यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ३०/मन्त्रः १३

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अध्यायः ३०
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः ३०


ऋतय इत्यस्य नारायण ऋषिः। ईश्वरो देवता। कृतिश्छन्दः। निषादः स्वरः॥

पुनस्तमेव विषयमाह॥

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

ऋ॒तये॑ स्ते॒नहृ॑दयं॒ वैर॑हत्याय॒ पिशु॑नं॒ विवि॑क्त्यै क्ष॒त्तार॒मौप॑द्रष्ट्र्यायानुक्ष॒त्तारं॒ बला॑यानुच॒रं भूम्ने प॑रिष्क॒न्दं प्रि॒याय॑ प्रियवा॒दिन॒मरि॑ष्ट्याऽअश्वसा॒दꣳ स्व॒र्गाय॑ लो॒काय॑ भागदु॒घं वर्षि॑ष्ठाय॒ नाका॑य परिवे॒ष्टार॑म्॥१३॥

पदपाठः—ऋ॒तये॑। स्ते॒नहृ॑दय॒मिति॑ स्ते॒नऽहृ॑दयम्। वैर॑हत्या॒येति॒ वैर॑ऽहत्याय। पिशु॑नम्। विवि॑क्त्या॒ इति॒ विऽवि॑क्त्यै। क्ष॒त्तार॑म्। औप॑द्रष्ट्र्या॒येत्यौप॑ऽद्रष्ट्र्याय। अ॒नु॒क्ष॒त्तार॒मित्यनु॑ऽक्ष॒त्तार॑म्। बला॑य। अ॒नु॒च॒रमित्य॑नुऽच॒रम्। भू॒म्ने। प॒रिष्क॒न्दम्। प॒रि॒स्क॒न्दमिति॑ परिऽस्क॒न्दम्। प्रि॒याय॑। प्रि॒य॒वा॒दिन॒मिति॑ प्रियऽवा॒दिन॑म्। अरि॑ष्ट्यै। अ॒श्व॒सा॒दमित्य॑श्वऽसा॒दम्। स्व॒र्गायेति॑ स्वः॒ऽगाय॑। लो॒काय॑। भा॒ग॒दु॒घमिति॑ भागऽदु॒घम् वर्षि॑ष्ठाय। नाका॑य। प॒रि॒वे॒ष्टार॒मिति॑ परिऽवे॒ष्टार॑म्॥१३॥

पदार्थः—(ऋतये) हिंसायै प्रवृत्तम् (स्तेनहृदयम्) चोरस्य हृदयमिव हृदयमस्य तम् (वैरहत्याय) वैरं हत्या च यस्मिन् कर्मणि प्रवर्त्तमानम् (पिशुनम्) विरुद्धसूचकम् (विविक्त्यै) विवेकाय (क्षत्तारम्) क्षतात्तारकं धर्मात्मानम् (औपद्रष्ट्र्याय) उपद्रष्टृत्वाय (अनुक्षत्तारम्) (बलाय) (अनुचरम्) (भूम्ने) बहुत्वाय (परिष्कन्दम्) सर्वतो रेतसः सेक्तारम् (प्रियाय) प्रीत्यै (प्रियवादिनम्) (अरिष्ट्यै) कुशलप्राप्तये (अश्वसादम्) योऽश्वान् सादयति तम् (स्वर्गाय) सुखविशेषाय (लोकाय) दर्शनाय सङ्घाताय वा (भागदुघम्) यो भागान् दोग्धि प्रपिपर्त्ति तम् (वर्षिष्ठाय) अतिशयेन वृद्धाय (नाकाय) अविद्यमानदुःखायाऽऽनन्दाय (परिवेष्टारम्) परितः सर्वतो व्याप्तविद्यं विद्वांसम्॥१३॥

अन्वयः—हे परमात्मन् हे राजन् वा! त्वमृतये स्तेनहृदयं वैरहत्याय पिशुनं परासुव। विविक्त्यै क्षतारमौपद्रष्ट्र्यायानुक्षत्तरं बलायाऽनुचरं भूम्ने परिष्कन्दं प्रियाय प्रियवादिनमरिष्ट्या अश्वसादं स्वर्गाय लोकाय भागदुघं वर्षिष्ठाय नाकाय परिवेष्टारमासुव॥१३॥

भावार्थः—राजादिमनुष्यैर्दुष्टसङ्गं विहाय श्रेष्ठसङ्गं विधाय विवेकादीन्युत्पाद्य सुखयितव्यम्॥१३॥

पदार्थः—हे परमात्मा वा राजन्! आप (ऋतये) हिंसा करने के लिए प्रवृत्त हुए (स्तेनहृदयम्) चोर के तुल्य छली-कपटी को और (वैरहत्याय) वैर तथा हत्या जिस कर्म में हो उस के लिए प्रवृत्त हुए (पिशुनम्) निन्दक को पृथक् कीजिए। (विविक्त्यै) विवेक करने के लिए (क्षत्तारम्) ताड़ना से रक्षा करने हारे धर्मात्मा को (औपद्रष्ट्र्याय) उपद्रष्टा होने के लिए (अनुक्षत्तारम्) धर्मात्मा के अनुकूलवर्त्ती को (बलाय) बल के अर्थ (अनुचरम्) सेवक को (भूम्ने) सृष्टि की अधिकता के लिए (परिष्कन्दम्) सब ओर से वीर्य्य सींचने वाले को (प्रियाय) प्रीति के अर्थ (प्रियवादिनम्) प्रियवादी को (अरिष्ट्यै) कुशलप्राप्ति के लिए (अश्वसादम्) घोड़ों के चलाने वाले को (स्वर्गाय) सुखविशेष के (लोकाय) देखने वा संचित करने के लिए (भागदुघम्) अंशों को पूर्ण करने वाले को (वर्षिष्ठाय) अतिश्रेष्ठ (नाकