैलोक्यनाथत्वे एकम्-अद्वेयसूचकमलौकिकं लान्छनमलिक- लोचनं – ललाटनेत्रं यस्य; भगवद्वधतिरेकेणान्यस्यो र्ध्वमुखोर्ध्वंलोचना- नुन्मीलनात् । पीतमार्तलोकानां - सर्वेषां सुरासुराणामार्तिहेतुत्वात्तद्रूपं - यत् कालकूटं - महाविषं, तदका कन्धरा यस्य | कालकूटमार्तिरूपतयो- - १ ख० पु० प्रथममामन्त्रणमिति पाठः । २ घ० पु० अयसूचकाद्वितीयमलौकिकमिति पाठः । ३ ग० पु० अधोमुखाधोलोचनेति पाठः । संग्रहस्तोत्रनाम त्रयोदशं स्तोत्रम् - पूजयेयं = ( आपकं ) पूजा करता / अभिसंस्तुवीय = वर्ण रूप में ति (अर्थात परामर्श करता रहूँ ॥ रहूँ और अगाधम् - अपरिच्छे अधिकापंचिद्रम् अयन-अभेद -- - सारं, स्वं - सर्वस्यात्मीयं स्वरूप, अविनानां - पहध्वमयान।मर्थानां घस्मरम् - अदनशीलं, त्वामाविशन्, हे उमेश - पराभट्टारिकास्त्रामिन्, अहं सदा पूजयेयं- , • “सा पूजा ह्यादराल्लयः ॥' वि० भै०, लो० १४७ ॥ www इति स्थित्या अर्चयेयम् । अभितः - समन्तान् सम्यगभेदपरामर्शसार- तया स्तुवीय चेति शिव३ ।। २० ।। इति श्रीमत्पलदेवाचार्यविरचितोत्रावली संग्रहस्तोत्रनामनि त्रयोदशस्तोत्रे श्रीक्षेमराजाचार्यविरचिता विवृतिः ॥ १३ ॥ ॐ तत् सत् अथ जयस्तोत्रनाम चतुर्दश स्तोत्रम् ॐ जयलक्ष्मीनिधानस्य निजस्य स्वामिनः पुरः । जयोद्घोषणपीयूषरसमास्वादये ( अहं = मैं ) - जय- = = सर्वोत्कृष्ट लक्ष्मी- = मोक्ष- लक्ष्मी के निधानस्य = श्राश्रय, उद्घोषण = ध्वनिरूपी पीयूषरसं = ( परमानन्द-मय ) - निजस्य = अपने स्वामिनः = स्वामी के अमृत रस का क्षणम् = प्रतिक्षण = पुरः = सामने ( अर्थात् समावेश में ! आस्वादये = आस्वादन करता रहूँ ॥ क्षणम् ॥ १ ॥ साक्षात्कार होते ही ) जय जय जय कार की इदमपि जयस्तोत्रं ग्रन्थंकाराशयमेव | जयलक्ष्म्याः- सर्वोत्कर्षश्रियो निधानं - समुचित मास्पदं । पुर इति - साक्षात्कारसमनन्तरमेव, जयो- द्घोषणमेवानन्दप्रदत्वात् पीयूषरसम्, आस्वादये- चमत्करोमि, क्षणं- मुहुर्मुहुः । क्षणशब्दश्चास्य आस्वादस्य सुलभतां ध्वनति ॥ १ ॥ = एक रुद्र = हे अद्वितीय रुद्र ! एक - शिव = हे अद्वितीय शङ्कर ! - जयैकरुद्रकशिव महादेव महेश्वर । पार्वतीप्रणयिञ्शर्व सर्वगीर्वाणपूर्वज ॥ २ ॥ महादेव = हे महादेव ! महेश्वर = हे सर्व ऐश्वर्यवान, प्रभु ! - १ ख० ग० पु० प्रन्थकाराशय्यैवेति पाठः । २ घ० पु० सारोत्कर्षत्रियः - इति पाठः । -- ३ ख० पु० सूचितमास्पदम् - इति पाठः । ४ ख० पु० समुत्कर्ष साक्षात्कारसमनन्तरमेव - इति पाठः । जयस्तोत्रनाम चतुर्दशं स्तोत्रम् सर्व = हे सभी = पार्वती - = हे पार्वती (अर्थात्परा - शक्ति ) के गीर्वाण- = देवताओं के - प्रणायन् = प्रिय स्वामी ! पूर्वज = शर्व = हे (पापियों को ) नष्ट करने ( त्वं ) = आपकी - = वाले ! जय जय हो ॥ २ ॥ त्रैलोक्य- = तीनों लोकों के नाथ- • स्वामित्व के पूर्वज अर्थात् प्रभु ! प्रथममा मन्त्रेणद्वयमद्वयसारताप्रथनाय 'एको रुद्रः' ·ľ इति श्रुतिरस्ति । एकः शिवः - नतु भेदद्वादस्थित्या बहवः | पार्वती- परा शक्तिः । सर्वेषां गीर्वाणानां - देवानां पूर्वज - आद्य ॥ २ ॥ जय जय एक- = एक (और अलौकिक ) लाञ्छन- चिह्न के रूप में - अलिक- = माथे पर - लोचन = ( तीसरा ) नेत्र धारण करने वाले ( त्रिलोचन ) ! जय = आप की जय हो । त्रैलोक्यनाथैकलाञ्छनालिकलोचन | पीतार्तलोकार्तिकालकूटाङ्ककन्धर ॥ ३ ॥ . २१३ पीत- == हे पिये गए आर्तलोक- = ( सभी ) दुःखी लोगों (देवताओं, मनुष्यों और असुरों ) के आर्ति = दुःख ( के कारण ) कालकूट = कालकूट विष की अंक- = छाप से युक्त - कंधर = गले वाले, ( नीलकण्ठ ) ! जय = आप की जय हो ॥ ३ ॥ त्रैलोक्यनाथत्वे एकम् - अद्वेयसूचकमलौकिकं लान्छनमलिक- लोचनं – ललाटनेत्रं यस्य; भगवद्वयतिरेकेणान्यस्यो र्ध्वमुखोवलोचना- • नुन्मीलनात् | पीतमार्तंलोकानां - सर्वेषां सुरासुराणामार्तिहेतुत्वान्तद्रूपं - यत् कालकूटं — महाविषं, तदका कन्धरा यस्य | कालकूटमार्तिरूपतयो- १ ख० पु० प्रथममामन्त्रणमिति पाठः । २ घ० पु० अद्वयंसूचकाद्वितीयमलौकिकमिति पाठः । ३ ग० पु० अधोमुखाघोलोचनेति पाठः । a श्रीशिवस्तोत्रावली त्प्रेक्ष्यते'। अथ च कालकूटगलत्वेन भगवतः संर्वसंसारातिहरत्वं सूच्यते ॥ जय मूर्तत्रिशक्तयात्मशितशूलोल्लसत्कर । जयेच्छामात्र सिद्धार्थपूजार्हचरणाम्बुज ॥ ४ ॥ इच्छा मात्र इच्छा होते ही सिद्धार्थ- = कामना को पूर्ण करने वाले मूर्त• शरीर-धारी त्रि. ( इच्छा, ज्ञान और क्रिया - इन ) तीन शक्त्यात्म = शक्तियों के रूप वाले शित - तीक्ष्ण त्रिशूल से उल्लसत् = सुशोभित कर = हाथ वाले ( शूली ) 1 जय = आप की जय हो । पूजा- अर्ह- S सैकड़ों शोभा-शत-स्यन्दि = ( प्रकाश, आह्लाद आदि की ) ( किरनों की ) छटा को छिटकाने बाले लोकोत्तर ( तथा ) अलौकिक वपु:- = स्वरूप को घर = धारण करने वाले (चित्स्वरूप ) ! जय श्राप की जय हो । एक- = एक ( और इसीलिए ) पूजा के चरण-अम्बुज = चरण-कमलों वाले (आशुतोष ) 1 जय = आप की जय हो ! ॥ ४ ॥ - -- मूर्ताः तिस्रः - इच्छाजानक्रियापा: शक्तयः, आत्मा यस्य तथा भूतेन शितेन-संसारच्छेदन शुलकर:- पाणिर्यस्य । अनेन शक्तित्रयस्य भगवदेकाधीनत्वमुक्तम् | इच्छामात्रेण सिद्धेऽर्थः- प्रयोजनं याभ्यां सकाशान् तथाभूते, अत एव पूजार्हे प्राग्वञ्चरणाम्बुजे यस्य || ४ || जय शोभाशतस्यन्दिलोकोत्तरवपुर्धर । जयैकजटिकाक्षीणगङ्गाकृत्यात्तभस्मक = योग्य १ ग० पु० उत्प्रेक्षित मिति पाउः । २ ख० पु० सर्वसंहारा तहरत्वमिति पाठः । ३ ६० पु० सूचितमिति पाठः । ॥ ५ ॥ जटिका = छोटी सी जटा के बीच में, क्षीण = जो छोटा सा गङ्गा = गंगा का आकृति- = आकार है, उसके रूप में = भस्म से युक्त सिर वाले ( जटाधर, गङ्गाधर, भस्मप्रिय ) ! आत्त-भस्मक जय = आप की जय हो ॥ ५ ॥ जयस्तोत्रनाम चतुर्दशं स्तोत्रम् २१५ - - शोभाः – प्रकाशाह्लादरुचय: वपुः – स्वरूपम् | अंपैकजटा - एक- जटिका, तत्र क्षीणा येयं गङ्गाकृतिस्तदेव आत्तं भस्म येन, तथाभूतं कं शिरो यस्य | भगवतः शिरसि भस्मोस्तीत्याद्यमविगतमेव ॥ ५ ॥ जय क्षीरोदपर्यस्तज्योत्स्नाच्छायानुलेपन । जयेश्वराङ्गसङ्गोत्थरत्नकान्ता हिमण्डन ॥ ६॥ संग = सम्पर्क से उत्थ- = = निकले ( अर्थात् प्राप्त हुए ) रत- = रत्नों से कान्त = मनोहर बने हुए अ ( शेष, वासुकि आदि ) साँप हो मण्डन = आभूषण हैं जिस के, ऐसे ( नागधर ) 1 जय = श्राप की जय हो ॥ ६ ॥ क्षीरोद- = क्षीर-सागर पर पर्यस्त = बिवरी हुई ज्योत्स्ना = चन्द्रिका का छाया = प्रतिबंध ही अनुलेपन = ( शुभ्र ) अनुलेपन है S जिस का, ऐसे ( शुभ्रांशुधर ) ! जय = आप की जय हो । ईश्वर = (आप) श्वर के अंग = अंगों के S क्षीरोदे पर्यस्ता - प्रमृता याँसौ ज्योत्स्ना - चन्द्रकांतिः, तच्छायं शुभ्रमनुलेपनं यस्य | अङ्गसङ्गोत्थे: रत्नैः कान्ताः - हृद्याः, अयः- शेपवासुकिप्रभृतयो यस्य | ईश्वराङ्गसङ्गाभुजङ्गमानां रत्नप्राप्तिरिति झागमः ।। ६ ।। जयाक्षयैकशीतांशुकलासहशसंश्रय । जय गङ्गासदारव्धविश्वैश्वर्याभिषेचन ॥ ७॥ १ ग० पु० अल्पजटा - इति पाठः । २ ख० पु० एवं जटिका-इति पाठः । ३ ख० पु० भस्माद्यमविगीतमेवेति पाठः |

  • बहुकृत्वः श्रुतं दृष्टमविगीतमुदाहृर्तामत्यधिकः पाठः ग० पु० ।
  • शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान् शंकर के शरीर के अङ्गों के साथ

सम्पर्क होने पर वासुकि शेष आदि साँपों को रत्न प्राप्त हुये थे । ४ ख० पु० येयमिति पाठः । ५ ग० पु० ईश्वरसङ्गाद्भुजङ्गमानामिति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली अक्षय = सदा बनी रहने वाली सदा = सदा (मनामक ) एक- = एक शीतांशु-कला- = चन्द्र कला के सदृश = योग्य (अ) संश्रय = आश्रय, ( शशिशेखर ) ! जय = आप की जय हो । गंगा गंगा से = अक्षयायाः—अमानाम्न्या: एकस्याः शीतांशुकलायाः सदृश:- अनुरूपो भगवानेव संश्रयः, तस्याध्यक्षयैकरूपत्वात् । चन्द्रकलया हि भगवतः एतत्परमार्थतैव सूच्यते । गङ्गया सदा आरब्धं विश्वैश्वर्येऽभि - षेचनं यस्य; तत्सूचिकैव ह्यसौ ।। ७ ।। अधर - अङ्ग- = ( अपने ) • आरब्ध = किया जाता है, विश्व- = जगत् के ऐश्वर्य - = ऐश्वर्य (अर्थात् सर्वतोमुखी कल्याण ) के लिए, अभिषेचन = ऊपर से जल डाल कर जयाधराङ्गसंस्पर्शपावनीकृतगोकुल । जय भक्तिमदाबढुंगोष्ठीनियतसन्निधे ॥ ८ ॥ निचले (अर्थात् चरणों ) के स्नान जिस का, ऐसे ( गंगेश ) ! " जय = आप की जय हो ॥ ७ ॥ * संस्पर्श = स्पर्श से पावनी- = पवित्र कृत- = किया है गोकुल = बैलों की जाति ( अर्थात् जगत् के सारे बैलों तथा गायों ) को जिस ने, ऐसे ( वृषभवाहन ) !

  • चन्द्रमा की सोलह कलायें होती हैं । कृष्ण पक्ष के पन्द्रह दिनों में इसको

पन्द्रह कलाओं का क्षय होता है । इसकी सोलहवीं कला को अमा कला अर्थात् अमावस्या की कला कहते हैं । इसका क्षय कदापि नहीं होता । भगवान् चन्द्रचूड़ इसी श्रमा कला को अपने माथे पर धारण करते हैं । चन्द्रशेखर महादेव का स्वरूप भी अविनाशी है, अतः ये कला के योग्य आश्रय कहे गये हैं । १ ख० ग० पु० अर्यमनाम्न्याः— इति पाठः । २ घ० पु० भगवत एव — इति पाठः । ३ ग० पु० विश्वेश्वर्याभिषेचनं यस्य - इति पाठः । -- ४ ख० पु० भक्तिमदारब्धेति पाठः । जय = आप की जय हो । भक्तिमत्- भक्त-जनों से आबद्ध = बंधी हुई गोष्ठी- = मण्डली में = जयस्तोत्रनाम चतुर्दशं स्तोत्रम् २१७ नियत- = नियत रूप से ( अर्थात् सदा) सन्निधे = उपस्थित होने वाले - स्व = अपनी इच्छा- - अधराङ्गं – पादस्तत्स्पर्शेन पवित्रीकृतं गोकुलं येन भ॑वता वृषभवाह- नेन । यतो वृषभः पद्भ्यां स्पृष्टस्ततः सर्वत्र गोजाते: पवित्रत्वमविगी- तम् | भक्तिमद्भिः आबद्धायां गोष्ठयां नियतः- अवश्यंभावी सन्निधिर्यस्यै || विनोद के लिए ) जय स्वेच्छातपोवेशविप्रलम्भितबालिश । जय गौरीपरिष्वङ्गयोग्यसौभाग्यभाजन तपः- = वेश- • की गयी तपस्या और जय = आपकी जय हो । = इच्छा से ( अर्थात् अपने गौरी- = (पराशक्ति रूपिणी) गौरी के जय ● ( भक्तवत्सल, आशुतोष ) 1 आपकी जय हो ॥ ८ ॥ -

( उसके अनुकूल जटा-आदि-

- मय ) वेश से विप्रलम्भित-बालिश = मूर्ख अर्थात् ज्ञानी लोगों को धोखा देने वाले ( जटिल ) ! ॥ ९ ॥ परिष्वङ्ग- = आलिंगन के योग्य- योग्य सौभाग्य - = सौभाग्य के भाजन = पात्र, ( उमाकान्त, गौरीशङ्कर ) ! जय = आप की जय हो ॥ ९ ॥ १ ख० पु० भगवता - इति पाठः । - २ ख० ग० पु० वृषवाहनेन - इति पाठः । ३ घ० पु० यत्र- - इति पाठः ।

  • [ क ] भगवान् के जटाधारी तपस्वी बनने की बात से अज्ञानी लोगों को

पाँचवें सिर को यों धोखा मिलता है । कुछ लोग समझते हैं कि ब्रह्मा के काटने से होने वाले पाप का प्रायश्चित्त करने के लिये ही भगवान् शंकर तपस्वी बने । औरों का विचार है कि सिद्धि प्राप्त करने के लिये उन्होंने ऐसा वेश धारण किया । अन्य लोग कहते हैं कि यही तो महादेव का सच्चा अर्थात् असली रूप है । किन्तु ये सब बातें गलत हैं। चिदानन्दघन शिव के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता । बात यह है कि भगवान् श्री शिवस्तोत्रावली स्वेच्छया-क्रीडीरूपया कृतेनं तपसा वेशेन च, विप्रलम्भिताः - भ्रामिता: बालिशा येन । क्रीडामात्रेण भगवता जटादि विघृतं यत् तन्मूर्खाः ब्रह्मंशिरश्छे हत्थकिल्बिशुद्ध अर्थमिति प्रतिपन्नाः, सिद्धयँर्थ- मेतदित्यपरे, इदमेतद्भगवतः सत्यं रूपमिति परे । तचासत् | भगवतः स्वतन्त्र चित्परमार्थस्यैत्रं रूपानुपपत्तेः । गौरी-परा शक्तिः, तत्परिवङ्ग- योग्यस्य सौभाग्यस्य - सर्वस्पृहणीयत्वस्य भाजन ॥ ६ ॥ " २१८ जय भक्तिरसार्द्राईभावोपायनलम्पट | जय भक्तिमदोद्दामभक्तवानुत्ततोषित ॥ १० ॥ भक्ति = भक्ति के रस = रस से आई-आई- = ( सने हुए और इसीलिए ) अत्यन्त सरस अपने विनोद के लिये जब जैसा चाहते हैं, तब वैसा रूप धारण करते हैं | तभी तो उनका नाम 'बहुरूप' पड़ा है । [ ख ] जब गौरी जी हिमालय पर अपने प्राणेश्वर, भगवान् शङ्कर के लिये तपस्या कर रही थीं, तो भगवान् जटाधारी ब्रह्मचारी के रूप में ही उनके पास गये और इस प्रकार क्षण भर के लिये अपनी श्रद्धांगिनी को भी धोखा दिया। किन्तु तुरन्त ही अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होकर उनको रिझाया और उनकी तपस्या को सफल बनाया। तभी से उनका नाम 'जटिल' पड़ा है ॥ ९ ॥ १ ग० पु० क्रीडया - इति पाठः । - २ ग० पु० कृतेन उपमात्रेशेन च - इति पाठः । ३ ख० पु० त्रासिताः - इति पाठः । ४ ग० पु० वित्तम् इति पाठः । - ५ घ० पु० ब्रह्मादि - इति पाठः । - ६ घ० पु० प्रपन्नाः इति पाठः । ७ ख० पु० सिद्धयर्थमित्यपरे - इति पाठः । - ८. ख० पु० तन सत् — इति पाठः । ९ख० पु० तत्परिवमयोग्य सौभाग्यस्य – इति पाठः । भाव = ( भक्त के ) भावरूपी उपायन- = उपहार को ग्रहण करने के लिए अयस्तोत्रनाम चतुर्दशं स्तोत्रम् भक्त- भक्तों के वाक् - = वच नृत्त = और नृत्य से ( अर्थात् गाते, बजाते और नाचते हुए उन से की गई अपनी स्तुतियों से) = लम्पट = लालायित बने रहने वाले ( भक्तवत्सल ) ! जय = आप की जय हो । • भक्ति की भक्ति- = मद- मस्ती से उद्दाम = मतवाले (अर्थात् मस्त ) बने हुए जय भक्तिरसेन आर्द्रार्द्रः - सरसो गलितो यो भावः - आशयः, स एवो- पायनं - ढोकनिका, तत्र लम्पट - झंटित्यात्मसात्कारिन् । भक्तिमदेनो- द्दामा – ऊंजिता ये भक्ताः, तदीयेन वाङ्नुत्तेन - स्फूर्जतूस्तुतिमाला- भिस्तोषित ॥ १० ॥ - प्रभव = उत्पन्न व्यय = ब्रह्मा = ब्रह्मा, आदि = विष्णु श्रादि - देवेश = देवदेवों ( अर्थात् बड़े देवताओं ) के प्रभाव = प्रभाव ( अर्थात् जगत् की सृष्टि आदि करने की शक्ति ) को जयलोकेश्वरश्रेणीशिरोविधृतशासन ब्रह्मादिदेवेशप्रभावप्रभवव्यय । - तोषित = प्रसन्न होने वाले ( नृत्य - प्रिय ) ! जय = आप की जय हो ॥ १० ॥ और नष्ट करने वाले, ( देवाधिदेव ) ! जय = आप की जय हो ॥ ११ ॥ लोकेश्वर = ( इन्द्र श्रादि दस ) लं कपालों की श्रेणी- जय ॥ ११ ॥ = पंक्ति से ( अर्थात् सब = लोकपालों से ) शिर:- - = (अपने ) सिरों पर विधृत = धारण की जाती है शासन = श्रज्ञा जिस की, ऐसे ( परमेश्वर ) | = आप की जय हो ॥ ११ ॥ १ ख० पु० मटित्यात्मसाक्षात्कारिन् – इति पाठः । २ घ० पु० गर्जिताः - इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली - ब्रह्मादिदेवेशानां यः प्रभावः - सृष्टयादिसामध्यं, तस्य प्रभवव्ययौ - उत्पादनाशौ यतः । यतः । लोकेश्वरश्रेण्या – इन्द्रादिदशलोकपालमालया, शिरोभिः- मुकुंटैविधृतं शासनम् - आज्ञा यस्य; परमेश्वराज्ञानुवर्तिभि- रिन्द्रादिभिक्षादौ स्थीयते - इति शतशः आगमोक्तयः सन्ति ।। ११ ।। - २२० जय सर्वजगन्न्यस्तस्वमुद्राव्यक्तवैभव | जयात्मदानपर्यन्तविश्वेश्वर महेश्वर ॥ १२ ॥ सर्व- = सारे जगत् - = जगत् में ( अर्थात् जगत् की सारी वस्तुओं पर ) न्यस्त = डाली हुई स्वमुद्रा = अपनी ( स्वरूप प्रकाश- नात्मक ) छाप से व्यक्त = प्रकट है वैभव = वैभव ( अर्थात् विश्वव्यापी प्रभुत्व ) जिसका, ऐसे ( सर्व- व्यापक ईश्वर ) ! जय = आपकी जय हो । आत्म- = ( अपने भक्तों को ) अपनो आत्मा का दानपर्यन्त - विश्व- = जगत् के ईश्वर = ईश्वर ! महेश्वर = तथा महान् ऐश्वर्य से युक्त, ( जगत्प्रभु महेश्वर ) ! जय = आपकी जय हो ॥ १२ ॥ - सर्वत्र जगति न्यस्तया स्वमुद्रया- आनन्दसारज्ञानक्रियाशक्तिव्या- प्तिमय्या षष्ठवक्त्ररूपया व्यक्तं वैभवं – व्यापकत्वं प्रभुत्वं च यस्य | यदागमः- = दान तक करने से 'न चक्राका न वत्राका दृश्यन्ते जन्तवः क्वचित् । भगलिङ्गाङ्कितं विश्वं तेन माहेश्वरं जगत् ॥' इति | आस्तां तावद्द्ब्रह्मादीनां विभूत्यादिदानं त्वत्तः । सर्वस्य त्वमा १ ख० ग० पु० ब्रह्मादिदेवानाम् — इति पाठः । २ ग० पु० शिरसा - इति पाठः । ३ ग० पु० विभृतम् – इत्येव पाठः । परमेश- इति पाठः । `४ ख० पु० ५ ख० पु० अवष्टम्भरूपया - इति पाठः । ६ ख० ग० पु० विभुत्वम् - इति पाठः । जयस्तोत्रनाम चतुर्दशं स्तोत्रम् त्मानं — सत्तामपि ददासि; प्रकाशमयत्वत्स्वरूपं बिना नीरूपत्वापत्तेः- इत्यात्मदानपर्यन्तं कृत्वा विश्वेश्वर । अत एवान्यस्यैवंरूपत्वाभावात् त्वं महेश्वरः ॥ १२ ॥ जय त्रैलोक्यसर्गेच्छारातीक । जयैश्वर्यभरोद्वाहदेवीमात्रसहायक अवसर = समय = असत् - = नहीं होता है द्वितीयक = दूसरा ( अर्थात् साथी या सहायक ) जिसका, ऐसे ( सर्वशक्तिमान् ) ! जय = आप की जय हो । त्रैलोक्य = तीनों लोकों को ऐश्वर्य - = ऐश्वर्य का सर्ग- = ( एक साथ ) उत्पन्न करने की भर- = भार ( अर्थात् सारे जगत् इच्छा = इच्छा के का स्वामी होने का भार ) उद्वाह = धारण करने में ॥ १३ ॥ देवीमात्र = केवल दुर्गा (अर्थात परा-शक्ति ) ही = सहायक = सहायक है जिसकी, ऐसे ( गौरीशङ्कर ) ! जय = आप की जय हो ॥ १३ ॥ २२१ - त्रैलोक्यावसरे असन् द्वितीयः- उपादानसहकार्यात्मा अपेक्ष- णीयो यस्य | द्वितीयश्चेन्नास्ति कथं शक्तिः शक्तिमांश्चेत्युद्धोष्यते ? इत्याह ऐश्वर्यभरोद्वाहे- - जयाक्रमसमाक्रान्तसमस्तभुवनत्रय | जयाविगीतमाबालगोयमानेश्वरध्वने ॥ १४ ॥ १ ग० पु० स्वप्रकाशमय - इति पाठः | २ घ० पु० इत्यात्मानं पर्यन्तं कृत्वा – इति पाठः । ३ ख० पु० महानीश्वरः - इति पाठः | - ४ ख० पु० त्रैलोक्यसर्गावसरे - इति पाठः । 'स्वेच्छावभासिताशेषलोकयात्रात्मने नमः ।' इति नयेन देवीमात्रं निजसामर्थ्यात्मा पराशक्तिरेव सहायो यस्य | ऐश्वर्य – पञ्चविधकृत्यकारित्वम् ॥ १३ ॥ २२२ श्री शिवस्तोत्रावली अक्रम- = क्रम से नहीं ( अर्थात् | अधिगीतम् = निववाद रूप से ८ एक-एक करके नहीं, बल्कि एक साथ ही अर्थात एक ही क्षण में ) आवाल = मूर्खो अर्थात् ज्ञानियों तक से भी ( अर्थात् केवल ज्ञानियों से हो नहीं, बल्कि समाक्रान्त = पूर्णरूप में व्याप्त = किया है से भी ) समस्त = सम्पूर्ण भुवनत्रय = त्रिभुवन ( अर्थात् तीनों को जिसने लोकों ( सर्वात्मा ) ! ऐसे = आपकी जय हो । जय गीयमान = सदा गाया जाता ईश्वर = 'ईश्वर' नामक ध्वने = शब्द ( अर्थात् नादामर्श ) जिस का, ऐसे ( सर्वाशय प्रभु ) | जय = आप की जय हो ॥ १४ ॥ - संद्रिभागा सम्यगाकान्तं - व्याप्तं समस्तं निरवशेषं प्राग्वद्भवनत्रयं येन | विष्णु क्रमाभ्यां भूर्भुवः स्वान्तष्टितं, भगवता क्रममेव भवाभवानिभवरूपं भुवनत्रयं व्याप्तम् - इति व्यति- रेकध्वनिः | अविगीतम् - अविप्रतिपत्तिं कृत्वा आबालं गीयमान ईश्वर इति ध्वनिः– नादामर्शो यस्य ।। १४ ।। जयानुकम्पादिगुणानपेक्षसहजोन्नते। जय भीष्ममहामृत्युघटनापूर्वभैरव ॥ १५ ॥

  • भावार्थ - हे भगवान् ! वामन अवतार धारी विष्णु ने क्रम से अर्थात्

एक-एक करके तीनों लोकों को व्याप्त किया, अर्थात् पहले कदम से पृथ्वी को, दूसरे से देवलोक को और उसके बाद तीसरे से पाताल को माप डाला अर्थात् व्याप्त किया । आपने तो एक साथ ही अर्थात् एक ही क्षण में भव ( जाग्रत सम्बन्धी ), अभव ( स्वप्न सम्बन्धी ) और [[अतिभव ( सुषुप्ति सम्बन्धी ) तीन लोकों को अर्थात् समस्त संसार- मण्डल को अपने चिदानन्दमय स्वरूप से व्याप्त किया है। तभी तो नाम 'सर्वात्मा' सार्थक है ॥ १४ ॥ १ ख० पु० साक्षाद्विभातत्वात् - इति पाठः । २ घ० पु० क्रमेण – इति पाठः । ३ ६० पु० भवाभवातिभवत्रयम् - इति पाठः । जयस्तोत्रनाम चतुर्दशं स्तोत्रम् अनुकम्पा = दया - आदि- = आदि गुण = गुणों की अनपेक्ष = अपेक्षा न करने वाली ( अर्थात् गुणों पर आश्रित न होने वाली ) सहज = ( और इसीलिए ) स्वाभाविक उन्नते = महिमा है जिस को, ऐसे ( महाप्रभु ) ! अनुकम्पादिगुणानपेक्षा सहजा - स्वाभाविकी अविच्छिन्ना उन्नति :- माहात्म्यं यस्य | अन्येषां तु - विश्व- = जगत् के क्षय = नाश का २२३ जय = आप की जय हो । भीष्म- = ● भयंकर ( अर्थात् समूचे जगत् को भयभीत कराने वाले ) महामृत्यु- = महाकाल का भी घटन- = संहार करने के लिए अपूर्व-भैरव =अलौकिक भैरव, (अर्थात डरावने यमराज के लिए भी डरावने मृत्युञ्जय ) ! जय = आप की जय हो ॥ १५ ॥ ‘यो हि यस्माद्गुणोत्कृष्टः स तस्मादूर्ध्वमुच्यते ।' मा॰ वि॰ तं०, श्र० २, श्लो० ६० ॥ इत्याम्नायस्थित्या अपूर्वेन्नतिः । भीष्मस्य - सकलजगत्कम्पकारिणो महामृत्योः घटने–स्वरूपचलनात्मनि प्रसने अपूर्वोऽपि भैरव:- भीषणीयस्यापि भीषणीयः, भीरूणामयम् - इति तद्धितेन मृत्युभोतानां हृदि स्फुरन्नभयप्रदश्च ।। १५ ।। - जय विश्वक्षयोचण्ड क्रिया निष्परिपन्थिक । जय उच्चण्ड = भयंकर क्रिया- = कार्य करने में श्रेयः शतगुणानुगनामानुकीर्तन ॥ १६ ॥ - जय = आपकी जय हो । श्रेयः - शत-गुण- = सैकड़ों कल्याण- कारक उत्तम गुण अनुग- = जिसके पीछे-पीछे चलते हैं, निष्परिपन्थिक= निष्कंटक (विश्वहर्ता) | नाम = ऐसा जिस के नाम का

  • भावार्थ - हे कालभक्ष ! महाकाल भी आप से डरता है, क्योंकि आप

उसका भी नाश करते हैं। आपके भक्तों को आपसे अभयदान मिलता है, अतः उन्हें मृत्यु का डर नहीं हो सकता ॥ १५ ॥ २२४ श्रीशिवस्तोत्रावली अनुकीर्तन = कीर्तन है ( अर्थात् = जिस के नाम का कीर्तन करने चाला भक्त सर्वगुण सम्पन्न हो - विश्वक्षये —– संहारे उच्चण्डायां क्रियायां निर्गतः परिपन्थिकः- निरोद्धा यस्य | श्रेयांसः शतंगुणा अनुगाः- पचौद्धावन्तो यस्य, तथा भूतं नामानुकीर्तनं यस्य ॥ १६ ॥ जाता है ) ऐसे ( विश्वबन्धु ) ! जय = आप की जय हो ॥ १६ ॥ जय हेलावितीर्णेतदमृताकरसागर | जय विश्वक्षयाक्षेपिक्षणकोपाशुशुक्षणे ॥ १७ ॥ जय = आपकी जय हो । हेला - = सहज में ही वितीर्ण - = ( उपमन्यु भक्त को ) विश्व- = समस्त संसार का प्रदान किया है क्षय = नाश करने की आक्षेपि = शक्ति वाला है एतत् - = यह अमृत-आकर = अमृत की खान, ( से भरा हुआ ) सागर = क्षीर-सागर जिसने ऐसे ( भूतभावन ) ! - क्षण- = क्षण भर का आशुशुक्षणे = क्रोधामि जिसका, ऐसे ( भीम विरूपाक्ष - नाथ ) ! जय = आपको जय हो ॥ १७ ॥ हेलया वितीर्णो भक्तेभ्यो दत्तः - एतदिति - एष श्रेयः शतगुणानुगः अमृताकरसागरो येन, उपमन्यवे च क्षीरोदो वितीर्ण: येन | विश्वक्षया क्षेपी क्षणकोपाशुशुक्षणिः- क्षणिकोऽपि कोपानिर्यस्य || १७ || जय मोहान्धकारान्धजीवलोकैकदीपक । जय प्रसुप्तजगतीजागरूकाधिपूरुष ॥ १८ ॥ १ ख० पु० विरोधा- इति पाठः । २ ख० पु० शतं गुणाः – इति पाठः । ३ ख० पु० पश्चाद्भाविनः - इति पाठः, ग० पु० पश्चाद्धाविनः इति पाठः । ४ घ० पु० तथाविधम् - इति पाठः । ५ ख० पु० विश्वक्षयाक्षेपि – इति पाठः । -मोह- = अज्ञानरूपी अन्धकार = अन्धकार से (अर्थात् अन्ध- = ददृष्टि- हीन ) बने हुये जीवलोक- = प्राणि-जगत् ( अर्थात् इस संसार के लोगों ) को एक- जयस्तोत्रनाम चतुर्दशं स्तोत्रम् - ( ज्ञान - प्रकाश देने के लिये ) जय जय = अद्वितीय = दीपक = ( परमार्थ- प्रकाशक ) दीपक, ( जगद्गुरु ) ! मोहान्धकारेण——अख्यातितिमिरेण जीवलोकस्तस्यैकः– अद्वितीयो दीप: - परमार्थप्रकाशकः । सुप्तायां - मायाप्रस्वापजडीकृतायां जगत्यां विश्वत्र जागरूकः प्रबुद्धोऽत एव अधिपूरुष:- अधिष्ठातृस्वरूपः ॥ १८ ॥ - = - देह- शरीर रूपी अद्रि- = पर्वत के कुञ्ज- = कुञ्ज अर्थात् गुफा के बोलने वाले जीवों के अन्तर्- = बीच में से निकूजत्- जीव- जीवक = जीवनदाता अर्थात् जीवा- त्मा रूपी मधुर कूजन करने वाले चकोर ! जय = आपकी जय हो । प्रसुप्त = ( माया के प्रभाव से अज्ञान की ) गहरी नींद में पड़े जगती = इस संसार में जागरूक- ( सदा ) जागने वाले (अर्थात् सदा - २२५ प्रबुद्ध ), अधिपूरुष = अधिष्ठातृ स्वरूप महा- जागरूक, पुरुष ! जय = श्राप की जय हो ॥ १८ ॥ अन्धः - उपसंहृता भेददृष्टियों देहाद्रिकुञ्जान्तर्निकूजञ्जीवजीवक । सन्मानसव्योमविलासिवरसारस ॥ १९ ॥ प्रकर्षेण - नित्य-

  • जीव-जीवक = १ जीवों को जीवन देने वाला जीवात्मा ।

२ चकोर नाम का पक्षी । + वरसारस = उत्तम हंस अर्थात् राजहंस | जय = आपकी जय हो । सत् = सत्पुरुषों अर्थात् भक्तों के मानसव्योम = चित्तरूपी आकाश में विलासि = आनन्द - पूर्वक विहार करने वाले +वर = सर्वश्रेष्ठ = सारस = ( परमात्मा रूपी) राजहंस ! जय = आपकी जय हो ॥ १९ ॥ २२६ श्रीशिवस्तोत्रावली देह एव जेडत्वाद्रिकु - पर्वतदरीगृहं तत्र निकूजत:- उत्कन्दतो जीवान् — प्राणिनो जीवयति; जीवतां लम्भयति यः । पर्वतगुहायां च निकूजन्तो जीवजीवाख्याः पक्षिणो भवन्ति - इत्यनुरणनशक्तचा क्षिप्तोऽ- र्थोऽपि । अपि च सतां - भक्तानां मानसं चित्तमेव निर्मलत्वादिधर्म- त्वाद्वयोम, तत्र विलसति तच्छीलः, वरसारसः- परमात्मा राजहंस, मानसे सरसि शोभमानो व्योमचारी च भवति ।। १६ ।। जय जाम्बूनदोदग्रघातूद्भवगिरीश्वर । जय पापिषु निन्दोल्कापातनोत्पातचंन्द्रमः ॥२०॥ जाम्बूनद- = सोने से उदग्र = भरपूर धातु = ( तथा अन्य ) धातुओं के उद्भव- = उत्पत्ति स्थान गिरीश्वर = गिरि-राज, सुमेरु पर्वत के स्वामी, ( सुमेरु, मेरु - धामा, गिरीन्द्र ) ! जय - जय हो । पापिषु = पापी लोगों पर ww निन्दा = () निन्दा रूपिणी उल्का- = उल्का के पातन- = गिरने पर उत्पात चन्द्रमः = ( उनके लिये ) उत्पात - चन्द्रमा अर्थात अशुभ- सूचक चन्द्रमा ( इन्दु शेखर ) !

  • जय = आपकी जय हो ॥ २० ॥

- १ ख० पु० जडत्वादेरद्रिकुञ्जम् - इति पाठः । २ ग० पु० क्रन्दतो – इति पाठः । ३ ग० पु० विलसन्— इति पाठः । ४ ख० पु० परमात्मराजहंसश्च – इति पाठः । ५ ख० पु० चन्द्रमाः - इति पाठः । स्वभाव से ही आनन्द स्वरूप

  • ( क ) [ उत्तरार्ध-भावार्थ ] - हे चन्द्रमौलि ! आप चन्द्रमा की तरह

बोदित करने वाले हैं । किन्तु जब कोई ज्ञान से प्रेरित होकर श्रापकी निन्दा करने लगता है, तो उसके लिये आप अशुभ-सूचक अर्थात आपत्ति का कारण बनते हैं । ( ख ) 'सुमेरु' शिव जी का नाम है । इसके अतिरिक्त एक बहुत बड़े पर्वत का नाम है । इसे गिरिं-राज अर्थात पर्वतों का राजा कहते हैं । यह सोने का कहा गया है। श्रीमद्भागवत में इसका सविस्तर वर्णन दिया गया है । जयस्तोत्रनाम चतुर्दशं स्तोत्रम् २२७ जाम्बूनदं - कनकं, तेन उदग्र :- ऊर्जितो धातूद्भवश्च रसधातु- सम्भूतो गिरीश्वरो मेरुर्यस्य । तथा चावधूतः - ‘येनामलस्फुरिता' - इत्यादि । पापिषु — अंतिविलयशक्तिगोचरेषु निन्दैव विषमदशाहेतुत्वा- दुल्का - विद्युत्, तत्पातने उत्पातचन्द्रमा इव - अशुभसूचक इन्दुरिव । भगवद्विलयशक्तिपातेन हि पौपिष्ठा भगवन्तं निन्दन्ति | इन्दुरूपेण नित्यमा ह्लादहेतुत्वं सूच्यते ॥ २० ॥ कष्टतपःक्लिष्टमुनिदेवदुरासद । सर्वदशारूढभक्ति मल्लोकलोकित ॥ २१ ॥ जय जय कष्ट = कठिन ( अर्थात् कष्टपूर्ण ) तपः- = तपस्या से क्लिष्ट = दुःखी बने मुनि- = मुनियों देव- = तथा देवताओं के लिये लोक- = लोगों से - - दुरासद = दुष्प्राप्य (मायीय प्रभु ) । लोकित = देखे गये ( अर्थात् अपने जय = आपकी जय हो । भक्तों को दर्शन देने वाले भक्त- वत्सल ) ! सर्व- = ( जीवन की ) सभी दशाओं में दशा- = आरूढ- = • स्थिरता से भक्तिमत्-=ी ) भक्ति करने वाले कष्टतपः क्लिष्टत्वादेवागस्त्यब्रह्मादिभिर्दुःखेन आसाद्यते । उक्तं हि प्राकू १ ख० पु० अतिशय - इति पाठः । २ ख० पु० पापिन:- इति पाठः । जय = आपकी जय हो ॥ २१ ॥ = 'न योगो न तपो नार्चा ..।' शि० स्तो, स्तो० १, लो० १८ ॥ इत्यादि । भक्तिरेकैव तत्रोपाय:, इत्याह सर्वासु - जामदादिदशासु आरूढेन प्राग्व्याख्यातेन भक्तिमल्लोकेन लोकित - साक्षात्कृत ॥ २१ ॥ - ३ घ० पु० इति इति पाठः । ४ ख० पु० भक्तिरेव - इति पाठः, - ग० पु० भक्तिरेव केवला – इति च पाठः । - ५ ग० पु० लोकितः -- इति पाठः । ६ ग० पु० साक्षात्कृतः - इति पाठः । २२८ श्रीशिवस्तोत्रावली । जय स्वसम्पत्प्रसरपात्रीकृतनिजाश्रित प्रपन्नजनतालालनैकप्रयोजन ॥ २२ ॥ जय - स्व- = ( परमानन्दरूपी) अपनी संपत् - = संपत्ति के प्रसर- = प्रसर अर्थात् फैलाव (विकास) का पात्रीकृत- = पात्र बनाया है निज- = अपने - - आश्रित = भक्तों को जिसने, (अर्थात् जो अपने भक्तों को परमानन्द कास्वादन कराता है ), ऐसे ( भक्त-भावन ) ! - परमानन्दसारे स्वसंपत्प्रसरे पात्रीकृतः - तदोस्वादनभाजनतां प्रापितः निजाश्रितः - भक्तजनो येन | लालनं- - सर्ग - = ( संसार की ) उत्पत्ति, स्थिति = स्थिति ध्वंस - = और संहार कारण = करना ही ‘तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्' । भ० गी० अ०९, श्लो० २३ ॥ इति स्थित्या योगक्षेमोद्वहः ॥ २२ ॥ जय आपकी जय हो । प्रपन्न- = = (अ) शरण में आये जय सर्गस्थितिध्वंसकारणैकाबंदानक । जय भक्तिमदालोललीलोत्पलमहोत्सव ॥ २३ ॥ ४ क० पु० ५ ग० पु० - - हुए जनता- = लोगों के प्रति लालन- = अत्यन्त स्नेह का भाव रखना (ही ) एक- = एकमात्र प्रयोजन = प्रयोजन ( अर्थात् उद्देश ) है जिसका, ऐसे ( शरण्य ) ! जय = आपकी जय हो ॥ २२ ॥ योगक्षेमौ — इति पाठः । - ददाम्यहम् - इति पाठः । अपदानक — इति पाठः । - १ घ० पु० स्वसंवत्सरे - इति पाठः । २ घ० पु० तदास्वादभाजनताम्- इति पाठः । ३ क० पु० एक- = एक = उज्ज्वल तथा उत्कृष्ट कार्य है जिसका, ऐसे ( विश्वनाथ, विश्वात्मा ) ! अवदानक जय = जय हो । भक्ति - = ( समावेश रूपिणी) भक्ति की मद्- = मस्ती से आलोल- लीला- = व्यवहार है जिसका, = स्पृहणीय = जयस्तोत्रनाम चतुर्दशं स्तोत्रम् सृष्टयादिकारणं 'सदा सृष्टिविनोदाय' ।' शि० स्तो०, स्तो० २०, श्लो० ९ ॥ इति न्यायेन एकमेव अवदानम् - उत्तमं चरितं यस्य | भक्तिमदेन - समावेशोद्रेकेण आलोला- स्पृहणीया व्याप्ता च लीला - परिस्पन्दो यस्य, तथाभूतस्य उत्पलैस्य - एतन्नाम्न्नः अस्मत्परमेष्ठिनो महोत्सवः ॥ २३ ॥ जय जयभाजन जय जितजन्म- - जरामरण जय जगज्ज्येष्ठ । जय जय जय जय जय जय जय - जय-भाजन = ( चिद्रूपता के कारण ) जय-जयकार के (सर्व-श्रेष्ठ) पात्र, ( सर्वेश्वर ) ! जय = आपकी जय हो । जित-जन्म-जरा-मरण = जन्म, जय जय जय जय जय जय त्र्यक्ष ॥ २४ ॥ बुढ़ापा तथा मृत्यु को जीतनेवाले, ( ( मृत्युञ्जय ) ! १ ख० पु० २ ग० पु० ३ ख० पु० उत्पल- = ऐसे उत्पल देव के महोत्सव = महान् उत्सव ( चिदा- नन्दघन प्रभु ) ! जय = आपकी जय हो ॥ २३ ॥ जय = आपकी जय हो । - जगत् = ( अनादि होने के कारण जगत ) में २२९ ज्येष्ठ = सबसे बड़े ( अर्थात् सर्वश्रेष्ठ - प्रभु ) ! जय = आप की जय हो ! जय = आप की जय हो । जय = आप की जय हो । जय = आप की जय हो । आपकी जय हो । जय जय =पकी जय हो । जय = आपकी जय हो ! जय = आपकी जय हो । करणम् – इति पाठः । अपदानम् – इति पाठः । उत्पलस्येति - इति पाठः । - ४ ६० पु० महोत्सवरूपः - इति पाठः | wwww..com = २३० जय = आप की जय हो । जय = आप की जय हो ! जय = श्राप की जय हो । जय = आप की जय हो । श्रीशिवस्तोत्रावली जय = आप की जय हो । त्र्यक्ष = हे त्रिनेत्रधारी (विरूपाक्षनाथ) | जय = आपकी जय हो ॥ २४ ॥ - जयभाजनत्वं चिद्रूपत्वेन सर्वोत्तमत्वात् | स्वात्मन: चिद्रूपस्येश्वरस्य वस्तुतः सर्वोत्कर्षवृत्तेरपि स्वातन्त्र्येण विषयव्यग्रतावस्थायां गूहितात्मत्वात् पराङ्मुखस्येव सम्मुखीकरणात्मकप्रार्थनारूपो जयेति लोडर्थं इहाद्वयनय एवोचितः, इत्याशयेनाप्युक्तं जयभाजनेति । द्वयनये तु भेदमयत्वादे- वेश्वरो न सर्वोत्कर्षेण वर्तते, ततो जय - इत्याशीर्व्यर्थैव, अथापि वर्तेत किं परकृतया प्रार्थनया | विध्यादिश्च लोडर्थ ईश्वरविषयेऽनुचित एव, इति भेदनये जयेत्युदीरणमनुपपन्नमेव | जितानि जन्मजरामरणानि यमाश्रित्येत्यर्थः। जगज्ज्येष्ठत्व मनादित्वात् । भूयो भूयो जय जयेत्युद्धो- षणमुद्घोषयितुर्भक्तिरसावेशवैवश्यं सूचयति । त्र्यक्षेत्यामन्त्रणं निःसामा- न्योत्कर्षशालिता प्रकाशनायेति शिवम् ॥ २४ ॥ इति श्रीमदुत्पलदेवाचार्यविरचितस्तोत्रावयां जयस्तोत्रनानि चतुर्दशे स्तोत्रे श्रीक्षेमराजाचार्यकृता विवृतिः ॥ १४ ॥ जयकाराख्येऽस्मिन्महायज्ञे शिवभक्तानुचरदासस्य ममाप्येका क्षुद्राहुतिरस्तु | सा चेयम्- जय गौरीपते शम्भो भूतनाथ जगद्गुरो । जय सर्वेश्वर शर्व जय त्र्यक्ष सदाशिव || ॐ तत् सत् अथ भक्तिस्तत्रनाम पञ्चदशं स्तोत्रम् त्रिमलक्षालिनो ग्रन्थाः सन्ति तत्पारगास्तथा । योगिनः पण्डिताः स्वस्थास्त्वद्भक्ता एव तत्त्वतः ॥ १ ॥ ( शम्भो = हे महादेव ! ) –

  • त्रि-मल- = (मायीय और

कार्म- इन ) तीन मलों को क्षालिनः = धो डालने वाले (अर्थात् दूर करने वाले ) ग्रन्थाः = (अद्वैत शास्त्र सम्बन्धी ) ग्रन्थ तथा = और ( बहवः = इस संसार में तो बहुत ) सन्ति = मिलते हैं, - ( किन्तु = किन्तु ) - त्वद् = ( समावेश का श्रानन्द उठाने वाले ) आपके भक्ताः = भक्त ही तत्त्वतः = वास्तव में तत् = उन ( शास्त्रों ) के पारगा: = पारंगत, योगिनः = योगी पण्डिताः (च) = तथा ज्ञानी त्रीन्— आणवमायीयकार्ममलान् क्षालयन्ति ये ते ज्ञानक्रियायोगचर्या - पादनरूपाः, प्रन्थाः - परमेश्वराः । तथा तत्पारगा:- तेषामाद्यन्त- दर्शिनो व्याख्यात्रादयोऽपि सन्ति | सत्यतः पुनस्त्वद्भक्ता एव तत्पारगा, यतस्त एव तत्त्वतो योगिनः, पण्डिताः स्वस्थाश्च | तत्पारगाः तत्त्वतः इति चावृत्त्या योज्यम् । तत्र स्वस्थाः = सुखी ( सन्ति = होते हैं ) ॥ १ ॥ - १ ग० पु० पदरूपाः - इति पाठः । २ ख० पु० ये ते - इति पाठः । ३ ख० पु० योजनम् इति पाठः ।

  • आणव-मल वह मल है जिससे जीव को अपने स्वरूप में अपूर्णता का

आभास होता है, मायीय-मल से उसे भिन्न-वेद्य-प्रथा होती है और कार्म-मल से उसको शुभ वासना तथा अशुभ वासनाओं का प्रादुर्भाव होता है । २३२ 'योगमेकत्वमिच्छन्ति श्रीशिवस्तोत्रावली ।' मा० वि० तं० [अ० ४, लो० ४ ॥ इति 'मय्यावेश्य मनो ये माम् ।' भ० गी० अ० १२, श्लो० २ ॥ , - - - इति च स्थित्या योगिनो - नित्यसमावेशस्था: । प्रशंसायां नित्ययोगे चेनि: । अनेन योगपादर इस्यनिष्ठत्वमेषामुक्तम् । पण्डितत्वं विद्यापाद्- क्रियापाद्सतत्त्वरूढिः । तत्र विद्यापादेन 'ज्ञायतेऽनेन ' - इति व्युत्पत्त्या उपायात्मकं नंरशक्तिशिवस्वरूपं ज्ञानमेकं, 'ज्ञप्तिर्ज्ञानम् - इति व्युत्पत्त्या उपेयात्मकं चिदानन्दघनस्वरूपविश्रान्तिसतत्त्वम् - इति च द्वितीयमभि- धीयते | क्रियापादेनापि वीर्यसारमन्त्रतन्त्रमुद्रातदितिकर्तव्यतायुपायरूपा तदुपायक्रमावाप्तस्वात्मविमर्शसारा ऐंव क्रियाभिधीयते । तन्त्रमन्त्राणां समस्तवाच्यवाचकाभेदामर्शसारपरमानन्दघनशब्दराशिसतत्त्वमहंविमर्श - सारं परं वीर्यम् । एतँद विभिन्नस्फुरतामयी च महासामान्यस्पन्द्रूपा प्रतिभात्मा विमर्शशक्ति: सृष्टिसंहारप्रधाना परापरं वीर्यम् । अपरं तु विश्लेषणादियुक्तिवशस्फुरिततत्तद्धचेयदेवताकारा भेदप्रतिपत्तिः । मुद्राणां तु तत्संवित्सारतैव हृदयम् । कुण्डमण्डले तिकर्तव्यतादेरपि परमेशज्ञान- क्रियाशक्तिव्याप्तिरेव तत्त्वम् । एवं विद्यापरमार्थसतत्त्वविश्रान्तिरेव पाण्डि- त्यम् | स्वस्थत्वं तु चर्यापादाभिधेयोक्तम् । करणोन्मीलन निमीलनक्रमेणैव परमेश्वरवत् सन्तंतसृष्टिसंहारादिकारि स्वस्वरूपावस्थितत्वम् । एतश्च सर्व त्वद्भक्तानामेव तत्त्वतोऽस्तीत्यलम् ॥ १॥ १ ख० पु० नित्यसमावेशयुक्ताः – इति पाठः । २ ख० पु० परशक्ति - इति पाठः । .३ ख० पु० स्वरूपम् - इति पाठः । ४ घ० पु० च - इति पाठः । ५ ग० पु० तत्र - इति पाठः । ६ ख० पु० शब्दराशिसमुत्थम् - इति पाठः । ७ ख० पु० एतदभिन्न — इति पाठः । ८ ख० पु० विद्यापादक्रियापदार्थ – इति पाठः । ग० पु० विद्यापाठार्थसतत्त्व - इति च पाठः 2 ९ ख० पु० सततम् इति पाठः । भक्तिस्तोत्रनाम पञ्चदशं स्तोत्रम् मायीयकालनियतिरागाद्याहारतर्पिताः । चरन्ति सुखिनो नाथ भक्तिमन्तो जगत्तटे ॥ २ ॥ नाथ = हे प्रभु ! - मायीय- = माया सम्बन्धी काल- = काल, नियति- नियति राग =

और राग

आदि- = आदि का आहार = ग्रास करने से तर्पिता: = तृप्त बने हुए भक्तिमन्तः = ( आपके ) भक्त जन जगत् - = ( इस ) जगत ( रूपी समुद्र ) के तटे = तट पर सुखिनः = सुखी ( सन्तः = होकर ) ( प्रभो = हे स्वामी ! ) अमी = वे - २३२ - ऋचरन्ति = विहार करते हैं (अर्थात उनको अपूर्णता का सर्वथा होने से पूर्णता-मय- स्थिति प्राप्त होती है ) ॥ २ ॥ कालादीनां पचानां ग्रसनेन तर्पितत्वं तत्प्रातिपक्ष्येण यदकॉल- कलितव्यापकनिराकाङ्क्षसर्वकर्तृ सर्वज्ञस्वस्वरूप प्राप्तिः । सुखिनः—आनन्द- घनास्तृप्ताच सुखसञ्चारिणो भवन्ति ॥ २ ॥ रुदन्तो वा हसन्तो वा त्वामुचैः प्रलपन्त्यमी । स्तुतिपदोच्चारोपचाराः पृथगेव ते ॥ ३ ॥ भक्ताः भक्ताः = ( समावेश-शाली आपके ) = भक्त १ ख० ग० पु० भवन्ति - इति पाठः । -

  • भावार्थ : – हे नाथ ! आप के भक्त-जन भवसागर के बीच में नहीं, इसके

किनारे पर रहते हैं, इसमें डूबना तो दूर की बात है । माया के प्रभाव से दबे हुए जो लोग इसमें डूबते हैं, उनका तमाशा ये भक्त-जन किनारे पर से देख कर अपना जी बहलाते हैं । २ ख० पु० त्वत्प्रातिपक्ष्येण - इति पाठः । ३ घ० पु० यदि —— इति पाठः । ४ ग० घ० पु० कालाकलित - इति पाठः । २३४ रुदन्तः वा = चाहे रोते हों हसन्तः वा = अथवा हँसते हों ( अर्थात् दुःखी हों या सुखी हों, सभी अवस्था में ) त्वाम् = आपको उच्चैः = जोर से प्रलपन्ति : = पुकार कर प्रलाप करते हैं, (अर्थात् आपके स्वरूप का परामर्श करते हैं ) । - अमी इति – समावेशशालिनो इति — सर्वावस्थावर्तिनोऽपि त्वामुच्चै:- उत्कृष्टतया श्रीशिवस्तोत्रावली ( भगवन् = हे स्वामी ! ) - - विमृशन्ति । अमी एव सत्यतो भक्ताः | स्तुतिपदोच्चार एव उपचार:- सेवाप्रकारः – उपरञ्जन प्रकारो येषां ते पृथगेव- जेनेभ्यो बाह्या एवेत्यर्थः ॥ ३ ॥ ( अहं = मैं ) - न विरक्तो न चापीशो मोक्षाकाङ्क्षी त्वदर्चकः । भवेयमपि तूद्रिक्तभक्त्यासवरसोन्मंदः ॥ ४ ॥ स्तुति - पद - उच्चार - = ( आपकी स्तुति के गीत गा गाकर = उपचारा: = (पी) सेवा करने वाले ते = ऐसे ( भक्त-जन ) - पृथक् एव = ( लोगों से ) भिन्न ही ( अर्थात् निराले ही ) ( भवन्ति = होते हैं ) ॥ ३ ॥ - न अपि = और न ही S = मोक्ष- मुक्ति आकांक्षी = चाहनेवाला - भक्ताः । रुदन्तो वा हसन्तो वा प्रलपन्ति - स्फुटं - न = न तो भवेयम् = बनूँ, - = = विरक्तः, = ( निवृत्ति-मार्ग में लगा अपितु = बल्कि ( मैं ) हुआ ) विरक्त, उद्भिक्त- = अगाध न च = नही भक्ति- = भक्ति रूपिणी ईशः = ( प्रवृत्ति-मार्ग में लगा हुआ ) आसव- = मदिरा के ऐश्वर्य-शाली त्वदू- = आपका अर्चक: = पूजक - रस = रस से (अर्थात् समावेश के चमत्कार से ) उन्मदः = मतवाला ही ( भवेयम् = बना रहूँ ) ॥ ४ ॥ - १ ख० पु० सर्वावस्थावर्तिनः इति पाठः । २ ख० पु० भक्ताः, जनेभ्यो बाह्या एवेत्यर्थः - इति पाठः । - ग० घ० पु० भक्तजनेभ्यो बा - इति च पाठः । भक्तिस्तोत्रनाम पञ्चदर्श स्तोत्रम् २३५ - विरक्त:- निवृत्तिधर्मा, ईशो बा - विभूतियुक्तः, प्रवृत्तिधर्मा, निज- निजेनौचित्येन त्वदर्चको मोक्षमाकाङ्क्षन् । न तु जीवन्मुक्तः न भवेयं - मा भूवमित्यर्थः । अपि तु उद्रिकेन- ऊर्जितेन भक्त्यासवरसेन - समा वेशचमत्कृतिप्रकर्षेण उन्मदः - उद्भूतानन्दो भवेयम् ।। ४ ।। बाह्यं हृदय एवान्तरभिहृत्यैव योऽर्चति । त्वामीश भक्तिपीयूषरसपूरैर्नमामि ईश = हे प्रभु ! यः = जो ( आपका भक्त ) बाह्यं = बाहरी जगत ( अर्थात् बाहरी वस्तुओं) को हृदये अन्तर् = (अपने ) हृदय में - एव = ही - अभिहृत्य = प्रत्याहृत करके भक्ति- = ( स्वरूप-समावेशात्मिका ) भक्ति रूपी धर्माधर्मात्मनोरन्तः सुखदुःखात्मनोर्भक्ताः ( जगत्पितः = हे जगदीश ! ) अहो = ओह ! भक्ताः = ( आपके ) भक्त - पीयूष-रस- = अमृत रस की पूरैः = धाराओं से त्वाम् = आप (चिद्रूप प्रभु ) की - एव = ही अर्चति तम् ॥ ५॥ तम्: = उस = पूजा करता है, हृदय एव-प्रकाशपरामर्शात्मनि स्वरूप एव अन्तर्-मध्ये, बाह्यं - विश्वम् अभिहृत्य - समन्तात् स्वीकृत्यैव; न तु किञ्चिदवशेष्य | हे ईश–स्वामिन् ! यस्त्वां, भक्तिरेव परमाह्लादविका सहेतुत्वात्पीयूँषरसा- सारास्तैः, अर्चति, तं भक्तिशालिनं नमामीति पूर्ववत् ॥ ५ ॥ ( भक्ति-शालिनम् ) = भक्ति-शाली को नमामि = मैं नमस्कार करता हूँ ॥५॥ क्रिययोर्ज्ञानयोस्तथा । किमप्यास्वादयन्स्यहो ॥ ६ ॥ १ ख० पु० अप्रवृत्तिधर्मा - इति पाठः । २ ग० पु० विभूतियुक्तः सन् – इति पाठः । ३ ख० ग० पु० पीयूषपूराः - इति पाठः । - धर्म-अधर्मात्मनोः = धर्म-अधर्म, क्रिययोः = शुभ-अशुभ कार्यों, ज्ञानयो:: = ज्ञान-अज्ञान २३६ श्री शिवस्तोत्रावली तथा = तथा सुख दुःखात्मनोः = सुख-दुःख ( आदि द्वन्द्वों ) के अन्तः = बीच में (स्थिताः अपि = रहते हुए भी ) - किमपि = अलौकिक ( परमानन्द की = अर्थात् जगत के पिता ! स्वामिन् = हे स्वामी ! वस्था) का आस्वादयन्ति : = लोके शुभाशुभरूपतया प्रसिद्धत्वेन धर्माधर्मत्वं, न तु भक्तिमद्भि- स्तथानुष्ठीयमानत्वात् | अन्तरिति - तन्मध्ये स्थिता अपि, किमपीति- असामान्यपरमानन्दात्मकं रूपम् ॥ ६ ॥ चराचर-पितः = हे स्थावर जंगम-मय = अनुभव करते हैं ॥ ६॥ चराचरपितः स्वामिन् अप्यन्धा अपि कुष्ठिनः । शोभन्ते परमुद्दामभवद्भक्तिविभूषणाः ॥ ७ ॥ भी ) उद्दाम-भवत्-भक्ति- भक्ति से विभूषणा: = सुसज्जित - = आपकी ill अन्धाः = अन्धे अपि = भी कुष्ठिनः अपि = ( तथा ) कोढी भी ( सन्तः = होकर ) परम् = अत्यन्त शोभन्ते शोभायमान बन जाते हैं ॥ ७ ॥ (नन्दित लोग अप्यन्धा अपि कुष्ठिन इति लोके अत्यन्तं गर्हिता अपि, इत्यर्थः ॥ शिलोञ्छपिच्छकशिपुविच्छायाङ्गा अपि प्रभो । भवद्भक्तिमहोष्माणो राजराजमपीशते ॥ ८ ॥ प्रभो = हे प्रभु ! ८

  • शिलोञ्छ-=शिलोञ्छ ( अर्थात् फसल

के कट जाने पर बचे-खुचे अनाज के दानों ) १ ग० पु० मध्ये स्थिता अपि - इति पाठः । २ घ० पु० परमानन्दकरूपम् - इति पाठः ।

  • शिल-उञ्छ= फसल कट जाने पर खेत में गिरे पड़े अनाज के दाने

चुन कर जीवन का निर्वाह करने की वृत्ति । अत्यन्त दरिद्रता.. अथवा तापसिक वृत्ति । = पिच्छ- = ( तथा ) पक्षियों के परों रूपी कशिपु - = भोजन और वस्त्रों से विच्छाय- = पीले पड़ जाते हैं अङ्काः = अंग जिनके, - भक्तिस्तोत्रनाम पञ्चदशं स्तोत्रम् महा = बड़ी दुर्बल होते हैं शरीर जिनके), ऐसे लोग ) अपि = भी - भवत्- भक्ति- = भक्ति (रूपिणी धन-संपत्ति) की | = आपकी विभो = हे व्यापक परमात्मा ! = आप में ऊष्माणः = गर्मी से सम्पन्न ( सन्तः = होकर ) राजराजम् = ( देवताओं के कोषा- ध्यक्ष ) कुबेर पर - शिलोन्छम् - उन्छितं शिलं, पिच्छे - पक्षः, कशिपुः - भोज॑ना- च्छादने शिलोञ्छपिच्छे एव कशिपुस्तेन विच्छायानि अङ्गानि येषां ते, एवमतिकृशवृत्तयोऽपि यतो भवद्भक्तथा महोष्माणः - अतिदीप्तोर्जितस्व रूपास्ततो राजराजं - वैश्रवणमपि, ईशते- ऐश्वर्येणाभिभवन्तीत्यर्थः ॥८॥ - त्वाम् = अभितः = पूर्ण रूप में ( अर्थात् भोतर से तथा बाहर से ) अपि = भी ईशते * = शासन करते हैं (अर्थात् ऐश्वर्य में कुबेर को भी मात करते हैं ) ॥ ८ ॥ सुधार्द्रायां भवद्भक्तौ लुठताप्यारुरुक्षुणा | चेतसैव विभोर्चन्ति केचित्त्वामभितः स्थिताः ॥ ९ ॥ - २३७ स्थिताः = लीन होनेवाले - केचित् = कुछ ( योगी-जन ) सुधा = ( परमानन्दरूपी ) ( के रस ) से पिच्छ = ( १ ) पशु की पूंछ, ( २ ) पक्षी का पर । कशिपु = भोजन तथा वस्त्र | - २ घ० पु० भवद्भक्त्याम् – इति पाठः । - अमृत विच्छाय = कान्ति-होन, निस्तेज, पीला पड़ा हुआ । -

  • भावार्थ – हे स्वामी ! जिन लोगों को खाने पीने तथा ढकने के

लिए कुछ नहीं मिलता अर्थात् जो अत्यन्त दरिद्र होते हैं, वे आप की भक्ति रूपी धन को पा कर इतने ऐश्वर्य-शाली हो जाते हैं कि वे कुबेर के नौ निधियों अर्थात् खजानों को भी कुछ नहीं समझते। १ ख० ग० पु० भोजने आच्छादने - इति पाठः । २३८ आर्द्रायां = गीली अर्थात् सींची हुई = श्रीशिवस्तोत्रावली • आपकी भवत्- भक्तौ = ( समावेश रूपिणी ) भक्ति में - - लुठता = लुढ़कते हुए अपि = भी आरुरुक्षुणा = ( स्वात्म-योग में ) ँ आरूढ बनने की इच्छा वाले चेतसा एव = (! अपने ) मन से ही ( त्वाम् = आपकी ) अर्चन्ति = पूजा करते हैं ॥ ९ ॥ सुधा - परमानन्दरस: आर्द्रा - सिक्ता, भक्तिः – समावेशः तत्र, - - लुठता - सम्यक् तत्पंदानाक्रमणात् स्थितिं जहता अपि, आरुरुक्षुणा- अकृत कावष्टम्भं जिघृक्षुणा, चेतसैव-न तु बाह्येन कुसुमादिना, केचि दिति - परमयोगिनः, त्वाम् अभितः स्थिताः - अन्तर्बहिच सर्वत्र त्वय्येव विश्रान्ताः ॥ ६॥ रक्षणीयं वर्धनीयं बहुमान्यमिदं प्रभो । संसारदुर्गतिहरं भवद्भक्तिमहाधनम् ॥ १० ॥ - प्रभो = हे प्रभु ! भवत्-भक्ति- = आपकी ( समावेशा- त्मिका ) भक्ति का - ( अतः = अतः ) इदम् = यह रक्षणीयम् = सुरक्षित रखने योग्य, वर्धनीयम् = बढ़ाने योग्य महाधनम् = बड़ा धन संसार- = संसार में होनेवाली ( च = और ) ! - दुर्गति - = (भेद-प्रथात्मक) दुर्दशा को बहुमान्यम् = ( सर्वश्रेष्ठ होने के हरम् = नष्ट करने वाला ( अस्ति = है, ) कारण ) अत्यन्त आदरणीय ( अस्ति = है ) ॥ १० ॥ रक्षणं - व्युत्थानेनानपहारः । वर्धनं- क्रमाक्रममन्तैरन्तरनुप्रवेशेन स्फीतँतापादनम् | बहुमान:- सर्वोत्कृष्टतया आदर ः ॥ १० ॥ १ ख० पु० तत्पादानाक्रमात् - इति पाठः, - घ० पु० तत्तत्त्वदानाक्रमात् —— इति च पाठः । २ घ० पु० अन्तरमनुप्रवेशे - इति पाठः । ३ ग० पु० स्फीततापादानम् - इति पाठः । भक्तिस्तोत्रनाम पञ्चदशं स्तोत्रम् २३९ नाथ ते भक्तजनता यद्यपि त्वयि रागिणी । तथापीर्ष्या विहायास्यास्तुष्टास्तु स्वामिनी सदा ॥११॥ - नाथ = हे स्वामी ! = आपकी ते रागिणी ( अस्ति = है ), तथापि = तो भी

  • भक्तजनता = भक्त-जनता ( रूपिणी विहाय = छोड़कर ( अर्थात् इस भक्त -

- स्त्री ) - यद्यपि = त्वयि = आपके प्रति यद्यपि जनता को आपसे मिलने का अवकाश देकर ) = अनुरक्त स्र्थात् पार्वती ईर्ष्याम् = ईर्ष्या तुष्टाः स्वामिनी = ( परा-शक्ति रूपिणी ) अस्तु * = रहे ॥ ११ ॥ - अस्याः = इस पर सदा = सदा प्राप्ते = प्राप्त होने पर भवत्- आपके साथ भक्तजनता रागिणी -नायिकेव | ईर्ष्या त्यागः - अवकाशदानम् | तुष्टा — विकसिता । स्वामिनी-~-पराशक्तिरिति प्रकृते । अप्रकृते तु स्वामिनी - महादेवी ॥ ११ ।। = = प्रसन्न भवद्भावः पुरो भावी प्राप्ते त्वद्भक्तिसम्भवे । लब्धे दुग्धमहाकुम्भे हता दधनि गृध्नुता ॥ १२ ॥ - भावः = एकात्मता (अर्थात् आपके स्वरूप का लाभ ) भक्ति- = (समावेश रूपिणी ) भक्ति का पुरः - भावी = अवश्य होता है; संभवे = संयोग ( प्रभो = हे भगवान् ! ) त्वद् - = आपकी - = ( यथा = जैसे ) दुग्ध- = दूध का महा- = बड़ा

  • शब्दार्थ - जनता = लोगों का समूह अर्थात् लोग। यह एक स्त्रीवाचक

शब्द है ।

  • भावार्थ – हे प्रभु ! मेरी यही लालसा है कि मुझ जैसे जो लोग आप

के अनन्य भक्त हैं, वे आपके शक्ति-पात रूपी अनुग्रह के पात्र बन जाएं। २४० कुम्भे = घड़ा लब्धे (सति) = प्राप्त होने पर धनि = दही की श्रीशिवस्तोत्रावली त्वंद्भक्ति सम्भवे – त्वत्समावेशे भवद्भावः पुरो भावी त्वद्रूपता समास- न्नैव; न तु प्रार्थनीया | यतो महति क्षोरघटे प्राप्ते नि या गृध्नुता - अभिलाषुकता सा हता - व्यर्थैव; दुग्वेनैव दग्नोर्गर्भीकारात् ।। १२ ।। - किमियं न सिद्धिरतुला किं वा मुख्यं न सौख्यमास्रवति ! भक्तिरुपचीयमाना येयं शम्भोः गृध्नुता = इच्छा हता = नहीं रहती ॥ १२ ॥ = शम्भोः = महादेवजी की इयम् = यह भक्तिः = ( समावेश रूपिणी ) भक्ति, या = जो उपचीयमाना (सती ) - बढ़ायी जाने पर ( अर्थात् चरमसीमा पर पहुँ- चायी जाने पर ) सदातनी: = सदा रहनेवाली भवति = बन जाती है, किम् = क्या इयम् = यह ( भक्ति ) सदातनी भवति ॥ १३ ॥ अतुला = अनुपम सिद्धिः = (स्वरूप-लाभात्मिका) सिद्धि न (अस्ति) = नहीं है ? (अर्थात् अवश्य है ), - वा = और किम् ( इयम् ) = क्या यह मुख्यं सौख्यम् = ( परमानन्दरूपी ) I सर्व-श्रेष्ठ सुख ( की धारा ) को न आस्रवति = पूर्णरूप में नहीं बहाती ? ( अर्थात् अवश्य ऐसा करती है ) ॥ १३ ॥ शम्भोर्भक्तिरुपचीयमाना- परां धारां प्राप्यमाणा येयं सदातनी भवति – पशभक्तिरूपतामासादयति । किं नेयमतुला सिद्धिः ? अपितु १ ख० पु० भक्तिसंभवे - इति पाठः । २ घ० पु० दध्नो गर्भीकारात्- इति पाठः । ३ ख० पु० चेयम् – इति पाठः । ४ ख० पु० पराशक्तिरूपताम् – इति पाड़ः । भक्तिस्तोत्रनाम पञ्चदशं स्तोत्रम् अतुलैव-परैव सिद्धिः' । मुख्यं सौख्यं परमानन्दं वा किं न आ- समन्तात् स्रवति ? स्रवत्येवेत्यर्थः ॥ १३ ॥ मनसि मलिने मदीये मग्ना त्वद्भक्तिमणिलता कष्टम् । न निजानपि तनुते तान् अपौरुषेयान्स्वसंम्पदुल्लासान् ॥ १४ ॥ ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) - कष्टं = ओह ! त्वद् - = आपकी मना ( सती) = डूब कर ( अर्थात् व्युत्थान से ढक कर ) निजान्नी (अर्थात् स्वाभाविक), - भक्ति- = ( समावेशात्मिका ) भक्ति तान् = उन ( अर्थात् स देखी गई ), अपौरुषेयान् = अलौकिक परमानन्द- रूपिणी मय स्व-सम्पद्- = मलिन ( अर्थात् व्युत्थान उल्लासान् = झलकों को - की मैल से युक्त ) अपि = भी = मन में न तनुते* = नहीं दिखाती ॥ १४ ॥ मणि-लतो = रत्न लता - मदीये = मेरे मलि मनसि " 1 २४१ = - अपनी संपत्ति की. मलिने–व्युत्थानकलङ्किते मना – व्युत्थानाच्छादिता त्वद्भक्तिरेव मणिलता - सर्वसिद्धिप्रसू रत्नशाखा, निजान - सहजान् तानिति - १ ग० पु० भक्तिः - इति पाठः । २ ख० पु० परानन्दम् - इति पाठः । ३ ख० पु० स्वसंविदुल्लेखान्– इति पाठः ।

  • भावार्थ – हे प्रभु ! आप की भक्ति एक रत्न-लता है । यह समावेश में

मुझे परमानन्द का अनुभव तो कराती है, पर व्युत्थान में उसकी झलक भी नहीं दिखाती । यह बड़े दुःख की बात है । क्या अच्छा होता यदि यह व्युत्थान में भी मुझे परमानन्द-मन करती ॥ १४ ॥ २४२ समावेशेन स्फुरितान् अलौकिकान्, सर्वाकांक्षापरिहारिपरमानन्दमयान् नं तु मिताणिमादिरूपान् । 'किमियं न सिद्धिरतुला' । स्तो० १५, श्लो० १३ । इतीदानीमेवोक्तत्वात् ॥ १४ ॥ भक्तिर्भगवति भवति श्रीशिवस्तोत्रावली नाथे = स्वामी, - भवति = आप त्रिलोकनाथे ननूत्तमा सिद्धिः । किन्त्वणिमादिकविरहात् ( भगवन् = हे प्रभु ! ) त्रिलोक = तीनों लोकों के 2...... सैव न पूर्णेति चिन्ता मे ॥ १५ ॥ ननु = निश्चित रूप से - भगवति = प्रभु - देव की S भक्तिः = ( समावेश रूपिणी ) भक्ति उत्तमा = एक उत्कृष्ट सिद्धिः = सिद्धि ( अस्ति = है, ) - किन्तु = किन्तु अणिमा- = (भेद-रूप ) अणिमा आदि आदि (आठ सिद्धियों ) के विरहात् = विना सा एव = वही ( अर्थात ऐसी भक्ति ) पूर्णा = परिपूर्ण - न ( अस्ति ) = नहीं है, इति = इसीलिए मे = मुझे चिन्ता = चिन्ता ( है ) ॥ १५ ॥ भगवति त्रिलोकस्य नाथे । नन्विति वितर्फे | उत्तमा सिद्धिर्निराशं- सत्वप्रथनात् । किन्तु इति विशेषे | अणिमादीनां - स्वरूपप्रतिपत्तिसारा- णां प्राक्प्रतिपादितानां विरहात् - अप्रथनात्, न पूर्णा - इति मे चिन्ता | अणिमादिविशिष्टां पूर्णा भक्तिसिद्धि प्राप्स्यामीत्यर्थः ।। १५ ।। बाह्यतोऽन्तरपि चोत्कटोन्मिष- त्र्यम्बकस्तवकसौरभाः १ ६० पु० न मिताणिमादिरूपान् इति पाठः । २ ग० पु० किमिव इति पाठः । शुभाः । भक्तिस्तोत्रनाम पञ्चदशं स्तोत्रम् विरुद्धवासनान् वासयन्त्यषि योगिनो शुभाः = सौभाग्यशाली - योगिनः = योगो-जन विरुद्ध = बुरी निकटवासिनोऽखिलान् ॥ बाह्यतः = बाहर से अन्तः अपि च = तथा भीतर से भी उत्कट उन्मिषत् त्र्यम्बक-स्तवक- - - सौरभाः = प्रफुल्लित ( अर्थात् अत्यन्त प्रसन्न ) महादेव जी की स्तुति रूपी खिले हुए फूलों के गुच्छे की बड़ी तेज़ सुगंधि है प्राप्त जिनको, ऐसे अखिलान् = सभी - २४३ = वासनान् = वासनाओं को दुर्गन्धि से युक्त १६ ॥ - ( जनान् = लोगों को ) भी अपि = निकट- = पास वासिनः = रहने वाले (अर्थात् अपने संपर्क में आने वाले ) = वासयन्ति * = सुवासित ( अर्थात् सुगंधित ) करते हैं ॥ १६ ॥ - उत्कटम् - अतिदीप्तम् | उन्मिषतः - उल्लसतः त्र्यम्बकस्तवकस्य - शिवकुसुमगुच्छस्य संबन्धि सौरभम् - आमोदो येषां योगिनां ते, शुभा:- बहिरन्तश्च पूजनेनाधिवासिताः, विरुद्धवासनान् अनाश्वस्वानपि

  • ( क ) शब्दार्थ – उत्कट = तीव्र, बहुत तेज |

उन्मिषत् = १, प्रफुल्लित, छत्यन्त प्रसन्न । १, विकसित, खिला हुआ । त्र्यम्बक = त्रिनेत्रधारी शंकर । - स्तवक = १, स्तुति, स्तोत्र | २, फूलों का गुच्छा । सौरभ = सुगंधि, चमत्कार | विरुद्धवासनान् = १, बुरी वासनाओं वाले, अर्थात् दुष्टों और नास्तिकों को । २, . दुर्गन्धि से युक्त | ( ख ) भावार्थ – हे शंकर ! जो योगी-जन आपकी समावेशात्मिका भक्ति की पारमार्थिक सुगंधि से भरे रहते हैं, वे उस सुगंधि का चुटकी भर अंश उन लोगों के चित्त में फूंक कर उन को भी अपने समान बनाते हैं, जो रजोगुण और तमोगुण से दबे रहते हैं । अर्थात आप के भक्त अपने सम्पर्क से दुष्टों और नास्तिकों को भी परमानन्द का पात्र बनाते हैं । यही की भक्ति का चमत्कार है । २४४ श्रीशिवस्तोत्रावली अखिलान् निकटवासिनो जनान् वासयन्ति – उभ्यपूजोन्मुखान् सम्पाद- यन्ति । बाह्ये त्र्यम्बकार्थं स्तवकः, अन्तस्तु त्र्यम्बक एव स्तवकः । एवं सौरभम् – आमोश्चमत्कारश्च । अथ च—उत्कटेन त्र्यम्बकस्तवस्य - धंत्तरकुसुमस्य सौरभेणा- धिवाँसिताः निकटस्थान् विभिन्नानामोदानपि वासयन्तीति अनुरणन- व्यङ्गयोऽर्थः ॥ १६ ॥ ज्योतिरस्ति कथयापि न किंचि द्विश्वमप्यतिसुषुप्तमशेषम् यत्र नाथ शिवरात्रिपदेऽस्मिन् नित्यमर्चयति भक्तजनस्त्वाम् ॥ १७ ॥ अशेषं = ( संपूर्ण भेद-प्रथा के होने के कारण ) सारा नाथ = हे प्रभु ! - यत्र = जिस ( रात ) में - ज्योतिः = ( बाहरी तया भीतरी इन्द्रियों द्वारा होने वाले ज्ञान रूपी ) प्रकाश की किंचित् = कोई - कथया अपि न = नहीं अस्ति = होती, (अर्थात् जिसमें ज्ञाता - और ज्ञेय का अन्तर बिल्कुल नहीं रहता ), = बात भी ( यत्र च = और जिस में ) विश्वम् = जगत -- अपि = भी - अर्थात् अति सुषुप्तम् = सुषुप्ति गहरी नींद में सोया रहता है, अस्मिन् = उसी शिवरात्रिपदे = कल्याण-कारिणो रात में (अर्थात् शिव-समावेश-भूमि में ) भक्त-जनः = भक्त जन नित्यं = सदैव त्वाम् = आप की अर्चयति = पूजा करते हैं ॥ १७ ॥ १ घे० पु० भवत्पूजोन्मुखांन्- इति पाठः । २ खं० पु० धातूरकस्य — इति पाठः । ३ ख० पु० अधिवासितान्— इति पाठः । ४ विभिन्नामोदान्— इति ग० पु० पाठः । ५ ग० पु० वाटान वासयन्ति - इति पाठः । 2003 ²0 भक्तिस्तोत्रनाम पञ्चदशं स्तोत्रम् २४५ ज्योतिः - बाह्यान्तःकरणजं ज्ञानं, यत्र नाम्ना किञ्चिन्नास्ति । समस्त- मायीयप्रथायाः संहरणाद्विश्वमपि सकलमतिसुषुप्तम् । अत्र शिवरात्रिपदे - शिवसमावेशभूमौ समस्ताख्यातिप्रथायाः संहरणाद्रात्रिरिव रात्रिस्तस्याः पदे – स्थाने ।। १७ ।। सत्त्वं सत्यगुणे शिवे भगवति स्फारीभवत्वर्चने चूडायां विलसन्तु शंङ्करपदप्रोचंद्रजःसञ्चयाः । रागादिस्मृतिवासनामपि समुच्छेत्तुं तमो जृम्भतां शम्भो मे भवतात्त्वदात्मविलये त्रैगुण्यवर्गोऽथवा ॥१८॥ शम्भो = हे महादेव ! सत्य-गुणे = सच्चे ( अर्थात् सर्वज्ञता - पारमार्थिक ) गुण हैं आदि जिसमें, ऐसे = भगवान् प्रकाश ) स्फारी-भवतु = विकास को प्राप्त करे । शङ्कर- = ( मेरे_प्रणाम करने पर ) शङ्कर के विलसन्तु: राग = राग, ( द्वेष ) आदि = आदि की = भगवति: शिवे = शिव की " - - अर्चने = ( मुझ से की गई ) पूजा में समुच्छेत्तुं = पूर्ण रूप में नष्ट करने सत्त्वं = सत्त्व-गुण (अर्थात् पारमार्थिक के लिए पद- चरणों पर से प्रोद्यत् - = उठी हुई रज:- = धूलि का सञ्चयाः = समूह रूपी रजोगुण ( मे = मेरी ) = यां = सिरं पर = चमक उठे । स्मृति = स्मृति संबन्धिनी - वासनाम् = वासना को अपि = भी - तमः = तमोगुण अथवा = और ( इसी प्रकार ) जृम्भताम् = विकसित हो जाय । -- मे = मेरे लिए = त्रैगुण्य - वर्गः = त्रि-गुण- वर्ग ( अर्थात् · त्रिगुणात्मक समस्त जगत ) त्वदात्म- आप के स्वरूप में : विलये भवतात् = लय को प्राप्त करे ( अर्थात् में लीन हो जाय) | - १ ख० पु० शम्भुचरण - इति पाठः । २ ख० पु० प्रोञ्च्छद्रजःसंचयाः- इति पाठः । ३ घ० पु० त्रैलोक्यवर्गोऽथवा - इति पाठः । श्रीं शिवस्तोत्रावली सत्याः – पारमार्थिकाः सर्वज्ञत्वादयो गुणा यस्य, तत्र शिवे भगवति यदर्चनं चिद्विश्रान्तिपरमार्थस्वरूपं, तत्र सस्वं– प्रकाशः स्फारीभवतु । चूडायां — मध्यशिखायां शिवशक्त्युदिता: रजःप्रसरा:- किरणनिकराः स्वस्वरूपोन्मीलकाः विलंसन्तु | तमश्च - अख्यात्यात्मा मोह : रागादि- स्मृतिहेतुं वासनामपि सम्यगुच्छेत्तमपुनर्भवाय जृम्भताम् । अथवा त्रैगुण्यवर्गस्त्वदात्मनि यो विलयः - निःशेषमुपशान्तिस्तत्र भवतात्- त्वय्येव विलीनो भूयादित्यर्थः ॥ १८ ॥ २४६ संसाराध्या सुदूरः खरतरविविधव्याधिदग्धाङ्गयष्टिः भोगा नैवोपभुक्ता यदपि सुखमभूज्जातु तन्नो चिराय । इत्थं व्यर्थोऽस्मि जातः शशिधरचरणाक्रान्तिकान्तोत्तमाङ्ग- स्त्वद्भक्तश्चेति तन्मे कुरु सपदि महासम्पदो दीर्घदीर्घाः ॥ (संसार-सारथे=हे संसार-सारथ !) भोगाः नैव उपभुक्ताः = ( पारमा- संसार- = जीवन यात्रा का र्थिक चिदानन्दमय ) भोगों का अध्वा = मार्ग ( तो मैंने ) किया नहीं सुदूरः = अत्यन्त दूर (अर्थात् अपार ) ( अस्ति = है, अर्थात् जन्म-मरण के चक्र का कोई अन्त नहीं ), ( च = और) स्वर-तर-विविध-च्याधि-दग्ध-अङ्ग- यष्टिः=अनेक प्रकार के अत्यन्त भयंकर रोगों ( तथा आपत्तियों) से इसके कोमल ( अर्थात् दुर्बल ) अंग अंलते रहते हैं । ( मे = और मुझे ) यत् अपि = जो कुछ भी सुखं = सुख - - जातु = कभी अभूत् = प्राप्त हुआ, तत् = वह नो चिराय = चिरस्थायी न रहा । इत्थम् = इस प्रकार - ( अहं = मैं, इस संसार में ) = १ ख० पुं० चिद्विश्रांतिपरमार्थम् – इति पाठः । २ ग० पु० विकसन्तु— इति पाठः । ३ ख० पु० दष्टांगयष्टिः इति पाठ: । ४ ख० पु० भोगानेवोपभुक्त्वा इति पाठः । भक्तिस्तोत्रनाम पञ्चदशं स्तोत्रम् व्यर्थः जातः अस्मि = व्यर्थ ही उत्पन्न हुआ हूँ, ( अर्थात मेरा जीवन निष्फल ही रहा है ) । शशि-धर- = चन्द्र-कला-घारी शंकरके चरण- = (अपने) चरणों के आक्रान्ति = ( इस पर ) रखने से - = कान्त-उत्तम-अङ्गः ( अहं ) = मेरा सिर अत्यन्त सुन्दर बन पड़ा है, (शंकरके शक्तिपात से मेरा स्वरूप अत्यन्त उज्ज्वल- संचित् - प्रधान हो गया है ), च = और ( फिर भी मैं ) त्वद्- = आपका ही भक्तः = भक्त - ( अस्मि = बना रहा हूँ । ) इति तद् = इसलिए, दीर्घ - दीर्घाः = सदा रहने वाली सर्वश्रेष्ठ - २४७ महा- = - संपद: = (अद्वयानन्द रूपिणी) संपत्ति मे = मुझे सपदि = तुरन्त - कुरु = प्रदान कीजिए ( और इस प्रकार मेरा बेड़ा पार लगाइए ) ॥ सुदूरः- कृच्छ्रप्राप्यपर्यन्तः | भोगा इति उत्तमा इह विवक्षिताः । जातु - कदाचित् | नो-निषेधे । अस्मीति- देहादिप्रमातृतारूप: । यतस्तु शशिधरचरणाकान्त्या - ईश्वरशक्तिपातेन कान्तं - दीप्रं संविधानम्, अत एवोत्तमाङ्गं स्वरूपं यस्य । त्वद्भक्तश्चेति — तथाभूतोऽपि त्वामेव 'सेवमानः | तस्मान्मे दीर्घदीर्घाः - शाश्वतीर्महासम्पदः -प्राग्ववयमयीः कुर्विति शिवम् ॥ १६ ॥ - - इतिश्रोमदुत्पलदेवाचार्यविरचितस्तोत्रावल्यां भक्तिस्तोत्रनानि पञ्चदशे स्तोत्रे श्रीक्षेमराजाचार्यविरचिता विवृतिः ॥ १५ ॥ तत् सत् अथ पाशानुद्भेदनाम षोडशं स्तोत्रम् न किञ्चिदेव लोकानां भवदावरणं प्रति । न किञ्चिदेव भक्तानां भवदावरणं प्रति ॥ १ ॥ = ( प्रभो = हे प्रभु ! ) लोकानां = संसारी जनों के लिए भवत्-आवरणं प्रति = स्वरूप ) को ढकने अर्थात् छुपा (चित्- रखने वाला किंचित् = क्या कुछ एव न (अस्ति) = भी नहीं ( है ) ? ( अर्थात् उनके लिए तो सारा संसार भेद - प्रथात्मक ही है ) । भक्तानां = ( इसके प्रत्युत आपके स्वरूप-समावेश-संपन्न ) भक्त-जनों के लिए भवत्-आवरणं प्रति = आपके = स्वरूप को छुपा रखने वाला - किञ्चित् = कुछ एव - भी न = नहीं - ( अस्ति = है ) ॥ १ ॥* भवदावरणं प्रति- चिन्मयत्वत्स्वरूपावरणाय लोकानां - संसारिणां न किश्चिदेव ? काका– अपितु विश्वमेवापर्यन्त समस्तशक्तिचक्रव्यामोहित- त्वात् । भक्तानां तु न किञ्चिदेव-नैव किचिदित्यर्थः, - शिवतत्त्वपर्यन्त स्याशेषस्य स्वाङ्गकल्पतया प्रमेयीकृतत्वात् ॥ १ ॥

  • भावार्थ – हे प्रभु ! संसारी जनों के लिए संसार की सभी चीजें तथा बातें

आपके स्वरूप को छुपाये रखने में ही योग देती हैं, किन्तु भक्त जनों के लिए वही सभी चीजें तथा बातें आप के स्वरूप को प्रकट करने में ही योग देती हैं । यही आपकी भक्ति का चमत्कार है । १ ख० ग० पु० अपितु सर्वमेव भेदेन विश्व मेवापर्यन्त समस्त शक्तिचक्रव्यवहि- तत्वादिति पाठः । पाशानुद्भेदनाम षोडशं स्तोत्रम् अप्युपायक्रमप्राप्यः सङ्कलोऽपि सङ्कलोsपि विशेषणैः । भक्तिभाजां भवानात्मा सकृच्छुद्धोऽवभासते ॥ २ ॥ संकुलः संकीर्ण अपि = भी - ( अस्ति = हैं ) उपाय- = ( शास्त्रों में कहे गए ) ( तथापि = तो भी ) - उपायों के क्रम- =क्रम से प्राप्यः = प्राप्त किए जाने वाले अपि = भी ( हैं ) - ( प्रभो = हे स्वामी ! ) भवान् = आप आत्मा = चिद्रूप ( च = और ) विशेषणै: = (सर्वज्ञ, सर्व-शक्तिमान् आदि) विशेषणों से ( भवान् = []) - भक्ति-भाजां = भक्त जनों को - सकृत् = ( समावेश में ) सदा शुद्धः = शुद्ध ( अर्थात् स्वाभाविक चिदानन्दघन ) रूप में अवभासते = भासमान ( २४९ उपायक्रमः – तत्तच्छास्त्रोक्तज्ञान क्रियायोगचर्यादिः । विशेषणैः- सर्व- ज्ञत्वसर्वकर्तृत्व सर्वशक्तिमयत्वादिभिरसंख्यैः । यथोक्तमपि 'सर्वसिद्धिवाचः क्षयेरन्' होते हैं देते हैं ) ॥ २ ॥ इत्यादि च । तथाभूतो भवानात्मा भक्तिभाजां सकृत् - सन्ततं शुद्धः - चिदेकपरमार्थः अवभासते - समावेशेन स्फुरति । यञ्च क्रमप्राप्यः सङ्कुलश्च स कथं सकृच्छुद्धश्च भातीति विरोधाभासः ॥ २ ॥ - ५ ख० पु० विभो — इति पाठः । -- जयन्तोऽपि हसन्त्येते जिता अपि हसन्ति च । भवद्भक्ति सुधापानमत्ताः केऽप्येव ये प्रभो ॥ ३ ॥ १ ख० पु० सर्वशक्तिमयादिभिः- इति पाठः । २ घ० पु० सर्गसिद्धिवाचः क्षयेरन् दीर्घकालमुद्गीर्णाः - इति पाठः । - ३ ग० पु० तथाभूतानां भक्तिभाजाम् इति पाठः ।.


४ ख० पु० विरोधच्छाया— इति पाठः ।. २५० प्रभो = हे प्रभु ! S ये = जो ( भक्त-जन ) - श्रीशिवस्तोत्रावली = मत्ताः = मतवाले (अर्थात् बने रहते हैं ) = भवत्- = आप की च = तथा भक्ति- =( समावेशात्मिका ) भक्ति जिताः अपि = जीते जाने पर भी रूपी ( अर्थात् व्युत्थान में उस आनन्द सुधा- = श्रमृत को पान- = पी कर से वंचित होने पर भी ) ) इसन्ति = हंसते हैं (प्रफुल्लित या प्रसन्नचित्त होते हैं ) ( भवन्ति ( ते = वे ) = भी जयन्तः अपि = जीतने पर ( अर्थात् समावेश का आनन्द उठाने पर भी ) हसन्ति = हंसते हैं । एते = ऐसे भक्त तो = केsपि = अलौकिक - एव = ही ( अर्थात् विरले ही ) ( सन्ति ) = होते हैं ॥ ३ ॥* जयन्तः - इति, भेदाधस्पदीकरणेन समाविशन्तः, हसन्ति — विक सन्ति । जिता अपीति - व्युत्थानेनाकृष्यमाणा अपि समावेशसंस्कारा- द्वहिश्च विकसन्ति लौकिकजयपराजययोर्हसन्त्येव । मत्ताः- हृष्टाः । अथ च ये मत्ताः क्षीवास्ते जयपराजययोर्हासंवन्तो भवन्ति । केऽपीति - अलौकिकाः ॥ ३ ॥ शुष्ककं मैव सिद्धेय मैव च्येय वापि तु । स्वादिष्ठपरकाष्ठाप्तत्वद्भक्तिरसनिर्भरः ॥४॥

  • भावार्थ:- जिस प्रकार मदिरा-पान से मतवाले बने लोग सदा हँसते ही

रहते हैं, चाहे उनकी जीत हो या हार; उसी प्रकार जो भक्त-जन सदैव प्रफुल्लित रहते हैं, चाहे लौकिक व्यवहार में उनकी जीत हो या हार, वे विरले ही होते हैं । १ ग० पु० भेदानास्पदीकरणैन - इति पाठः । २ ख० पु० हृष्टा एव-इति पाठः । ३ ख० पु० हसन्तो भवन्ति — इति पाठः । ४ ख० पु० मुच्येऽथवापितु - इति पाठः २५१ ( परमात्मन् = हे परमेश्वर ! ) ( अहं = मैं ) - - शुष्कर्क = सूखे या नीरस रूप में (समावेशात्मिका भक्ति के रस के विना ) मा एव सिद्धेय भोग-सिद्धि को प्राप्त न करूँ वा = और करूँ (अर्थात् भक्ति के विना भोग और मोक्ष, दोनों मुझे नहीं भाते ), अपि तु = बल्कि ( मैं ) स्वादिष्ठ-परकाष्ठा-आप्त-त्वद्-भक्ति- रस- निर्भरः = पराकाष्ठा अर्थात् चरम सीमा को पहुँची हुई की ( समावेश रूपिणी ) भक्ति के अत्यन्त मधुर रस से भरा हुआ मा एव मुच्येय = मुक्ति को प्राप्त न ( भवेयम् = बना रहूँ ) ॥ ४ ॥ शुष्कमेव शुष्ककं क्रियाविशेषणम् | शुष्ककं– समावेशभक्तिरसरहितं कृत्वा | तादृशौ भोगमोक्षौ भेदवादिनां, स्वादिष्ठो- निरतिशय चमत्कारो धौराधिरूढ यस्त्वत्समावेशरसः तेन निर्भरं - पूर्ण कृत्वा । अत एव शुष्कतानिवृत्तिः ॥ ४ ॥ T पाशनुद्भेदनाम षोडशं स्तोत्रम् अयं ईशान = हे स्वतंत्र प्रभु ! अज्ञात - पूर्वः = जिस की पहले (कभी ) जानकारी नहीं थी, ऐसा यथैवाज्ञातपूर्वोऽयं भवद्भक्तिरसो मम । घटितस्तद्वदीशान स एव परिपुष्यतु ॥ ५॥ = यह भवत् = श्राप की भक्ति- = ( समावेश रूपिणी ) भक्ति का - यथा एव = जैसे ही (जिस तरह अनजान में ही ) मम = मुझे - घटितः =प्राप्त हुआ, तद्वत् एव = वैसे ही (अर्थात उसी तरह अनजान में ही ) स = वह रसः = रस परिपुष्यतु = बढ़ता ही जाय ॥ ५ ॥ - अज्ञातपूर्व इति – जन्मकोटिमध्येऽप्यविदितः । अयमिति- स्फुरद्रः । भक्तिरसः – समावेशप्रसरः | ईशान – स्वतन्त्र | तद्वदिति - झटित्यज्ञात- पूर्वः । यथैवेति — यं प्रकारं त्वमेव जानासीत्यर्थः ॥ ५ ॥ १ ग० पु० जगदानन्दाधिरूढश्चेति पाठः । २ ग० घ० पु० स्फुटरूप इति पाठः ३ ख० पु० शगित्यज्ञातपूर्व इति पाठ | २५२ सत्येन भगवन्नान्यः प्रार्थनाप्रसरोऽस्ति मे । केवलं स तथा कोऽपि भक्त्यावेशोऽस्तु मे सदा ॥ ६ ॥ भगवन् = हे भगवान् ! सत्येन = सचमुच मे = मेरी - श्रीशिवस्तोत्रावली - अन्यः = ( किसी ) दूसरी प्रार्थना - = प्रार्थना के लिए प्रसरः = [अवकाश ( अर्थात् गुंजाइश ) ही = नहीं. न = अस्ति = है ( अर्थात् मैं आपसे कोई = दूसरी प्रार्थना कर ही नहीं सकता ) । केवलं = केवल ( यही लालसा है कि ) = - स तथा = वह, अवर्णनीय और कोऽपि = अलौकिक ( जगत्-प्रभो = हे जगत के स्वामी ! ) ( अहं = मैं ) 1 भक्ति - = ( समावेश रूपिणी ) भक्ति का आवेशः आवेश भक्ति - = ( समावेश रूपिणी ) भक्ति से क्षीवः अपि = मस्त हो कर ही.. = - भवाय = ( इस ज्ञान प्रस्त) संसार के प्रति कुप्येयं = क्रोध करूँ, ( अर्थात् संसार को गंवारों का भवन समझें ), मे = मुझे - - अतिप्रणयपरिचयादियमुक्ति: । अन्य इति - भक्तिप्रार्थनातो व्यति रिक्तः । स तथा कोऽपीति - वाग्विकल्पातीतः । भक्त्यावेशः - समावेश वैवश्यम् ।। ६ ।। - - सदा = सदा अस्तु = प्राप्त होता रहे ॥ ६॥ भक्तिक्षीवोऽपि कुप्येयं भवायानुशयीय च । तथा हसेयं रुद्यां च रटेयं च शिवेत्यलम् ॥ ७ ॥ = और अनुशयीय = ( इस बात पर ) पश्चात्ताप करूँ ( कि मैं इतने समय तक मोह में पढ़ा रहा ), तथा = तथा इसेयं = श्रानन्द से हंसता रहूँ, ( अर्थात् सदा प्रफुल्लित रहूँ ) च = और १ ख० पु० परिचर्यात् - इति पाठः । २ ख० पु० समावेशकैवल्यम्—इति पाठः । रुद्यां = रोता रहूँ = और अलं = ज़ोर से - प्रभो = हे स्वामी ! = पाशानुवेदनाम षोडश स्तोत्रम् भवाय - - संसाराय, कुप्येयं - ग्राम्यत्वेन संसारमवलोकयेयमित्यर्थः । अनुशयीयेति - कथमियन्तं कालं व्यामूढ आसमिति पश्चात्तापमनु- भवेयम् | इसेयं–प्रमोदेन विकसेयम् । रुद्यां - आनन्दा श्रुप्लुतः स्याम् । रटेयमिति - शिवशिवेति शब्दमुखरः स्याम् । क्षीवँस्यैवमेव नानावृत्त्यु- दयो भवेति ॥ ७ ॥ विषमस्थोऽपि स्वस्थोऽपि रुदन्नपि हसन्नपि । गम्भीरोऽपि विचित्तोऽपि भवेयं भक्तितः प्रभो ॥ ८ ॥ ( भवत् - = आपकी ) भक्तितः = भक्ति ( के चमत्कार ) से - ( अहं = मैं ) विषमस्थः = ( सांसारिक ) विपत्तियों - में फँसे रहने पर अपि = भी शिव-इति = 'शिव' 'शिव' की - रटेयम् = रट लगाता रहूँ ॥ ७ ॥ २५३ ( भवेयं = बना रहूँ; ) रुदन् = ( संबन्धियों की मृत्यु आदि - की दशा में ) रोते हुए अपि = भी हसन् अपि = ( भीतर से चिद्विकास के लाभ के कारण ) हंसता ही ( अर्थात् प्रसन्न ही ) ( भवेयं = रहूँ ) ( तथा = : और) = स्वस्थः = ( चिदानन्द में मग्न होने के गंभीरः अपि = ( लौकिक व्यवहार कारण ) शान्त में ) गंभीर होते हुए भी अपि = ही विचित्तः = ( प्रकट रूप में ) विमूढ सा अपि = ही - भवेयम् = बना रहूँ ॥ ८ ॥* १ घ० पु० क्षीवस्यैव मे - इति पाठः । - २ घ० पु० भवतु — इति पाठः ।

  • दूसरे प्रकार से अर्थ - हे स्वामी ! आपकी भक्ति की महिमा से मैं सुखी

होते हुए भी संकट में पड़ा हुआ सा ही बना रहूँ, अर्थात् सांसारिक सुख को दुःख ही समझैँ — लौकिक दृष्टि से सुख भोगने परभ अपने को सूइयों की नोकों की सेज पर पड़ा हुआ ही समझें, हँसते हुए भी अर्थात् प्रसन्न होते हुए भी रोता ही रहूँ, अर्थात् लौकिक दृष्टि से हर्ष के कारण हँसते श्री शिवस्तोत्रावली विषमस्थोऽपि - दौर्ग त्योपहतोऽपि, भक्तित: स्वानन्दविश्रान्तः; विषमस्थः—सूचीपुञ्जोपविष्ट इव लौकिकं सुखं दुःखरूपेण पश्यन् । तथा बान्धवमरणाद्यवस्थायां रुदन्नपि अन्तश्चिद्विकासलाभात् प्रहृष्यन् ; • तथा सांसारिकप्रमोदेषु तथा हसन्नपि रुदन - शोचनीयतां मन्यमानः । तथा लौकिकव्यवहारे गंभीरोऽपि - परैरना लक्ष्योऽपि विचित्तः - तां दशामुत्पातमिव मन्वानस्तथा विचित्तोऽपि - वचन सन्निपाताद्यवसरे नष्टस्मृतिरपि गम्भीरः- परैरनालोचितोऽप्यन्तर्दशाव्याप्तिप्रमोदनिर्भरः स्याम् ॥ ८ ॥ - - २५४ भक्तानां नास्ति संवेद्यं त्वंदन्तर्यदि वा बहिः । चिर्मा यत्र न भवान्निर्विकल्पः स्थितः स्वयम् ॥ ९ ॥ ( नाथ = हे प्रभु ! ) भक्तानां = भक्त जनों के लिए त्वद् = आप ( चिद्रूप ) के अन्तर् भीतर यदि वा = अथवा बहिः = बाहिर संवेद्यं - = अनुभव करने योग्य ( किंचिदपि = कोई भी ऐसी बात ) नास्ति = नहीं होती, - यत्र = जिसमें निर्विकल्पः = निर्विकल्प - ( च = तथा ) चित्-धर्मा = चित्स्वभाव चिलू-स्वरूप ) भवान् = प स्वयं = प्रत्यक्ष रूप में स्थितः = विद्यमात नहीं ( अस्ति = होते ) ॥ ९ ॥ - १ ख० पु० प्रहसन् इति पाठः । २० पु० मम्वानः - इति पाठः । ३ ख० पु० नष्टमतिरपि - इति पाठः | ४ खं० पु० तदन्तर् — इति पाठः १ : (अर्थात् हुए भी अपनी दशा और अपने हर्ष के विषय को शोचनीय समझकर हृदय से रोता रहूँ; कभी-कभी सन्निपात आदि रोगों में ग्रस्त होने के कारण विमूढ अर्थात् ज्ञानहीन या स्मृति-हीन होने पर भी गंभीर ही अर्थात् चिदानन्द स्वरूप में मन ही बना रहूँ ॥ ८ ॥ ५ घ० पु० स्थिति:-- इति पाठः । पाशानुद्भेदनाम षोड़शं स्तोत्रम् २५५ - संवेद्यं - संसारलीलादि । चिद्धर्मा-चित्स्वभावः । स्वयमिति - साक्षात्स्फुरन्, नौशाधिष्ठानेन ॥ ६ ॥ भक्ता निन्दानुकारेऽपि तवामृतकणैरिव । हृष्यन्त्येवान्तरा विद्धास्तीक्ष्णरोमाञ्चसूचिभिः ॥ १० ॥ कणैः = बूंदों से ( प्लाविताः सन्तः = प्लावित होकर ) = ( दुष्टसभायां = दुष्ट लोगों की हृष्यन्त्येव = प्रसन्न ही हो जाते हैं, सभा में ) ( किन्तु = किन्तु ) - हृदय में ) अन्तर् = भीतर से ( तीक्ष्ण = अत्यन्त तेज़ रोमांच - ( देवेश = हे देवाधिदेव ! ) भक्ताः = आपके भक्त जन तवः = आपकी निन्दा- = अप्रशंसा का अनुकारे = अनुकरण करने पर अपि = भी - सूचिभिः = सूइयों से इव = ( बाहर से अर्थात् लोगों की आविद्धाः = पूर्ण रूप में छिद्र जाते हैं ॥ १० ॥ दृष्टि में ) मानो = अमृत की अमृत- - तब निन्दानुकारेऽपि -- उपहतजन्तूपक्लृभामप्रशंसामनुकुन्तो भक्तो हृष्यन्त्येव – स्फुरत्तात्त्विकस्वरूपाः परमानन्दव्याप्तिं लभन्त एव । अत एव पाशनिर्भेदिनीभिस्तीक्ष्णाभी रोमांचसूचिभिः, आ – समन्ताद्विद्धाः ॥१०॥ - = लोम-हर्ष रूपिणी दुःखापि वेदना भक्तिमतां भोगाय कल्पते । येषां सुधार्द्रा सर्वैव संवित्त्वञ्चन्द्रिकामयी ॥ ११ ॥ = ( महादेव = हे परमेश्वर | ) वेदना = संचित्, दुःखा = दुःख-कारिणी होते हुए. अपि = भी, - १ ख० पु० नान्याधिष्ठान- इति पाठः । २ ख० पु० भक्त्या - इति पाठः । ३ ग० पु० प्रहृष्यन्त्येव — इति पाठः । - ( तेषां = उन ) भक्तिमतां = भक्त जनों को भोगाय = ( स्वात्मानन्द का ) अनु भव कराने में = २५६ ( एव = ही ) - कल्पते = योग देती है, - येषां = जिनकी - श्रीशिवस्तोत्रावली सर्वा एव = सारी की सारी संवित् = संवित् (अर्थात् चित्-शक्ति) - सुधा- = ( परमानन्द रूपी) अमृत से = - -- वेदना - संवित्, दुःखापि - दुःखकारिण्यपि, भोगायेति - दुःखस्य चमत्कार्यत्वाच्चमत्कर्तृतासारानन्दघनप्रमातृपदवित्तये | तत एवाह - सर्वैव संवित्-चितिशक्तिः येषां सुधार्द्रा परमानन्दघनत्वाञ्चन्द्रिकामयी पराशक्तिरूपा ॥ ११ ॥ ( प्रभो = हे स्वामी ! ) यत्र तत्र = जहाँ तहाँ ( अर्थात् सुख, यत्र तत्रोपरुद्धानां भक्तानां बहिरन्तरे । निर्व्याजं त्वंद्वपुःस्पर्शरसास्वादसुखं समम् ॥ १२ ॥ दुःख आदि सभी अवस्थाओं में ) उपरुद्धानां = पड़े हुए ( भवत् - = आपके ) भक्तानां = भक्तों के लिए त्वद् - = आप ( चिन्मय ) के आर्द्रा = लांवित ( च = तथा ) त्वत् - = आप की चन्द्रिका मयी = चंद्रिका पराशक्ति ) से सम्पन्न - ( भवति = होती है. ) ॥ ११ ॥ इति ॥ १२ ॥ (अर्थात् वपु:- = स्वरूप के स्पर्श- = स्पर्श की - ( चमत्कारमय ) रस-आस्वाद- = अनुभूति का सुखदुःखतद्वेत्वादिरूपे उपरुद्धानाम् ( तथा = तथा ) समं = एक जैसा होता है ( अर्थात् समाधि और व्युत्थान में कोई भेद नहीं रहता ) ॥ १२ ॥ – अवस्थितानां भक्तानां निर्व्या- जम्— अन्तर्विचित्रवासनाकालुण्यशून्यं त्वद्वपुषः - चिन्मयत्वत्स्वरूपस्य संबन्धि, यत्स्पर्शरसास्वादसुखं तत्समं - सर्वतुल्यम् । उक्तं च · समबुद्धिर्विशिष्यते ॥ भ० गी० [अ० ६, श्लो० ९ ॥ १ ख० ग० पु० तद्वपुः - इति पाठः । सुखं = सुख - - बहिः = बाहिर ( च = और ) अन्तरे = भीतर (अर्थात व्युत्थान और समाधि दोनों में ) निर्व्याज = शुद्ध (अर्थात् वासनाओं की मैल से रहित ) पाशानुद्भेदनाम षोडशं स्तोत्रम् तवेश भक्तरर्चायां दैन्यांशं द्वयसंश्रयम् । विलुप्यास्वादयन्त्येके ईश = हे प्रभु !. तव = आप की भक्ति अर्चायां = पूजा के संबन्ध में भक्तः = ( जो आपकी ) ( अर्थात् सेवा है, उसकी ) द्वय-संश्रयं = द्वैत पर आश्रित ( अर्थात् भेद-प्रथा के कारण होने वाली ) दैन्यांशम् = ज़रा सी दोनता को ( अपि = भी ) २५७ वपुरच्छं सुधामयम् ॥ १३ ॥ विलुप्य = = नष्ट कर के एके = कई (अद्वैत-भक्ति-शाली जन ) - ( तव = आपके ) अच्छे = निर्मल ( च = तथा ) सुधामयं = ( आनन्द - रस अमृत से भरे हुए वपुः = स्वरूप का आस्वादयन्ति = चमत्कार - रूपी ) अर्थात् साक्षात्कार करते हैं ॥ १३ ॥ तवार्चायां प्राग्व्याख्यातायां या भक्तिः - सेवा, तस्याः द्वयसंश्रयं - भेदंसंबद्धं दैन्यांशं—दीनतालेशमपि विलुप्य-वा, एके- केचिदेव. भेदविगलनाद् अच्छं – निर्मलं, अत एव सुधामयम् — आनन्दरससारं वपुः— स्वरूपम् आस्वादयन्ति - चमत्कुर्वन्ति । दैन्यांशम्-इत्यत्रायमाशयः द्वैतभक्तेरद्वैत भक्ते शिवप्राप्तिर्भवत्येव किन्त्वद्वैतभक्तिः सद्यः समावेशमयी द्वैत भक्तिस्त्वतथात्वाच्छिवताकाङ्क्षामयी ॥ १३ ॥ भ्रान्तास्तीर्थदृशो भिन्ना भ्रान्तेरेव हि भिन्नता । निष्प्रतिद्वन्द्वि वस्त्वेकं भक्तानां त्वं तु राजसे ॥१४॥

  • भावार्थ – हे प्रभु ! द्वैत- भक्त और अद्वैत-

भक्त - इन दोनों को तो आप की प्राप्ति होती ही है, किन्तु अद्वैत-भक्त को समावेश द्वारा तुरन्त आप के स्वरूप का साक्षात्कार प्राप्त होता है । द्वैत-भक्त तो ऐसा कर ही नहीं सकता, अतः उसे कुछ समय तक शिवता अर्थात् आप के साथ एकात्मता की लालसा ही बनी रहती है, अर्थात् उसे प्रतीक्षा करनी पड़ती है और इसी लिए वह दोन बना रहता है ॥ १३ ॥ १ ख० पु० भेदसंश्रयम् - इति पाठः । २ घ० पु० तद्वदेव – इति पाठः । २५८ ( गिरिजापते = हे पार्वती-नाथ ! ) - तीर्थदृशः = ( भिन्न भिन्न ) दर्शन- शास्त्रों के जानकार भ्रान्ताः = भ्रान्त हो जाते हैं भ्रम में पड़ते हैं ( अतः ते त्वत्तः = और इसीलिए वे आप से ) भिन्नाः = भिन्न अर्थात् दूर = ( भवन्ति = रहते हैं, ) हि = क्योंकि S श्रीशिवस्तोत्रावली त ( भवति = हो जाता है, ) - ( प्रभो = हे प्रभु ! ) यस्य = जिसका = मनः = मन मान- = आदर. अवमान = अनादर राग = तथा राग, आदि- = ( द्वेष ) आदि द्वन्द्वों के निष्पाक- = परिपक्क होने से ( अर्थात् समाप्त होने से ) विमलं = निर्मल का भिन्नता = भिन्नता ( वियोग ) भ्रान्तेः एव = भ्रान्ति से ही ( होती - ' . तीर्थदृश:- शास्त्रदृष्टयो यतो भ्रान्तास्ततो भिन्नाः, यस्माद्भिन्नता नाम भ्रान्ते:—ऐक्याख्यातेर्हेतुर्भवति न तु वस्तुतः | भक्तानां तु त्वमेकम् – अद्वितीयं वस्तुतत्त्वं निष्प्रतिद्वन्द्वित्वाच्चिद्धनं राजसे- दीप्यसे ।। १४ ॥ है ) भक्तानां तु = परन्तु भक्त जनों के - लिए तो त्वं = आप - = निष्प्रतिद्वन्द्वि = प्रतिद्वन्द्वी से रहित एकं वस्तु और अद्वितीय तत्त्व ( अर्थात् चिद्धन ) के रूप में राजसे= सदा देदीप्यमान् होते हैं ॥१४॥ मानावमानरागादिनिष्पाकविमलं मनः । यस्यासौ भक्तिमांल्लोकंतुल्यशीलः कथं भवेत् ॥ १५ ॥ असौ = वह भक्तिमान् = ( समावेश रूपिणी भक्ति से संपन्न ) भक्त लोक- = सामान्य लोगों के तुल्य- = समान शीलः = चरित्र वाला कथं = कैसे भवेत् = हो सकता है ? ( अर्थात् - उसका चरित्र लोगों से बढ़ चढ़ कर-अलौकिक होता है | ) ॥ १५॥ १ ख० पु० लोकस्तुल्यशीलः - इति पाठः । पाशानुद्भेदनाम षोडशं स्तोत्रम् २५९ यस्य भक्तिमतो मानावमानयोः रागादीनां च यो निष्पाकः - निःशेषेण पचनं दग्धबीजकल्पतापादनं, तेन हेतुना मनः – स्वान्तं विमलम् – अकलङ्कम् ।। १५ ।। रागद्वेषान्धकारोऽपि येषां भक्तित्विषा जितः । तेषां महीयसामग्रे कतमे ( नाथ = हे नाथ ! ) = येषां = जिन्होंने भक्ति = भक्ति के त्विषा = तेज से - राग- = राग- द्वेष- • द्वेष रूपी = अन्धकारः = अन्धकार को अपि = भी ( प्रभो = हे प्रभु ! ) - यस्य = जिसके लिए - भक्ति- = भक्ति रूपी सुधा = अमृत ही = जितः = जीत लिया हो ( अर्थात् नष्ट किया हो ), तेषां २ ग० पु० ३ ख० पु० ४ ख० पु० ज्ञानशालिनः ॥ १६ ॥ महीयसामिति — ईयसुनोऽयमाशयः ;- समव्याप्तिकत्वं ज्ञानिनां भक्तानां च | तत्र भक्तानां तु रागद्वेषान्धकारस्य जयाद्विशेषः ।। १६ ।। च - इति पाठः । - प्रारब्धि - इति पाठः । अन्तर् - इति पाठः । = उन महीयसाम् = महान् पुरुषों के = सामने अग्रे यस्य भक्तिसुधास्नानपानादिविधिसाधनम् । तस्य प्रारब्धमध्यान्तंदशासूचैः सुखासिका ॥ १७ ॥ ज्ञान शालिनः = ज्ञानी जन S कतमे = कौन हैं ( अर्थात् किस गिनती में हैं ? ) * ॥ १६ ॥ स्नान- = नहाने, = पीने पान- =

  • सारांश यह है कि भक्त ज्ञानी से बड़ा है ।

· १ क० पु० ईयसुन: प्रत्ययस्य – इति पाठः । - आदि- = आदि विधि- = ( सभी ) कार्यों के करने का २६० साधनं = = साधन होता है, ( अर्थात् जो अपने सभी कार्य भक्ति रूपी अमृत से ही करता है ), तस्य = उस ( के सभी कार्यों ) की प्रारब्ध = आदि, = मध्य- = मध्य त्वम् = ( केवल ) आाप - एव = = हो श्री शिवस्तोत्रावली , भक्तिरेव सुधा-अमृतं सा यस्य स्नानपानादिविधेः- शुद्धितृप्त्या- दिफलस्य व्यापारग्रामस्य साधनम् | तस्य प्रारंब्धमध्यान्तदशासु- आदौ, मध्ये अन्ते च अर्थात् सर्वव्यापाराणामुच्चैः सुखासिका - परमा नन्दविश्रान्तित्वम् ॥ १७ ॥ - कोर्त्यश्चिन्तापदं मृग्यः पूज्यो येन त्वमेव तत् । भवद्भक्तिमतां श्लाघ्या लोकयात्रा भवन्मयी ॥१८॥ (अर्थात् ध्यान या स्मरण ) का विषय 1 ( जगत्प्रभो = हे जगत के स्वामी ! ) चिन्ता पदम् = चिन्तन येन = चूंकि ( असि = होते हैं, ) - भवत्- = अपने भक्तिमतां = भक्तजनों के लिए - = कीर्त्यः = कीर्तन करने योग्य, मृग्यः = ढूंढ़ने योग्य, पूज्य: = पूजनीय ( च = और ) - अन्त = तथा अन्तिम दशासु = दशाओं में उच्चैः = ( परमानन्द रूपो ) सर्वोत्कृष्ट सुखासिका ( भवति ) = सुख होता है, ( अर्थात् उसका सारा जीवन परमानन्द में मग्न रहता है ) ॥१७॥ = येनेति हेतौ । तदिति – तस्मात् तद् = इसलिए = ( तेषां = उनकी ) लोक यात्रा = जीवन-यात्रा ( अर्थात् - - सारा सांसारिक व्यवहार) भवत्-मयी = आपके स्वरूप से अभिन्न - ( अतः = और इसीलिए ) लाध्या = प्रशंसनीय ( भवति = होती है ) ॥ १८ ॥ - लोकयात्रा च कीर्तनोदिमय्येव || , १ ख० पु० प्रारब्धि - इति पाठः । - २ ख० पु० कीर्तनादिमती एव - इति पाठः । ग० घ० पु० कीर्तनामय्येव–इति पाठः । maniere पाशानुद्भेदनाम षोडशं स्तोत्रम् मुक्तिसंज्ञा विपक्काया भक्तरेव त्वयि प्रभो । तस्यामाद्यदशारूढा मुक्तकल्पा वयं ततः ॥ १९ ॥ प्रभो = हे ईश्वर ! विपक्कायाः = परिपक्क पूर्णता ) को पहुँची हुई त्वयि = आपकी भक्तेः = भक्ति का एव = ही - (अर्थात् मुक्ति-संज्ञा ( अस्ति ) = नाम मुक्ति = है, ( अर्थात् उसे ही मुक्ति कहते हैं ) । २६१ वयं = हम तो तस्याम् = उस भक्ति की आद्य-दशा- = • पहली दशा (अर्थात् प्रथम भूमिका ) में आरूढाः = पहुँच गये हैं, ततः = इसलिए = - मुक्त-कल्पाः ( स्मः ) = मानो मुक्त ही हो गए हैं, ( अर्थात् हमें शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त होगा ) ॥ १९ ॥ - विपक्काया:- परिपूर्णायाः | आद्यदशारूढेति - उत्तरोत्तरप्रकर्षसाध- नायोक्ता अपि प्रथमभूमिकायां लंब्धस्थितयः । मुक्तकल्पा इति - मनाङ्मात्रेणासम्पूर्णमुक्तयो न तु मुक्ताः ॥ १६ ॥ - दुःखागमोऽपि भूयान्मे त्वद्भक्तिभरितात्मनः । त्वत्पराची विभो मा भूदपि सौख्यपरम्परा ॥ २० ॥ विभो = हे व्यापक भगवान् ! -- त्वद्-भक्ति-भरित - आत्मनः = यदि मेरीकी ( समा- वेशात्मिका ) भक्ति से भरपूर बनी त्वत्- आप ( के स्वरूप ) से पराची = विमुख ( अर्थात् भिन्न ) होने वालो सौख्य = सुखों की रहे, तो मे = मुझ पर = परम्परा = परम्परा ( अर्थात् लगा- तार लाभ ) दुःख-आगमः अपि भूयात् = दुःख अपि = भी पड़े। ( मे = मुझे ) भी ( किन्तु = किन्तु ) - मा भूत् = प्राप्त न हो ॥ २० ॥ १ ग० पु० परं परिपूर्णायाः- इति पाठः | २ ख० पु० तत्पराची - इति पाठः । २६२ त्वत्पराची - त्वत्पराङ्मुखी ॥ २० ॥ त्वं भक्त्या प्रीयसे भक्तिः प्रीते त्वयि च नाथ यत् । तदन्योन्याश्रयं युक्तं यथा वेत्थ त्वमेव तत् ॥ २१ ॥ अन्योन्याश्रयं = एक दूसरे के सहारे की बात (अन्योन्याश्रय दोष कथा ) = नाथ = हे प्रभु ! यत् = चूँकि त्वं '= आप प्रीयसे = प्रसन्न होते हैं, = यथा = भक्त्या = ( समावेश रूपिणी ) भक्ति से युक्तं = ठीक रूप में बनी रहती = ( भवति = है ), च = और - श्रीशिवस्तोत्रावली त्वयि = आपके - प्रीते ( सति ) = प्रसन्न होने पर ही भक्तिः = भक्ति ( भवति = होती है, ) - कैसे तत् = वह तो - त्वम् = आप एव = ही वेत्थ = जानते हैं, (अर्थात् ये दोनों बातें एक साथ ही केव कृपा से होतो हैं )* ॥ २१ ॥ = तद् = इसलिए ( एतत् = यह ) - यावन्न परमेश्वर: प्रीयते न तावद्भक्तिः, यावश्च न समावेशमयी भक्तिः न तावत्परमेश्वरः प्रीयते, भक्तिमतश्चिदानन्दमयं वपुः प्रकटयति । तदेतद्न्योन्याश्रयं यथा - येन प्रकारेण युक्तं भवति तथा त्वमेव अति- दुर्घटकारिणः स्वातन्त्र्यादुभयं घटयसि न त्वत्र पुरुषाणां युक्तयः प्रभवन्ति ।। २१ ।।

  • भावार्थ – हे प्रभु ! जब तक आप प्रसन्न नहीं होते, तब तक भक्ति नहीं

होती । और जब तक समावेश-मयी भक्ति नहीं होती, तब तक आप प्रसन्न नहीं होते, अर्थात् तब तक आप अपने भक्त को अपन चिदानन्द-मय स्वरूप नहीं दिखाते । एक दूसरी पर आश्रित होने वाली यह बात कैसे सिद्ध हो सकती है, यह तो आप ही जानते हैं। पी इन दोनों बातों को सिद्ध करते हैं, मनुष्य की शक्ति कुछ नहीं कर सकती ॥ २१॥ १ ख० पु० चिदानन्दघनम्—इतिः पाठः ।

२ घ० पु० पुरुषयुक्तयः -- इति पाठः । पाशानुद्भेदनाम षोडशं स्तोत्रम् साकारो वा निराकारो वान्तर्वा बहिरेव वा । भक्तिमत्तात्मनां नाथ सर्वथासि सुधामयः ||२२|| नाथ = हे स्वामी साकारः = साकार ( रूप में ) · वा = या निराकारः = निराकार ( रूप में ), वा अन्तर् = भीतर ( समाधि में ) वा बहिः एव वा = या बाहर (व्युत्थान में ), अर्थात् सभी दशाओं में ( त्वं = []) करने वाले ! ) अस्मिन्नेव = इसी जगति = ( दुःखमय ) जगत के अन्तर् = बीच में = आपके भक्ति- ( समावेश रूपिणी ) भक्ति से मत्त = मस्त आत्मनां भवत्- भक्तिमतः = भक्तों के - प्रति लिए, लिए सर्वथा = हर प्रकार से सुधा-मयः = अमृत-मय ही असि = होते हैं ॥ २२ ॥ = भक्त्या मत्तः– प्रहृष्ट आत्मा येषां तेषां सर्वत्र त्वं सुधामयः । ते हि सर्वमात्मत्वेन पश्यन्ति ।। २२ ॥ अस्मिन्नेव जगत्यन्तर्भवद्भक्तिमतः प्रति । हर्षप्रकाशनफलमन्यदेव ( भक्तवत्सल = हे भक्तों पर कृपा | हर्ष- = ( चिदानन्दरूपी ) हर्ष का प्रकाशन = प्रकटीकरण है - = हृदय वाले ( भक्तों ) के २६३ जगत्स्थितम् ॥ २३ ॥ एव = ही - फलम् = फल जिसका, ऐसा अन्यत् = ( प्रकाशानन्द-घनरूपी) एक दूसरा जगत् = जगत स्थितम् = होता है * ॥ २३ ॥

१ ख० ग० पु० साकारे - इति पाठः । २ ख० ग० पु० निराकारे - इति पाठः । ३ ख० पु० सर्वात्मत्वेन - इति पाठः । -

  • भावार्थ – हे प्रभु | यह संसार भयंकर दुःखों का घर है। आप के भक्त

इसमें रहते हुए भी इसमें नहीं रहते। वास्तव में वे आप प्रकाशानन्द- घन रूपी दूसरे ही जगत में रहते हैं, जो परमानन्द का घर है। वे श्रीशिवस्तोत्रावली सर्वजनतातिघोरे आपातमात्रे यद्यपि भक्तिमतां लोकवदेव जगद्भाति तथापि मृग्यमानमेतदेषां प्रकाशानन्दघनमेव ॥ २३ ॥ २६४ गुह्ये भक्तिः परे भक्तिर्भक्तिर्विश्वमहेश्वरे । त्वयि शंम्भौ शिवे देव भक्तिर्नाम किमप्यहो ॥२४॥ देव = हे ज्योतिः-स्वरूप प्रभु ! - अहो = अहो ! त्वयि = श्राप गुह्ये = 'गुह्य' की भक्तिः, = भक्ति, = परे = (आप) 'पर' की भक्तिः = भक्ति, विश्वमहेश्वरे = ( [श्राप ) विश्व - महेश्वर' की भक्तिः = भक्ति, शम्भौ: = २ ग० पु० शम्भो — इति पाठः । ३ ग० पु० देवे - इति पाठः । - र) कल्याण- स्वरूप शिवे = 'शिव' की भक्तिः = भक्ति नाम = निस्सन्देह किमपि = एक अलौकिक वस्तु ( अस्ति = है ) ॥ २४ ॥ गुह्ये - रहस्यरूपे, परे – पूर्णे, असाधारण नामोदरणं निरतिशयता- ख्यापनाय | किमपीति - असामान्यं वस्तु ॥ २४ ॥ भक्तिर्भक्तिः परे भक्तिर्भक्तिर्नाम समुत्कटा । तारं विरौमि यत्तीव्रा भक्तिर्मेऽस्तु परं त्वयि ॥२५॥ संसार की किसी चीज़ के साथ सम्बन्ध नहीं रखते, अतः वे इसके दुःखों से प्रभावित नहीं होते ॥ २३ ॥ १ घ० पु० सर्वजनातिघोरे तेन – इति पाठः ।

  • ( क ) नोट — शम्भु, गुह्य, पर, विश्वमहेश्वर, शिव – ये सब भगवान्

शंकर के नाम हैं । ( ख ) शब्दार्थ – शम्भु = कल्याणकारी । = गुह्य = रहस्यपूर्ण स्वरूप वाला । पर = सब से बड़ा अथवा परिपूर्ण । विश्वमहेश्वर = संसार के स्वामी, जगदीश | शिव = कल्याणकारी | भक्ति = समावेश रूपिणी । - - ( प्रभो = हे प्रभु ! ) – ( अहं = मैं ) - = कि पाशानुद्भेदनाम षोडशं स्तोत्रम् अस्तु = हो, परं = अत्यन्त - तारं = ज़ोर से (अर्थात् ऊँची आवाज़ में) तीव्रा = धारावाही (कभी विरौमि = चिल्ला-चिल्ला कर कहता हूँ = रुकने वाली ) भक्तिः = भक्ति ( अस्तु = हो, ) भक्तिः = भक्ति, = भक्ति, - भक्तिः यदि वा = अथवा यत् मे = मुझे त्वयि = आप परे = परिपूर्ण ( प्रभु ) के प्रति नाम = सचमुच समुत्कटा = अत्यन्त प्रबल भक्तिः = ( समावेश रूपिणी ) भक्ति = भक्तिः = ( केवल ) भक्ति हो ॥ २५ ॥ - वीप्सी समावेशवैवश्यं प्रथयति । परं तीव्रा - घोराधिरूढा | समु त्कटा ~~ अभ्यासाद्यनपेक्षं प्रदीप्ताग्निज्वाला वज्झटित्युल्ल सन्ती | युक्तं चैतत् ॥ यतोऽसि सर्वशोभानां प्रसवावनिरीश तत् । त्वयि लग्नमनघं स्याद्रत्नं वा यदि वा तृणम् ॥ २६॥ ( क ) शब्दार्थ- ( ख ) भावार्थ - ईश = हे स्वतन्त्र ईश्वर ! ईश = हे स्वतन्त्र ईश्वर ! - - यतः = चूँकि ( त्वं = []) सर्व = सारी शोभानां = शोभाओं की ww शोभानां = चित्-प्रकाश की - = प्रसव अवनिः = जन्मभूमि (अर्थात् प्रसव अवनिः = जन्म भूमि (अर्थात् उत्पत्ति का स्थान ) उत्पत्ति का स्थान ) असि = हैं, असि = हैं, ✔ तद् = इसलिये - रत्नं वा = (प्रत्येक पदार्थ, चाहे वह ) रत्नं वा = ( चाहे रत्न ( जैसा उत्कृष्ट ) हो तद् = इसलिये ( आपका प्रत्येक भक्त ), वह ) जाति से रत्न के समान उत्कृष्ट (अर्थात् उत्तम चरित्र वाला ) हो २६५ यतः = चूँकि ( त्वं = []) सर्व - = सम्पूर्ण यदि वा = अथवा १ क० पु० वीप्सायामावेशवैवश्यं - इति पाठः । २ ग० पु० धारारूढा - इति पाठः । २६६ ( ख ) भावार्थ - 2 तृणं = तिनके के समान निकृष्ट (अर्थात् नीच, तुच्छ चरित्र वाला ) हो, त्वयि = आप चित्स्वरूप के साथ त्वयि = आपके साथ - लग्नं = लगने पर ( अर्थात् स्पर्श लग्नं = लगने पर ( अर्थात् समावेश पाने पर ) का सम्बन्ध प्राप्त करने पर ) तृणं ( क ) शब्दार्थ - • तिनका ( जैसा निकृष्ट ) हो, = अनर्ध श्रीशिवस्तोत्रावली = अमूल्य - = बन जाता है ॥ २६ ॥ स्यात् = असि त्वं यतः सर्वासां शोभानां दीप्तीनां च प्रसवभू: अतो लोका पेक्षया यद्रनमस्ति - जात्युंत्कृष्टं तृणं वेति-अनुपादेयं वा तत्त्वयि चेल्लग्नं – समावेशेन सम्बद्धं तदनर्धमेव भवति ।। २६ ।। आवेदकांदा च वेद्याद्येषां संवेदनाध्वनि । भवता न वियोगोऽस्ति ते जयन्ति भवज्जुषः ॥ २७ ॥ - ( ईशान = हे स्वामी ! ) संवेदन- = अध्वनि = मार्ग में = आ वेदकात् = ज्ञाता ( की अवस्था ) से लेकर आ च वेद्यात् = ज्ञेय ( क ) तक ( अर्थात् इस सारी यात्रा में) 7 येषां = जिनको भवता = अनर्ध: = मूल्य (अर्थात् लौकिक ) स्यात् = बन जाता है ॥ २६ ॥ (ज्ञान) के - ✓ वियोगः = ( कभी ) वियोग न= नहीं - अस्ति = होता (अर्थात् जो कभी आप से भिन्न नहीं रहते ), ते = = उन भवत्- = = आपके जुषः = प्रेमी सेवक (भक्तों की जयन्ति = जय हो ॥ २७ ॥ ( आनन्द स्वरूप ) से संवेदनाध्वनि – संबिन्मार्गे, वेद्यवेदकक्षोभेऽपि येषां त्वया वियोगः, ते भवन्तं प्रीत्या सेवमाना जयन्ति ।। २७ ।। संसारसदसो बाह्ये कैश्चित्वं परिरभ्यसे । १ ख० पु० दीप्तानाम् - इति पाठः । २ घ० पु० यद्रत्नमिति इति पाठः । ३ क० पु० जात्युत्कर्षणम् - इति पाठः । पाशानुद्भेदनाम षोडशं स्तोत्रम् २६७ स्वामिन्परैस्तु तत्रैव ताम्यद्भिस्त्यक्तयन्त्रणैः ॥ २८ ॥ = परैः = दूसरे ( अर्थात् उन्मीलन- समाधि-निष्ठ योगी ) i स्वामिन् = हे भगवान् ! कैः - चित् = कई ( अर्थात् *निमीलन- समाधिनिष्ठ योगी ) संसार- संसार रूपी सदसः = सभा के बाह्ये = बाहर ( अर्थात् जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं को छोड़कर तुरीय अवस्था में आँखें बन्द करके ) त्वं = आपका परिरभ्यसे = आलिङ्गन करते हैं, तु = किन्तु - = ताम्यद्भिः = (आपके गाढ़ अनुराग से ) विवश होकर त्यक्त-यन्त्रणैः = और (ध्यान आदि सभी नियमों के) कष्ट को छोड़कर तत्र एव = वहीं ( अर्थात् संसार रूपी सभा के बीच में ) ही ( प्रकट रूप में संसार के व्यवहार में लगे हुये और बिना आँखें बन्द किये आप में लय होते हैं ) ॥ २८ ॥ - संसारसदसो बाह्ये—संसारसभामुल्लंघ्य नियत एव पढ़े | कैश्चि- दिति - द्वादशान्तादिपदस्थैः निमीलनसमाधिपरैर्योगिभिः परिरभ्यसे- समालिङ्गयसे | परैः– अनुभवतो युक्तितत्वज्ञतयोन्मीलनसमाधानवि- दग्धैः, पुनस्तत्रैव – संसारसभामध्ये एव । त्यक्तयन्त्रणैः- परिहृतध्यानो- च्चारकरणाद्यायासैः । ताम्यद्भिः - गाढानुराग विवशैः; गाढानुरागिणां ही दृश्येव स्थितिः ॥ २८ ॥ - पानाशनप्रसाधन- सम्भुक्तसमस्तविश्वया शिवया | प्रलयोत्सवसरभसया दृढमुपगूढं शिवं वन्दे ॥ २९ ॥

  • निमीलन-समाधि = वह समाधि,

जिस में योगी आँखें बन्द करके सभी इन्द्रियों को अन्तर्मुख करके सुख का अनुभव करता है । + जिसमें आँखें बन्द करने की ज़रूरत उन्मीलन- समाधि = वह समाधि, - नहीं पड़ती। २६८ ( क ) शब्दार्थ - पान- = • पीने ( अर्थात् संसार की स्थिति करने ), अशन- = खाने (अर्थात् संहार करने ) प्रसाधन- = तथा सजाने (अर्थात् सृष्टि करने ) से सम्भुक्त- समस्त विश्वया = सारे जगत का पालन और भोग करने वाली ( एवं =और ) प्रलय = प्रलय के उत्सव = उत्सव से श्रीशिवस्तोत्रावली शिवया = ( परा - पार्वती से सरभसया = विकसित बनी हुई - दृढम् = ज़ोर से - उपगूढं = आलिंगित शिवं = चिद्भैरवनाथ को - ( ख ) भावार्थ - पान- = ( रक्त आदि के ) पीने, अशन- = ( मांस आदि के ) खाने प्रसाधन = तथा ( हड्डियों आदि) सजाने ( भूषण के काम में लाने ) से - सम्भुक्त- समस्त विश्वया ( छत्तीस तत्त्वों से युक्त ) सारे जगत को भोगने तथा अपने में लय करने वाली प्रलय-उत्सव = प्रलय के उत्सव पर ( संहारकर्त्री की पदवी पर बैठकर सारे जगत को अपने में करने की क्रीडा में ) सरभसया = उत्सुकता से लगी हुई शक्ति रूपिणी ) शिवया = ( पराशक्ति रूपिणी) - पार्वती से ( एवं = और ) - - दृढम् = ज़ोर से उपगूढं = आलिंगित शिवं = शिव को वन्दे = मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २९ ॥ वन्दे = मैं प्रणाम करता हूँ ( अर्थात् - उसमें समावेश करता हूँ ) ॥ २९ ॥ शिवया दृढमुपगूढं-परशक्त्या - दृढमालिष्टं शिवं - चिद्भैरवं, वन्दे - नौमि समाविशामीति यावत् । कीदृश्या ? पानाशनप्रसाधन- सम्भुक्तसमस्त विश्वया - पानेन - रक्षणेन स्थित्या, अशनेन-केवलीक - १ ग० पु० स्तौमि - इति पाठः । २ ख० पु० कंवलीकारात्मना – इति पाठः । पाशानुद्भेदनाम षोडशं स्तोत्रम् २६९ - रणात्मना संहारेण, प्रसाधनेन – प्रकर्षेण सिद्धिसंपादिना सर्गेण च, सम्यक् भुक्तं—पालितमभ्यवहृतं च, तथा समस्तं सम्यक् क्षिप्तं विश्वं यया तुर्यरूपया श्रेयः स्वभावया शिवया । अत एव प्रलयोत्सवेन - सृष्टि- स्थितिसंहारिणामपि - संहरणात्मनाभ्युदयेन सरभसया - सातिशयं स्फुरन्त्या | तथा पानेन - साराहरणेन, अशनेन - अवशिष्टशिल्कप्राय- वस्तुभक्षणेन, प्रसाधनेन - एतदवशिष्ट संस्कार संहरणात्मना चित्प्रमा- तृतोत्सेकमयेन संभुक्तं कवलितं समस्तं संस्कारशेषमपि विश्वं यया, अत एव विश्वस्य प्रलयोत्सवे सरभसया | बाह्यक्रमेणापि, – रक्तादेः पानेन, मांसादेरशनेन, अस्ध्यादेः प्रसाधनेन - भूषणताकरणेन, सम्भुक्तं – स्वोर्षंभोगपात्रीकृतं सम्यगस्तं चात्मन्येव क्षिप्तं - समस्तं च षट्त्रिंशत्तत्त्वमयं विश्वं यया | प्रलयोत्सवे – कल्पितसंहर्तृपद् प्रलीनता- करणक्रीडायां सरभसया - प्रोद्युक्तया | अनुरणनशक्त्यापि पानचर्वण- मण्डनैः सम्भुक्तं – सम्भोग्यतां नीतं समस्तं विभवरूपं विश्वं यथा सुन्दर्या सा प्रकर्षेण लयोत्सवे - उभयानन्दसमापत्यात्मनि सरभसया सती शक्तिमतमाश्लिष्यन्ती भवति ॥ २६ ॥ - - - - परमेश्वरता जयत्यपूर्वा तव विश्वेश यदीशितव्यशून्या | अपरापि तथैव ते ययेदं जगदाभाति यथा तथा न भाति ॥ ३० ॥ विश्वेश = हे जगत्- प्रभु ! तव = आप की १ ख० पु० सिद्धिसंपदादिना - इति पाठः । - २ ग० पु० परमेश्वरता = ( परम- शिव रूपिणी ) बड़ी ईश्वरता सृष्टिस्थितिसंहाराणामपि ३ घ० पु० स्फारयन्त्या - इति पाठः । ४ ग० घ० पु० शल्कप्राय - इति पाठः । - ५ ख० पु० तक्रादेः- इति पाठः । - ७ ख० पु० सर्वेश - इति पाठः । - - इति पाठः । - ६ घ० पु० स्वोपयोगपात्रीकृतम् - इति पाठः । २७० - अपूर्वा = अनूठी जयति, = जय-जयकार के योग्य है, यद् = क्योंकि - श्रीशिवस्तोत्रावली ( इयम् = यह ) ईशितव्य- = किसी के अधीन शून्या = न रहने वाली ( अस्ति = है । ) तथैव = उसी प्रकार ते = आप की - अपरा = ( सदाशिव - ईश्वर रूपिणी ) दूसरी. ( ईश्वरता = ईश्वरता ) अपि = भी - ( अपूर्वा जयति = अनूठी और जय-जय-कार के योग्य है, ) यया = जिस ( के प्रभाव ) से इदं = यह = जगत्: = जगत यथा = ( सामान्य रूप में भेद-प्रथा के कारण लोगों को ) जैसा आप से भिन्न ) . आभाति = दिखाई देता है, - तथा = वैसा (आपके भक्तों को ) न भाति = दिखाई नहीं देता, (अर्थात् आपके भक्त-जन इस जगत को स्वरूप से अभिन्न ही देखते हैं ) ॥ ३० ॥ - हे बिश्वेश ! तब अपूर्वा - परमा- प्रकृष्टा परमशिवरूपा ईश्वरता जयति । यद् - यस्मादियमीशितव्येन – भिन्नेन ईशनीयेन वस्तुना शून्या स्वात्मसात्कृताशेषविश्वत्वात् । अपराधि परमशिवापेक्षया स्थूलापि सदाशिवेश्वररूपा तव संबन्धिनीश्वरता तथैवेति- अपूर्वा जयति - इत्यर्थः, ययेदं जगद्यथेति-नीलसुखादिदेहादिभेदेन आभाति, तथा- तेनैव प्रकारेण भासमानं सत् अन्ताप्रकाशसमरसीभूतत्वात्- 'एवमात्मन्यसत्कल्पाः प्रकाशस्यैव सन्त्यमी | जडा: प्रकाश एवास्ति स्वात्मनः स्वपरात्मभिः ॥' इति स्थित्या न भाति - प्रकाश एव भगवान् सदाशिवादिरूपो भाती- त्यर्थः ॥ ३० ॥ इति शिवम् || इति श्रीमदुत्पलदेचाचार्यविरचितस्तोत्राचलौ पाशानुद्भेदनानि षोडशे स्तोत्रे श्रीक्षेमराजाचार्यविरचिता विवृतिः ॥ १६ ॥ ॐ तत् सत् अथ "देव्यक्रीडाबहुमाननाम सप्तदशं स्तोत्रम् अहो कोऽपि जयत्येष स्वांदु: पूजामहोत्सवः यतोऽमृतरसास्वादमखूण्यंपि अहो = अहो ! - स्वादुः = आनन्दमय पूजा = ( समावेशात्मक ) पूजा के महोत्सवः = महान् उत्सव की जयति '= जय हो, ददत्यलम् ॥ १ ॥ यतः = जिस ( उत्सव के प्रभाव ) से - - एषः = इस ( अर्थात् अनुभवसिद्ध ), अनूणि = ( बहे हुए ) आँसू कोऽपि = अलौकिक अपि = भी ( च = तथा ) अमृत रस- = ( परमानन्द रूपी ) १ ख० पु० स्वादु — इति पाठः । २ ग० घ० पु० अश्रूण्यपि - इति पाठः । ३ घ० पु० कोऽपि - इति पाठः । ४ ख० पु० पूजोत्सव-इति पाठः । अमृत रस के - आस्वादम् = चमत्कार को अलं = पूर्ण रूप में दति = प्रदान करते हैं ॥ १ ॥ हे - एष इति - अनुभवसाक्षिकः । स्वादुः - आनन्दमयः । कोऽपीति - समावेशात्मा पूजामहोत्सवो जयति । यतः- पूजामहोत्सवात्, अस्रुणि- बाप्पा अपि अमृतास्वादमलं ददति – आनन्दप्रभवाच्चमत्कारमेव पुष्णन्ति ॥ १ ॥ व्यापाराः सिद्धिदाः सर्वे ये त्वत्पूजापुरःसराः । भक्तानां त्वन्मयाः सर्वे स्वयं सिद्धय एव ते ॥ २ ॥ २७२ ( भगवन् = हे परमेश्वर ! ) त्वत्- = आप की पूजा = पूजा के पुरः सराः = सम्बन्ध में ये = जो - ( ते = वे ) सर्वे = सभी - सिद्धिदाः = सिद्धिदायक ( भवन्ति = होते हैं । ) सर्वे = सभी ( पूजा के कर्म ) व्यापाराः = कर्म त्वत्-मयाः = आप से अभिन्न - ( लोकेन क्रियन्ते = लोगों से किए ( अतः = और इसी लिए ) स्वयम् एव = आप ही जाते हैं ) श्रीशिवस्तोत्रावली ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) ये = जो ( भक्त-जन ) - - ( किन्तु = किन्तु ) भक्तानां = (समावेशात्मक भक्ति वाले ) भक्त जनों के लिए ये त्वत्पूजोपक्रमव्यापारास्ते तावत्सिद्धिदाः | भक्तानां तु साक्षात् त एव सिद्धयः- त्वन्मयत्वेन प्रकाशमानत्वात् ॥ २ ॥ सर्वदा = सदा सर्वभावेषु = सभी दशाओं में = अविश्रान्तं : = लगातार ते = वे = सर्वदा सर्वभावेषु युगपत्सर्वरूपिणम् । त्वोमर्चयन्त्यविश्रान्तं ये ममैतेऽधिदेवताः ॥ ३ ॥ युगपत् = एक साथ सर्व- = सभी - सिद्धयः ( भवन्ति ) = सिद्धियाँ होते हैं ( अर्थात् भक्तों के लिए पूजा के साधन और साध्य, दोनों में कोई अन्तर नहीं होता ) ॥ २ ॥ त्वाम् = आप की अर्चयन्ति एते = वे - = पूजा करते हैं, मम = मेरे - अधिदेवताः = इष्ट देव ( सन्ति = हैं ! - अर्थात् के भक्तों का दास हूँ ) ॥ ३ ॥ रूपिणं = रूपों में रहने वाले - युगपत्सर्वरूपिणम् – अक्रमक्रोडीकृताशेष निर्भरं त्वां सर्वकालं सर्वत्र १ ख० पु० साक्षादेव सिद्धयः- इति पाठः 1 २ ख० ग० पु० अर्चन्ति त्वामविश्रान्तम् — इति पाठः ।, दिव्य क्रीडाबहुमाननाम सप्तदशं स्तोत्रम् ये अविश्रान्तं कृत्वा अर्चर्यन्ति ते मम अधिष्ठातृदेवैतारूपाः ॥ ३ ॥ ध्यानायासतिरस्कार सिद्धस्त्वत्स्पर्शनोत्सवः । पूजाविधिरिति ख्यातो भक्तानां स सदास्तु मे ॥ ४ ॥ ( भगवन् = हे भगवान् ! ) - ध्यान = ध्यान ( आदि बाहरी साधनों ) के आयास = प्रयास को तिरस्कार- - उस के बिना हो ) सिद्धः = सिद्ध होने वाला ( यः = जो ) छोड़की (अर्थात् इति = इस नाम से ख्यातः = प्रसिद्ध है । त्वत्- = ( चित्स्वरूप ) के स्पर्शन- = स्पर्श का उत्सवः = उत्सव ( अर्थात् समावेश ) ( अस्ति = है, ) ( सः एव = वही ) - भक्तानां = भक्त जनों के लिए पूजा विधिः = 'पूजा की विधि' सः = वही ( उत्सव ) मे = मुझे सदा अस्तु = सदा = प्राप्त होता रहे ॥ ४ ॥ ध्यानमुच्चार करणादीनप्युपलक्षयति । तेन उच्चारकरणध्यानाद्यायासस्य तिरस्कारेण - अपहस्तनेन यस्त्वत्स्पर्शनोत्सवः सिद्ध:- प्रयत्नसम्पन्न:, स एव भक्तानां पूजाविधिरिति ख्यातः । यथोक्तं— - ‘निर्विकल्पे महाव्योम्नि सा पूजा यादराल्लयः ॥' वि० भै०, श्लो० १४७ ॥ इत्येवम् । स एव पूजाविधिर्मम सदास्तु ॥ ४ ॥ भक्तानां समतासारविषुवत्समयः सदा । त्वद्भावरसपीयूषरसेन्नैषां सवार्चनम् ॥ ५ ॥ ४ घ० पु० इत्येव – इति पाठः । - ५. ख० पु० तदर्चनम् -- इति पाठः । १ ऋ० ख० पु० अर्चन्ति - इति पाठः । २ ग० पु० अधिष्ठातृदेवरूपाः - इति पाठः । ३ ख० पु० अप्रयत्नसम्पन्नः - इति पाठः । - ग० पु० प्रयत्नसिद्धः - इति च पाठः । - २७३ २७४ श्रीशिवस्तोत्रावली %3D % समता है % सदा = सदैव (प्रभो - हे स्वामी!) एषां और इन भक्तों को भक्तानां = भक्त-जनों के लिये त्वदू- = आपकी समता = ( दिन और रात की) भाव- = ( समावेशात्मक ) भक्ति के रस- = रस रूपी सार- = सार जिसका, ऐसा पीयूष-रसेन = अमृत-रस से विषुवत्-* = विषुवत् नामक समय:: समय अर्चन = ( वह विषुवत्-कालीन ) पूजा सदा-सदा (ही) (भवति = हुआ करती है ) ॥ ५ ॥ ( अस्ति= बना रहता है ) विषुवति पूजा कर्त्तव्यत्वेनाम्नाता, स च विषुवत्समयः शिवैक्यप्रथा- त्मसमतासारो भक्तानां सदैवास्ति, तथा त्वद्भावनारस एव पीयूषरसः, तेन सदैषामचनमस्ति ॥५॥ 7 - यस्यानारम्भपर्यन्तौ न च कालक्रमः प्रभो। पूजात्मासौ क्रिया तस्याः कर्तारस्त्वज्जुषः परम् ॥६॥ प्रभो हे प्रभु ! (मध्येऽपि = बीच में भी) यस्य%3 जिसके काल-क्रमः= समय का क्रम अनारम्भ-पर्यन्तौ आदि तथा अन्त न (अस्ति) = नहीं होता, नहीं होते और पूजात्मा - (समावेशात्मक) पूजा की % असौ = वही

  • [ क ] ज्योतिष के अनुसार जब सूर्य विषुवत् रेखा पर पहुँचता है तो

दिन और रात दोनों बराबर होते हैं। उसी समय को विषुवत्-काल कहते हैं। ऐसा समय वर्ष में दो बार आता है, अर्थात् ६ चेत और ६ असूज को । शास्त्रों में कहा गया है कि वह समय बड़ा पवित्र होता है और उस समय अवश्य विशेष रूप से पूजा करनी चाहिये । [ख] भावार्थ-हे भगवान् ! आपकी समावेशात्मक भक्ति करने वाले भक्त तो हर समय आपकी विशेष पूजा में लगे रहते हैं। अतः उनके लिये तो प्रत्येक समय ही विषुवत् होता है। उनके लिये पूजा का कोई विशेष समय निश्चित नहीं किया जा सकता। २७५ - % % % D % दिव्यक्रीडाबहुमाननाम सप्तदशं स्तोत्रम् किया- क्रिया ( है )। परं = पूर्ण रूप में त्वद्-जुषः = (स्वरूप-समावेश के तत्त्व कर्तारः = करने वाले को जानने वाले ) आपके भक्त ही (भवन्ति = होते हैं ) ॥ ६ ॥ तस्याः % उस क्रिया को न च कालक्रम इति-मध्येऽपि क्रमवत्ता नास्ति | असौ समावेश- विश्रान्त्यात्मा क्रिया । तस्याश्च त्वज्जुषः त्वत्समावेशतत्त्वज्ञा एव परं कारो नान्ये ।। ६॥ ब्रह्मादीनामपीशास्ते ते च सौभाग्यभागिनः। येषां स्वप्नेऽपि मोहेऽपि स्थितस्त्वत्पूजनोत्सवः ॥७॥ (भगवन् = हे भगवान् ! ) सौभाग्य-शाली ते = वे ( भक्त-जन) (भवन्ति = होते हैं,) ब्रह्म- = ब्रह्मा येषां = जिनके लिये आदीनाम् = श्रादि देवताओं के स्वप्नेऽपि अपि = भी मोहे अपि = और मोह में भी (अर्थात् ईशाः = स्वामी जाप्रत, स्वप्न और सुषुप्ति-सभी ( भवन्ति = होते हैं) अवस्थाओं में ) और ते= वे पूजन- = ( समावेशात्मक ) पूजा का सौभाग्य-भागिनः (परमानन्द के उत्सवः = उत्सव रस से भरे रहने के कारण) स्थितः = बना रहता है ॥ ७ ॥ निःसामान्यमहेश्वरसमावेशशालित्वात् ब्रह्मादीनामपीश्वरास्ते इति वस्त्वेवैतत् न त्वर्थवादः। सौभाग्यभागिन इति-आनन्दरसनिर्भरत्वात् सर्वस्पृहणीयाः । स्वप्नेऽपि मोहेऽपीति-न केवलं जाग्रति यावत्स्वप्न- सुषुप्तयोरिति स्वरसोदितस्त्वत्स्पर्शनोत्सवः-त्वत्समावेशाभ्युदयः ।।७।। जपतां जुतां लातां ध्यायतां न च केवलम् । भक्तानां भवदभ्यर्चामहो यावद्यदा तदा ॥ ८॥ १ क० पु० जाग्रताम्-इति पाठः । -स्वप्न में भी % % - त्वत्- = आपकी % %3D - - -२७६ ( स्वामिन् = हे स्वामी ! ) ( अहो = अहो ! ) भक्तानां '= भक्त-जनों के लिये भवत्- = आपको अभ्यर्चा- = पूजा का महः = उत्सव न केवलं = न केवल जपतां = जप, जुहृतां = हवन, श्रीशिवस्तोत्रावली ( प्रभो = हे ईश्वर ! ) सदा = ( जो भक्त ) सदा भवत्- = आपकी पूजा- = ( समावेशात्मक ) पूजा रूपी सुधा- = श्रमृत के आस्वाद = श्रास्वाद के सम्भोग- = चमत्कार से स्त्रातां = स्नान सुखिनः = सुखी बना रहता है, उसके - समः = समान, और जपण्यानादिपदे तावदीश्वरपूजापरा भवन्ति । भक्ता पुनः सदैव त्वत्पूजनोत्सवाविष्टाः ॥ ८॥ ध्यायताम् = ध्यान के समय ( एव = ही ) - ( भवति = होता है ), भवत्पूजासुधास्वादसम्भोगसुखिनः सदा । इन्द्रादीनामथ ब्रह्ममुख्यानामस्ति कः समः ॥ ९ ॥ यावत् = बल्कि - यदा तदा = जब देखो तब ( अर्थात् सदैव ) ( भवति = होता रहता है ) ॥ ८ ॥ इन्द्र आदीनाम् = इन्द्र आदि देव- ताओं में से अथ = और ब्रह्म = ब्रह्मा आदि मुख्यानां = मुख्य देवताओं में से कौन अस्ति = है ? ( अर्थात् ब्रह्मा, इन्द्र - आदि देवताओं में से भी कोई उस भक्त की बराबरी नहीं कर सकता ) ॥ ९ ॥ भवत्पूजैव सुधास्वादसंभोगस्तेन यः सुखी भक्तिमान्, तस्य ब्रह्मा- दीनां मध्यात् कः समः ? न कश्चित् । अत्र युक्तिसक्तैव ॥ ६ ॥ १ घ० पु० त्वत्पूजोत्सवाविष्टाः - इति पाठः । - २ ख० पु० ब्रह्मादीनामथ – इति पाठः । दिव्य क्रीडाबहुमाननाम सप्तदशं स्तोत्रम् जगत्क्षोभैकजनके भवत्पूजा महोत्सवे । यत्प्राप्यं प्राप्यते किंचिद्भक्ता एव विदन्ति तत् ॥ ( पार्वतीप्रिय = हे गौरी-पति ! ) = जगत्- क्षोभ = संहार का एक = एक मात्र जनके यत्किंचित् = जो कुछ - ( भेद-प्रथात्मक ) जगत के प्राप्यं = प्राप्त करने योग्य ( परमा- नन्दात्मक अलौकिक वस्तु ) = प्राप्त की जाती है, = कारण है, ऐसे भवत्- = आपकी पूजा = ( स्वरूप-विमर्शात्मक ) पूजा रूपी महा-उत्सवे = बड़े उत्सव पर विभो = हे व्यापक परमात्मा - त्वद्धान्नि चिन्मये स्थित्वा षट्त्रिंशत्तत्त्वकर्मभिः । कायवाक्चित्तचेष्टाद्यैरर्चये ( अहं = मैं ) - चिन्मये = चित् रूपी जगतः -- षट्त्रिंशत्तत्त्वमयस्य स्थूलसूक्ष्मादेर्देहस्य तद्द्वारेण च विश्वस्य, क्षोभं – विगलत्स्वरूपतया वैवश्यमेको जनयति यो भवत्पूजा- महोत्सवः, तत्र यत्किंचित्परमानन्दात्मकं पूर्ण स्वं स्वरूप प्रापणाई प्राप्यते तद्भक्ता एव विदन्ति ।। १० ।। त्वद्- आपके धानि = प्रकाश स्वरूप में - स्थित्वा = लेकर ) काय- वाक् - == = बैठ कर (विश्राम शरीर, प्राप्यते : • वाणी १ ख० पु० चैवश्यमेव — इति पाठः । २७७ १० ॥ तत् = उसे तो भक्ताः = ( समावेश-शाली ) भक्त-जन एव = ही - विदन्ति = जानते हैं, ( अन्य लोग उसे जान नहीं सकते ) ॥ १० ॥ त्वां सदा विभो ॥ ११ ॥ षट्त्रिंशत् - = छत्तीस तत्त्व- = तत्त्वों के कर्मभिः = कर्मों से चित्त = तथा मन की चेष्टा आद्यैः = चेष्टादरूपी सदा = सदा - त्वाम् = आपको अर्चये = पूजता रहूँ ॥ ११ ॥ श्री शिवस्तोत्रावली धाम - तेजः । - षट्त्रिंशत्तत्त्वानां कर्माणि कायवाकचित्तचेष्टा- ख्यानि, तैः–इत्थं प्रत्यभिज्ञातव्याप्तिकैरहं प्रभो त्वीं सदा अर्चये । देहादि षट्त्रिंशत्तत्वमयं कठिनत्वद्रवत्वप्रकाशमानत्वादागमेषु बहु प्रति- पादितम् । तथा च त्रिशिरःशाखे- 'सर्वदेवमयः कायः' २७८ इत्युपक्रम्य इत्यादि 'पृथिवी कठिनत्वेन द्रवत्वेऽम्भः प्रकीर्तितम् ।' 'त्रिशिरो भैरवः साक्षाद्व्याप्य विश्वं व्यवस्थितः || ' इत्यन्तमुपदिष्टम् ॥ ११ ॥ भवत्पूजामयासङ्गसम्भोगसुखिनो मम । प्रयातु कालः सकलोऽप्यनन्तोऽपीयदर्थये ॥ १२ ॥ ( भगवन् = हे भगवान् ! ) - भवत् - = (मैं) आपकी E पूजामय = पूजा में आसंग- = लगे रहने के संभोग = चमत्कार से सुखिनः = ( सदा ) सुखी बना रहूँ, मम = ( और फिर ऐसे ही ) मेरा - 4 सकलः अपि अनन्तः अपि कालः सारा समय, चाहे वह असीम भी क्यों न हो, प्रयातु = बीत जाय; इयत् ( एव ) = बस इतनी ही ( अहम् = मेरी ) | अर्थये = विनती है ॥ १२ ॥ भवत्पूजामयो य आसङ्गतिन तत्परत्वेन यः सम्भोगस्तेन सुखिनः - निर्वृतस्य मे सकलः– निरवशेषः अनन्तः - निरवधिः कालः प्रयात्विति इयदर्थये न त्वन्यत् ॥ १२ ॥ - १ क० पु० षट्त्रिंशत्तत्त्वप्रायाणि - इति पाठः । २ घ० पु० त्वामर्चये – इति पाठः । ३ ख० पु० प्रकाशमानत्वावगमात् इति पाठः । ४ ग० पु० बहुषु — इति पाठः । दिव्य क्रीडाबहुमाननाम सप्तदर्श स्तोत्रम् भवत्पूजामृतरसाभोगलम्पटता विभो । विवर्धतामनुदिनं सदा च फलतां मम ॥ १३ ॥ विभो = हे व्यापक प्रभु ! - मम भवत् पूजा अमृत रस आभोग लम्पटी - - ( समावेशात्मक ) पूजा रूपी अमृत रस के उपभोग के लिये मेरी तीव्र लालसा अनुदिनं = दिन प्रतिदिन ( प्रभो = हे स्वामी 1 ) ( अहं = मैं ) - विवर्धतां = ( उत्तरोत्तर ) बढ़ती ही ८ जाय च = और - अद्वैत रस से निर्भरे = भरे हुये = यावद्यावद्भवत्पूजामृतरससंभोगो मया प्राप्यते तावत्तावधिकमधिकं तत्र स्पृहयालुता मे विवर्धतां, तदुत्कर्षसमासादनफलेन च सदा फलतु || २७९ सदा = ( चरम सीमा को पहुँच कर ) - सदा फलताम् = फलती-फूलती रहे ॥१३॥ जगद्विलय सञ्जात सुवैकरसनिर्भरे । स्वदग्धौ त्वां महात्मानमर्चन्नासीय सर्वदा ॥ १४ ॥ .. जगत् = ( भेद-प्रथात्मक ) जगत के सर्वदा = सदा विलय- = संहार से त्वां = आप सञ्जात = उत्पन्न हुये सुधा- = अमृत-मय एक-रस- = ( आत्मानन्द त्वदू- = आप अब्धौ = ( चिदानन्द - ) सागर में = महात्मानम् = महात्मा (अर्थात् विश्व व्यापक प्रभु ) की रूपी ) अर्चन् = ( विमर्शरूपिणी ) पूजा आसीय = करता हुआ ही रहूँ ॥ १४ ॥ १ ख० ग० पु० लुम्पटता — इति पाठः । २ ख० पु० स्पृहणीयालुतामेव - इति पाठः । ३ ग० पु० वर्धताम् – इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली - जगतः—विश्वस्य विलयेन - संहारेण जातो यः सुधामय एको रसः, तेन निर्भरे - परिपूर्णे त्वत्समुद्रे त्वामेव महात्मानं - विश्वव्यापकं सदा अर्चन अहमासीय-स्थेयाम् ॥ १४ ॥ २८० अशेषवालनाग्रन्थिविच्छेदसरलं सदा । मनो निवेद्यते भक्तः स्वादु पूजाविधौ तव ॥ १५ ॥ ( परमात्मन् : परमात्मा ! ) -- तव = आपकी पूजा- = पूजा विधौ = करते करते भक्तैः = ( आपके ) भक्त-जन् अशेष- = सारी - वासना = वासनाओं रूपी ग्रन्थि = गाँठों के – ( शिव = हे कल्याण स्वरूप प्रभु ! ) -

विच्छेद- =कट जाने अर्थात् नष्ट होने से

सरलं = निष्कपट (अर्थात् निर्मल ) - तब पूजाविधौ भक्तैः, स्वादु - चमत्कारसारं सदा मनो निवेद्यते - त्वय्येवार्ष्यते । कीहक ? अशेषा ये वासनात्मानो प्रन्थयो- बन्धास्तेषां विच्छेदेन – विदुलनेन सरलं - स्पष्टं; त्यक्तकुसृतिकौटिल्यम् ॥ १५ ॥ - - भक्तानाम् = भक्त जनों की इमाः = ये = करणवृत्तयः = (आदि) इन्द्रियों की वृत्तियाँ अर्थात् अधिष्ठातृ देवियाँ बना हुआ स्वादु = ( और इसीलिये ) सुन्दर मनः = मन सदा = सदा निवेद्यते = ( आपको ) अर्पण करते हैं ॥ १५ ॥ अधिष्ठायैव विषयानिमाः करणवृत्तयः । भक्तानां प्रेषयन्ति त्वत्पूजार्थममृतासवम् ॥ १६ ॥ - - विषयान् = ( रूप आदि ) विषयों का अधिष्ठाय = सेवन करते १ ख० पु० एव रसः -- - इति पाठः । २ ग० घ० पु० विषयानिमान्— इति पाठः । एव = ही त्वत्- = आप की पूजार्थम् = पूजा के लिये अमृत-आसवं = ( भीतर - दिव्य क्रीडाबहुमाननाम सप्तदशं स्तोत्रम् चित्-धाम में ) अमृतमय मधु इमा: करणवृत्तयोऽपि - चक्षुरादिदेव्यः, विषयान् - रूपादीन् अधि टायैव- आक्रम्यैव, सृष्टिरक्षादिदेवतोदयक्रमेण भक्तानां त्वत्पूजार्थमन्तर् अमृतासवं प्रेषयन्ति ॥ १६ ॥ - ‡( प्रभो = हे स्वामी ! ) भक्ति- = भक्ति की संवेग = अत्यन्त तेजी रूपी महा = बड़ी अर्थात् प्रेषयन्ति = भेजती हैं ॥ १६ ॥ = भक्तानां भक्तिसंवेगम होष्मविवशात्मनाम् । कोऽन्यो निर्वाणहेतुः स्यात्त्वत्पूजामृतमजनात् ॥ १७ ॥ = गर्मी से उष्म- विवश - = विचश बनी रहती है (प्त) = आत्मनां = आत्मा जिनकी, ऐसे भक्तानां = भक्त-जनों के २८१ निर्वाण - = ( उसको ) बुझाने अर्थात् शान्त करने का हेतुः = कारण : त्वत्- = आपकी = पूजा रूपी पूजा- अमृत = अमृत में मज्जनात् = नहाने के सिवा - कः अन्यः = और क्या स्यात् = हो सकता है ? ॥ १७ ॥ -

  • भावार्थ – हे प्रभु ! इन्द्रियों द्वारा

किया गया व्यवहार सामान्य लोगों की दशा में अध्यात्म मार्ग में बड़ी बाधा डालता है, किन्तु आपके भक्तों की दशा में वह परमानन्द प्राप्त करने में योग देता है । जो बाधा औरों के लिए बाधक बनती है, वही आपके भक्तों के लिए साधक बनती है। भक्ति के चमत्कार की विलक्षणता है ॥ १६ ॥ + [ क ] शब्दार्थ- 'विवश' = व्याकुल अर्थात् जलता हुआ । निर्वाण = ( १ ) बुझना ( २ ) शान्त होना । - [मृत = ( १ ) सुधा, ( २ ) जल | - मज्जन = स्नान, नहाना, डूबना 1. [ ख ] भावार्थ – हे प्रभु ! जो चीज आग से जल रही हो, उसको जल में डुबो कर ही बुझाया जाता है। इसी प्रकार जिसका मन भक्ति की २८२ "भक्तिसंवेग महोष्मा~भक्त्युद्रिक्ततेजस्तेन त्मनां त्वत्पूजामृतमज्जनादन्यो निर्वाणहेतुर्न कश्चित् ।। १७ ।। संततं त्वत्पदाभ्यर्चासुधापानमहोत्सवः । त्वत्प्रसादकसम्प्राप्तिहेतुर्भे नाथ कल्पंताम् ॥ १८ ॥ नाथ = हे स्वामी ! - ( यः = जो ) त्वत् - = ( के स्वरूप ) की प्रसाद = निर्मलता ( अर्थात् चिदा नन्द ) की प्राप्ति का एक-सम्प्राप्ति हेतुः = एक मात्र कारण अर्थात् उपाय है S ( सः = वही ) त्वत्- आपके 'श्रीशिवस्तोत्रावली = विवशात्मनां - प्रज्वलिता- - - 4 पद- = चरणों की अभ्यर्चा = पूजा रूपी सुधा-पान- = अमृत पान का महा = बड़ा , त्वत्पदाभ्यर्चा- प्राग्वत् सर्वे आनन्दव्याप्तिप्रदत्वात् सुधापान- महोत्सवः । कीदृक् ? त्वत्प्रसादस्य - चिदानन्दात्मकत्वत्स्वरूपनैर्मल्यस्य एकः संप्राप्तिहेतुर्यः स मे सततं कल्पताम्-घटताम् ॥ १८ उत्सदः = उत्सव मे = मुझे ८ सततं = निरन्तर कल्पताम् = प्राप्त होता रहे ॥ १८ ॥ आग से जलता रहता हो, उसकी जलन आपके पूजामृत रूपी जल में डुबकी लगाने से ही बुझ सकती है, किसी और उपाय से नहीं । अर्थात् जिस भक्त का हृदय आपके दर्शन के लिए तड़प रहा हो उसकी वह तड़प समावेश में आपका साक्षात्कार करने पर ही मिट जाती है ॥ १७॥ १ क० पु० सन्ततम् - इति पाठः । २ घ० पु० कल्प्यताम् – इति पाठः । ३ ख० पु० - त्वत्पदार्चा - इति पाठः । सदैव - इति पाठः । ४ ख० पु० ५ ग० पु० ६ ख० पु० यस्य इति पाठः । ७ क० ५० सन्ततम् इति पाठः । चिदानन्दात्मकत्वात् - इति पाठः । दिव्यक्रीडाबहुमाननाम सप्तदशं स्तोत्रम् अनुभूयासमीशान प्रतिकर्म क्षणात्क्षणम् । भवत्पूजामृतापानमंदास्वादमहामुदम् ॥ १९ ॥ ईशान = हे स्वतन्त्र ईश्वर ! - ( अहं = मैं ) भवत्- ==आप की पूजा = पूजा रूपी अमृत-आपान = अमृत-पान की मद- = मस्ती से युक्त - - प्रतिकर्म – प्रतिव्यापारम् । क्षणाक्षणं- भूयो भूयः | भवत्पूजामृता- पानस्य सम्बन्धी मद्प्रधान:-- हर्षबहलः, आस्वादस्तदुत्थां महामुदं- परमानन्दमनुभूयासम् | आमुखे मदः, पर्यन्ते महती मुत् पूजास्वादस्य च || ( भगवन् - हे भगवान् ! ) S दृष्टार्थ एव भक्तानां भवत्पूजामहोद्यमः । तदैव यदसम्भाव्यं सुखमास्वादयन्ति ते ॥ २० ॥ भक्तानां = भक्त जनों के लिये = भवत्- = आपकी पूजा = ( परा ) पूजा का = महा = बड़ा उद्यमः = उद्योग दृष्ट- अर्थ: = तुरन्त तथा प्रत्यक्ष रूप में फल दिखाने वाला एव = ही आस्वाद = स्वाद अर्थात् चम- तकार से प्राप्त होने वाले महामुर्द = परम आनन्द का प्रतिकर्म = ( अपने ) प्रत्येक कार्य में -- क्षणात्-क्षणम् = प्रतिक्षण अर्थात् लगातार ) अनुभूयासम् = अनुभव करता रहूँ | २८३ ( भवति = होता है ), - - यत् = क्योंकि ते = वे तदा एव = उसी वक्त ( अर्थात् पूजा करते करते ही ) 'असंभाव्यं = = असम्भव (अर्थात् अलौकिक ) सुखम् = ( परमानन्द रूपी ) सुख का आस्वादयन्ति = अनुभव करते हैं ॥ १ स्व० पु० महास्वाद - इति पाठः । - २ ग० पु० प्रतिव्यापारे - इति पाठः । ३ ख० पु० हर्षप्रबलः – इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली प्राप्तव्यस्य प्राप्तत्वान्नैषामाकाङ्क्षा कचिदस्ति यतस्ततो भक्तानां दृष्टार्थ एव त्वत्पूजायां महानुद्यमः | तथाहि तदैव - पूजासमय एव, असंभाव्यं सुखं - परमानन्दं ते - भक्ता आस्वादयन्ति ।। २० ।। २८४ यावन्न लब्धस्त्वत्पूजासुधास्वादमहोत्सवः । तावन्नास्वादितो मन्ये लवोऽपि सुखसम्पदः ॥ २१ ॥ ( वरद = हे वर-दाता प्रभु ! ) - यावत् = जब तक त्वत् = आपकी = पूजा- : ( पग ) पूजा रूपी सुधा = अमृत के आस्वाद- = चमत्कार का महा = बड़ा उत्सवः = उत्सव न लब्धः = प्राप्त न किया जाय, ! तावत् : 1 ( स्वयं श्रेष्ठ = हे स्वयं श्रेष्ठ ! ) भक्तानां = ( आपके ) भक्तों को = तब तक सुख-सम्पदः = ( सच्ची अर्थात् सभा- वेश रूपी पारमार्थिक ) सुख- सम्पत्ति का लवः = लेश मात्र अपि = भी - न आस्वादितः = अनुभव नहीं होता, ( इति ) मन्ये = मेरा तो यही विचार है ॥ २१ ॥ लबोऽपीत्यत्रेदमाकूतं -लौकिकौनि सुखानि असुखान्येव कृत्रिमत्वात्, यस्त्वकृत्रिमः समावेशानन्दः सैव पारमार्थिकी सुखसम्पत् ॥ २१ ॥ भक्तानां विषयान्वेषाभासायासाद्विनैव सा । अयत्नसिद्धं त्वद्धामस्थितिः पूजासु जायते ॥ २२ ॥ अयत्न- = ( ध्यान रूपी ) यस्त्र के बिना हो -- पूजासु = ( समावेश रूपी ) पूजा के सिद्धं = सिद्ध होने वाली ( अर्थात् = [[अवसरों पर चमक उठने वाली )

  • सार – हे प्रभु ! संसार के सुख वास्तव में सुख नहीं, दुःख ही हैं ।

समावेश का आनन्द ही सच्चा सुख है । अब तक उसकी प्राप्ति न हो जाय तब तक सांसारिक सुखों के भोगने से कोई लाभ नहीं ॥ २१ ॥ १ घ० पु० लौकिकसुखानि – इति पाठः । २ घ० पु० यतस्त्वकृत्रिमः - इति पाठः ।' दिव्य क्रीडाबहुमाननाम सप्तदशं स्तोत्रम् सा त्वद्-धाम-स्थितिः = आपके ( चित् रूपी ) भवन में वह अलौ किक स्वात्म-स्थिति विषय- = ( फूल, धूप आदि पूजा की ) सामग्रियों के अन्वेष = ढूँढने के . - न प्राप्यमस्ति भक्तानां नाप्येषामस्ति दुर्लभम् । केवलं विचरन्त्येते ( प्रभो = हे स्वामी ! ) - भक्तानां = ( आपके ) भक्तों के लिये • पूजासु–समावेशकालेषु ध्यानादियत्नं विना सिद्धं प्रस्फुरन्ती त्वनि स्थितिः, सेति - लोकोत्तरा भक्तानां जायते । कथं ? विषयाणां - कुसुमधूपविलेपनादीनाम् अन्वेषाभासः- मार्गणप्रतीतिः, स एवायासः, तं विनैव-तद्विर हे ऐत्यर्थः ॥ २२ ॥ न = न तो ( किंचित् = कुछ ) प्राप्यम् = अस्ति = होता है, - = प्राप्त करने योग्य आभास- = = विचार का आयासात् - = कष्ट उठाये विना एव = बिना ही ( ही ) जायते = प्राप्त होती है ॥ २२ ॥ = – नापि = और न ही एषां = इनके लिये ( किंचित् = कुछ ) दुर्लभम् = दुर्लभ - अस्ति = होता है | - + भवत्पूजामदोन्मदाः ॥ २३ ॥ एते = ये तो - २८५ भवत् = आप की पूजा- = ( समावेशात्मक ) पूजा के मद- = मंद से = उन्मदाः = मतवाले ( अर्थात् मस्त ) ( सन्तः = होकर ) केवलं = केवल ( अर्थात् यों ही बिना किसी इच्छा के ) विचरन्ति = विहार करते हैं ॥ २३ ॥ - १ ख० पु० कलासु – इति पाठः । २ ग० पु० त्वद्धामनि --- इति पाठः । ३ क० पु० सैव — इति पाठः । ४ ख० पु० भक्तयासवक्षीबाश्च – इति पाठः । पूर्णशिवात्मकस्वस्वरूपला भाद्भक्तानां प्रापणीयं दुर्लभं वा न किंचि दस्ति । भक्ताः सेवाक्षीवाश्च केवलमप्रयोजनमेव विचरन्ति || २३ || २८६ अहो भक्तिभरोदारचेतसां वरद त्वयि । श्लाघ्यः पूजाविधिः कोऽपि यो न याच्या कलंकितः ॥ २४ ॥ वरद = हे वरदाता प्रभु ! - अहो = अहो ! भक्ति- = भक्ति की - भर = अधिकता से उदार- = उदार - चेतसां = चित्त वाले ( भक्तानां = भक्त-जनों से की गई ) त्वयि : = आपकी पूजा = पूजा की विधिः = रीति = श्रीशिवस्तोत्रावली यद् = जहाँ एषः = इस कः अपि = अलौकिक - - महादेवः = ( चिदात्मा ) महादेव की = पूजा की जाती है, अर्च्यते ( तद् = वहाँ ) का = कौन सी शोभा = शोभा - कोsपि = अलौकिक - उदारचेतस्त्वं तत्त्वत एषामेव, ये वरदमपि त्वां न किंचन याचन्ते । कोऽपीति – अलौकिकः ॥ २४ ॥ न = नहीं ( भवति = होती ), कः = कौन सा ह्लादः = आनन्द लाध्यः = ( तथा ) प्रशंसनीय - का न शोभा न को ह्लाद का समृद्धिर्न वापरा । को वा न मोक्षः कोऽप्येष महादेवो यदर्च्यते ॥ २५ ॥ ( अस्ति = है ), - यः = क्योंकि यह याच्या- = माँगने ( के दोष ) से कलंकितः = दूषित - न ( भवति ) = नहीं होती, (अर्थात् आपके भक्त इतने उदार होते हैं कि वे आप वरदाता में भी कुछ नहीं माँगते ) ॥ २४ ॥ न ( भवति ) = नहीं होता, वा = तथा का = कौन सी - परा = उत्कृष्ट ( अर्थात् पारमार्थिक ) समृद्धिः = सुख सम्पत्ति न ( भवति) = नहीं होती और वा = ● कौन सा कः = मोक्षः = मोक्ष न ( भवति) = नहीं होता ( अर्थात् - उसी दशा में परम-अद्वय रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है ) ॥ २५ ॥ दिव्य क्रीडाबहुमाननाम सप्तदशं स्तोत्रम् - कोऽपीति चिदात्मा महेश्वरो यदर्च्यते, सा शोभा - दीप्तिः का न- सर्वैवेत्यर्थः । एवमन्यत् । को वा न मोक्ष इति – साङ्ख्य वैष्णवशाक्तना. कुलपाशुपतादिमोक्षातिशायिनः परमानन्दसारस्य विश्वपरिपूर्णतामयस्य मोक्षस्य लाभात् ॥ २५ ॥ । अन्तरुल्लसदच्छाच्छभक्तिपीयूषपोषितम् भवत्पूजोपयोगाय शरीरमिदमस्तु मे ॥ २६ ॥ मे = मेरा शरीरं = शरीर ( शंकर = हे शंकर ! ) अन्तर्- • भीतर ( अर्थात् संवित्- = पद में ) उल्लसत्- अच्छ-अच्छ- = भक्ति- पीयूष- = भक्ति-अमृत ( अर्थात् समानेशामृत ) से पोषितम् = पाला पोसा गया = इदं = यद्द

चमकते हुये

त निर्मल अन्तः - संवित्पदे उल्लसता - भवत् = आपकी पूजा पूजा के उपयोगाय = काम अस्तु = जाये, ( अर्थात् - अच्छाच्छेन– विश्वप्रतिबिम्बक्षमेण भक्तिपीयूषेण–समावेशामृतेन पोषितं - पारदेन ताम्रमिष कालिका- क्षपणेन देदीप्यमानं कल्याणमयीकृतमिदं मम शरीरं भवत्पूजोपयोगा- यास्तु - समावेशरसविर्द्धमपि त्वय्येव चिदानन्दघनेऽनुप्र विश्य विलीयताम् || १ क० पु० परतेन — इति पाठः । २ ग० पु० सिद्धमपि - इति पाठः । चिदानन्द - घन में ही विलीन हो जाय ) ॥ २६ ॥ २८७ - त्वत्पादपूजासम्भोगपरतन्त्रः सदा विभो । भूयासं जगतामोश एकः स्वच्छन्दचेष्टितः ॥ २७ ॥ विभो = हे व्यापक प्रभु ! स्वामी | - जगताम्-ईश = हे तीनों लोकों के ( अहम् = मैं ) ३ ख० पु० - प्रविश्य - इति पाठः । ४ घ० पु० जगदीशान - इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली एक: = एक ही ( अर्थात् अद्वितीय त्वत्- रूप में ) पाद- पूजा- = पूजा का संभोग- = आनन्द उठाने में परतन्त्रः = परतन्त्र हो भूयासम् = बना रहूँ ॥ २७ ॥ २८८ स्वच्छन्द = स्वतन्त्र चेष्टितः = व्यवहार वाला (अर्थात् पूर्ण रूप में स्वतन्त्र ) ( सन् अपि = होते हुये भी ) ८ सदा = सदा = जगतां – कालाग्न्यादिसदाशिवान्तानाम् ईशः - स्वामी | स्वतंत्रोऽ त्वत्पादपूजाह्लादपरतन्त्रः स्याम् । एतदेव हि तदसाधारणं जगदैश्वर्य स्वातंत्र्यं च यत् त्वत्पादसमावेशवैवश्यम् । अन्यौपदे पारतंत्र्येऽपि निःसामान्यमैश्वयं स्वातंत्र्यं चेत्यद्भुतरसध्वनिः ॥ २७ ॥ स्वद्ध्यानदर्शनस्पर्शतृषि केषामपि प्रभो । जायते शीतलस्वादु प्रभो = हे स्वामी ! त्वद् - = आपके ध्यान- = ध्यान में भवत्पूजामहासरः ॥ २८ ॥ कारण ) शीतल - स्वादु और ( परमानन्द-प्रद होने से ) अत्यन्त मधुर आपकी दर्शन - = ( आप चिदानन्द-घन के ) भवत्- दर्शन स्पर्श - = और स्पर्श की आपके चरणों की - तृषि = लालसा ( सत्यां = होने पर ) केषाम् अपि = कई ( आपके कृपा- पात्र भक्त जनों ) के लिये. शीतल = ( संतापहारक होने के = पूजा = ( समावेश-मयी ) पूजा रूपी महा- = बड़ा

सरः = सरोवर

जायते = उत्पन्न होता है, ( जिसमें में डुबकी लगाने पर उन भक्तों की प्यास मिट जाती है ) ॥ २८ ॥ १ क० पु० पूजापरतन्त्रः - इति पाठः । २. ग० पु० अन्यपादम्—इति पाठः । ३ ख० पु० पश्येयमपि --- इति पाठः । ४ घ० पु० स्पृश्ये - इति पाठः । 'परमेश्वरं चिदानन्दघनमपि पश्येयं, स्पृशेयम्' - इति यस्वद्ध थाने दिव्य क्रीडाबहुमाननाम सप्तदशं स्तोत्रम् दर्शनेस्पर्शनतृट, तस्यां सत्यां केषामपीति - साक्षा स्वदनुगृहीतानां शीतलस्वादु भवत्पूजामहासर। जायते - सन्तापहारिसचमत्कारत्वदर्चा- परिपूर्ण: समुद्रो नव एवोत्पद्यते इत्यर्थः ॥ २८ ॥ , ईश = हे स्वामी ! यथा = जैसे यथा त्वमेव जगतः पूजासम्भोगभाजनम् । तथेशं भक्तिमानेव पूजासम्भोगभाजनम् ॥ २९ ॥ जगतः = ( इस सारे ) जगत में = त्वम् = ( केवल ) प एव = ही - पूजा = ( समावेश-मयी ) पूजा के संभोग- = आनन्द के भाजनम् = पात्र ( अर्थात् ) = २८९ - ( असि = हैं ), तथैव = वैसे ही भक्तिमान् ( केवल समावेशशाली ) भक्त स्वामिन् = हे प्रभु ! - एव = ही पूजा = ( ऐसी ) पूजा के सम्भोग- = आनन्द का भाजनं = पात्र ( अर्थात् अधिकारी ) ( भवति = होता है ) * ॥ २९ ॥ - जगतः - विश्वस्य मध्यात् त्वमेव व्याख्यातरूपस्य पूजासंभोगस्य भाजनम् – आश्रयो यथा ईश- स्वामिन्, तथा भक्तिमानेव- समावेश शाल्येव तादृशः पूजासम्भोगस्य भाजनं - निर्वर्तक इत्यर्थः ॥ २६ ॥ कोऽथ्यसौ जयति स्वामिन्भवत्पूजामहोत्सवः । षट् त्रिंशतोऽपि तत्त्वानां क्षोभो यत्रोल्लसत्यलम् ॥ ३० ॥ मयी ) पूजा के उस अलौकिक बड़े उत्सव को असौ कोऽपि भवत्-पूजा-महा- उत्सवः = आपकी ( समावेश- जयति = जय हो, १ ख० पु० दर्शनस्पर्शने - इति पाठः । २ क० पु० तथैव - इति पाठः । -

  • भावार्थ – हे प्रभु ! जैसे समावेशमयी पूजा केवल आपकी होती है, किसी

और की नहीं हो सकती, वैसे ही केवल आपका भक्त ही ऐसी पूजा के सुफल अर्थात् समावेश में साक्षात्कार का आनन्द उठाता है, कोई और नहीं ॥ २९ ॥ २९० - यत्र = जिसमें षट्त्रिंशतः = छत्तीस - तत्त्वानाम् = तत्त्वों का अपि = भी श्री शिवस्तोत्रावली अलम् = पूर्ण रूप में उल्लसति = चमक उठता है ॥ ३० ॥ स्फुरितः, कोऽपीति – समावेशशाली, - असाविति - स्वामिनि षट्त्रिंशतोऽपीति - देहाश्रयाणां तद्द्वारेण तद्वाह्यानां तत्त्वानां, क्षोभ इति - संविदग्निलोषवैषम्यम् ॥ ३० ॥ विभो = हे व्यापक प्रभु ! येषां = जिनके लिये - क्षोभः = (संचिग से जल कर भस्म होने का ) वेग नमस्तेभ्यो विभो येषां भक्तिपीयूषवारिणा । पूज्यान्येव भवन्ति त्वत्पूजोपकरणान्यपि ॥ ३१ ॥ त्वत्- = आपकी पूजा = पूजा को उपकरणानि = ( फूल आदि) सामग्रियाँ अपि = भी भक्ति-पीयूष- = भक्ति-अमृत रूपी वारिणा = जल से ( अर्थात् समावेशा- मृत के रस से ) पूज्यानि एव भवन्ति = (प्लावित हो कर आप चिदानन्दघन को प्रकट करने में योग देती हैं और इसीलिये ) पूजनीय ही बन जाती हैं, = उन ( भक्त-जनों ) को नमः = नमस्कार हो ॥ ३१ ॥ तेभ्यः त्वत्पूजार्थमुपकरणानि–कुसुमादीनि येषां भक्तिपीयूषवारिणा- समावेशामृतरसेन हेतुना पूज्यानि भवन्ति - त्वदाप्लावनेन शिवताभि- व्यक्तेः पूजार्हाणि जायन्ते, "तेभ्यो नमः ॥ ३१ ॥ - १ ख० पु० षट्त्रिंशतोऽपि - इति पाठः । २ ख० पु० संविदभिप्लोषवैवश्यम् - इति पाठः । ३.ग० पु० त्वत्पूजोपकरणानि च ३ -इति पाठः । ४ ख० पु० तदाप्लावनेन इति पाठः, ग० पु० तदाप्लवेन – इति च पाठः । ५ ख० पु० तेभ्योऽपि नमः इति पाठः । दिव्य क्रीडाबहुमाननाम सप्तदशं स्तोत्रम् पूजारम्भे विभो ध्यात्वा मन्त्राधेयां त्वदात्मताम् । स्वात्मन्येव परे भक्ता मान्ति हर्षेण न कचित् ॥ ३२ ॥ विभो = हे व्यापक प्रभु ! पूजा- = पूजा आरम्भे = करते समय मन्त्र- = ( मनन-त्राण-धर्म ) मन्त्र से आधेयां = सिद्ध होने वाले (अर्थात प्राप्त होने वाले ) त्वद्- आपके आत्मतां = चिन्मय स्वरूप का ध्यात्वा = ध्यान करके ( और इस प्रकार शिव-रूप होकर ) भक्ताः = ( समावेश-शाली ) भक्त जन हर्षेण = हर्ष से 1 परे स्वात्मनि एव = अपने ही परि- पूर्ण स्वरूप में = कभी क्वचित् न मान्ति = नहीं समाते, ( अर्थात् शिव-रूपता को प्राप्त करके फूले नहीं समाते ) ॥ ३२ ॥ मन्त्रेण - मननत्राणर्धर्मेण चिन्महात्म्यप्रकर्षकेण आधातव्यां- 'शिवो भूत्वा ....... "।' शि० स्तो०, स्तो० १, १४ ४ो० ॥ इति स्थित्या सम्पाद्यां त्वदात्मतां पूजारम्भे ध्यात्वा – चिन्तयित्वा मन्त्रोविचारयिषात्मकपूजाप्रेंबिवृत्सायामेव- - 'अयमेवोदयस्तस्य' ....।' स्पं० नि० २, श्लो० ६ ॥ - इति स्थित्या भक्तिप्रकर्षाच्छिवीभूय भक्ताः स्वात्मन्येव परे - पूर्णरूपे न मान्ति- न वर्तन्ते ॥ ३२ ॥ राज्यलाभादिवोत्फुल्लैः कैश्चित्पूजामहोत्सवे । सुधासवेन सकला जगती संविभज्यते ॥ ३३ ॥ १ क० पु० धर्मणा — इति पाठः । २ घ० पु० चिन्माहात्म्यापकर्षकेन – इति पाठः । ३ ख० पु० आध्यातव्याम् - इति पाठः । ४ ग० पु० प्रविचित्सायाम् – इति पाठः । ५ ग० पु० नीत्या – इति पाठः । ६ ख० पु० पूर्णरूपेण — इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली २९२ S प्रभो = हे प्रभु ! उत्फुल्लैः = ( महाविकास की युक्ति से श्री भैरवीय मुद्रा में बैठे हुये और इसीलिये ) अत्यन्त प्रफुल्लित कैश्चित् * = कुछ ( भक्त-जन ) पूजा- = ( आपकी समावेश-मयी ) पूजा के महा- = बड़े उत्सवे = उत्सव पर सकला = सारे (अर्थात् उसे स्थानन्द-पूर्ण बनाते हैं) इव = जिस प्रकार राज्य = राज्य को लाभात् = पाकर उत्फुल्लैः नृपैः- प्रफुलित बने हुये ( राजा ) महोत्सवे = ( राज्य- तिलक के ) बड़े ( स्वामिन् = हे स्वामी ! ) येषां = जिन - उत्सव पर सकला = सारे - जगती '= जगत को आसवेन = मधु-पान का संविभज्यते = भागी बनाते हैं, (अर्थात् सभी लोगों को मधु-पान से तृप्त करते हैं )॥ ३३ ॥ जगती = ( भेदात्मक ) जगत को सुधा- = (चिदानन्द-मय) अमृत रूपी आसवेन = मधु ( के पान ) का संविभज्यते = भागी बनाते हैं, = - उत्फुल्लैरिति-महाविकासयुक्तया श्रीभैरवीयमुद्रानुप्रविष्टे:, सुधा- - सवेन - अमृतपानेन, जगती - समस्ता वेद्यवेदकभू, संविभज्यते - परिपूर्यते; स्वानन्दमयीक्रियते । राज्यलाभोत्फुल्लैश्चोत्सवे सर्वा भूः आस- वेन संविभज्यते इति स्पष्टम् ॥ ३३ ॥ पूजामृतापानमयो येषां भोगः प्रतिक्षणम् । दिं देवा उत मुक्तास्ते किं वा केऽप्येव ते जनाः ॥ ३४ ॥ ( भवति = प्राप्त होता है ) . ते जनाः = वे लोग - ( भक्तानां = भक्त-जनों को ) = = क्या किं पूजा- = ( आपको समावेशमयी ) देवाः = देवता पूजा रूपी ( सन्ति = होते हैं ) - अमृत-आपान-मयः =अमृत-पान का ६ = चमत्कार - पूर्ण आनन्द भोगः प्रतिक्षणं = हर वक्त १ ख० पु० स्वानन्दीक्रियते - इति पाठः । उत = या मुक्ताः = मुक्त होते हैं. - किंवा = क्या दिव्य क्रीडाबहुमाननाम सप्तदर्श स्तोत्रम् एव = ही ( सन्ति = होते हैं ? )* ॥ ३४ ॥ - ते = वे के-अपि = ( बिल्कुल ) अलौकिक - भोगः- - चमत्कार: | प्रतिक्षणमिति - अविच्छेदेन । केऽप्येवेति- स्तोत्रशतैरपि स्तोतु॑मशक्याः ॥ ३४ ॥ पूजोपकरणीभूतविश्वावेशेन गौरवम् । अहो किमपि भक्तानां किमप्येव च लाघवम् ॥ ३५ ॥ अहो = अहो ! - भक्तानां = ( समावेश-शाली ) भक्त- जनों को २९३ - पूजा = ( प्रभु की ) पूजा की उपकरणी = सामग्री का रूप गौरवम् = गुरुता ( अर्थात् भारीपन ) ( भवति = प्राप्त होती है ) च = और - ( समस्त-द्वैतविगलनात् = सारी भेद-प्रथा के नष्ट होने से ) किमपि = असामान्य भूत = बने हुए विश्व - = ( इस ) जगत के एव = ही - आवेशेन = (अपनी चिभूमि में ) लाघवं = लघुता (अर्थात् हलकापन) समा जाने से ( भवति = प्राप्त होती है ) ॥ ३५ ॥ किमपि = असामान्य - - पूजायां यदुपकरणीभूतं - परिकरीभूतं विश्वं-पत्रिंशतत्त्वरूपं शरीरं बाह्यं च, तस्य य आवेशः - चिद्भूमावनुप्रवेशस्तेन । अत अहो- आश्चर्य, किमपि - असामान्यं भक्तानां गौरवं प्रभावितत्वम् लापवं च- अप्रयत्नेनैवाशेषस्वीकारित्वम् अथ च मायीयभेदभारनिवृत्तिः | गौरवे च कथं लाघवमिति विरोधच्छाया || ३५ || "

  • भावार्थ – हे प्रभु ! जो लोग निरन्तर आपकी समावेशमयी पूजा

में लगे रहते हैं, वे परम- सौभाग्य - शाली होते हैं। उनकी महिमा का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाय, कम है ॥ ३४ ॥ १ ख० पु० वक्तुमाशक्याः— इति पाठः । २ क० पु० किमप्येवं च - इति पाठः | -२९४ श्रीशिवस्तोत्रावली पूजामयाक्षंविक्षेपक्षोभादेवामृतोद्गमः । भक्तानां क्षीरजलधिक्षोभांदिव दिवौकसाम् ॥३६॥ ( नाथ = हे नाथ ! ) भक्तानां = भक्त जनों के लिए पूजामय = ( आपकी ) परा पूजा में लगी हुई C अक्ष- = (द) इन्द्रियों के विक्षेप- = इधर-उधर हिलाने (अर्थात अपने-अपने विषय के ग्रहण करने में लगे रहने ) के क्षोभात् = क्षोभ ( अर्थात् व्याकु- लता से ). - ( भवति होती है ); इव = जिस प्रकार दिवौकसां = देवताओं के लिए क्षीरजलधि = क्षीर समुद्र को मथने के समय i ( पूजामय = पूजनीय वासुकि रूपी ) ( अक्ष- = आंख के ) (विक्षेप = इधर-उधर हिलाने के ) क्षोभात् एव = क्षोभ से ही एव = ही - अमृत - = ( परमानन्द रूपी) अमृत को उद्गमः = उद्गमः = उत्पत्ति अमृत = अमृत की = उत्पत्ति नागराज ( अभवत् = हुई थी )* ॥ ३६ ॥ = १ घ० पु० पूजामयापविक्षेप - इति पाठः । २. ख० पु० क्षोभादेव - इति पाठः । पूजामयानि विश्वस्य - संवेद्यस्य चिद्भूमिविश्रान्तिदायीनि देवता- चक्रोदयमयानि अक्षाणि - इन्द्रियाणि तेषां विक्षेपः- स्वविषयग्रहण. -

  • [ क] शब्दार्थ – पूजामय = १ पूजा में लगी हुई, २ पूजनीय ।

अक्ष - १ सभी इन्द्रियों, २ आँख ।' [ खं ] भावार्थ – हे प्रभु ! आपके भक्तों की इन्द्रियाँ प्रकट रूप में अपने- अपने विषयों के ग्रहण करने में लगी करते हुये भी वे हर समय आपको रहती हैं, पर वस्तुतः ऐसा पूजा में ही लगी रहती हैं और परमानन्द को उपलब्ध करने में योग देती हैं। इस प्रकार इन्द्रियों का जो व्यवहार सामान्य लोगों की दशा में है, वहीं भक्तों की दशा में साधक सिद्ध होता है । की भक्ति का ही चमत्कार है ॥ ३६ ॥ बाधक होता यह तो आप दिव्य क्रीडाबहुमाननाम सप्तदशं स्तोत्रम् परत्वं, स एव क्षोभ :- व्याकुलता, तत एवाल्पबोधापेक्षया अभिमतादपि क्षोभात् भक्तानाममृतस्य - महानन्दस्य उद्गमः - उल्लासो ग्राह्यग्राहक- विप्लवेऽपि भक्तानां चिदानन्दाभिव्यक्तिरेवेत्यर्थः । तदुक्तं - - 'ग्राह्य प्रवृत्तावपि तत्स्वभावः ।' इति । यथा देवतानां क्षीरसमुद्रक्षोभादमृतस्य - सुधाया उल्लास: । अत्रापि पूजामयस्य - पूज्यस्य नागराजात्मनः अक्षस्य – नेत्रस्य यो विक्षेपः- आकर्षापकर्षक्रमः, स एव क्षोभ इति ।। ३६ ।। ( प्रभो = हे स्वामी ! ) केचन = कई ( भक्त-जन ) = पूजां केचन मन्यन्ते धेनुं कामदुघामिव ।. सुधाधाराधिकरसां धयन्त्यन्तर्मुखाः परे || ३७ ॥ पूजां = ( समावेश-मयी ) पूजा को काम = ( सारे ) मनोरथों को दुघां = पूर्ण करने वाली काम-धेनु के इव = समान मन्यन्ते = मानते हैं, ( परन्तु = परन्तु ) = २९५ परे = = अन्य भक्त अन्तर्मुखाः = अन्तर्मुख वह पूजा करते-करते ही परमा- नन्द का अनुभव करते हैं ) ॥३७॥ यथा कामधेनुरभीष्टमत्यर्थं पूरयति तथा केचित् - फल काण: पूजां मन्यन्ते – निश्चिन्वन्ति । परे - केचिदेव सुधाधाराधिकः - अमृतधारा- तिशायी रसः प्रसरो यस्यास्तां पूजामेव कामधेनुमन्तर्मुखाः सन्तो धयन्ति - सद्य एव चमत्कुर्वन्तीत्यर्थः ।। ३७ ।। - = ( सन्तः = हो कर ) सुधा- = अमृत की धारा = धारा से अधिक = बढ़-चढ़ कर रसां = रस से भरी हुई - ( तां पूजामेव कामधेनुं = उस पूजा रूपिणी कामधेनु का ) ऋधयन्ति = दूध पीते हैं, ( अर्थात् -

  • भावार्थ -

- सकाम भक्तों को पूजा का फल तो मिलता है और उनका मनोरथ पूरा होता है, पर कुछ काल की प्रतीक्षा के बाद । किन्तु निष्काम तथा अन्तर्मुख भक्त पूजा करते-करते हो उसका परमानन्दरूपी फल प्राप्त करते हैं। उन्हें निमेष मात्र की प्रतीक्षा भी नहीं करनी पड़ती ॥ १ क० पु० रसप्रसरः - इति पाठः । २९६ भक्तानामक्षविक्षेपोऽप्येष संसारसंमतः । उपनीय किमप्यन्तः पुष्णात्यर्चामहोत्सवम् ॥३८॥ ( स्वामिन् = हे स्वामी ! ) संसार- = संसार रूपता से = सम्मतः = समझा गया एषः = यह अक्ष- = = इन्द्रियों का विक्षेपः अपि = भी = व्यवहार श्रीशिवस्तोत्रावली - भक्तानाम् = (समावेश-शाली) भक्त- जनों के लिए अन्तः = भीतर ( अर्थात् हृदय में ) किमपि = अर्चा = पूजा के महा- बड़े - इति ॥ ३८॥ उत्सवम् = = उत्सव को उपनीय = प्राप्त कराकर ( तमुत्सवं = उस उत्सव अर्थात् पर- मानन्द की ) पुष्णाति = पुष्टि करता है, ( अर्थात् उसे बढ़ाता - उस को स्थायी बनाता है ) ॥ ३८ ॥ - - अक्षविक्षेपः-इन्द्रियप्रसरो लोके संसारत्वेन संमतः किमपीति- अलौकिकमानंन्दरूपम्, उपनीय - प्रापण्य भक्तानां - करणेश्वरीचक्र प्रसरसमाविष्टानाम् अर्चा महोत्सवं पूजस्वरूपविश्रान्ति पुष्णाति । तथा च ममैव- - 'प्रज्ञामन्दरमन्यितासममहाभेदोदधेरुद्गता- क कश्चित्वा कुविकल्पदैन्यविरहं भूतीरनादृत्य ये न्यैक्षाक्षेपविवर्तनाभिरभितो दुग्धामृतान्यादरात् । पायं पायमँहो पिबन्ति जयति श्वाघ्यास्त एवामराः ॥ भक्तिक्षोभवशादीश स्वात्मभूतेऽर्चनं त्वयि | चित्रं दैन्याय नो यावद्दीनतायाः परं फलम् ॥३९॥ ·१ ख० पु० आनन्दम् – इति पाठः । २ ऋ० पु० पूर्णस्वरूपविश्रांतिम्— इति पाठः । ३ ग० पु० उगतान्यक्षक्षेप - इति पाठः । ४ ख० पु० अलम् - इति पाठः । दिव्य क्रीडाबहुमाननाम ईश = हे स्वतंत्र प्रभु ! - चित्रं = आश्चर्य है कि भक्ति - = ( समावेश रूपिणी ) भक्ति के क्षोभ = ( प्रसरात्मक ) क्षोभ की वशात् = विवशता से = त्वयि = आप स्वात्मभूते = स्वात्म- देवता की = अर्चनं = ( विमर्श रूपिणो ) पूजा दैन्याय = दीनता के लिए - नो = नहीं सप्तदशं स्तोत्रम् २९७ = ( भवति = होती, अर्थात् किसी प्रकार की दीनता उत्पन्न नहीं करती । ) ( न केवल मेवं केवल इतना ही नहीं ) यावत् = बल्कि ( वह पूजा ) दीनताया :- दीनता अर्थात् इच्छा का परं = परिपूर्ण तथा अन्तिम - फलं त्वयि स्वात्मभूते यद्भक्तिक्षोभवशात् – समावेशवैवश्यादचं नं, तच्चि- त्रम् – आश्चर्यं दैन्याय न भवति - कांचिद्दीनतां फलति । अन्येषां ह्येतदका प्रधानमेव | न केवलमेवं यावत्प्रत्युत दीनतायाः-लौकिक्याः स्पृहायाः परं—पार्यन्तिकमानन्दरूपं विभवादिफलस्यापि फलभूतं परं च पूर्णं फलम् ॥ ३६ ॥ ( जगदीश = हे जगत के स्वामी ! ) केषांचित् = कुछ ( अर्थात् भेदनिष्ठ भक्तों ) के लिए पूजा = ( आपकी ) पूजा = त्वत् - = आप के पद् = स्थान की उपचारपदं पूजा केषांचित्त्वत्पदाप्तये । भक्तानां भवदैकात्म्यनिर्वृत्तिप्रसरस्तु सः ॥ ४० ॥ = परमानन्द रूप फल ( ददाति = प्रदान करती है ) ॥३९॥ i आप्तये = प्राप्ति के लिए - = उपचार - पर्द = ( केवल ) एक उपाय ( भवति = होती है ), तु = पर भक्तानां = ( समावेश-शाली ) भक्त जनों के लिए सः = वह ( पूजन ) १ क० पु० अर्चनम् – अशेषस्य विश्वस्यार्चनम् – इति पाठः । २ ग० पु० प्रधानमेवम् – इति पाठः । ३ गं० पु० भवदात्मैक्य – इति पाठः ।

  • नोट – 'सः' शब्द का सम्बन्ध प्रसर के साथ है, पूजा के साथ नहीं;

अतः यह पुंलिंग है ॥ ४० ॥ २९८ भवत्- = आप के साथ ऐकात्म्य- = एकात्मता रूपी श्रीशिवस्तोत्रावली - - केषांचिदिति – भेदनिष्ठानां त्वत्पदाप्तये - त्वदीयं पदं प्राप्तुम् उप- चारपदं - प्रक्रियाभूराराधनोपायमात्रमेव । भक्तानांतु भवदैकात्म्यरूपाया निर्वृत्तेः स प्रसरः — विकासः । स इति विधी यमानापेक्षया पुंलिङ्गता || निर्वृत्ति = आनन्द का प्रसरः = विकास ( ही होता है) ॥४०॥ अप्यसम्बद्धरूपार्चा भक्तयुन्माद निरर्गलैः । वितन्यमाना लभते प्रतिष्ठां त्वयि कामपि ॥ ४१ ॥ ( परमात्मन् = हे परमात्मा ! ) - भक्ति - = ( समावेश रूपिणी ) भक्ति की उन्माद- = मस्ती से निरर्गलैः = निरंकुश बने हुए (अर्थात् नियमों का पालन न करने वाले ) १ = भक्त-जनों से ) वितन्यमाना = की जाने वाली (भक्तैः ( त्वद्- • = आपकी ) अर्चा = पूजा = असंबद्ध रूपा = असंबद्ध रूप वाली (अर्थान, विसर्जन आदि नियमों से रहित ) अपि ( सती ) = होते हुए भी = आप के स्वरूप में त्वयि कामपि = असामान्य प्रतिष्ठां = स्थिति (अर्थात् परमानन्द ) को लभते = प्राप्त होती है ॥ ४१ ॥ पूजायां मनागपि इतिकर्त्तव्यतान्यथाभावे प्रत्यवायः प्रक्रियाशास्त्रे युक्तः । आश्चर्यं पुनरिदं–भक्त युन्मादेन - समावेशवैबश्येन निरर्गल:- विस्मृतेतिकर्तव्यता नियमैरसंबद्धरूपापि-असमञ्जसापि अर्चा वितन्य- माना - प्रसार्यमाणा, कामपीति - क्रियानिष्ठैः संभावयितुमध्यशक्याम् असामान्यां प्रतिष्ठां सम्यगाभिमुख्येन अवस्थितिं त्वयि लभते इत्यद्भुत- ध्वनिः ।। ४१ ।। स्वादुभक्तिरसास्वादस्तब्धीभूतमनइच्युताम् । शम्भो त्वमेव ललितः पूजानां किल भाजनम् ॥ ४२ ॥ १ ख० पु० क्रियाभूः इति पाठः । २ ग० पु० विधेयापेक्षं पुंलिङ्गम् – इति पाठः । दिव्यक्रोडाबहुमाननाम सप्तदर्श स्तोत्रम् शम्भो = हे कल्याण-स्वरूप शङ्कर ! - स्वादु - = ( स्वात्मानन्द-मय होने के कारण ) मधुर भक्तिरस = भक्ति-रस के = आस्वाद- = चमत्कार से स्तब्धी = एकाग्र भूत- = बने हुए मनः च्युतां = मन से की गई नाथ = हे स्वामी ! भवत्- = आपकी पूजा = (परा ) पूजा विधौ = करने के समय मे = मेरी स्वदुः – चमत्कारसारो यो भक्तिरसस्तस्यास्वोदेन स्तब्धीभूतं - चलित चाञ्चल्यं यन्मनस्ततश्च्युत् च्यैवनं प्रसरो यासां पूजानां- विश्वार्पणक्रियाणां, तासां ललितः - हृद्यचितस्त्वमेव चिदात्मा, शम्भो- श्रेयोनिधे ! भाजनम् - आश्रयः । किलेति-युक्तों; - एतदेव युज्यत इत्यर्थः । अन्यस्य ब्रह्मादेर्भेदमयत्वेनेहगर्चापात्रत्वाभावात् । पूजाना- मिति बहुवचनं विचित्रविश्रांतिसारताप्रथनाय |॥ ४२ ॥ = साधनानि = (आदि) इन्द्रियां परिपूर्णानि = ( सृष्टि आदि देवी- चक्र का उल्लास करने से) परिपूर्ण, ( समस्तानां = सभी ) पूजानां = पूजा ( की क्रियाओं) के भाजनं = पात्र ( अर्थात् आश्रय ) तो किल = सचमुच त्वं = आप ललितः = मनोहर - ( चिदात्मा = चिदात्मा ) एद = ही हैं ॥ ४२ ॥ - परिपूर्णानि शुद्धानि भक्तिमन्ति स्थिराणि च । भवत्पूजाविधौ नाथ साधनानि भवन्तु मे ॥४३॥ शुद्धानि = ( चिन्मरीचि मय होने से ) शुद्ध, भक्तिमन्ति = ( समावेश-मयी) भक्ति से युक्त . २९९ च = तथा स्थिराणि ( पाशव-वासना-शून्य होने से ) दृढ ( अर्थात् एकाप्र ) भवन्तु = बन जाये ॥ ४३ ॥ १ ग० पु० स्वादु - इति पाठः । २ ० ० श्रास्वादन - इति पाठः । ३ घ० पु० स्तब्धीकृतम् - इति पाठः । ४ ग० पु० प्रच्यवनम् इति पाठः । ५ ख० पु० हृद्यः, उचितस्त्वमेव - इति पाठः । -श्रीशिवस्तोत्रावली - भवतः - चिन्नाथस्य पूजाविधौ-अवश्य कार्यायामर्चायां, मम साध- नानि - चक्षुरादीनि करणानि परिपूर्णानि - सृष्टयादिदेवीचक्रोल्लासम यानि । अत एव चिन्मरीचिमयत्वात् शुद्धानि, भक्तिमन्ति- विश्वार्पणेन त्वत्सेवापराणि, कदाचिदपि पाशववासनास्पृष्टत्वात् स्थिराणि नित्यमी- दृश्येव भवन्तु || ४३ ॥ ३०० अशेषपूजासत्कोशे त्वत्पूजाकर्मणि प्रभो । अहो करणवृन्दस्य कापि लक्ष्मीर्विजृम्भते ॥ ४४ ॥ कोशे = कोश अर्थात खज़ाना ( है ); करण- = ( इसमें चित्प्रकाश की ) किरणों की प्रभो = हे प्रभु ! अहो = अहो ! त्वत्- = आप की पूजा = ( समावेश-मयी ) पूजा का कर्मणि = अनुष्ठान अशेष- = समस्त पूजा- = पूजा ( की क्रियाओं) का सत्- = अत्यन्त उत्कृष्ट वृन्दस्य: कापि = अलौकिक = = माला को लक्ष्मीः = छटा विजृम्भते = चमक उठती है ॥ ४४ ॥ - इमामेव दशां विमृशन्नाह, शक्तीनामुल्लासप्र सरादिप्रभ॑वनशील प्रभो ! अशेषाणां पूजानां - विचित्राणां सृष्टिदेव्यादिपदविश्रांतीनां सत्कोशे- शोभनगञ्जरूपे, त्वत्पूजाकर्मणि - पूर्णचिदानन्द घनश्रीमन्थान भैरवस्वरूप- विश्रान्तौ करणवृन्दस्य - रश्मिचक्रस्य, अहो ! कापि - स्वसंवित्साक्षिका लक्ष्मीः– दीप्तिर्विजृम्भते - स्फुरति, इति महार्थपरिपूर्णस्यास्य सारोपदे- शवर्षीणि इमानि सूक्तान्युल्लसन्ति ॥ ४४ ॥ - ३ ग० पु० एष - इति पाठः । ४ ग० पु० मस्र्यैः - इति पाठः । तान्येवाह - एषा पेशलिमा नाथ तवैव किल दृश्यते । विश्वेश्वरोऽपि भृत्यैर्यदर्च्यसे यश्च लभ्यसे ॥ ४५ ॥ १ ख० पु० वासनया - इति पाठः । २ क० पु० प्रभवशील - इति पाठः । नाथ = हे स्वामी ! --- एषा = यह – दिव्य क्रीडाबहुमाननाम सप्तदशं स्तोत्रम् पेशलिमा = ( स्वभाव की ) कोमलता ईश्वरः = स्वामी - - ( तो ) तव = आप में एव = ही किल सचमुच - दृश्यते = देखी जाती है, यत् = कि - - ( त्वं = []) विश्व- = समस्त संसार के P अपि ( सन् ) = होते हुए भी भृत्यैः = ( मुझ जैसे सेवकों से अर्ध्यसे = पूजे जाते हैं और = लभ्यसे = प्राप्त किये जाते हैं ॥ ४५ ॥ - ( प्रभो = हे प्रभु ! ) = आप की पेशलिमा सरलता । तवैवेति - चिद्धनत्वेन सर्वेषामात्मनः । विश्वेश्वरोऽपि – सदाशिवादीनामपि स्वामी | अर्ध्यसे- समाविश्यसे । लभ्यसे – निरर्गलमात्मीक्रियसे ॥ ४५ ॥ - सदा मूर्त्तादमूर्त्ताद्वा भावाद्यद्वाप्यभावतः । उत्थेयान्मे प्रशस्तस्य - भवत्पूजामहोत्सवः ॥ ४६ ॥ वा = तथा अमूर्त्तात् = निराकार - सामान्य ) भवत्- पूजा- = ( समावेश रूपिणी) पूजा का भावात् = ( और ) सत्तायुक्त - महा- = बड़ा यद्वा = तथा उत्सवः = उत्सव प्रशस्तस्य = ( आप की भक्ति से ) अपि = भी प्रशंसनीय बने हुए सदा अभावतः = सत्ता-हीन ( वस्तुओं) से = सदा

  • उत्थेयात् =

= उठता रहे ( अर्थात् उपलब्ध होता रहे ) ॥ ४६ ॥ मे = मुझ को A मूर्त्तात् = ( सभी ) साकार मूर्त्तो भाव: - घटादिः, अमूर्त्तः - सुखादिः । मूर्त्तो भावः - घटस्य १ ख० पु० विश्वेश्वरत्वेऽपि – इति पाठः । -

  • भावार्थ – संसार की प्रत्येक वस्तु मुझे आपकी पूजा का आनन्द दिलाने

में ही योग देती रहे ॥ ४६ ॥ ३०२ श्रीशिवस्तोत्रावली कपालादीनि, अमूर्त्तस्तु भावः - विकल्पकल्पितप्रसज्यप्रतिषेधात्मा, ततः उत्थेयादिति - समस्तं भावाभावपदमधरीकृत्य उन्मेज्ज्यादित्यर्थः । भव त्पूजामहोत्सवः–त्वद्विश्रान्त्युदयः | भावादित्यादिका ल्यब्लोपे पञ्चमी । कामक्रोधाभिमानैस्त्वामुपहारीकृतैः सदा । येऽर्चयन्ति नमस्तेभ्यस्तेषां तुष्टोऽसि तत्त्वतः ॥ ४७ ॥ - ( दयासिन्धो = हे दया-सागर ! ) उपहारीकृतैः = उपहार के रूप में अर्पित किए गए काम काम, क्रोध- = क्रोध अभिमानैः = और अभिमान ( रूपी ( त्वं =) उपचारों ) से ये = जो ( भक्त-जन ) - त्वां '= आप को सदा = सदैव = अर्चयन्ति = पूजते हैं, तेभ्यः = उन को - नमः = ( मेरा ) प्रणाम हो, ( यतः = क्योंकि ) तत्त्वतः = तस्व-दृष्टि से तो Hoppe तेषाम् ( एव ) = उन्हीं पर - सर्वचित्तवृत्तीनां कामादिभिः स्वीकारात्तेषामेवोपादानमुपहारीकृतैः- विचार्य त्वय्येवार्पितः तस्वत: तुष्टोऽसि --- 'हर्षामर्षभयक्रोधैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥' भ० गी० [अ० १२, श्लो० १५ ॥ इत्यभिधानात् । ननु च श्रीमन्महासारोक्तिमयेऽमुँत्र स्तोत्रेऽयं श्लोको स्थान: सत्यम्, 'अशेषवासनाप्रन्थि इत्यादिकस्यापि स्मर्त्तव्यम् । 'लोकवद्भवतु मे" 'निजनिजेषु पदेषु' ।' स्तो० १७ लो० १५ ॥ १ ख० पु० कपालानि- इति पाठः । - तुष्टः = प्रसन्न असि = होते हैं ॥ ४७ ॥ ।' स्तो० ८, श्लो० ३ ॥ ।' स्तो० ८, श्लो० ५ ॥ २ ग० पु० उन्मज्ज्येत् इति पाठः । (३ ख० पु० महामर्ष भयोधैः- इति पाठः । ४ ६० ५० स्वकृतस्तोत्रे - इति पाठः । www दिव्य क्रीडाबहुमाननाम सप्तदशं स्तोत्रम् 'अस्मिन्नव जगत्यन्तर् 'दादा च वेद्यात् ।" स्तो० १६, श्लो० २३ ॥ ● ।' स्तो० १६, श्लो० २७ ॥ ।' स्तो० १६, श्लो० २९ ॥ ।' स्तो० ५, श्लो० ८ ॥ ।' स्तो० २०, श्लो० १० ॥ 'पानाशनप्रसाधन' 'समुल्लसन्तु भगवन् 'न क्वापि गत्वा' इत्यादयस्त्वनुगुणा अध्यत्र श्लोका न सन्ति । तद्यमसमञ्जसशय्या- प्रस्तारिणः श्रीविश्वावर्तस्यैव प्रसादः । एवमन्येष्वपि स्तोत्रेष्वेवंप्रायं बह्वनुचित मस्ति, तंत्तु अस्माभिर्नोद्घाटितम् - इत्यलं, सूक्तान्येवानुसरामः ॥ जयत्येष भवद्भक्तिभाजां पूजाविधिः परः । यस्तृणैः क्रियमाणोऽपि - रत्नैरेवोपकल्पते ॥ ४८ ॥ ( सन्तापहारिन् = हे दुःखहारी प्रभु !) - भवत् = आप के भक्ति- जनों की - ( समावेश-शाली ) भक्त-

एषः = इस पर: = अत्यन्त उत्कृष्ट पूजा = पूजा की विधिः = रीति की जयति = जय हो, - यः = तृणैः = ( पत्र, पुष्प आदि ) तृणों से = जो कियमाणः = की जाने पर - ३०३ अपि = भी रत्नैः = ( बहुमूल्य मुक्ति स्वरूप ) रत्नों से एव = ही - उपकल्पते = पूर्ण हो जाती है (अर्थात् पूर्ण रूप में सफल हो जाती है ) ॥ अपिर्भिन्नक्रमस्तेन तृणैरपि क्रियमाणः यो रत्नैरेवोपकल्पते- पूर्ण- विश्रान्तिप्रदो भवति, स भवद्भक्तिभाजां - त्वत्समावेशशालिनां पर :- पूर्ण: पूजाविधिर्जयतीति शिवम् ॥ ४८ ॥ इति श्रीमदुत्पलदेवाचार्यविरचितस्तोत्रावलो दिव्यक्क्रीडाबहुमानना- मनि सप्तदशस्तोत्रे श्रीक्षेमराजाचार्यविरचिता विवृतिः ॥ १७ ॥ 0000 १ ख० पु० बहुर चितमस्ति - इति पाठः । २ ग० पु० न त्वस्माभिर्नोद्घाटितम् – इति पाठः । ३ क० पु० त्वत्समावेशेन शालिनाम् - इति पाठः । ॥ ॐ ।। तत् सत् । अथ आवेष्कारनाम अष्टादश स्तोत्रम् जगतोऽन्तरतो भवन्तमाप्त्वा पुनरेतद्भवतोऽन्तराल्लभन्ते । जगदीश तवैवं भक्तिभाजो न हि तेषामिह दूरतोऽस्ति किञ्चित् ॥ १ ॥ जगदीश = हे जगत के प्रभु ! तव = आप ( चिद्रूप ) के भक्ति-भाजः = भक्त जन एव = ही जगतः = ( इस भेद-प्रथारूप) जगत के हि = क्योंकि अन्तरतः = बीच में से भवन्तम् = आप को - आप्त्वा = प्राप्त कर के = पुनः = फिर पतत् भवतः = आप ( चिद्रूप ) के - अन्तरात् = बीच में से लभन्ते = 1 = प्राप्त करते हैं ( अर्थात् देखते हैं ), = इस ( जगत ) को तेषाम् = उन ( भक्तों ) के लिए = इद्द = इस जगत में किंचित् = कुछ भी — दूरतः = दूर न अस्ति = नहीं है ॥ १ ॥ हे जगदीश! ये तवैव – चिद्रूपस्य स्वात्मनो भक्तिभाजास्ते जगतः - विश्वस्य अन्तरत: – मध्यात् भवन्तमाप्त्वा - प्रकाशमानव्यवहारपदादेव प्रकाशरूपं त्वां लब्ध्वा, पुनरपि एतत् - जगद्भवतः - चिद्रूपस्य अन्तरतो मध्याल्लभन्ते । यस्मात्तेषां - भक्तिभाजां सम्यक्प्रत्यभिज्ञात विश्वात्मक- १ क० पु० तथैव - इति पाठः । आविष्कारनाम अष्टादशं स्तोत्रम् त्वत्स्वरूपाणामिह-जगति दूरे न किंचिदस्ति; सर्वस्य स्वांगकल्पत्वेन स्फुरणात् । तदुक्तं गीतासु- 'यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति । अ० ६, श्लो० ३१ ॥ इत्यादि ।। १ ।। क्वचिदेव भवान् क्वचिद्भवानी परमार्थपदे तु नैव देव्या एव - सकलार्थक्रमगर्भिणी प्रधाना । ( ईश = हे परमेश्वर ! ) - क्वचित् = कभी ( अर्थात् किसी विश्वो- त्तीर्ण में ) भवान् = आप शिव ही भवतो नापि जगत्त्रयस्य भेदः ॥ २ ॥ ( प्रधानः भवति = प्रधान होते हैं ) क्वचित् = और कभी ( अर्थात् किसी विश्व-मय दशा में ) - क्रम- क्रम से गर्भिणी = भरी हुई भवानी = शक्ति भगवती ( ही ) = ( भवति = होती है - - १ ग० पु० किंचिदिति - इति पाठः । २ ३० पु० तदुक्तम् इति पाठः । सकल- सभी देव्या: = शक्ति - अर्थ- = ( घट, पट आदि) पदार्थों के नापि = और न ही speed, gamepl नैव की प्रधानता कभी 'शिव' के रूप में देखी जाती है और कभी 'परा-शक्ति' के रूप में ), तु = पर परमार्थ - पदे = परमार्थ की दृष्टि से वास्तव में ) ( = न तो ३०५ प्रधाना = प्रधान - - - केचिदेवेति - मुक्तौ, क्वचिदिति - तदुपायतायां भोगे च, भवानी - पराशक्तिः, सकलः - कैलादिक्षित्यन्तः अर्थक्रमः- प्रमेयराशिर्गर्भेऽन्तः जगत्त्रयस्य = ( इस ) त्रिलोकी भवतः = तथा ( के स्वरूप ) में भेदः = कोई भेद है ॥ २ ॥ ३ ख० पु० इत्यादि श्रीगीतासु- इति पाठः । ४ ख० पु० कचिदिति - इति पाठः । ५ ग० पु० शिवादिक्षित्यन्तः । २०शि० श्रीशिवस्तोत्रावली - शिम्बिकाबीजवत्संसृष्टो यस्याः | परमार्थपदे – गलितकल्पनायां तात्त्वि - क्यां दृष्टौ पुनः जगत्त्रयस्यापि - भवातिभवाभवात्मनः त्वत्तो भेदो नास्ति, किं पुनः शक्तेः ॥ २ ॥ ३०६ नो जानते सुभगमध्यवलेपवन्तो लोकाः प्रयत्नसुभगा निखिला हि भावाः । चेतः पुनर्यदिदमुद्यतमप्यवैति नैवात्मरूपमिह हा तदहो हतोऽस्मि ॥ ३ ॥ इह = इस संसार में - लोकाः = ( सामान्य ) लोग - अवलेपवन्तः = ( विषयों में आक होने के कारण ) घमंडी ( सन्तः = होकर ) ( भावानां = सभी वस्तुओं के ) सुभगम्-अपि = सौभाग्य पूर्ण (अर्थात् पारमार्थिक चिदानन्द-मय ) = स्वरूप को रूपं = नो = नहीं - जानते = जानते हैं, हि = क्योंकि - निखिलाः = ( ये ) सभी - ( भवन्ति = मालूम होती हैं । ) - ( एतत् आस्ताम् = यह बात तो रहे, अर्थात् ऐसा प्रायः होता ही है । ) अहो = अहो ! १ ग० पु० संस्पृष्टौ - इति पाठः । २ ग० पु० तावदेव - इति पाठः । यत् पुनः = अब यदि उद्यतम् अपि = उद्यत बना हुआ भी = (जानने के लिए उतावला) इदं = यह चेतः = ( मेरा ) हृदय आत्मरूपं = अपने स्वरूप को - नैव: = नहीं अवैति = जान पाता, तद् = तो - भावाः = वस्तुएं हा = हाय ! - प्रयत्न = प्रयत्न से (ध्यान से विचार करने पर ) हतः अस्मि = ( मैं ) मारा गया सुभगाः = अत्यन्त उत्कृष्ट ( चिदा- ( अर्थात् फिर मुझे निराशा का नन्दपूर्ण ही ) मुख ही देखना पड़ेगा ) ॥ ३ ॥ लोकास्तोवदवलेपवन्तः सन्तः सुभगमपि - चिदात्मकं रूपं भावानां न जानन्ति, यतः प्रयत्नेन - सर्वथा निश्चयेन, सुभगा:- उत्कृष्टा एव आविष्कारनाम अष्टादशं स्तोत्रम् निखिला:- सर्वे भावाः, प्रकाशमानत्वेन चिन्मयत्वात् । पुनरास्तां भावस्वरूपज्ञानम्, आश्चर्यमात्मनोऽपि रूपं वेदितुर्मुद्यतमपि चेतो यन्नैवा- वैति - समावेशधारुरुचरणकाक्रान्तमपि यच्चिदात्म्यं न भेजते - तत् हतोऽस्मि - व्यापादितोऽस्मि, इति भंगिति समावेशप्रकर्षमलभ- मानस्य ताम्यँत इयमुक्तिः ॥ ३ ॥ भवन्मयस्वात्मनिवासलब्ध- सम्पद्भराभ्यर्चितयुष्मदधिः । न भोजनाच्छादनमप्यजत्र- मपेक्षते यस्तमहं नंतोऽस्मि ॥ ४ ॥ ( महेश्वर = हे परमेश्वर ! ) चरणों की पूजा करने वाला भवत् = आप ( के चिदानन्द- स्वरूप ) " से मय- = परिपूर्ण - स्वात्म = अपनी आत्मा में निवास = निवास करने से = लब्ध- = प्राप्त किए गए - संपद्-भर- = ( परमानन्द रूपी ) ऐश्वर्य की से अभ्यर्चित- युष्मद् अंघ्रिः = आप के यः = जो भक्त . अजस्रं = लगातार भोजन- भोजन - आच्छादनम् = तथा वस्त्र (आदि) की अपि = भी न अपेक्षते = इच्छा नहीं रखता, तम् = उस को अहं = मैं नतोऽस्मि = प्रणाम करता हूँ ॥ ४ ॥ भवान्—चिद्रूपः प्रकृतं रूपं यस्य तथाभूते स्वात्मनि निवासेन- विश्रान्त्या लब्धेन सम्परेण - परमानन्दभूतिप्रसरेण श्रभ्यँचितौ- १ ग० पु० उद्यतमपि - इति पाठः । २ ख० पु० यश्चिदैकात्म्यम् – इति पाठः । ३ ग० पु० लभते - इति पाठः । ४ क० पु० जगति — इति पाठः । ५. ख० पु० ताप्यतः - - इति पाठः । ६ क० पु० नमामि - इति पाठः । ७ ख० पु० अभ्यर्चितो -- इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली गाढमभेदेनावष्ट॑न्धौ युष्मंदङ्वी येन तथाभूतोऽजस्रं यो भोजनाच्छाद- नमपि नापेक्षते ३०८ 'अश्नन् यद्वा तद्वा' ।' प० सा०, श्लो० ६९ ॥ इति स्थित्या व्यवहारानपेक्ष: पूजापर एव तमहं नौमि ॥ ४॥ सदा भवद्देहनिवासस्वस्थो- ऽप्यन्तः परं दह्यत एष लोकः । तवेच्छया तत्कुरु मे यथात्र ( प्रभो = हे स्वामी ! ) एषः = ये लोकः = ( संसारी ) लोग तव सदा = सदा भवत् = आपके = देह- ( पारमार्थिक ) स्वरूप में निवास- = निवास करने से स्वस्थः = वास्तव में स्वस्थ (अर्थात् सुखी ) होते हुए अपि = भी त्वदर्चनानन्दमयो भवेयम् ॥ ५ ॥ = आप को इच्छया = ( अप्रतिता स्वरूपगोपना- त्मक ) इच्छा शक्ति से हृदय में अन्तः = परं : दुःखों और आपत्तियों से सदा व्याकुल बने रहते हैं। ) ( तस्मात् = इसलिए ) ( तवेच्छया = अपनी-अप्रतिता -इच्छा से ) स्वरूप- प्रथनात्मक अत्र = इस विषय में ( त्वं मे = आप मुझ ) ( भक्तस्य: तत् = ऐसा कुरु = कीजिए - यथा = कि ( अहं = मैं ) त्वद्- = आप की अर्चना = पूजा के = बहुत अधिक दह्यते = जलते रहते हैं, (अर्थात् आनन्द-मयः = आनन्द से भरपूर भवेयम् = बना रहूँ ॥ ५ ॥ सदा भवदीये देहे—उपचिते स्वरूपे र्निवसनेन वस्तुतः स्वस्थ :- १ ख० पु० अवष्टब्धो - इति पाठः । २ ख० पु० युष्मदर्येन — इति पाठः | ३ घ० पु० निवासेन - इति पाठः । - = भक्त के लिए ) आविष्कारनाम अष्टादशं स्तोत्रम् आनन्दमयोऽप्येष लोकः, तवेच्छया - भेदंप्रथारूपया त्वन्मायाशक्त्या अन्तः परम् – अतिशयेन दह्यते - तद्दुः खैरायास्यते । यत एवं तस्मात्त- - -- वेच्छया - अनुजिघृक्षया, अत्र - कल्पिते विषये त्वं मे - भक्तस्य - तदिति — तथा कुरु यथाहं त्वदर्चनानन्दमयः स्याम् ॥ ५ ॥ स्वरसोदितयुष्मदघिपद्म- द्वयपूजामृतपानसंक्त चित्तः । सकलार्थचयेष्वहं भवेयम् सुखसंस्पर्शनमात्रलोकयात्रः ॥ ६ ॥ ( देवेश ) = हे देवाधिदेव ! - • स्वाभाविक रूप से - स्वरस- = उदित - = होने वाली युष्मद् = आपके अंघ्रि पद्म- = चरण कमलों के द्वय- = = जोड़े की पूजा-पूजा ( अर्थात् स्वरूप समा- वेश- संपत्ति ) रूपी अमृत- = अमृत के पान- = पीने में चित्तः = हृदय वाला अहं = मैं ३०९ सकल- सभी अर्थ - चयेषु = ( हेय तथा उपादेय - = आदि ) व्यवहारों के संबन्ध में - मात्र - लोक - यात्रः - सुख-संस्पर्शन-२ भवेयम् = ऐसा बना रहूं कि लौकिक व्यवहार से ( मुझे) केवल ( चिदानन्द रूपी ) सुख की ही प्राप्ति हो ॥ ६ ॥ १ घ० पु० भेदप्रवाहरूपया - इति पाठः । २ ख० पु० यस्मात् — इति पाठः । ३ ग० पु० त्वमेव – इति पाठः । ४ ऋ० पु० त्वदर्शनानन्दमयः - इति पाठः । ५ ख० पु० मुक्तचित्तः - इति पाठः । ६ ख० पु० युष्मदङ्घ्रि पूजा - इति पाठः । ७ घ० पु० विश्रान्तिमानसः - इति पाठः । सक्त = = लगे हुए स्वरसेन – अप्रयत्नमेवोदिता या युष्मँदङ्घ्रिपद्मद्वयपूजा - त्वत्समा- वेशसंपत्, सैवामृतपानं तत्र सक्तचित्तः - विश्रान्तमानसः | सकलेषु- श्रीशिवस्तोत्रावली हेयोपादेयाद्यभिमतेषु अर्थचयेषु - व्यवहारेषु, अहं सुखसंस्पर्शनमात्र- लोकयात्रो भवेयम् – स्वानन्दोल्लाससारजगद्वयबहार: स्याम् ॥ ६ ॥ ३१० सकलव्यवहारगोचरे प्रभो = हे स्वामी ! सकल = सभी अन्तः = में - उपयान्त्यपयान्ति चानिशम् स्फुटमन्तः स्फुरति त्वयि प्रभो । व्यवहार = • व्यावहारिक गोचरे = विषयों मम वस्तूनि विभान्तु सर्वदा ॥ ७ ॥ च= और वस्तूनि = वस्तुएं उपयान्ति: त्वयि = आप के स्फुटं = स्पष्ट रूप में स्फुरति = चमक उठने पर ( सर्वाणि = सारी ) - = उत्पन्न होती हुई अपयान्ति सर्वदा = सदा अनिशं = निरन्तर मम = = नष्ट होती हुई मुझे विभान्तु = दिखाई दें, ( के समावेश को प्राप्त करके मैं सदा सभी सांसारिक वस्तुओं की उत्पत्ति और नाश के क्रम को देखता रहूं ) ॥ ७ ॥ १ क० पु० अनुगच्छन्तोऽपि - इति पाठः । २ ग० पु० दर्पणप्रतिबिम्बवत् — इति पाठः । सर्वदा – सदा, अनिशं - निर्विरामं, व्यवहारविषयस्यान्तर्मम त्वयि - चिद्रूपे स्फुटं स्फुरति सति, सर्वाणि वस्तूनि उपयान्त्यपयान्ति च - सृज्यमाणानि संहियमाणानि च स्फुरन्तु, त्वदाविष्टोऽहं सदा भावसर्ग- संहारकृत् स्यामित्यर्थः । 'उपयान्त्यपियान्ति 'च' - इति पाठे, आगच्छ- न्तोऽपि दर्पणे प्रतिबिम्बवद्विलीयमाना एव न त्ववस्थितिं मनागपि भंज- माना भान्तु, इति व्याख्येयम् | च एवार्थे | उद्यन्तो विनश्यन्तञ्च लोक वयँथा भान्ति तथा भान्तु इति वा योज्यम् ॥ ७ ॥ ३ ग० पु० भाजमानाः - इति पाठः । . - ४ ख० पु० यथावत् - इति पाठः । आविष्कारनाम अष्टादशं स्तोत्रम् सततमेव तवैव पुरेऽथवा- प्यरहितो विचरेयमहं त्वया । क्षणलवोऽव्यथम स्म भवेत् स मे न विजये ननु यत्र भवन्मयः ॥ ८ ॥ - ( शम्भो = हे शम्भु ! ) अहं = मैं सततम् एव = सदैव तव = आप की पुरे = पुरी में एव = ही ( अर्थात् आपके शाक्त- मार्ग पर ही ) विचरेयम् = विराजमान रहूँ, ( अर्थात् शाक्त- समावेश-शाली ही बजा रहूँ ), अथवा = या त्वया = आप से अरहितः = अभिन्न होकर - अपि = ही - - ( विचरेयम् = विराजमान रहूं अर्थात् व-समावेश-शाली ही बना शाम्भव-स रहूँ ) । अथ यत्र = पर जहां (जब ). ( अहं = मैं ) भवत्-मय:=प से भिन्न (हो कर ). न विजये = गौरववान न बन जाऊं, = सः = ऐसा क्षणलवः = क्षण मात्र अपि = भी - ननु = निश्चित रूप से - ३११ मे = मुझे - मा भवेत् स्म = ( कभी ) प्राप्तः न हो ॥ ८ ॥ •; तवैव संबन्धिनि पुरे - पूरके शाक्के पदे विचरेयं - शाक्तसमावेश- शाली स्याम् | अथवा त्वयारहितः, इति - शाम्भवसमावेशमयः । अथवा भवन्मय इति -- त्वद्रूपो विमुक्तस्वभावो यत्र न विजयेन सर्वोत्कर्षेण वर्ते, स क्षणलवोऽपि मे मा भूत् इति उत्तरोत्तरसातिशयदशाशंसापर- मेतत् | ननु वितर्फे ॥ ८ ॥ 7 १ ख० पु० मा स भवेत् स्म मे - इति पाठः । २ ६० पु० संबन्धिः - इति पाठः । - ३ ग० पु० अविरहितः - इति पाठः । ३१२ श्रीशिवस्तोत्रावली भवदङ्ग परिस्रवत्सुशीता- मृतपूरैर्भरिते समन्ततोऽपि । भवदर्चनसम्पदेह भक्ता- स्तव संसारसरोऽन्तरे चरन्ति ॥ ९ ॥ ( भगवन् = हे भगवान् ) = आप की भवत्- अर्चन- = पूजा रूपिणी संपदा = संपत्ति से ( सुशोभित ) तव = आप के भक्ताः = भक्त-जन भदत् - = श्राप के अङ्ग- = ( परा शक्ति रूपी ) अंग से परिस्रवत् = बहती हुई - सुशीत- = [अन्त शीतल ( अर्थात् संताप- हारी - दुःख रूपी की गरमी को दूर करने वाली ) नाथ = हे प्रभु ! - ( अहं = मैं ) अमृत- - पूरैः = धाराओं से समन्ततः अपि = सब ओर से भरिते = परिपूर्ण बने हुए इस संसार- सरोऽन्तरे = सरोवर के बीच में चरन्ति = विहार करते हैं ( अर्थात, विराजमान होते हैं ) ॥ ९ ॥ - (आनन्द-रूपी) अमृत की तब भक्ताः भवदर्चनसंपदा - त्वंद्विश्रान्तिलक्ष्म्या उपलक्षिता इह संसारसरसः – भवसमुद्रस्य अन्तरे - मध्ये, चरन्ति – व्यवहरन्ति । कीदृशे ? भवदीयात्परशक्तिरूपादङ्गात् परितः - समन्तात् स्रवद्भिः सुष्ठु शीतलैः– दुःखानलतापोपशान्तिदैरमृतपूरैः– आनन्दोल्लासैः द्भरिते—पूरिते इति यावत् ॥ ६ ॥ समन्ता- - = ● संसार रूपी १ ख० पु० त्वद्विश्रांतिसम्पदा – इति पाठः । २ घ० पु० कोहशि - इति पाठः । महामन्त्रतरुच्छायाशीतले त्वन्महावने । निजात्मनि सदा नाथ वसेयं तव पूजकः ॥ १० ॥ महामंत्र = अहं परामर्श रूपी तरु- = ( उत्तम ) वृक्ष की छाया- = छाया से शीतले = शीतल ( अर्थात् भेद-प्रथा - त्मक सन्ताप को दूर करने वाले ) निजात्मनि = स्वात्म रूपी (चित्स्वरूप ) के त्वद् - = महा- आविष्कारनाम अष्टादशं स्तोत्रम् = विशाल महामन्त्रः- परीवाग्रूपः शुद्धाहंविमर्श एव शक्तिशाखाशतैः प्रसृत- त्वात् तरुस्तस्य छायया - कान्त्या शीतले-भेदसन्तापहारिणि, त्वन्महा- वने- त्वमेव चिढ़ात्मा महावनं - विपुलं विश्रांतिस्थानं तत्र, निजात्मनि- स्वस्वभावे, नाथ सदा तव पूजक:- त्वदर्चापरो वयं – स्थितिं बनीयाम् ।। १० ।। प्रतिवस्तु समस्तजीवतः नाथ = हे स्वामी ! - यथा = जिस प्रकार ३१३ वने [ = वन में ( अर्थात् विश्रांति स्थान में) सदा = सदा तव = आपकी पूजक: : = पूजा में- ( सन् = लगा हुआ ) वसेयम् = रहा करूं ॥ १० ॥ = प्रतिभासि प्रतिभामयो यथा । मम नाथ तथा पुरः प्रथां व्रज नेत्रत्रयशूलशोभितः ॥ १९ ॥ समस्त- सभी जीवतः = प्राणियों को - - प्रतिवस्तु = प्रत्येक वस्तु में ( त्वं = श्राप ) प्रतिभा मयः = चित् स्वरूप के रूप में प्रतिभासि = दिखाई देते हैं, (अर्थात् न पहचाने जाते हुए भी वास्तव में विराजमान होते हैं), - तथा - उसा प्रकार मम = मुझ ( दासस्य = दास के ) पुरः = सामने ( त्वं = आप ) नेत्र-त्रय - = तीनों नेत्रों - - शूल- = तथा त्रिशूल से शोभितः ( सन् ) = सुशोभित होकर ( अर्थात् असाधारण अभिज्ञान से पूर्णरूप में पहचाने जाते हुए ) प्रथां व्रज = प्रकट हो जायें ॥ ११ ॥ १ ख० पु० परवाप्रपः - इति पाठः । २ ख० पु० चिदानन्दात्मा - इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली , - - प्रतिवस्तु – प्रतिभावं, समस्तजीवतः - सर्वेषां जीवानाम् असि - त्वं यथा प्रतिभामयः - संविद्रूपः नीलादिग्रहणान्यथानुपपत्त्या प्रति- भासि — अप्रत्यभिज्ञातोऽपि वस्तुतः स्फुरसि | तथा मम - दासस्य नाथ ! पुरः – अग्रे सर्वत्र, नेत्रत्रयेण शूलेन च शोभित :- निरतिशया- साधारणाभिज्ञानेन सम्यक् प्रत्यभिज्ञातः सन् , प्रथां व्रज — प्रकटीभव- समावेशेन स्फुरेत्यर्थ: । नेत्रत्रयशूले असाधारणाभिज्ञानोपलक्षणपरे, नं पुनरत्राकारे भरः | समस्तजीवतः - इति प्रतियोगे शम् ।। ११ ।। अभिमानचरूपहारतो ममताभक्तिभरेण कल्पितात् । परितोषगतः कदा भवान् मम सर्वत्र भवेद् दृशः पदम् ॥ १२ ॥ ( परमेश्वर = हे परमात्मा ! ) ममता = ( 'भगवान् शंकर ही मेरे - | गतः = बने हुए भवान् = आप

  • ,

स्वामी हैं, ऐसी ) ममता से भक्ति-भरेण [ = भरे हुए भक्ति-रस से कल्पितात् = किए गए अभिमान - = ( देह आदि) अहं- - दृशः = दृष्टि का कार रूपी पदं = विषय (अर्थात् विश्रांतिस्थान ) = चरु - = हव्यान्न के भवेत् = बलेंगे ! ( अर्थात् आदि उपहारतः = उपहार से ( अर्थात् - मेरे पराहंभाव- ग्रहण से ) परितोष- = प्रसन्न के अभिमान के नष्ट होने पर मैं. "कब आप की विश्वात्मता का साक्षा- त्कार करूंगा ! ) ॥ १२ ॥ अभिमान:- अहंकार एव चरुः - स्थालीपाकस्तस्य उपहारः - भग- वत्यर्पणं पराहंभावग्रहणं, ततः । कीदृशात् ? " मम महेश्वर स्वामी अस्ति" — इत्येवं ममताप्रधानः यो भक्तिरसः - सेवाप्रकारस्तेन कल्पि- कदा = भला कब सर्वत्र = सभी अवस्थाओं में मम = मेरी - - १ ख० पु० न च – इति पाठः । २ घ० पु० योगे शम् - इति पाठः । - ३ घ० पु० समताभक्ति - इति पाठः | ४ घ० पु० समताप्रधानः- इति पाठः । आविष्कारनाम अष्टादर्श स्तोत्रम् ३१५ तात् - सम्पादितात्, भवान् परितोषं गतः - - प्रसन्नः सन् कदा सर्वत्र मम दृश: - दर्शनस्य पदं - विश्रांतिभूर्भवेत् - गेलिते देहाद्यभिमाने त्वन्मयमेव विश्वं साक्षात्कुर्यामित्यर्थः ॥ १२ ॥ - निवसन्परमामृता ब्धिमध्ये भवदर्चाविधिमात्रमग्नचित्तः । जनवृत्तमाचरेयं सकलं रसयन्सर्वत एव किञ्चनापि ॥ १३ ॥ - ( भगवन् = हे भगवान् ! ) ( अहं = मैं ) भवत्-अर्चा - विधिमात्र-मग्न - चित्त :- केवल आपकी पूजा करने में लगे हुए चित्त वाला ( सन् = होकर ) परमामृत- अब्धि- = समुद्र के मध्ये = बीच में निवसन् = रहते हुए ( अतः = और इसीलिए ) - चिदानन्द रूपी = - सर्वतः एव = सभी ( वस्तुओं) के बीच में से किंचन अपि = (भीष्ट) लौकिक - ( नन्द-स्वरूप ) रसयन् = के चमत्कार का अनुभव करते हुए सकलं = सभी जन-वृत्तम् = लौकिक व्यवहारों को आचरेयम्: - = करता रहूँ । ( बस मेरे जीवन की साध तो यही है ) ॥१३॥ अहं भ॑वदर्चाविधिमात्रे मनचित्तः – आसक्तः सन्, परमामृताब्धि- मध्ये – चिदानन्द समुद्रस्यान्तसन् सकलं जनवृत्तं - लोकचेष्टितमाच रेयम् । कीदृक् ? सर्वतः - सर्वस्यैष मध्यात् किंचनापि -अलौकिकमा- नन्दस्वरूपम् अभीष्टं रसयन्- आस्वादयन् || १३ ।। १ ख० ग० पु० गलितदेहायभिमाने - इति पाठः । २ घ० पु० भवदर्चनविधिमात्रे - इति पाठः | - ३ ख० पु० चिदानन्दघनसमुद्रस्य इति पाठः । ग० पु० चिदानन्दघन समुद्रान्तः - इति पाठः । ४ क० पु० निवसन्- इति पाठः । ३१६ श्रीशिवस्तोत्रावली भवदीयमिहास्तु वस्तु तत्त्वं इदमेव हि विवरीतुं क इवात्र पात्रमर्थे । नामरूपचेष्टा- ( महेश्वर = हे ईश्वर ! ) - वस्तु = वस्तु - द्यसमं ते हरते हरोऽसि यस्मात् ॥ १४ ॥ इह = इस संसार में ( यत्किंचित् = जो कुछ ) - ( अस्ति = है ) - ( तत् सर्वे = वह सब कुछ ) भवदीयं ( रूपमस्ति अस्तु = अस्तु | = आपका ही = स्वरूप है । ) - अत्र = इस अर्थे = विषय में तत्त्वं = वास्तविक स्थिति यथार्थता ) का विवरीतुं = निश्चय करने के लिए कः इव = भला कौन सा (भक्त) - पात्रम् = योग्य - P ( अस्ति = हो सकता है ? ) हि = क्योंकि S (अर्थात् इदम् एव = यही ते = आप के असमं = असाधारण प्रभाव वाले - नाम = ( 'महेश्वर आदि ) नाम, = रूप- = ( 'चिदानन्द' ) रूप - चेष्टा आदि = और ( जगत् की सृष्टि- संहार ) आदि चेष्टा C हरते = ( हमारे हृदय को ) हर लेते हैं, ( अर्थात् समावेश की विव- शता उत्पन्न करके हमें ऐसा बना देते हैं कि हमें अपने व्यवहार की सुधबुध ही नहीं रहती । ) ( युक्तं चैतत् = और यह बात तो ठीक ही है, ) यस्मात् = क्योंकि (आप) - हरः = 'हर' ( अर्थात् हरने वाले ) S असि = ही तो ठहरे ॥ १४ ॥ - इह-जगति,यावत्किंचिद्वस्तु तत्सर्वं भवदीयं – त्वद्विभूतिरूपमिति । एतदोमित्येवास्तु । अत्रीर्थे तत्त्वं विवरीतुं क इव भक्तिमान् पात्रं, न कश्चित् । यतो याबद्वयमेतद्विचारयितुं प्रक्रमामहे तावद्यदुपक्रमविचार: तत्त्वदीयमिदमेव असामान्य प्रभावमनुभवसिद्धम् । नामरूपचेष्टादि । १ क० पु० श्रार्थतत्त्वम् – इति पाठः । २ ख० पु० असामान्यमनुभवसिद्धम् – इति पाठः । आविष्कारनाम अष्टादशं स्तोत्रम् 'महेश्वर' इत्यादि नाम, चिद्धनं रूपम् । सर्वसृष्टिसंहारकारिणी चेष्टा आदिग्रहणात् सर्वज्ञता स्वतंन्त्रादिधर्मः । तत्प्रथममेव स्फुरितं, तद्धरते- समावेशवैवैश्यापादनेन विस्मृतव्यापारानस्मान् सम्पादयति । युक्तं चैतत् | यतस्त्वं हरतीति हर:- इत्यन्वर्थनामा ॥ १४ ॥ शान्तये न सुवलिप्सुता मना- ग्भक्तिसम्भृतमदेषु तैः प्रभोः । मोक्षमार्गणफलापि नार्थना स्मर्पते - ( प्रभो = हे प्रभु-देव ! ) भक्ति- = भक्ति से सम्भृत = प्राप्त की गई मदेषु = मस्ती वाले (अर्थात् भक्ति से मस्त बने हुए आप के भक्तों ) में शान्तये = शांति के लिए ( अर्थात् दुःखों से छुटकारा पाने के लिए ) मनाक् = तनिक ( अपि = भी ) - सुख- लिप्सुता न = नहीं ( भवति होती । ) = सुख की हृदयहारिणः पुरः ॥ १५ ॥ और ) - इच्छा ( च = तैः = उनको हृदयहारिणः = ( समावेश में आपका साक्षात्कार होने पर ) मनो-मुग्ध- कारी प्रभोः = आप प्रभु पुरः = सामने = मोक्ष- = मुक्ति की = मार्गण- फला = फल वाली अर्थना = प्रार्थना अपि = भी - - • खोज रूपी स्मर्यते. ५ घ० ५० विचारान् इति पाठः । ६ क० ख० पु० अन्वर्थनाम्ना - इति पाठः । - ७ क० पु० प्रभो ! – इति पाठः । = याद नहीं रहती ॥१५॥ १ ख० पु० सर्वसृष्टिसंहारादिकारिणी - इति पाठः । २ ग० पु० स्वतंत्रादिरूपः - इति पाठः । ३ क० ग० पु० स्फुरत् इति पाठः । - ४ ख० १० चैकल्यापादनेन - इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली भक्त्या सम्भृतो मदो यत्र तेषु - त्वदासेषु विषये, शान्तये - दुःख निवृत्तये या सुखलिप्सुता - भोगस्पृहा, सा मनागपि नास्ति; भक्ति- संभृतमदत्वादेव । तैश्चं प्रभोः पुर इति - साक्षात्कृतस्याप्रे मोक्षमार्गण फलाप्यर्थना न स्मर्यंते । कीदृशस्य प्रभो ? हृदयहारिणः- मायाप्रमातृतां शमयतः । अत एव येषां हृदयमेव हृतं ते कथमन्यत्स्मरेयुः । इत्येषां समावेशपरतैवोक्ता ।। १५ ।। जागरेतरदशाथवा परा यापि काचन मनागवस्थितेः । भक्तिभाजनजनस्य साखिला ३१८ ( लोकेश्वर = हे लोकनाथ ! ) अवस्थितेः

= जगत्-व्यवस्था संबन्धी

( अर्थात् जगत् के नियम के अनुसार ) या = जो त्वत्सनाथमनसो महोत्सवः ॥ १६ ॥ थोड़े समय के लिए भी ) काचन = कोई ( दशा = दशा - ) - जागर- = = जागृति, इतर = दूसरी = दशा = दशा ( अर्थात् स्वप्न ) अथवा = या परा = • सुषुप्ति मनाक्-अपि = जरो सी भी ( अर्थात् - = ( भवेत् = हो, ) सा= वे - – अखिला = सभी (अ) त्वद् - = आप के साथ सनाथ = एकात्मता को प्राप्त हुये मनसः = मन वाले भक्ति- = ( स्वरूप समावेश रूपी ) भक्ति के भाजन- = पात्र बने हुये जनस्य = मनुष्य के लिये महोत्सवः = ( परमानन्द - पूर्ण ) बड़ा उत्सव हो होती हैं ॥ १६ ॥ अवस्थितेः– जगद्वयवस्थायाः सम्बन्धिनी या काचित् जागरस्वप्न- सुषुप्तदशा, मनागिति - संकुचितापि, सा सर्वा भक्तिमतस्त्वत्सनाथमनसः- त्वदधिष्ठित चित्तस्य, महोत्सवः - महाभ्युदयः; त्वत्सनाथत्वादेव ॥ १६ ॥ १ ग० पु० तैश्च पुरः प्रभो — इति पाठः । २ ख० पु० कीदृशप्रभोः— इति पाठः । आमनोऽक्षवलयस्य वृत्तयः ताः = वे - आविष्कारनाम अष्टादशं स्तोत्रम् संर्वतः शिथिलवृत्तयोऽपि ताः । त्वामवाप्य दृढदीर्घसंविदो नाथ = हे नाथ ! आमनः = मन सहित अक्ष-वलयस्य = नाथ भक्तिधनसोष्मणां कथम् ॥ १७ ॥ आप से अभिन्न हो जाने पर ) भक्ति-धन- = ( समावेश-मयी ) भक्ति रूपी धन ( के तेज ) से सोष्मणां = देदीप्यमान भक्तों के लिये वृत्तयः = वृत्तियां सर्वतः = पूर्ण रूप में सभी इन्द्रियों की शिथिल- - वृत्तयः = चञ्चल स्वभाववाली दृढ- ( सन्ति = होती हैं । ) कथं = कैसे - अपि = भी त्वाम् = (= ( चिद्रूप ) को अवाप्य = प्राप्त करने पर ( अर्थात् निश्चल दीर्घ- =और स्थायी ३१९ = संविदः = ज्ञान स्वरूप ( भवन्ति = बन जाती हैं ? यह तो

  • आश्चर्य है ॥ १७ ॥ )

, हे नाथ ! आमनः - मनःपर्यन्तम् अक्षवलयस्य - इन्द्रियग्रामस्य वृत्तयः–व्यापाराः, सर्वत्र शिथिलवृत्तयः – चञ्चला अपि यास्ताः, भक्ति- घनेन सोध्मणाम् – ऊर्जस्विनां त्वां चिद्रूपं प्राप्य, दृढा:-अशिथिलाः, दीर्घाच - भ॑व दैकात्म्येन त्वद्वदेवावस्थास्त्रवः शुद्धबोधरूपाः । कथमिति स्वात्मन्येवास्य विस्मयः ।। १७ ।। १ ख० पु० सर्वथा – इति पाठः । -

  • [ क ] शब्दार्थ – अवलयः = इन्द्रियों का समूह |

(१) व्यवहार, काम । (२) स्वभाव | वृत्तिः - [ ख ] भावार्थ - हे नाथ ! इन्द्रियों का व्यवहार स्वभाव से ही सदा चञ्चल होता है। किन्तु आप के भक्त जन जब समावेश के आनन्द को प्राप्त करते हैं, तो उनके लिए वही इन्द्रियों का व्यवहार आपके समान ही अचञ्चल और ज्ञानस्वरूप बन जाता है । ऐसा कैसे होता है, यह बड़े आश्चर्य की बात है ॥ १७ ॥ २ ग० पु० त्वदैकात्म्येन - इति पाठः । ३२० न च विभिन्नमसृज्यत किञ्चिद- स्त्यथ सुखेतरदत्र न निर्मितम् । अथ च दुःखि च भेदि च सर्वथा प्यसमविस्मयधाम नमोऽस्तु ते ॥ १८ ॥ ( प्रभो = हे प्रभु ! ) (सर्गादौ ( त्वया =) = श्रीशिवस्तोत्रावली सृष्टि के आरम्भ में ) - ( स्वतः = अपने स्वरूप से ) विभिन्नं = भिन्न किञ्चित् = कुछ भी - न च = नहीं असृजत = बनाया वस्तुतः त्वत्तः भिन्नं किंचित् अपि न = वास्तव में आप से भिन्न कुछ भी नहीं अस्ति = है । - अथ = और अत्र = इस संसार में ( त्वया ) = ( कुछ भी ) सुख-इतरत् = दुःखमय न = नहीं निर्मितम् = बनाया है । अथ च = किन्तु फिर भी । ( सर्व = सब कुछ ) दुःखि = ( पहचान न होने के कारण ) पूर्ण रूप में दुःखमय एकात्मता की = भेदि च = और भेदमय ही ( दिखाई देता ) है । ( ऐसे ) असम-विस्मय-धाम = असाधारण आर्य के स्थान ! ( हे प्रभु ! ) ते = आप को नमः अस्तु = नमस्कार हो ॥ १८ ॥ आदिसर्गादौ त्वया न च – नैव, किंचिद्भिन्नम् असृज्यत - सृष्टम्, नास्ति स्वतो विभिन्नं किंचित् । अथ शब्दो अध्यर्थे । सर्वस्य चेत्यमानत्वेन चिन्मयत्वाद्भेदासम्भवः । अथ च सुखेतरद् – दुःखरूपं न किंचिन्निर्मितम् उक्तादेव हेतोः । किंचिच्छन्दस्त्रिर्योज्य: । अथ चैवं सर्वथैव दुःखि च भिन्नं च | अपिरेवशब्दार्थः । त्वदैकात्म्याप्रत्यभिज्ञाना- देव | एवमसमविस्मयघाम- असामान्याश्चर्यभूमे ! ते तुभ्यं नमोऽस्तु ॥ १ क० पु० ऽप्रत्यभिज्ञानाचैव - इति पाठः । ख० पु० ऽप्रत्यभिज्ञानादेवम् - इति च पाठः । आविष्कारनाम अष्टादशं स्तोत्रम् खरनिषेधखदामृतपूरणो- च्छलितधौत विकल्पमलस्य मे । दलितदुर्जयसंशयवैरिण- स्त्वदवलोकनमस्तु निरन्तरम् ॥ १९ ॥ ( शम्भो = हे महादेव ! ) — के स्वर - निषेध- खदा- अमृत पूरण- उच्छलित · धौत = ( स्वरूप को ) छुपा ( भेद-प्रथा रूपा ) को ( परमानन्द - रूपी ) लबालब भर देने से धो डाला गया हो ( अर्थात् नष्ट किया गया हो ) रखने वाली भयानक खाई अमृत से विकल्प- विकल्प रूपी मलस्य = मल जिस का = दलित - = तथा पीसा गया हो (अर्थात् नष्ट किया गया हो ) नाथ = हे स्वामी ! ( त्वं तावत् = - . दुर्जय संशय- पहले ) = अजेय ३२१ - शंका रूपी वैरिणः = शत्रु जिस का, ऐसे मे = मुझ को - खरा - विषमा या निषेधखदा - त्वदुख्यातिदरी, तस्या अमृतेन - त्वदद्वयपीयूषेण यत्पूरणं, तेनोच्छलितम्- उत्प्लावितमत एव धौतं विकल्पमलं यस्य तस्य, तथा दलितः- चूर्णितो दुर्जयः संशय एब वैरी - रिपुर्येन तादृशः सतो मम त्वदवलोकनं - चिघनत्वदात्मस्फुरणं, निरन्तरं – घनमस्तु ॥ १६ ॥ त्वदू- = आप का अवलोकनं = दर्शन ( अर्थात् आप चित्स्वरूप का साक्षात्कार ) निरन्तरम् = लगातार (समाधि और व्युत्थान, दोनों अवस्थाओं में) अस्तु = प्राप्त होता रहे ॥ १९ ॥ स्फुटमाविश मामथाविशेयं सततं नाथ भवन्तमस्मि यस्मात् । रभसेन वपुस्तवैव साक्षा- त्परमासत्तिगतः समर्चयेयम् ॥ २० ॥ स्फुटं = ( गुप्त रूप में नहीं, वरन् ) प्रकट रूप में ३२२ माम् = मुझ में आविश = समावेश कीजिए । अथ = उस के बाद ( अर्थात् जब ऐसा श्रीशिवस्तोत्रावली करेंगे और मैं आप चित्स्वरूप के रंग में रँगा जाऊंगा, तो ) ( अहम् अपि = मैं भो ) भवन्तं = आप के स्वरूप में यस्मात् = फलतः ( अहं = मैं ) परम् = ( आपके ) त . साक्षात् = प्रत्यक्ष वपुः = स्वरूप की (के तात्त्विक स्वरूप की ) सततम्' = सदा सम् = भली भाँति = आविशेयम्- समावेश किया करूंगा | अर्चयेयम् = पूजा करूँगा, ( अर्थात् चित्स्वरूप में पूर्ण रूप में समावेश किये रहूँगा ॥ २० ॥ आसत्ति = निकट गतः = पहुँच कर रभसेन = उत्सुकता से तव = आप के एव = हे नाथ ! त्वं तावत् स्फुटं - प्रकटं कृत्वा न तु गृहितत्वेन समाविश | अथानन्तरम् एवं विधे त्वयि सति, उपजातसामर्थ्योऽस्मि अहं भवन्तं सततम् आविशेयं - गाढावष्टम्भेन स्वीकरोम्येवेति नियोगे लिङ् | यस्मा- दिति – एवं सति, परमासत्तिगतः - अतिनिकटं प्राप्तस्तवैव रभसेन - त्वरया साक्षाद्वपुः - तात्त्विकं स्वरूपं सम्यगर्चयेयं - समाविशेयमिति यावत् ।। २० ।। (परभैरवात्मन्=हे पर-भैरव स्वरूप !) कस्यापि = ( आप चिद्रूप को न पह- चानने के कारण ) किसी ( ब्रह्मा- आदि देवता ) को भी ही त्वयि न स्तुतिशक्तिरस्ति कस्या- व्यथवास्त्येव यतोऽतिसुन्दरोऽसि । सततं पुनरर्थितं ममैत- द्यदविश्रान्ति १ ख० पु० तथैव - इति पाठः । — विलोकयेयमीशम् ॥ २१ ॥ = त्वयि = आपकी स्तुति - शक्तिः = सामर्थ्य न = नहीं स्तुति करने का अस्ति = होता | = अथवा = अथवा (कस्यापि ) (चित्-स्वरूप को पहचानता है, ) उस असा मान्य ( पुरुष में ) अस्तिएव की स्तुति करने की शक्ति ) होती ही है, क्योंकि यतः = - ( त्वम् = आप ) - आविष्कारनाम अष्टादशं स्तोत्रम् अति सुन्दरः = ( चिदानन्द-घन होने के कारण ) अत्यन्त ही रमणीय - असि = हैं । मम = मेरी पुनः = तो सततम् = सदा एतत् = यही अर्थितम् = लालसा है - ३२३ - - यद् = कि ( अहम् = मैं ) अविश्रान्ति = लगातार आठपहर ) = - ( त्वाम् = आप ) ईशं = परमेश्वर को विलोकयेयम् = देखता रहूँ, (अर्थात् - समावेश में आप का साक्षात्कार करता रहूँ ) * ॥ २१ ॥ (अर्थात् - -- - कस्यापीति – ब्रह्मोपेन्द्ररुद्रादेरपि भेदमयत्वेन चिद्धन परमेश्वररूपा- प्रत्यभिज्ञानात् । अतिसुन्दर इति - चिदानन्दघनस्वात्मरूपत्वातिस्पृह णीयो हृदयहारी । अतो यस्त्वामात्मानं प्रत्यभिजानाति तस्य कस्यापि - असामान्यस्य त्वयि स्तुतिशक्तिरस्त्येव | कस्यापीति आवर्त्य योज्यम् । मम पुनः स्तोतुः सततमेतदर्शितं - - वाञ्छितं, यद विश्रान्ति - निर्विरामं त्वामीशं समवलोकयेयं - साक्षात्कुर्यामिति शिवम् ।। २१ ।। इति श्रीमदुत्पलदेवाचार्यविरचितस्तोत्रावस्यामाविष्कार- नाम्नि अष्टादश स्तोत्रे श्रीक्षेमराजाचार्यविर- चिता विवृतिः ॥ १८ ॥ १ ख० पु० कल्यानीति - इति पाठः । २ ग० पु० स्तोतुः सतः - इति पाठः ।

  • भावार्थ -- हे भैरवनाथ ! ब्रह्मा जैसे बड़े-बड़े देवता भी आपका गुण-गान

नहीं कर सकते । फिर भला मैं कैसे कर सकूं ? अतः मुझे ऐसा करने की अभिलाषा नहीं है। मेरी तो बस यही लालसा है कि मैं सदा आप के स्वरूप का साक्षात्कार करता रहूँ ॥ २१ ॥ ॐ तत् सत् अथ उद्योतनाभिधानम् एकोन वेंश स्तोत्रम् प्रार्थनाभूमिकातीतविचित्रफलदायकः । जयत्यपूर्ववृत्तान्तः शिवः सत्कल्पपादपः ॥ १ ॥ अपूर्व - =और अलौकिक वृत्तान्तः = व्यवहार वाले • भगवान् शंकर रूपी शिवः = सत् = अत्यन्त उत्कृष्ट कल्प- पादपः = कल्प वृक्ष की जयति: = जय हो ॥ १ ॥ प्रार्थना = प्रार्थना की भूमिका- = अवस्था से

अतीत परे (अर्थात् बढ़ चढ़ कर ) होने वाले विचित्र = तथा अनूठे फल- = फल को दायकः = देने वाले सत्कल्पतरुर्वाञ्छितमेव ददाति; शिवस्तु प्रार्थयितुमशक्यमपि -- इत्यपूर्वंवृत्तान्तः ॥ १ ॥ सर्ववस्तुनिचर्येक निधाना- त्स्वात्मनस्त्वदखिलं किल लभ्यम् । अस्य मे पुनरसौ निज आत्मा न त्वमेव घटसे परमास्ताम् ॥२॥

  • भावार्थ – कल्प वृक्ष तो केवल वही चीन प्रदान करता है जिस की इच्छा

की जा सकती है और जिस के लिए प्रार्थना की जा सकती है अर्थान संसार का सुख । भगवान् शंकर तो परमानन्द रूपी वह चीज भी प्रदान करता है जिस की न तो इच्छा की जा सकती है और न जिसके लिए प्रार्थना ही की जा सकती है । यही उस के व्यवहार का अनूठापन है और इसी लिए वह स्वर्ग लोक के कल्पवृक्ष से बढ़-चढ़ कर है || १ || ( त्रिलोकनाथ = हे तीनों लोकों के – स्वामी ! ) • सभी सर्व- = = वस्तु - निचय - = ( जड़ तथा चेतन ) वस्तुओं के एक = एक मात्र निधानात् = आश्रय होने वाले त्वत्- = आप उद्योतनाभिधानमे कोनविंशं स्तोत्रम् नहीं है । पुनः = किन्तु अस्य मे त्वम् एव निजः आत्मा= ( सदा स्वरूप - परामर्श करने में अपने लगे हुए ) मुझ को स्वात्म-स्वरूप ही, न घटसे=3 से प्रकट नहीं होते, ( अर्थात् व्युत्थान में आपका साक्षात्कार मुझे नहीं होता ), परम् = अन्य सिद्धियों की बात तो आस्ताम् = दूर रही ॥ २ ॥ स्वात्मनः = स्वात्म- देव से - अखिलं = सब कुछ लभ्यम् = प्राप्त हो सकता है, = इस में तनिक भी सन्देह किल त्वदिति – त्वत्तः स्वात्मनः सर्वार्थैकाश्रयात्किल विश्वं लभ्यम् | अस्येति — सदा स्वरूपनिभालनप्रवणस्य मम पुनः परं लभ्यमास्तां, त्वमेव निज आत्मा - स्वं स्वरूपं न घटसे - व्युत्थानसमये न प्रकाश से इति यावत् ॥ २ ॥ ज्ञानकर्ममयचिद्रपुरात्मा सर्वथैष परमेश्वर एव । स्वाद्वपुस्तु निखिलेषु पदार्थे- ज्ञान- = ज्ञान कर्म- ष्वेषु नाम न भवेत्किमुतान्यत् ॥ ३ ॥ निखिलेषु = ( संसार की ) सभी पदार्थेषु = वस्तुओं में - एषः = यह = तथा क्रिया शक्ति से मय- = सम्पन्न - चिद्वपुः = चित्-स्वरूप परमेश्वरः = परमेश्वर एव = ही - आत्मा = आत्मा ( अस्ति = है ), - ३२५ - ( स एव = और वही ) सर्वथा = सब प्रकार से वपुः = ( उनका वास्तविक ) स्वरूप - स्यात् = हो सकता है। ( अन्यथा = यदि ऐसा न होता ) ३२६ तु = तो - = एषु = इन वस्तुओं में नाम = ( सत्ता का ) नाम. ( एव = भी ) - श्रीशिवस्तोत्रावली सर्ववस्तुषु चिद्वपुर्ज्ञानक्रियात्मा परमेश्वर आत्मा, स एवं सर्वथा - सर्वेण प्रकारेण त्वंदशाधिष्ठानेन वपुः - स्वरूपं स्यात् - अस्तीति सम्भा- व्यते । एष इति - स्फुरद्रूपः । ननु विचित्र कार्यकारणानां नानादेशस्वरू- पाणां वस्तूनां कथमे केश्वरात्मता सम्भाव्यते ? इत्याह एषु वस्तुषु अन्यथा नौमैव–संज्ञैव न भवेत् किमुतान्यत् ;- कार्यकारणस्वरूपादि- कम् | प्रकाशमयत्वं विना कस्याप्यसिद्धेः | अन्यथा - इत्यध्याहार्यम् ||३|| ु - नाथ = हे प्रभु ! विषम- S अर्ति = दुःखों को मुषा = दूर करने वाले त्वद् - = आप के दृक् = साक्षात्कार - आत्मना = रूपी अनेन = इस न भवेत् = न होता - अन्यत् = और बातों की उत किम् = बात ही नहीं ॥ ३ ॥ विषमार्तिमुषानेन फलेन त्वहगात्मना । अभिलीय पथा नाथ ममास्तु त्वन्मयी गतिः ॥ ४॥ ( संसार के ) भयंकर पथा = मार्ग से अभिलीय = (मैंप में ) लीन हो जाऊं फलेन = (और) फल-स्वरूप = मम = = मुझे त्वन्मयी : से अभिन्न रूप वाली गतिः = [अवस्था अस्तु = प्राप्त हो जाय ॥ ४ ॥ विषमार्ति- संसारतापं मुष्णाति यस्त्वंहगात्मा-त्वत्साक्षात्कार- रूपः पन्थो, तेन मे अभिलीय - फलेन फलतः । त्वन्मयी - त्वदेक रूपा - १ क० पु० त्वदधिष्ठानेन - इति पाठः । २ ग० पु० करणानाम् – इति पाठः । ३ ख० पु० पुनर्नाम — इति पाठः । ४ क० पु० ५ ग० पु० यस्त्वद्दशात्मा - इति पाठः । पन्थास्तेन - इति पाठः । उद्योतनाभिधान मे कोनविशं स्तोत्रम् गति :- प्राप्तिरस्तु, भुक्त्वा देवदत्तगमन मिति वत् | क्त्वाप्रत्ययो योजयित्वा परतोऽस्तु - इति योज्यम् | स्फुरच्चिदानन्दविलासा - इति व्याकर्तव्यम् ॥ ४ ॥ ▬▬ भवदमलचरणचिन्तारत्नलता- सिद्धिः । लङ्कृता सिद्धजनमानसानां विस्मयजननी घटेत मम कदा ( भक्तवत्सल = हे भक्त-प्रिय प्रभु ! ) -- भवत् = श्राप के अमल- ( ज्ञान-क्रिया रूपी ) निर्मल चरण- चरणों की

  • चिन्ता- = ध्यान रूपिणी

रत्न- = रत्नों की लता - = लता से अलंकृता = सुशोभित ( एवं = तथा ) = भवतः ॥ ५ ॥ सिद्ध-जन- = सिद्ध योगियों के - मानसानां = हृदय में विस्मय = आश्चर्य जननी : ३२७ अभिलीय - इत्यत्र अभिलीलेति पाठे मम = सिद्धिः = ( मुक्ति रूपिणी ) सिद्धि • मुझे कन्द्रा = भला कव भवतः = आप से घटेत = प्राप्त हो जायेगी ॥ ५ ॥ = उत्पन्न करने वाली १ क० पु० अभिलीलस्फुरत्- इति पाठः ।

  • शब्दार्थ – चिन्ता = ध्यान, स्मरण |

भवतोऽमलाः - शुद्धा ये चरणा:- ज्ञानक्रिया दिमरीचयस्तेषु चिन्ता - पुनःपुनर्निभालनं, सैव सर्वसंपत्प्रदत्वाद्रत्नलता, तया अलङ्कृता- संप्राप्तत्वदावेशशोभा कदा मम पूर्णा सिद्धिर्घटेत भवतः सकाशात् । कीदृशी ? सिद्धजनमानसानां - योगिचित्तानां विस्मयजननी ॥ ५ ॥ चिन्तारत्न = चिन्तामणि । यह एक कल्पित रत्न है । कहा जाता है कि यह रत्न सब इच्छाओं को पूर्ण कर देता है । सिद्ध-जन = जिस ने योग या तप में सिद्धि प्राप्त की हो, ऐसा पहुँचा हुआ साधु | ३२८ श्रीशिवस्तात्रावला कहि नाथ विमलं मुखबिम्बं तावकं समवलोकयितास्मि । यत्स्रवत्यमृतपूरमपूर्व यो निमजयति विश्वमशेषम् ॥ ६ ॥ नाथ = हे नाथ ! ( अहं = मैं ) तावकं = आपके ( उस ) विमलं = निर्मल मुख-बिम्बं कहि = मुख-मण्डलका (अर्थात अत्यन्त उत्कृष्ट शाक्त-स्वरूप का ) = भला कब समवलोकयितास्मि = साक्षात्कार करूंगा, यत् = जो अपूर्व = लौकिक अमृत- • (चिदानन्द रूपी) अमृत की = धारा पूरं : स्रवति = बहाता है, यः = जो ( धारा ) = इस सारे अशेषं व्युत्थानावस्थितस्येय मुक्ति: । कर्हि नाथ ! विमलं मुखबिम्ब- परं शाकं रूपं तव समवलोकयितास्मि - साक्षात्करिष्यामि । अमृत- पूरम् - आनन्दप्रसरमपूर्वम्-अलौकिकम् । लोकयितृलोक्यरूपं विश्वं निमज्जयति ॥ ६ ॥ - विश्वं = ( भेदप्रथा - पूर्ण ) जगत् को निमज्जयति = डुबा देती है ॥ ६॥ ध्यातमात्रमुदितं तब रूपं कहिं नाथ परमामृतपूरैः । पूरयेत्त्वदविभेदविमोक्षा- नाथ = हे स्वामी ! - मे = मेरे ख्यातिदूरविवराणि सदा मे ॥ ७ ॥ | तव = आपका = स्वरूप परम = (अपने चिदानन्द रूपी ) उत्कृष्ट ध्यात मात्रम् = ध्यान करते ही उदितं = ( शाक्तोपाय-कम से ) प्रकट बना हुआ

  • अमृत- = अमृत की

पूरैः = धाराओं से त्वदू- = आपके अविभेद- = अद्वयानन्द रूपी विमोक्ष- = मोक्ष के अख्याति = अप्रथनात्मक दूर = गहरे उद्योतनाभिधानमेकोनविंशं स्तोत्रम् नाथ = हे प्रभु ! मे = मेरा मनः = मन अद्यापि = विवराणि = रन्ध्रों को (अर्थात् त्वदविभेद् एव विमोक्षः - भेदबन्धापगमः | तस्य अख्याति:- अप्रथा, तदीयानि दूराणि विवराणि - गहनान्याकाङ्क्षामयानि गर्तानि, कर्हि - कदा मे ध्यातमात्रमुदितं - चिन्तनानन्तरमेव विकसितं सत् तव संबन्धि रूपं कर्तृ, सदा परमामृतपूरै :- आनन्दविसरैः, पूरयेत् - आप्लावयेत् ।। ७ ।। - भीभी (बार- आनन्द को छुपा रखने वाली अन्य सांसारिक इच्छाओं को ) = कब कर्हि त्वदीयानुत्तररसासङ्गसन्त्यक्तचापलम् । नाद्यापि मे मनो नाथ कर्हि स्यादस्तु शीघ्रतः ॥८॥ ३२९ सदा सदा के लिए - पूरयेत् = प्लावित करेगा (अर्थात् डुबा देगा ) ! ॥ ७ ॥ बार समावेश का आनन्द लूटने पर भी ) त्वदीय- = आप के अनुत्तर = अलौकिक

  • सारांश -

हे प्रभु ! सांसारिक इच्छाएँ जब तब मेरे हृदय पर अधिकार जमा कर इसे अद्वयानन्द से वंचित रखती हैं। अतः मेरी लालसा है कि मेरे ध्यान करते ही आपका स्वरूप चमक उठे और आनन्द अमृत की धारा से उन इच्छाओं को प्रवाहित करें, अर्थात् उनको समूल तहस नहस कर डाले ॥ ७ ॥ १ क० पु० मोक्षः - इति पाठः । २ ग० पु० चिन्तासमनन्तरमेव – इति पाठः । ३ ख० ५० तत् — इति पाठः । ३३० = रस- = ( चिदानन्द - ) रस के आसंग = सम्पर्क से भी सन्त्यक्त चापलं न ( भवति ) = पूर्ण रूप में अपनी चंचलता नहीं छोड़ पाता, = कहि = भला कब स्यात् = ( ऐसा ) हो सकता है ? श्रीशिवस्तोत्रावली त्वदीयोऽनुत्तरो रसः - परचित्प्रसरः तदासङ्गः– तत्परत्वं, तेनापि अद्यापीति - असकृदा स्वादितेऽपि समावेशे | कर्हि शीघ्रं स्यात् — इति गाढोत्कण्ठापरत्वं सूचयति ॥ ८ ॥ सन्त्यक्तचापलं - गलितव्युत्थानम् ( भगवन् = हे भगवान् ! ) - मा शुष्ककटुकान्येव परं सर्वाणि सर्वदा । तबोपहृत्य लब्धानि द्वन्द्वान्यप्यापतन्तु मे ॥ ९ ॥ सर्वाणि = सभी - ( अर्थात् कब मेरा मन चञ्चलता को छोड़ सकेगा ! ) शीघ्रतः = काश, ( ऐसा ) तुरन्त अस्तु = होता ! ( अर्थात् काश, मेरा मन सदा के लिए व्युत्थान से अपना पिंड छुड़ा सकता ! ) ॥८॥ त्वद्-अद्वयामृत-रस-रहितत्वेन आप के अद्वय-अमृत-रस से रहित होने के कारण शुष्क- = नीरस कटुकानि = और कड़वे मा = ( कभी ) न द्वन्द्वानि = ( सरदी-गरमी आदि ) आपतन्तु = आ जाएं | जोड़े परं = किन्तु ( यदि ये जोड़े ) एव = ही ( सन्ति = हैं, ) ( अतः एतानि = अतः ये ) मे = मेरे पास - = आप के उपहृत्य = ( चिदानन्द के सम्पर्क को ) पाकर तव लब्धानि = प्राप्त हो जाएं, ( एतानि सर्वाणि = तो ये सभी ) - अपि = ही 7 सर्वदा = ( मेरे पास ) सदा - ( आपतन्तु रहें ॥ ९ ॥ ) तबोपहृत्य लब्धानि - चिन्मयत्वेन त्वय्यनुप्रविश्य व्युत्थाने समा वेशसंस्काररसास्त्रोदनासादितानि, परं सर्वकालं सर्वाणि द्वन्द्वानि- — १ ग० पु० चिन्मये - इति पाठः २ ग० पु० आस्वादानि - इति पाठः । उद्योतनाभिधान मे कोनविंश स्तोत्रम् शीतोष्णादीन्यपि आपतन्तु, शुष्ककटुकान्येव - पुर्नस्त्वदद्वयस्पर्शामृता- पूर्णत्वाद्र्क्षदुःस्वादप्रायाणि मा- मैवँम् ॥ ६ ॥ नाथ साम्मुख्यमायान्तु विशुद्धास्तव रश्मयः । यावत्कायमनस्तापतमोभिः नाथ = हे स्वामी ! तव = आप की विशुद्धाः = निर्मल ( अर्थात् अनुग्रह - स्वरूपिणी रश्मयः = ( ( तावत् = तब तक ) साम्मुख्यम् = मेरे सामने - रूप ) शक्तियां आयातुजाएं, (अर्थात् साक्षा त्कार के मार्ग पर देदीप्यमान बनी रहें ) यावत् = जब तक कि काय = ( भूख, प्यास आदि ) शारीरिक २ ख० पु० पुनरद्वयः - इति पाठः । - ३ घ० पु० मैव - इति पाठः । ४ क० पु० निमज्य – इति पाठः । ३३१ परिलुप्यताम् ॥१०॥ मन:- = तथा ( काम, क्रोध आदि ) मानसिक ताप = दुःख रूपी तमोभिः = अन्धकार परि = पूर्ण रूप में लुप्यताम् = नष्ट हो जाए ॥ १० ॥ साम्मुख्य मायान्तु – देहादिप्रथां निर्मज्ज्य प्रस्फुरन्तु | शुद्धाः – अनु- ग्रहपराः, रश्मयः - शक्तयः | कायमनस्तापत मोभिरिति- कायमनस्तापा एव तमांसि तैः परिलुप्यतां - समन्तान्नश्यताम् ।। १० ।। १ क० पु० शीतोष्णादीन्येव - इति पाठः । - देव प्रसीद यावन्मे त्वन्मार्गपरिपन्थिकाः । परमार्थमुषो वश्या भूयासुर्गुणतस्कराः ॥ ११ ॥ ५ क० पु० परिपन्थकाः - इति पाठः । ६ ख० पु० भवेयुरिति - इति पाठः । - श्री शिवस्तोत्रावली ३३२ - देव = हे प्रकाश स्वरूप ! त्वद् - = आप के मार्ग - = ( पारमार्थिक ) मार्ग को - - परिपन्थिकाः = रोके रखने वाले ( अर्थात् शाक्त-भूमि में प्रवेश करने से रोकने वाले ) ( एवं = और इसीलिए ) - परमार्थ = परमार्थ अर्थात् चिदे- कता को - मुषः = छीनने वाले (अर्थात् उसे बेकार बनाने वाले ) गुण- ( सत्त्व आदि तीन ) गुण = रूपी अथवा इन्द्रिय रूपी तस्कराः = चोर - यावत् = जब तक मे = मेरे - वश्याः = वश में - भूयासुः = हो जायें, ( तावत् = तब तक ) ( त्वं = []) प्रसीद = ( मुझ पर ) प्रसन्न रहिए, ( अर्थात् मुझ पर दया करते रहें ) ॥ ११ ॥* प्रसादः प्राग्वत् । त्वन्मार्गपरिपेन्थिकाः- परमार्थशाक्तभूमिप्रवेश- रोधिनः, अत एव परमार्थ - चिदभेदं मुष्णन्ति - अपहरन्ति, अनुप- भोग्यं सम्पादयन्ति ये गुणाः-सत्त्वाद्य एव तस्कराः, ते वश्या भूयासुः । तदुक्तं 'गुणादिस्पन्दनिःष्यन्दाः । ‘‘स्युईस्यापरिपन्थिनः' ॥ स्पं०, नि० १, श्लो० १९ ॥ इति । 'प्रसोद, भूयासुः' - इति लोड्लिङ सम्भूय आशीविंशिष्टां

  • भावार्थ – हे प्रभु ! ये मेरी इन्द्रियाँ और सत्त्व आदि गुण मेरे बड़े शत्रु

हैं । जब मैं आप के मार्ग पर चलने लगता हूँ, तो ये बडमारों की तरह मुझे रोकते हैं और मेरे परमार्थ-धन को छीन कर मुझे इससे चञ्चित रखते हैं। जरा मुझ पर प्रसन्न रहने की कृपा तो कीजिए, ताकि मैं इन बटमारों को वश में कर सकूँ और इन्हें मनमानी न करने दूं । जब ऐसा होगा की कृपा आप से आप ही मुझे प्राप्त होगी और फिर मुझे आप के सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ेगा ॥ ११ ॥ १ क० पु० परिपन्थकाः - इति पाठः । २ क० पु० परममर्थम् – इति पाठः । उद्योतनाभिधान मे कोनविंशं स्तोत्रम् ३३३ प्रार्थनां गमयतः । यथा लुंनीहि लुनीहि - इत्यादौ लोड्वंचने कर्मव्यति- हारात् | एवमन्यत्रापि स्मतव्यम् | स्वामिनि प्रसन्ने चौर वश्या भवन्ति -- इति लौकिकोऽर्थः स्पष्ट एव ।। ११ ।। त्वद्भक्तिसुधासारै- र्मानसमापूर्यतां ममाशु विभो । यावदिमा उह्यन्तां विभो = हे व्यापक प्रभु ! मम = मेरा निःशेषासारवासना: प्लत्वा ॥ १२ ॥ आपूर्यतां = भर दिया जाय, - यावत् = जब तक इमाः = ये निःशेष- मानसं = मन रूपी मानसरोवर ( तावत् = तब तक ) = आप को = भक्ति रूपी सुधा अमृत की आसारैः = धाराओं से त्वद्- भक्ति- - आशु = तुरन्त सभी असार- = तुच्छ वासनाः = ( संकल्प - विकल्प - मय ) - वासनायें ( रूपी पक्षी ) = प्लुत्वा = एकदम उठ कर उह्यन्ताम् = उड़ जायें ॥ १२ ॥ १ घ० पु० लुनीहीत्यादौ - इति पाठः । - २ ग० पु० लोड़ - द्विवचने - इति पाठः ।

  • ( क ) शब्दार्थ-

मानस = ( १ ) मन, ( २ ) मानस नाम का सर, मानसरोवर | सुधा = अमृत = ( १ ) अमृत, पीयूष ( २ ) जल | हंस = ( १ ) राजहंस ( २ ) शिवजी | ( ख ) भावार्थ - हे हंस ( शङ्कर ) ! बरसात आते ही हंस मानसरोवर को चले जाते हैं । उन के वहाँ पहुँचने पर और मानसरोवर के अमृत जल से भर जाने पर वहाँ के अन्य पक्षियों के रहने के लिए अवकाश ही नहीं रहता और उन पक्षियों को स्वयं बहिष्कृत होना पड़ता है। फलतः वहाँ केवल हंस ही विराजमान होते हैं और उन से मानसरोवर की शोभा बढ़ती है । श्री शिवस्तोत्रावली - मानसं - चित्तं सरश्च । असाराः कुत्सिताः, सरस्यपि असारैः पूरिते, असारवासनाः - कटूदकवासनाः 'लुवा - उत्प्लुत्य स्वयमेव उद्यन्ते–बहिर्निःसरन्ति ॥ १२ ॥ - ३३४ मोक्षदशायां भक्ति- त्वयि : स्त्वयि कुत इव मर्त्यधर्मिणोऽपि न सा । राजति ततोऽनुरूपा मारोपय - अज = हे स्वयंभू महादेव ! मर्त्य-धर्मिणः = मरना है स्वभाव जिस का, ऐसे मनुष्य को मोक्ष- = मोक्ष की = दशायां = दशा को पहुँचने के लिए.. भक्तिः = भक्ति = सा = = आपकी सिद्धिभूमिकामज माम् ॥ १३ ॥ न राजति: = चमक नहीं उठती । ( अतः त्वंतः आप = कुतः इव = भला कैसे ( भवति = हो सकती है ! ) - ततः = उस ( समावेश रूपिणी ) भक्ति के अनुरूप = योग्य (अर्थात् समावेश- मयी ) सिद्धि-भूमिकां = परम-सिद्धि-भूमि पर (परम- म - शिव-पदवी पर ) वह ( भक्ति ) - माम् = मुझे (तत्र = वहाँ, अर्थात् उस के हृदय में): आरोपय = पहुँचायें ॥ १३ ॥ मोक्षदशा- परमशिवता, जीवन्मुक्तता मुक्तप्रायता। यदनेनैवोक्तं 'तस्यामाद्यदशारूढा मुक्तकल्पा वयं ततः' । शिव० स्तो०, स्तो० १६, श्लो० १९ ॥ हंस ( शिव ) मेरे मानस ( मन ) में प्रकट हो जाइये और इसे अपनी भक्ति रूपी अमृत से भर दीजिए । फिर वहाँ तुच्छ वासनाओं के लिए अवकाश नहीं रहेगा और वह स्वयं बहिष्कृत हो जायेंगी । फलतः मुझे आप के साक्षात्कार से परमानन्द का लाभ होगा और उस से मेरे मानस मन ) की शोभा बढ़ेगी ॥ १२ ॥ १ क० पु० सिद्धभूमिकाम्—–—इति पाठः । उद्योतनाभिधानमेकोनविंशं स्तोत्रम् इति | मर्त्यधर्मिण इति - अप्रत्यभिज्ञातात्मस्वरूपस्य | अनुरूपामिति- प्राग्वद्रुद्रशक्तिसमावेशमयीम् । परमंसिद्धिभूमि — तत्रैव प्रभुदासभावस्य स्फुटं स्फुरणात् ॥ १३ ॥ - सिद्धिलवलाभलुब्धं मामवलेपेन मा विभो संस्थाः । क्षामस्त्वद्भक्तिमुखे प्रोल्लसदणिमादिपक्षतो मोक्षः ॥ १४ ॥ कीली ( अर्थात् लुभाने वाली ) विभो = हे व्यापक प्रभु ! - ( त्वं = []) माम् = मुझे अवलेपेन = अभिमान के साथ - सिद्धि-लव = ( भेद-मय अणिमा - द)सद्धियों के लाभ = लाभ के लिए लुब्धं = लालायित मा = कभी न संस्था: = बनाइये, ( यतः = क्योंकि ) प्रोल्लसत्- = अत्यन्त चमकीली-भड़- = अणिमा-आदि- पक्षतः = (आठ सिद्धियों ) के ३३५ अणिमा आदि १ ग० पु० परसिद्धिभूमिम् - इति पाठः । २ क० पु० तल्लाभलुब्धम् – इति पाठः । ३ ग० पु० संस्थाः - इति पाठः । - ४ ख० पु० पारमेशनये - इति पाठः । गया ) " मोक्षः = मोक्ष त्वद्-भक्ति-मुखे = आपकी भक्ति के सामने (अर्थात् के समावेश पर ( प्राप्त किया के आनन्द के सामने ) क्षामः = क्षीण अर्थात् पूर्ण ( भवति = होता है ) ॥ १४ ॥ = समावेशात्मकपूर्णसिद्धचपेक्षया भेदमयाणिमादयः सिद्धिलवास्त- ल्ला लुब्धं मा संस्था: । अवलेपेनेति - मां सिद्धिलवलुब्धमाकलय्य मावलेपं कुर्याइति यावत् । ननु पॉरमेशे नये साधकानां सिद्धयुप- भोगानन्तरं श्री शिवस्तोत्रावली "भुक्त्वा भोगांश्छिवं व्रजेत् ।' इत्याम्नायेषु शिवतैव श्रूयते, तत्किमत्रारुचिरित्याशङ्कच युक्तिमाह - प्रोल्ल सदणिमादिपक्षादनन्तरं कालान्तरे यो मोक्षस्त्वद्भक्तिमुखे - त्वत्समा वेशानन्दस्य पुरतः, क्षामः - अत्यल्पः ।। १४ ।। - ३३६ दासस्य मे प्रसीदतु दांता त्रिभुवननाथो ननु = सचमुच = मे भगवानेतावदेव ननु याचे । ( नाथ = हे स्वामी ! ) - ( अहं तु = मैं तो ) यस्य न तन्मादृशां दृशो विषयः ॥ १५ ॥ एतावत् = इतनी एव = ही - याचे = प्रार्थना करता हूँ कि भगवान् = (प) प्रभु-देव = मुझ = दास पर दासस्य प्रसीदतु = प्रसन्न रहें । = यस्य = जिस ( फलस्य = फल का ) दाता = दाता ( अर्थात् जिस मोक्ष रूपी असामान्य फल का दाता ) त्रिभुवन - = तीनों लोकों के नाथः = स्वामी ( आप हैं ), = वह ( मोक्षात्मक फल ) तत् = मादृशां : = मुझ जैसे ( लोगों ) की १ क० पु० धाता - इति पाठः । २ क० पु० मादृशम् - इति पाठः । ३ ग० पु० तादृशाम् - इति पाठः । - दृशः = बुद्धि का विषयः = विषय न (अस्ति) = नहीं है, ( अर्थात् वह मुझ जैसे लोगों की समझ से बाहिर है ) ॥ १५ ॥ एतावदिति - न तु अणिमादि । प्रसीदतु इति । त्रिभुवनं प्राग्वत् । यस्येति–असम्भाव्यस्य [ सम्भावितस्य ] फलस्य, तत्फलं-सदृशम्, इति न मादृशां दृश इति - बुद्धेः ।। १५ ।। त्वद्वपुःस्मृतिसुधारसपूर्ण उद्योतनाभिधानमे कोनविंशं स्तोत्रम् मानसे तव पदाम्बुजयुग्मम् । सदैव मामके विकसदस्तु प्रस्रवन्मधु ( प्रभो = हे प्रभु ! ) ( = आप के त्वद्- वपुः- = स्वरूप के स्मृति- • चिन्तन रूपी सुधा- = अमृत के रस- = रस से . पूर्णे = भरे हुए मामके = मेरे मानसे: 1 = मन में तव = आप के अथ = अब असौ किमप्यतिलोकम् ॥ १६ ॥ चरण कमलों का. = यह त्र्यम्बकः = त्र्यम्बक नाथ ( अर्थात् इच्छा, ज्ञान और क्रिया रूपिणी = पद्-अम्बुज- युग्मं = किमपि = अवर्णनीय - जोड़ा = अतिलोकं = तथा अलौकिक मधु = ( परमानन्द रूपी ) मृत को प्रस्रवत् = बहाते हुए सदैव = सदैव - १ ख० पु० अस्तु —— इति पाठः । २२ शिव विकसत् = खिला - - पादाम्बुजयुग्मं प्राग्वत | विकसद् — भेदसंकोचमुज्झत् | मधु - परमानन्दरूपं माधुर्यम् | अतिलोकम् – अलौकिकम् | रसपूर्णे च मानसे अम्बुजं विकसम्मधु स्रवति ॥ १६ ॥ अंस्ति मे प्रभुरसौ जनकोऽथ त्र्यम्बकोऽथ जननी च भवानी । न द्वितीय इह कोऽपि ममास्ती- त्येव निर्वृततमो ३३७ अस्तु = रहे, ( अर्थात् भेद रूपो संकोच को दूर करता रहे ) ॥ १६ ॥ विचरेयम् ॥ १७ ॥ तीन शक्तियों का स्वामी ) - प्रभुः = प्रभु, शंकर मे = मेरा जनकः = पिता ३३८ अस्ति = है अथ च = और - भवानी = पार्वती जी ( परा-शक्ति ) ( मे = मेरी ) जननी = माता ( है ) । = इस संसार में द्वितीयः = दूसरा श्रीशिवस्तोत्रावली कोsपि = कोई भी = मम = मेरा - न = नहीं । - अस्ति = है | इत्येव = इतने में ही निर्वृततमः = अत्यन्त आनन्दित ( सन् = होकर ) - ( अहं = मैं ) विचरेयम् = विहार करूँ ॥ १७ ॥ - असाविति - चिद्धनो मे प्रभुः - अनुग्राहकः जनकः, प्रमातृतोल्लास- कश्च त्र्यम्बकः । तथा भवानी - पराशक्तिः जननी प्रभत्री चास्ति । ईदृशस्यैव प्रत्यभिज्ञात महेश्वरस्वरूपस्य मे इह - जगति न द्वितीय: कोऽप्यस्ति | ममेति शेषे षष्ठी । इत्येव - एतावतैव । निर्वृततमः - अत्यर्थ प्रमुदितो बिचरेयं — विहरेयमिति शिवम् ।। १७ ।। - इति श्रीमदुत्पलदेवाचार्यविरचितस्तोत्रावलावुद्योतना भिधानकोनविंशस्तोत्रे श्रीक्षेमराजविरचिता विवृतिः ॥ १९ ॥ चर्वणाभिधानं वंशं स्तोत्रम् नाथं त्रिभुवननाथं भूतिसितं त्रिनयनं त्रिशूलधरम् । उपवीतीकृतभोगिनमिन्दुकलाशेखरं वन्दे ॥ १ ॥ ( अहं = मैं ) त्रिभुवन - = तीनों लोकों के नाथं = स्वामी, भूति- = भस्म ( के लेप ) से सितं = गोरे रंग वाले = त्रिनयनं = त्रिनेत्र-धारो - त्रिशूल- = त्रिशूल को = धारण करने वाले ॐ तत् सत् अथ धरम् उपवीती-कृत- भोगिनम् = ( वासुकि आदि) सर्पों को यज्ञोपवीत के रूप में गले में धारण करने वाले इन्दुकला = तथा चन्द्र कला को शेखरं = माथे पर धारण करने वाले नाथं = अपने स्वामी को - वन्दे = प्रणाम करता हूँ ॥ १ ॥ त्रिभुवनं प्राग्वत् | भूतिः - विश्वमयी विभूतिः, तथा सितं – सम्बद्धं ञ् िबन्धने इत्यस्य सितशब्दः । त्रीणि — इच्छाज्ञानक्रियाख्यानि नयनानि यस्य | भेदोद्दलनहेतोः प्रज्वलद्ज्ञानरूपस्य त्रिशूलस्य धार- कम् | उप – समीपे वीतीकृताः - विशेषेणेताः कृताः - अनुगृहीताः, तथा बहि: पूजानिरताः आभासनेन कान्तिमन्तः कृताः संहृताव भोगिनः प्रसरा येन, वी' गताबित्यस्य प्रयोग | इन्दुकला - विश्वजीविनी चिति शक्तिः शेखरं – मुख्यं रूपं यस्य | समग्रमेयमयी इन्दुकला वा स्वातन्त्र्य- प्रथन हेतुत्वात् शेखरः – क्रीडार्थमाहार्य मण्डनं यस्य, तं वन्दे —— इति प्राग्वत् | बाह्यक्रमेण स्पष्टोऽर्थः ॥ १ ॥ - १ ख० पु० इणो ची गतीत्यस्य - इति पाठः । -- ग० पु० स्वातंत्र्यप्रथने हेतुत्वात् — इति पाठः । ३४० श्रीशिवस्तोत्रावली नौमि निजतनुविनिस्सरदंशुकपरिवेषधवलपरिधानम् । विलसत्कपालमालाकल्पितनृत्तोत्सवाकल्पम् ॥ २ ॥ - नृत्त - उत्सव - आर्केल्पं = जो ( तांडव नामक ) नृत्य रूपी उत्सव के समय चर्मकती हुई मुण्ड-माला से ( अपने को ) सुशोभित करता है, ( ताण्डव- प्रियम् = ऐसे ताण्डव- प्रिय, भगवान् शंकर को ) ( अहं = मैं ) -- नौमि = प्रणाम करता हूँ ॥ २ ॥ निज = जो अपने - तनु- = ( चिन्मय ) स्वरूप से विनिःसरत् - = चमक उठने वाले अंशुक परिवेष = किरण-मंडल रूपी सफेद शुभ्र ( अर्थात् धवल- = रंग के - परिधानं = वस्त्र को धारण करता है ( तथा [= तथा ) विलंसत् - कपोल-माला - कॅल्पित - निजतनुः - चिन्मयं रूपं, ततो विनिःसरन् - स्फुरन् अंशुकपरिवेष:- रश्मिपुञ्ज प्रसर एव धवलं - शुद्धं परिधानं - प्रावरणं यस्य ..' उत्सरत्प्रकृतिः शिवः' । इति स्थित्या स्त्रशक्तिचक्रेण सततमाश्लिष्टमित्यर्थः । विकसन्त्या - स्वात्मनियोजनेन देदीप्यमानतया विलसन्त्या - स्फुरन्त्या कपालमालया सदाशिवादिसकलान्ताशेषप्रमातृमुण्डमालया कल्पितो नृत्तोत्सवे- स्वातन्त्र्यविजृम्भाभ्युदय आकल्पो मण्डनं येन । बाह्यक्रमेण स्पष्टोऽर्थः ॥ वन्दे तान् दैवतं येषां हरवेष्टा हरोचिताः | हरैकप्रचणाः प्राणाः सदा सौभाग्यसझनाम् ॥ ३॥ ( अहं = मैं ) - तान् = उन ( भक्तान् = भक्त-जनों को ) सदा = सदा १ क० पु० प्रसरत्प्रकृतिः - इति पाठः । ग० पु० प्रसर हक्कियः शिवः - इति पाठः । - २ ख० पु० देदीप्यमानया - इति पाठः । माल्या – इति पाठः । ३ ग० पु० ४ ६० कल्पिते — इति पाठः । - पु० वन्दे, = प्रणाम करता हूँ, = येषां = जिन सौभाग्य - सद्मनां = ( परमानन्द - पूर्ण होने के कारण ) सौभाय-शाली चर्वणाभिधानं विशं स्तोत्रम् ( भक्तानां = भक्तों का ) - दैवतं = देवता ( इष्ट-देव ) हरः = महादेव है, ( येषां = जिनकी ) चेष्टाः = सभी चेष्टाएँ - - हरोचिताः- सृष्टिसंहारानुग्रहादिरूपाः । हरेकप्रवणाः - नित्यवत्स- मावेशरसिका: । प्राणा: - जीवितम् । अत एव सौभाग्यसझत्वं - परमा नन्दपूर्णत्वेन विश्वस्पृहणीयत्वात् || ३ || - ( प्रभो = हे प्रभु 1 ) तव = आप की महेश्वरतायाः = महेश्वरता (अर्थात् विश्वप्रभुता ) क्रीडितं तव महेश्वरतायाः पृष्ठतोऽन्यदिदमेव यथैतत् । इष्टमात्रघटितेष्वंवदानेष्वात्मना परमुपायमुपैमि ॥ ४ ॥ पृष्ठतः एव = साथ ही इदम् = ( आपकी ) यह - अन्यत् = दूसरी क्रीडितं = लीला = है। ) हर- = महादेव ( को प्राप्ति ) के उचिताः = अनुकूल ( भवन्ति = होती हैं ) - ( एवं = और ) - ( येषां ) प्राणा: = जिन का सांस जीवन ( दृश्यते = देखने में यथा एतत् = वह यह है कि ( अहम् = मैं ) इष्टमात्र = केवल इच्छा से ही हर एक = केवल महादेव की प्रवणा: = भक्ति में ही लीन भवन्ति = बना रहता है ॥ ३ ॥ १ क० पु० ध्वपदानेषु – इति पाठः । = घटितेषु = सिद्ध बने हुए अवदानेषु = ( आप के पांच प्रकार के कार्य रूपी) अद्भुत कर्मों के करने में आत्मना = स्वयं ही - परम् = परिपूर्ण उपायम् = उपाय उपैमि = प्राप्त करता हूँ । ( अर्थात् आपके समावेश से मैं भी आप की तरह अनायास ही पंच विध- कृत्य-कारी बन जाता हूँ और यही आप की दूसरी लीला है । ) ॥४॥ श्रीशिवस्तोत्रावलो समावेशस्फारेण जगत् क्रीडात्वेन पश्येत इयमुक्तिः | तव महेश्वर- तायाः - विश्वप्रभुतायाः पृष्ठत एव - उपर्येव अन्यदिदं क्रीडितम् | यथैत- दिति- प्रदर्शनार्थम्, इष्टमात्र - घटितेषु इच्छामात्र सम्पन्नेषु अर्वेदानेषु - अद्भुतकर्मसु त्वदीय पवविधकृत्यात्मसु चरितेषु, अहमात्मना–स्वयमेव परिपूर्णमुपायं स्वबलाक्रमणमुखेऽपि प्राप्नोमि त्वत्समावेशात् स्वं चिद्व- लमाक्रम्य त्वद्वदहं पञ्चविधकृत्यकारी यत् तत्तवापरं क्रीडितमित्यर्थः । एवकारो भित्रक्रमः ॥ ४ ॥ ३४३ त्वद्धानि विश्ववन्द्येऽस्मिन्नियति क्रीडने सति । तव नाथ कियान् भूयान्नानन्दरससम्भवः ॥ ५ ॥ नाथ = हे स्वामी ! विश्व - = सारे जगत् वन्द्ये = पूजे जाने योग्य त्वद् = आप के धानि = प्रकाश स्वरूप परम धाम में इयति = जब इतनी ( अर्थात् इस समस्त ब्रह्माण्ड की रचना रूपिणी ) अस्मिन् = यह क्रीडने = क्रीडा ( अर्थात् लीला ) सति = है, ( ततः = तो भला ) तव = आनन्द रस ( के संपूर्ण स्वरूप ) के की सम्भवः = उत्पत्ति कियान् = कितनी भूयान् = वड़ी ( या अधिक) ( भवेत् = होगी ! ) ॥ ५॥ - विश्ववन्द्यं यत्त्वद्धाम - त्वन्महः, तत्रान्तर् इयति - विश्वात्मन्यस्मिन् क्रीडने सति, तव कियान् भूयानिति - अनल्पः स्वानन्दरसानुरूपमेव सर्वः क्रीडति ? यस्य चेयद्विश्वं क्रीडा तस्य अपर्यन्त एवानन्दः, इति स्वात्मनस्तद्दासतया श्लाघां व्यनक्ति । अत एव नाथेत्यामन्त्रणम् || ५ || १ क० पु० पश्यता - इति पाठः । २ ग० पु० प्रदर्शनार्थे – इति पाठः । - ३ ग० पु० इच्छ्यैव संपन्नेषु — इति पाठः । ४ क० पु० अपदानेषु - इति पाठः । चर्वणाभिधानं विशं स्तोत्रम् कथं स सुभगो मा भूयो गौर्या वल्लभो हरः । हरोऽपि मा भूदय किं यः = जो हरः = ( आनन्द - घन ) महादेव गौर्या:- गौरी (अर्थात् परा शक्ति ) का दल्लभः = प्रिय - ( अस्ति = है, ) — सः = वह कथं = क्यों सुभगः सुन्दर (सौभाग्य शाली और इसी लिए सब के लिए स्पृहणीय ) - गौर्याः परमवल्लभः ॥ ६ ॥ यस्य = जिस सत्-तरोः = ( समावेश-शाली ) भक्त रूपी उत्तम पेड़ की रूपी जड़ ध्यान = ईश्वर ध्यान रूपी मा भूत् = न हो ! अथ = और हरः = ( समावेश के चमत्कार के कारण मनोमुग्धकारी तथा चिदा- नन्द-घन, ) शंकर = अमृत से अमृत- मयम् = परिपूर्ण ( एवम् = और ) अपि भी गौर्या:- गौरी (अर्थात् परा शक्ति ) का परम वल्लभः = अत्यन्त प्रिय किं = क्यों = -- सुभगः - सर्वस्य स्पृहणीयः । गौर्याः परस्याः शक्ते, बल्लभः - स्पृहणीयः स आनन्दघन: पराभट्टारिकयालिङ्गित इत्यर्थः । हरः - समा- वेशचमत्कारेण हृदयहारी द्वैतपद्स्य संहर्ता च यः, परशक्ते: परमवल्लभ एव ।। ६ ।। ३४३ मा भूत् = न हो ! ॥ ६॥ - ध्यानामृतमयं यस्य स्वात्ममूलमनश्वरम् । संविल्लतास्तथारूपास्तस्य कस्यापि सत्तरोः ॥ ७ ॥ स्वात्म = अपनी आत्मा का मूलं = कारण ( अर्थात् जन्मदाता ) संवित् - = विषय ज्ञान रूपी लता: = शाखायें अनश्वरम् = अविनाशी हो, तस्य = उस कस्यापि अलौकिक ( सत्-तरोः =भक्तरूपी उत्तम पेड़ की ) ( अपि = भी ) - तथारूपाः = वैसी ही ध्यानामृत-मय और परिपूर्ण ( सन्ति होती हैं ) ॥ ७ ॥ = श्रीशिवस्तोत्रावली यस्य - समावेशशालिनः स्वात्मनो मूलं कारणं ध्यानामृतमयं- स्वरूपगोपनोन्मुखचिदानन्दसारप्रत्यभिज्ञात शिवभट्टारकस्वरूपम् | यथोक्तं 'स्में प्रभुरजनोऽथ ...... | शि० स्तो०, स्तो० १९, लो० १७॥ इत्याति । अनश्वरं – चिद्रूपतयैव नित्यं तस्य – कस्याप्यतिदुर्लभस्य सत्तरो:- सन्तापहारिणः शोभनपादपस्य संबिल्लता:- नीलसुखादिज्ञा- नानि, तथारूपा इति – ध्यानामृतमय्य एव || ७ || - - भक्तिकण्डूसमुल्लासावसरे परमेश्वर | महानिकषपाषाणस्थूणा पूजैव जायते ॥ ८ ॥ परमेश्वर = हे परमात्मा ! रूपी भक्ति- = भक्ति ( की तीव्रता ) रूपिणी महा-निकष-पाषाण स्थूणा= कसौटी के पत्थरों का बड़ा खंभा कण्डू- = खुजली के जायते = उत्पन्न होता है, (और वह खंभा अपनी रगड़ से उस खुजली को शान्त करता है ) * ॥ ८ ॥ समुल्लास = चमक उठने के अवसरे = समय पर पूजा एव = ( समावेश-मयी ) पूजा भक्तिः– भगवदनुराग एव वैवश्यदायित्वात् कण्डूस्तस्या: समुल्लासे पूर्वनिर्णीता पूजैव महानिकषपाषाणस्थूणा - निघर्षोपलमयो महास्तम्बः, भक्तिकण्डूं यः प्रशमय्य आनन्दघनस्वात्मविश्रान्ति हेतुर्जायते इत्यर्थः ||८|| सदा सृष्टिविनोदाय सदा स्थितिसुखासिने | सदा त्रिभुवनाहार तृप्ताय स्वामिने नमः ॥ ९ ॥

  • भावार्थ – जिस प्रकार खंभे आदि के साथ रगड़ने से खुजली की तीव्रता

शान्त होती है, उसी प्रकार शंकर की भक्ति के चरम सीमा को पहुँचने पर भक्त समावेश का आनन्द उठाने में समर्थ होता है, जिस के फल- स्वरूप उसे परमानन्द का लाभ होता है ॥ ८ ॥ १ ग० पु० भवदनुराग एव - इति पाठः | २ ख० पु० ३ ग० पु० पूर्णनिर्णीता — इति पाठः । भवते - इति पाठः । सदा जो सदा = सृष्टि = ( इस जगत् की ) सृष्टि विनोदाय = ( अपने) विनोद (अर्थात् जी बहलाने ) के लिए करता है, 1. सदा = जो सदा = स्थिति - = ( इस की ) रक्षा कर के सुख = सुख से आसिने = बैठा रहता है ( एवं = तथा ) चर्वणाभिधानं विशं स्तोत्रम् ( प्रभो = हे स्वामी ! ) - ये = जो - 'तदेवं व्यवहारेऽपि प्रभुर्देहादिमाविशन् । भान्तमेवान्तरर्थौघमिच्छया भासयेद्वहिः ॥' ई० प्र०, १ श्र०, ६ ०, ७ का० ॥ इति स्थित्या देहादिमाविशतोऽपि भगवतः प्रतिक्षणं तत्तदनन्तप्राह्य- ग्राहकाद्याभाससंयोजन वियोजनक्रमेण सृष्टयादिहेतुत्वम् | यथो चैत- त्तथा मया स्पन्दसन्दोहे वितन्य निर्णीतमिति स एवावेक्ष्यः || ९ || भव्याः = भाग्यशाली ( भक्त-जन ) क्वापि = किसी ( विशेष द्वादशान्त आदि) स्थानको न = न गत्वा = जा कर ही ( एवं = तथा ) - न कापि गत्वा हित्वापि न किंचिदिदमेव ये । भव्यं त्वद्धाम पश्यन्ति भव्यास्तेभ्यो नमो नमः ॥१०॥ ३४५ सदा = जो सदा - त्रिभुवन = ( स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल - इन ) तीनों लोकों का आहार- = ( संहार रूपी) आहार करके 1 तृप्ताय = तृप्त बना रहता है, स्वामिने = ऐसे प्रभु-देव ( भगवान् शंकर ) को = नमः = ( मेरा ) प्रणाम हो ॥ ९ ॥ - किंचित् अपि = ( हान-प्रदान आदि) किसी कर्म को न = न हित्वा = त्याग कर ही इदम् एव = इसी ( दुःख-पूर्ण) संसार को ही भव्यं त्वद्-धाम आपका मोक्ष संपदा- प्रद स्वरूप १ क० पु० संयोजनावियोजनक्रमेण - इति पाठः । २ ग० पु० यथा च तत्तथा – इति पाठः । - पश्यन्ति = समझते हैं, तेभ्यः = उन को श्रीशिवस्तोत्रावली नमो नमः = बार-बार ( मेरा ) नम- स्कार हो ॥ १० ॥ एकान्तद्वादशान्तादिपदं परमलोकं चागत्वा, भोगानधरभूमी: शरीरं चात्यक्त्वा इदमेव - अप्रबुद्धानां हेयाभिमतं भव्यं त्वद्धाम - चिद्धनं ये पश्यन्ति, भव्याः - दिव्य महार्थदृष्टचाविष्टास्तेभ्यो नमो नमः; वीप्सयैषा- मेव परतत्त्व वित्त्वं ध्वनति ।। १० ।। - भक्तिलक्ष्मीसमृद्धानां किमन्यदुपयाचितम् । एतया वा दरिद्राणां भक्ति- = ( स्वरूप समावेश-मयी ) भक्ति रूपिणी लक्ष्मी = लक्ष्मी से - समृद्धानां = संपन्न ( भक्तों ) के लिए अन्यत् = और किम् = क्या - उपयाचितम् = मांगने योग्य है ? (और किसी वस्तु की इच्छा नहीं रहतो । ) पतया वा दरिद्राणाम् = और किमन्यदुपयाचितम् ॥११॥ जो इस संपत्ति से रहित हों, (जिनको ऐसी भक्ति रूपिणी संपत्ति प्राप्त न हो ), उनके लिए - - अन्यत् = ( ऐसी भक्ति के सिवा ) और किम् = क्या उपयाचितम् = मांगने योग्य है ? ( अर्थात् वे इसी को चाहते हैं ) ॥ ११ ॥ किमन्यदिति – प्राप्तव्यस्य प्राप्तत्वात् नास्त्येव अन्यद्याचितव्यम् । किमन्यदिति – परमार्थस्यानासादनात् किमन्येनासारप्रायेणेत्यर्थः ||११||

  • अप्रबुद्ध योगी-जन संसार और इस के क्रिया-कलाप अर्थात् विविध

कार्यों को त्याग कर जंगल जाते हैं और वहाँ भगवान् की खोज करते हैं, पर फिर भी सफल नहीं होते । किन्तु समावेश-शाली भक्त-जन इसी दुःखालय जगत् को भगवान् का जीता-जागता तथा जाज्वल्यमान स्वरूप समझते हैं और इसी के बीच में रहते हुए तथा सभी लौकिक कार्यों को करते हुए वे भगवान् के साक्षात्कार का आनन्द लूटते हैं ॥ १० ॥ १ क० पु० एनया - इति पाठः । चर्वणाभिधानं विंशं स्तोत्रम् दुःखान्यपि सुखायन्ते विषमयमृतायते । मोक्षायते च संसारो यत्र मार्गः स शाङ्करः ॥ १२ ॥ यत्र = जहाँ ( अर्थात् जिस मार्ग पर संसारः = यह संसार ( भी ) चलने से ) . = दुःखानि = दुःख अपि भी सुखायन्ते विषम् = विष अपि ' = भी अमृतायते = अमृत बन जाता है च = और = सुख बन जाते हैं, ईशान = हे स्वतंत्र प्रभु ! भवत्- आप के जुषां = भक्तों को मूले = आरम्भ, मध्ये = मध्य और अवसाने = अन्त में ( अर्थात् संवित् के उदय, प्रसर तथा विश्रांति में ) च = दुःखं = ( कोई ) दुःख = मोक्षायते = मोक्ष ( की प्राप्ति ) का साधन बन जाता है, सः = वह [7] शांकरः = भगवान् शंकर का मार्गः = मार्ग ( अर्थात् परम शाक्त- पद ) ( अस्ति = है ) ॥ १२ ॥ - त्र्यमप्येतच्चिदानन्द्द्घननिजबलाक्रमणादेव भवति । मोर्गः -परं शाक्तं पदम् || १२ || मूले मध्येऽवसाने च नास्ति दुःखं भवज्जुषाम् । तथापि वयमीशान सोदामः कथमुच्यताम् ॥१३॥ ३४७ नास्ति = नहीं होता, तथापि = तो भो = वयं = हम सीदामः = कष्ट उठाते हैं, कथम् ( एतत् ) = यह क्या बात है। ( इति ) उच्यताम् = ज़रा कहिए तो ! ॥ १३ ॥ १ क० पु० यत्र सर्वमप्येतत् — इति पाठः । मार्गपदम् – इति पाठः । २ ग० पु० ३ गँ० पु० शाक्तपदवाचकम् - इति पाठः । श्रीशिवस्तोत्रावली प्राग्वत् व्युत्थानावस्थितस्योक्तिः | मूले मध्येऽवसाने इति - संविदु- दयप्रसरविश्रांतिषु | सीदामः- व्युत्थानेनाभिभूयामहे ।। १३ ।। ज्ञानयोगादिनान्येषामंप्यपेक्षितुमर्हति । प्रकाश: स्वैरिणामेव भवान् भक्तिमतां प्रभो ॥१४॥ ३४८ प्रभो = हे प्रभु ! अन्येषां = कुछ लोगों के लिए भवान् = प ज्ञान = ज्ञान, योग- = योग - ( परं = किन्तु ) स्वैरिणां = ( समावेश-शाली और इसी लिए ) स्वेच्छाचारी भक्तिमतां = भक्त-जनों के लिए ( भवान् = आपका स्वरूप ) = सदा ) प्रकाशः = प्रकट ही भवति = होता है* ॥ १४ ॥ आदिना अपि = ( तथा क्रिया) आदि ( सदा = ( उपायों ) की भी अपेक्षितुम् = अपेक्षा करने के अर्हति = योग्य होते हैं | - एव = प्रभो ! केषांचित् ज्ञानयोगक्रियाद्युपायैर्भवान् स्फुरति, भक्तानां पुनः स्वैरिणाम् – उपायानपेक्षिणां त्वत्समावेशात् प्राप्तत्वमहिम्नां च भवान् प्रकाशस्वभावः सदेति यावत् || १४ || भक्तानां नार्तयो नाप्यस्त्याध्यानं स्वात्मनस्तव | तथाप्यस्ति शिवेत्येतत्किमप्येषां बहिर्मुखे ॥१५॥ १ क० पु० इवापेक्षितुमर्हति - इति पाठः । २ ग० पु० विभो इति पाठः ।

  • भावार्थ – हे प्रभु ! सामान्य भक्तों को ज्ञान, क्रिया तथा योग आदि

अनेक उपायों का आश्रय लेना पड़ता है और इस प्रकार बड़ा परिश्रम तथा माथा-पच्ची करना पड़ता है । फिर कहीं उन को आपके स्वरूप का साक्षात्कार प्राप्त होता है। किन्तु के समावेश-शाली भक्तों को कोई ऐसा कष्ट उठाना नहीं पड़ता । उन्हें उपाय की झंझट में फंसना नहीं पड़ता। वे अपने व्यवहार में स्वतंत्र होते हैं। फिर भी उन्हें प के स्वरूप-साक्षात्कार का आनन्ददा और सही प्राप्त होता है । यही आप की भक्ति का अनूठापन है ॥ १४ ॥ ( परमात्मन् = हे परमेश्वर ! ) भक्तानां = ( आप के भक्तों को न = न तो आर्तयः = दुःख ही ( सन्ति = होते हैं ) न अपि = और न - चत्रणाभिधानं विंशं स्तोत्रम् तव = आप स्वात्मनः = स्वात्म-स्वरूप की आध्यानम् = ( प्राप्ति की अभिलाषा के कारण ) चिन्ता ही अस्ति = होती है | समावेशशाली) ईश = हे विश्वेश्वर ! = अहम् = 'मैं ही -- आर्तयः -क्लेशाः । आध्यानं - प्राप्त्येभिलाषेण चिन्तनम् | तव स्वात्मन इति – स्वात्मतयैव स्फुरत: । तथापीति - भक्तत्वादेव | किम- पीति - परमानन्दैकात्म्यव्यंकं निर्निमित्तं च ॥ १५ ॥ एतत् = यह अखिलम् = समस्त जगत् हूँ' इति = ऐसा यः = जो सर्व- = सभी आभास = प्रकाशों का सर्वाभासावभासो यो विमर्शवलितोऽखिलम् । अहमेतदिति स्तौमि तां क्रियाशक्तिमीश ते ॥१६॥ तथापि = तो भी - 4 किमपि = ( परमानन्द से अभिन्नता को सूचित करने वाला), अलौकिक शिव = 'हे शिव' इत्येतत् = ऐसा शब्द १. क० पु० प्राप्त्यभिलाष चिन्तनम् २ ग० पु० व्यञ्जनम् – इति पाठः । ३ ख० पु० अपि सन् – इति पाठः । बहिः ई: = बाहर से ( अर्थात् व्युत्थान- दशा में ) एषां = इन भक्तों के मुखे = मुख में = अस्ति = रहता है, ( अर्थात् यह प शब्द इन के मुख से आप से ही उच्चरित होता रहता है) ॥१५॥ अवभासः = प्रकाश विमर्श - = स्त्रात्म-परामर्श से (अर्थात् परमानन्द के चमत्कार से ) वलितः = परिपूर्ण बना हुआ ( अस्ति = है ), - तां = उसी ते = आप की - इति पाठः । ३५० श्रीशिवस्तोत्रावली क्रिया-शक्तिम् = (अहं-परामर्श रूपिणी) स्तौमि = स्तुति करता हूँ, (अर्थात् उसी में समावेश करता हूँ ) ॥ १६ ॥ क्रिया-शक्ति की ( अहं = मैं ) - अहमेत खिलमिति यः सर्वाभासावभासः - सदा विश्वेश्वरप्रकाशः । कीदृक् ? विमर्शेन - परमानन्द चमत्कारेण वलितो- बृंतः, क्रियाश क्तिम् – ईशशक्तिम्, ईश ते स्तौमि - इति प्रोग्वत् ।। १६ ।। - - वर्तन्ते जन्तवोऽशेषा अप ब्रह्मेन्द्रविष्णवः । ग्रसमानास्ततो वन्दे देव विश्वं भव न्यम् ॥ १७॥ देव = हे प्रभु ! - ( जगति = इस संसार में ) अशेषा: = ( क्षेत्रज्ञ नाम से प्रसिद्ध ) - सभी जन्तवः = जीव ( एवं = तथा ) ब्रह्मा- = ( सृष्टि-कर्ता ) ब्रह्मा, इन्द्र- = ( शासन-कर्ता ) इन्द्र - विष्णवः = और ( स्थिति कर्ता ) विष्णु अपि = भी - !

  • ग्रसमानाः = ग्रसमान अर्थात् सदैव

अपने-अपने विषयों का आहार करने में लगे हुए ही वर्तन्ते = दिखाई देते हैं, ततः = इसलिए ( मैं ) - भवत्-मयं विश्वं = [प] (सर्वाहरण- शाली ) से अभिन्न बने हुए जगत् को वन्दे = प्रणाम करता हूँ ॥ १७ ॥ अपि ब्रह्मेन्द्रविष्णव इति - सृष्टिस्थितिकारिणः प्रसिद्धा: । आसतां रुद्रादयः, तेऽपि यावदशेषा जन्तवः - क्षेत्रज्ञाः ग्रसमानाः - सदा स्ववि- षयाहृतिप्रवणा वर्तन्ते - तिष्ठन्ति यतो हे देव- अशेषप्रमात्रादिरूपेण क्रीडाशील ! ततो बिश्वं भवन्मयं विश्व - प्रसनशीलत्वद्वयरूपं वन्दे- प्राग्वत् ॥ १७ ॥ १ ग० पु० पूर्ववदिति पाठः । २ घ० पु० ग्रस्यमानाः - इति पाठः ।

  • आशय यह है कि इस संसार में ऐसा कोई जीव नहीं जो रूपादि विषयों

का आहार करने में न लगा हो । सभी तो विषयों का आहार करने में लगे ही रहते हैं, अतः समस्त संसार सर्वाहरणशाली का स्वरूप धारण करके ही ठहरा है । चर्वणामिधानं विंशं स्तोत्रम् सतो विनाशसम्बन्धान्मत्परं निखिलं मृषा । एवमेवोद्यते नाथ त्वया संहारलीलया ॥ १८ ॥ पदार्थों तथा जीवों ) का - संहार - = ( इस जगत् के) संहार की विनाश- = नाश होने के लीलया = लोला से (अर्थात इस खेल

के द्वारा )

नाथ = हे स्वामी ! - त्वया = आप से ( हमें ) एवमेव = यही उद्यते = बतलाया जाता है, (अर्थात् संबन्धात् : 'कार्यताक्षयिणी तत्र' = कारण इत्यादि ॥ १८ ॥ मत्-परं = मुझ चित्-स्वरूप से भिन्न ( अर्थात मेरे सिवा ) निखिलं = सब कुछ - मृषा आप इसी बात की सूचना देते हैं ), - - सतः = ‘(संसार में) होने वाले ( सभी ( अस्ति = है )’* ॥ १८ ॥ = असत्य ( अर्थात् असत् या सत्ता-हीन ) ३५१ - हे नाथ ! संहारक्रीडया एवमेवोच्यते - मत्तः - चिदेकरूपात्परमुल्ला- सितस्वभावत्वाधिकमिव यत्किंचित् सदाशिवान्तं तन्मृषा - न पृथ- ग्भवतीत्यर्थः; यतः सतः - अनधिकस्याप्याधिक्येन इव आभासमानस्य विनाशन सम्बन्धाच्चिदात्मन्येव विगलितत्वेन स्थितिर्भवति । तदुक्तं ‘यत्सदाशिवपर्यन्तम् ‘ ।' स्व० सं०, प० १०, श्लो० १२६४ ॥ इत्यादि 'विनाशोत्पत्तिसंयुतम् ॥' स्व० सं०, ५० १०, श्लोक १२६५॥ इत्यन्तम् | तथा ।' स्पं०, नि० १, श्लो० १४ ॥ इति पाठः । १ क० पु० एवमावेद्यते

  • सारांश ——हे नाथ!

आप की 'संहार -लीला' से यही सूचित हो जाता है कि आप चिदात्मा के सिवा जो कुछ जड़-चेतन है, वह अन्त में आप में ही लीन होता है । अतः उस की अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं हैं ॥१८॥ ३५२ श्रीशिवस्तोत्रावली भक्तिधनानाम् । ध्यातमात्रमुपतिष्ठत एव त्वपुर्वरद अध्यचिन्त्यमखिलाद्भुतचिन्ता- कर्तृतां प्रति च ते विजयन्ते ॥ १९ ॥ वरद = हे वरदाता भगवान् ! - ( मित-योगिभिः = परिमित सिद्धिवाले योगियों के ) अचिन्त्यम् = ध्यान में न आ सकने ते = वे भक्त जन = वाला अपि = होते हुए भी अखिल- = ध्यान संबन्धी सभी आवर्य-जनक =+ त्वदू- = आप का अद्भुत = चिन्ता = कार्यों के कर्तृत प्रति = करने में वपुः = चिन्मय स्वरूप = = भक्ति ~ = ( समावेश-मयी ) भक्ति के विजयन्ते = ( अन्य सभी लोगों से ) धनानां = धनी भक्तों को बढ़-चढ़ कर होते हैं* ॥ १९ ॥ · ध्यात-मात्रम् एव = ध्यान लगाते ही उपतिष्ठते तत्क्षण उपलब्ध होता है । ( अतः ) च = और इसी लिए . मितयोगिभिश्चिन्तयितुमशक्यमपि यत्स्वरूपं भक्तिधनानां ध्यात मात्रमुपतिष्ठते – ध्यानसमनन्तरमेव सन्निधीयते इत्यर्थः । ते च भक्ताः अखिलायाः अद्भुतचिन्तायाः कर्तृतां प्रति विजयन्ते - त एवासामान्य विस्मयप्रवर्तकाः सर्वोत्कर्षेण वर्तन्ते इत्यर्थः ॥ १६ ॥ =

  • ( क ) शब्दार्थ – अद्भुत आश्चर्यजनक, चमत्कार - पूर्ण |

चिन्ता = ध्यान | कर्तृता = कार्य काम । ( ख ) भावार्थ – हे प्रभु ! सामान्य योगी आप चित्स्वरूप का ध्यान भी नहीं कर सकते | किन्तु समावेश-शाली भक्तों को ध्यान लगाते ही आप का साक्षात्कार प्राप्त हो जाता है और अपने इस सौभाग्य के बल पर वे चमत्कार - पूर्ण कार्य कर सकते हैं । इस प्रकार जो बात औरों के लिए होती है, वह आपके भक्तों के लिए बायें हाथ का खेल होता है। यही आपकी भक्ति की महिमा तथा विलक्षणता है ॥ १९ ॥ • १ ग० पु० सर्वोत्कषिणः - इति पाठः । चर्वणाभिधानं विंशं स्तोत्रम् तावकभक्तिरसासव- सेकादिव सुखितमर्ममण्डलस्फुरितैः । नृत्यति वीरजनो निशि वेतालकुलैः ( महेश्वर = हे परमेश्वर ! ) तावक = आप की भक्ति रस = (समावेश-मयी) भक्ति के रस रूपी आसव = मधु के सेकात् = सेचन से - इव = मानो = पाश-समूहों के कारण स्फुरितैः = चमकते हुए ३५३ कृतोत्साहः ॥ २० ॥ = वेताल- ( इन्द्रिय रूपी ) वेतालों के कुलैः = समूहों से कृत उत्साहः = उत्साहित - होकर (अर्थात् चिद्विकास- संपन्न होकर ) वीर-जनः = ( संसार रूपी बड़े पशु शूर वीर लोग को मारने वाले ) (भक्तजन ) सुखित = आनन्दित बने हुए निशि = ( माया रूपिणी ) रात में ही मर्म-मण्डल- = ( भेद-प्रथा रूपी ) | नृत्यति = ( चित्-विकास से ) नाच उठते हैं ॥ २० ॥ बाह्योऽर्थः स्पष्टः । वीरजनः-- विदारितसंसारमहापशु: भक्तजनो निशि - मायामध्य एव, नृत्यति - चिद्विकासेन विलसतितराम् । कथं ? ताबकभक्तिरसासबसेकात्- त्वत्समावेशामृतसेचनादिव, सुखितानि- आनन्दवन्ति यानि मर्ममण्डलानि - पाशसञ्चयास्तेषां संबन्धिभिः स्फुरितैः - आर्सेनमुद्रा बन्धैः वेतालकुलै:- पशुहृदयाघट्टकप्रत्ययोदयानु- बर्तिशक्तिशतैः कृतोत्साहः - परिपोषितचिद्भ्युदयः || २० || - १ ग० पु० भक्तलोकः - इति पाठः । २ ख० पु० सेकादिव – इति पाठः । ३ घ० पु० आनन्दनन्दितानि - इति पाठः । ४ क्र० पु० आसनमुद्रासदृशैः - इति पाठः, ग० पु० विचित्रैः स्तोभमुद्राबन्धैः - इति च पाठः | - ५ ग० पु० पशुहृदयाच्च दृक्प्रत्यय – इति पाठः । २३ शि० ३५४ श्रीशिवस्तोत्रावली आरब्धा भवदभिनुति- रमुना येनाङ्गकेन मम शम्भो । तेनापर्यन्तमिमं कालं ढमखिलमेव शम्भो = हे कल्याणकारी प्रभु ! अमुना येन = ( समावेश की श्रेष्ठता को दिखाने वाले ) जिस अङ्गकेन = ( अलौकिक ) प्रकार से ( इयं = यह ) - भवत् = आपकी अभिनुतिः = स्तुति आरब्धा की गई है, तेन एव = उसी प्रकार से ( असौ = यह समावेश आश्रित प ८ भविषीष्ट ॥ २१ ॥ की स्तुति ) इमम् = इस अखिलम् = सारे अपर्यन्तं = अनन्त कालं दृढं ' = समय तक ( अर्थात् सदैव ) = दृढ ( अर्थात् अविचलित ) होकर भविषीष्ट = होती रहे, (अर्थात् मैं सदा आपकी ऐसी स्तुति करता रहूं ) ॥ २१ ॥ इति श्रीमदुत्पलदेवाचार्यविरचितस्तोत्रावलौ राजान कलक्ष्मणविरचित- भाषाटीका समाप्तेति शिवम् ।

  • कचिद्व्यसदृशशैलीदर्शनादनार्ष एवायं श्लोकस्तथापि व्याख्यायते ।

अमुना - चिद्वयसमावेशोत्कर्ष प्रदर्शिना, येनाङ्गकेन – सर्वजना संलक्ष्येण प्रकारेण, शम्भो तव स्तुतिरारब्धा, तेन प्रकारेण अपर्यन्तमिममखिलं कालं दृढम् – अविचलं कृत्वा असौभविषीष्ट – प्राप्नुयात् । भू प्राप्तौ- इत्यस्य एतंद्रूपमिति शिवम् ॥ २१ ॥ १ क० पु० अभिनतिः - इति पाठः ।

  • नोट — विवृति

कार श्री क्षेमराज जी ने लिखा है – 'ग्रन्थकार की शैली के असदृश दीख पड़ने के कारण ऐसा जान पड़ता है कि यह श्लोक आर्ष अर्थात् श्रीमान् ऋषि उत्पलदेव जी का नहीं बनाया हुआ है |' पाठक- गण इसका स्वयं विचार करें कि श्री क्षेमराज जी ने ऐसा क्यों लिखा है। २ ख० पु० इवायम् इति पाठः । ३ क० पु० रूपम् – इति पाठः । चर्वणाभिधानं विंशं स्तोत्रम् क्लेशान्विनाशय विकासय हृत्सरोज- मोजो विजृम्भय निजं ननु नर्तयाङ्गम् । चेतश्चकोरचितिचन्द्रमरीचिचक्र- माचम्य सम्यगमृतीकुरु विश्वमेतत् ॥ १ ॥ श्रुतिपथमिता सूक्तिश्रेणी धुनोति भवातपं निरुपमपरानन्दव्याप्तिं तनोति च तत्क्षणात् । इयमिति विभोः शम्भोर्भक्त्या परं परमेष्ठिनो विहितललितव्याख्यास्माभिः कृतार्थजनार्थितैः ॥ २ ॥ विश्वत्रयेऽपि विशदैरसमस्वरूपैः शास्त्रैस्तथा विवरणैः प्रथितैव कीर्तिः । तस्माद्दुरोरभिनवात्परमेशमूर्तेः क्षेमो निशम्य विवृति व्यतनोदमुत्र || ३ || इति श्रीमदीश्वरप्रत्यभिज्ञाकाराचार्यचक्रवर्तिवन्द्याभिधानोत्पलदेवाचार्य - विरचिते चर्वणाभिधाने विंशे स्तोत्रे महामाहेश्वर- श्रीक्षेमराजविरचिता विवृतिः ॥ २० ॥ ३५५ ३५६ श्रीशिवस्तोत्रावली वेदाग्निखशराब्दे हि रोहिण्यां कुजवासरे | पौषमासे सिते पक्षे तथा चैकादशीतिथौ ॥ १ ॥ शारिकाप्रभयोर्भक्तचा तुष्यता ज्ञप्तये तयोः । राजानलक्ष्मणेनेयं भाषाटीका मया कृता ॥ २ ॥ मन्येऽनया भवेन्नूनं जनानां भविनामपि । भुक्तिमुक्तिप्रदा भक्तिः शिवे स्वात्ममहेश्वरे || ३ ॥ सांख्ययोगादिशास्त्रज्ञः पाणिनीये पतञ्जलिः | शिवार्करश्मिसंपातव्याकोशहृदयाम्बुजः महामहाहेश्वरः श्रीमान् राजानकमहेश्वरः । शैवशास्त्रगुरुः स मे बाक्पुष्पैरस्तु पूजितः ॥ ५ ॥ इति निवेदयति शिवभक्तानुचरः काश्मीरदेशवास्तव्यः राजानकलक्ष्मणः | ॥४॥ अ [ोषोमरविब्रह्म अणिमादिषु मोक्षान्ते अधिष्ठायैव विषयानिमाः अनन्तानन्दसरसी अनन्तानन्दसिन्धोस्ते अनुभुयास मीशान अन्तरप्यति अन्तर्भक्तिचमत्कार अन्यवेद्यमणु अन्ये भ्रमन्ति भगवन्नात्म अपरिमित अपि कदाचन अपि भावगणादपीन्द्रिय श्रपि लब्धभवद्भावः अपीत्वापि भवद्भक्तिसुधा अप्य सम्बद्धरूपार्चा अप्युपार्जितमहं त्रिषु लोके अप्युपायक्रमप्राप्यः अभिमानचरूपहारतो अलमान्दितैरन्यै विभागोभवानेव अशेषपूजासत्कोशे अशेषभुवनाहारनित्यतृप्तः अशेषवासनाप्रन्थि अशेष-विश्वखचित अशेषविषया अस्ति मे प्रभुरसौ श्लोकानुक्रमणिका २० १७ २८० ८ २८३ १९२ ८० १९९ १३८ १८० १११ १६६ १३९ २९८ २४९ ३१४ १४६ ३०० ७९ [[अस्मिन्नेव जगत्यन्त अहमित्यमुतो जयत्येष हो भक्तिभरोदारचेतसां सुधानि स्वामिन् आ क्षणीयमपरं आत्मसात्कृत आत्मा मम भवद्भक्ति आनन्दबाष्प आनन्दरस बिन्दुस्ते मनोवलयस्य 'आमूलाद् वाग्लता सेयं वेदकाच वेद्याद्येषां आसतां तावदन्यानि सुरर्षिजनादस्मिन्न आ भवत्प्रभावेण इ इत्थं ते परमेश्वराक्षत ई ईश्वरमभयमुदारं ईश्वरोऽहमहमेव ईहितं न बत उ उत्तमः पुरुषोऽन्योस्ति उपचारपदं पूजा उपयान्तु विभो २८० ३८ १२५ ३३७ उपहासैकसारेऽस्मि २६३ १७९ २७१ २८६ ७३ ८१ १२४ १२७ १३३ ३१९ १० २६६ ४७ ३७ १३७ १६१ ११९ १९४ २०९ ४५ २९७. ११२ २९ २ उल्लङ्घ्य विविधदैवत ॐ जयलक्ष्मीनिधानस्य एतन्मम न त्विदमिति एषा पेशलिमा नाथ ऐक्यसंविदमृता क कण्ठकोण विनि कथं ते जायेरन्कथमपि च ते कथं स सुभगो मा कदा कामपि कदाचित्क्वापि लभ्योऽसि कदा नवरसा कदा मे स्याद्विभो कहि नाथ विमलं कां भूमिकां नाधिशेषे का न शोभा न को ह्लादः कामक्रोधाभिमानै कायवाङ्मन सैर्यत्र किमपि नाथ कदाचन चेतसि किमियं न सिद्धिरतुला किमिव च लभ्यते बत न किल यदैव शिवाध्वनि तावके कीर्त्यश्चिन्तापदं मृग्यः केव न स्याद्दशा तेषां कोपि देव हृदि तेषु तावको कोऽप्यसौ जयति क्रीडितं तव महेश्वरतायाः क्वचिदेव भवान् क्व नु रागादिषु रागः श्रीशिवस्तोत्रावली ५३ २१२ ९६ ३०० १७८ २०८ १६६ ३४३ १२० १२ ११५ ११८ ३२८ ९३ २८६ ३०२ ९० २६० ४२ ५९ क्षणमपीह न तावकदासतां क्षणमात्रमपीशान क्षणमात्रसुखेनापि २८९ ३४१ ३०५ ८२ ख खरनिषेधखदा ग गर्जामि बत नृत्यामि गलतु विकल्प गाढगाढभवद गाढानुरागवशतो गुह्ये भक्तिः परे च चपलमसि यदपि मानस चराचरपितः स्वामिन् चित्तभूभृद्भुवि विभो चित्रं निसर्गतो नाथ ज जगतोऽन्तरतो जगत्क्षोभैकजनके ८७ २४४ जपतां जुह्वतां स्नातां १५८ जय कष्टतपःक्लिष्टमुनि जय क्षीरोदपर्यस्तज्योत्स्ना जगदिदमथ वा जगद्विलयसञ्जात जडे जगति चिद्रूपः जय जयभाजन जय जाम्बूनदोदग्र जयत्येष भवद्भक्तिभाजां जय त्रैलोक्यनाथैक जय त्रैलोक्यसर्गेच्छा जय देव नमो नमोस्तु ते जय देहाद्रिकुआन्त ६५ ८९ १३३ ३२१ ४३ ९७ १२९ ११६ २६४ ५२ २३६ ७५ १८ ३०४ २७७ १५० २७९ २७५ २२७ २१५ २२९ २२६ ३०३ २१३ २२१ ३५ २२५ जयन्ति ते जगद्वन्द्या जयन्ति भक्तिपीयूष जयन्तोऽपि हसन्त्येते जय ब्रह्मादिदेवेश जय भक्तिरसा जय मूर्तत्रिशक्तथा जय मोहान्धकारान्ध जय विश्वोचण्ड जय शोभाशतस्य जय सर्गस्थितिध्वंस जग सर्वजगन्न्यस्त जय स्वसम्पत्प्रसर जय स्वेच्छातपोवेश जय हेलावितीर्णे जयाक्रमसमाकान्त जयाक्षयैकशीतांशु जयाधराङ्गसंस्पर्श जयानुकम्पादि जयेक रुद्रक शव जागरेतरदशाथवा ज्ञानकर्ममय ज्ञानयोगादिनान्येषा ज्ञानस्य परमा ज्योतिरस्ति कथयापि त तटेष्वेव परिभ्रान्तैः तल्कि नाथ भवेन यत्र तत्तदपूर्वामोद 'तत्तदिन्द्रिय तत्र तत्र विषये तत्त्वतोऽशेषजन्तूनां तवेश भक्तेरर्चायां श्लोकानुक्रमणिका ४६ ५ २४९ २१९ २१८ २१४ २२४ २२ २१४ २२८ २२० तस्मिन्पदे ता एव परमर्थ्यन्ते तावकाङ्घ्रिकमलासनलीना तावके वपुषि ते जयन्ति मुखमण्डले भ्रमन् तेनैव दृष्टोऽसि भवद्दर्शना त्रिभुवनाधिपति त्रिमलक्षालिनो ग्रन्थाः त्वं भक्त्या प्रीयसे भक्तिः त्वच्चरणभावनामृत त्वच्चिदानन्दजलधेरच्युताः २२८ त्वज्जुषां त्वयि कयापि लीलया २१७ त्वत्कर्णदेशमधिशय्य २२४ त्वत्पादपद्मसम्पर्कमात्र त्वत्पादपूजासम्भोग त्वत्पादसंस्पर्शसुधासरसो २२१ २१५ २१६ त्वत्प्रकाशवपुषो न विभिन्न २२२ त्वत्प्रभुत्वपरि त्वत्प्रलापमय २१२ ३१८ त्वत्प्राणिताः स्फुरन्तीमे त्वदविभेदमतेरपरं तु किं ३२५ ३४८ १२१ २४४ त्वदीयानुत्तररसासङ्ग त्वते निखिलं विश्वं त्वदेकनाथो भगवन्निय त्वदेकरक्तस्त्व त्वदाम्नि चिन्मये स्थित्वा त्वाम्न विश्ववन्द्ये त्वद्धशानदर्शनस्पर्शतृषि २७ १६० ८२ त्वन्मयोऽस्मि १९९ २०२ १२० २५७ त्वद्भक्तितपन त्वद्भक्तिसुधासारै त्वद्वपुःस्मृति त्वद्विलोकनसमुत्कचेतसो १०० १६ ५५ १९३ ६१ १३५ १५२ २३१ २६२ ९९ ४० १५७ ७२ २८७ ७८ ५५ १०५ २०८ १४३ ३२९ १३६ ७३ ११५ २७७ ३४२ २८८ १५४ १०० ३३३ ३३७ १६९ ४ त्वत्पादपद्मसंस्पर्श त्वमेवात्मेश सर्वस्य त्वया निराकृतं सर्व त्वय न स्तुतिशक्तिरस्ति त्वयि रागरसे नाथ त्वय्यानन्दसरस्वति त्वामगाधमविकल्प द दक्षिणाचारसाराय दर्शनपथमुपयातो दासघाम्नि विनि दासस्य मे दुःखागमोऽपि भूयान्मे दुःखान्यपि सुखायन्ते दुःखापि वेदना भक्तिमतां दुर्जयानामनन्तानां दृष्टार्थ एव भक्तानां देव दुःखान्यशेषाणि देवदेव भवद देव प्रसीद यावन्मे देहभूमिषु तथा ध धर्माधर्मात्मनोरन्तः ध्यातमात्रमुदितं ध्यातमात्रमुपतिष्ठत ध्यानामृतमयं यस्य ध्यानायासतिरस्कार ध्यायते तदनु श्रीशिवस्तोत्रावली न किल पश्यति सत्यमयं जन न कश्चिदेव लोकानां न क्कापि गत्वा हित्वापि ७४ ६ १७४ ३२२ ४१ ९६ २१० २९ १७७ २०० ३३६ २६१ ३४७ २५५ ४५ २८३ १४१ १९६ ३३१ १०६ २३५ ३२८ ३५२ ३४३ २७३ १९७ न च विभिन्नमसृज्यत न तदा न सदा न चैकदे न ध्यायतो न जपतः न प्राप्यमस्ति भक्तानां २४८ ३४५ नमः सततबद्धाय नमः सुकृतसंभार नमश्वराचराकार नमस्तेभ्यो विभो येषां • नमो निकृत्तनिःशेष नमो मोहमहाध्वान्त न योगो न तपो नार्चा न विरक्तो न चापीशो न सा मतिरुदेति या न सोढव्यमवश्यं ते नाथं त्रिभुवननाथं भूतिसितं नाथ कदा स

नाथ ते भक्तजनता

नाथ लोकाभिमाना नाथ विद्युदिव भाति विभा ते नाथ वेद्यक्षये केन नाथ साम्मुख्यमायान्तु नान्यद्वेद्यं क्रिया यत्र निजनिजेषु पदेषु निर्विकल्पभवदीयदर्शन निर्विकल्पो महानन्दपूर्णो निवसन्परमामृता निवेदितमुपादत्स्व निःशब्दं निर्विकल्पं च नो जानते सुभगमप्यचलेपवन्तो नौमि निजतनुविनिस्सरदंशुक प परमामृतकोशाय ३२० १६८ २ २८५ २८ २५ २५ २२ १६४ १३ २३४ १८३ १३१ ३३९ १२९ २३९ १२४ ७. ३३१. ४४ १०७. १७० ९० ३१५ ७९ १७५ ३०६ ३४०. ३३ Ala परमागतसान्द्राय परमेश्वरता परमेश्वर तेषु परानन्दासतमये दृष्टेऽपि परितः अगरच्छुद्ध परिपूर्णानि शुद्धानि परिसमाप्तमियोप्रमिदं जगद् पशुजनसमान पादपकजरसं तब केचिद् पानाशनप्रसाधन पूजा केचन मन्यन्ते पूजाभगाक्षविक्षेप जामतापानमयो येषां पूजारम्भे विभो ध्यात्वा पूजोपकारणीभूत विश्वाशेन प्रकटय निजधाम देव गास्मि प्रकटन निजमध्वानं अकटींगव नान्याभिः प्रकाश शीतलामैको प्रतिबस्तुगमतजीवतः प्रत्याहारायसंस्थे प्रगुणा भवता यस्य प्रसीद भगवन सेन आहाथ शोकाहा आर्थनाभूमिकालीन बत नाथ स्वोऽयमात्मबन्धो बलियामस्तृतीयाय बारान्तरपि तत्स्यन्दमानं बाह्य हृदय एबान्तर बाह्यतोऽन्तरपि बाह्यान्तरान्तरामालले लोकानुक्रमणिका २१ ब्रह्मादीनामपीशास्ते २६९ मझेन्द्र विष्णुनिर्व्यूड ११३ भ १४१ भक्तानां नार्तयो नाप्यस्त्याध्यानं ३४८ १२३ भक्तानां नास्ति संवेद्यं २५४ २९९ भक्तानां भक्तिसंवेग महोष्म २८१ ६२ भक्तानां भवदद्वैत १२७ भक्तानां विषयान्वेष| ५६ भक्तानां समतासार २६७ भक्तानामक्षविक्षेपोऽप्येष भक्ता निन्दानुकारेऽपि भक्तिकण्डू समुल्लासा भक्तिक्षीवोऽपि कुप्येयं २९१ भक्तिक्षोभवशादोश २९२ भक्तिमदजनित १७६ | भक्तिर्भक्तिः परे भक्तिर्भक्तिर्नाम भक्तिर्भगवति भक्तिलक्ष्मी समृद्धानां २९४ ३१३ १३ [1] भक्तव्यासवसमृद्धाया भगवक्षितरानपेक्षिणा भगवन्भवतः पूर्ण भगवन्भवदि ७६ भगवन्भवदीयपादयो भवतोऽन्तरचारि-भावजातं भर्ता कालान्तको यत्र गबरपादाम्बुजरजोराजि भवपूजामयाससम्भोग 4 १३३ : भवापूजामृतरसाभोग भवपूजासुस्वाद २३५ : भवदशगत २४२ भवदशपरिष्वज्ञ भगवजपरिस्रवत्सु २७५ २६ २८४ २७३ २९६ २५५ ३४४ २५२ २९६ १०१ २६४ २४२ ३४६ १२६ १७३ ९१ १८७ १७१ १७४ १३२ २७८ २७९ २७६ १८१ ९४ ३१२ ६ भवदङ्घ्रिसरोरुहोदरे भवदमलचरण भवदात्मनि विश्वमु भवदावेशतः पश्यन् भवदीयगभीर भवदीयमिहास्तु भवद्भक्तिमहाविद्या भवद्भक्तिसुधासारस्तैः भवद्भक्त्यमृतास्वादा भवद्भावः पुरो भावी भवन्मयस्वात्मनि भावा भावतया भृत्या वयं तव विभो भ्रान्तास्तीर्थदृशो भिन्ना म मङ्गलाय पवित्राय मत्परं नास्ति तत्रापि मनसि मलिने मनसि स्वरसेन महताममरेश पूज्यमानो महादेवाय रुद्राय महाप्रकाशवपुषि विस्पष्टे महामन्त्रतरुच्छायाशीतले महामन्त्रमयं नौमि महेश्वरेति यस्यास्ति मा: किं न चर्येत मानावमानरागादि मामकमनोगृहीत मायामयजगत्सान्द्र मायाचिने विशुद्धाय मायीयकालनियति मा शुष्ककटुकान्येव मुक्तिसंज्ञा विपक्काया श्रीशिवस्तोत्रावली १७२ मुनीनामप्य विज्ञेयं ३२७ मुमुक्षुजन से व्याय ११४ मूढोऽस्मि दुःखकलितोऽस्मि ९१ १८४ ३१६ १० १७ ९ २३९ ३०७ १८८ १४० २५७ २८ ४८ २४१ १८६ ७० २२ १४५ ३१२ ३३ १४६ १६ २५८ १०२ २७ मूलाय मध्यायाग्राय मूले मध्येऽवसाने च मोक्षदशायां य यः प्रसादलव यतोऽसि सर्वशोभानां यत्र तत्रोपरुद्धानां यत्र देवीसमेतस्त्व यत्र सोऽस्तमयमेति विवस्त्रों यत्समस्त सुभगा यथा तथापि यः पूज्यो यथा त्वमेव जगतः यथैवाज्ञातपूर्वोऽयं यदि नाथ गुणेष्वात्माभिमानो यथास्थित यद्यप्यत्र वरप्रदोद्धततमाः यन्न किञ्चिदपि यस्य दम्भादिव भवत्पूजा यस्य भक्तिसुधास्नान यस्यानारम्भपर्यन्तौ यावन्न लब्धस्त्वत्पूजा येन नैव भवतोऽस्ति येन मनागपि येषां प्रसन्नोऽसि विभो ये सदैवानुरागेण योऽविकल्पमिदम २६ २३३ यो विचित्ररससेकवर्धितः ३३० र २६१ रक्षणीयंवर्धन ३२ ३० १५६ ३४७ ३३४ १०४ २६५ २५६ ६८ २०४ ३० २८९ २५१ १४३ १९८ १६२ १८९ १७२ २५९ २७४ २८४ १५३ १५.५ १३६ १३२ २०७ ६१ २३८ रागद्वेषान्धकारोऽपि रागादिमयभचाण्डक राज्यलाभादिवोत्फुल्लैः रुदन्तो वा हसन्तो वा ल लघुमसृणसिता लब्धत्वत्संपदां भक्तिमतां लब्धाणिमादि लोकवद्भवतु व वन्दे तान् दैवतं येषां वन्द्यास्तेऽपि महीयांसः वर्तन्ते जन्तचोऽशेषा विकसतु स्ववपु विचरन्योगदशास्वपि वियोगसारे संसारे विलीयमानास्त्वय्येव विश्वेन्धनमहाक्षारा विषमस्थोऽपि स्वस्थोऽपि विषमार्तिमुषानेन चाचि मनोमतिषु तथा वेदागमविरुद्धाय व्यवहारपदेऽपि व्यापाराः सिद्धिदाः सर्वे श शक्तिपातसमये शतशः किल ते शम्भो शर्च शशाङ्कशेखर शान्तकल्लोलशीताच्छ शान्तये न सुखलिप्सुता शिलोञ्छपिच्छकशिपु शिव इत्येक शब्दस्य लोकानुक्रमणिका २५९ शिवो भूत्वा यजेतेति ९८ २९१ २३३ १०८ ४ १२८ १०६ ३४० १४४ ३५० १०९ ८३ ८९ ९२ २० २५३ ३२६ ८४ २३ १८५ २७५ शिवदासः शिवैकात्मा किं शिव- शिव शम्भो शङ्कर शिव- शिव शिवेति नामानि शुष्ककं मैव सिद्धेय स संग्रहेण सुखदुःख संसारसदसो बाह्ये संसाराध्वा सुदूरः खरतर संसारै कनिमित्ताय सकलव्यवहारगोचरे सततं त्वत्पदाभ्यर्चासु सततफुल्लभवन्मुखपङ्कजो सततमेव तवैव सततमेव भवचरणा सतोऽवश्यं परमसत्सञ्च सतो विनाशसम्बन्धा सत्येन भगवन्नान्यः सत्त्वं सत्यगुणे शिवे सदसच्च भवानेव सदसत्त्वेन भावानां सदा निरन्तरानन्द सदा भवद्दे हनिवास सदा मूर्त्तादमूर्त्ताद्वा सदा सृष्टिविनोदाय २०१ समस्तलक्षणायोग १८२ १६० १५ ३१७ २३६ १४ समुत्सुकास्त्वां समुदियादपि समुल्लसन्तु भगवन् सर्व एव भवल्लाभ सर्वज्ञे सर्वशक्तौ च सर्वतो विलसद्भक्ति ११ १४८ ५४ ८४ २५.० १९१ २६६ २४६ २४ ३१० २८२ ६३ ३११ १११ ४८ ३५१ २५.३ २४५ १४७ ३७ ३१ ३०८ ३०१ ३४४ २३ १८८ ११० ७६ ८ १४२ १४ सर्वदा सर्वभावेषु सर्वमस्यपरमस्ति न किंचिद् सर्ववस्तुनिचयैक सर्वाभासावभासो यो सर्वाशङ्काशनिं सर्वा सहकारि न किञ्चिदिष्यते सहसैवासाद्य सहस्रसूर्यकिरणाधिक साकारो वा निराकारो साक्षात्कृतभवद्रूप साक्षाद्भचन्मये नाथ सितातपत्रं यस्येन्दुः सिद्धिलवलाभ सुखप्रधानसंवेद्य सुधार्द्रायां भवद्भक्तौ स्फारयस्यखिलमात्मना स्फुटमाविश श्रीशिवस्तोत्रावली २७२ स्फुरदनन्तचिदात्मकविष्टपे स्मरसि नाथ कदाचिदपीहितं ५८ ३२४ स्वप्रभाप्रसरध्वस्ता ३४९ स्त्ररसोदितयुष्मद ३४ १६५ १२२ स्ववपुष स्फुटभासिनि स्वसंवत्सार स्वातन्त्र्यामृत पूर्णत्व ४९ स्वादुभक्तिरसास्वाद २६३ | स्वामिन्महेश्वरस्त्वं साक्षात्सर्वं १६८ स्वामिसौधमभि स्वेच्छ्यैव भवन्निजमार्गे ५ ३९ ३३५ ३१ २३७ २०५ ३२१ ह हर्षाणामथ शोकानां हस्यते नृत्यते यत्र हृदि ते न तु विद्यते हृन्नाभ्योरन्तरालस्थः हे नाथ प्रणतार्तिनाशनपटो ८५ ९३ ११७ ३४ २९८ १५१ २०३ ४२ १५६ १४८ १६३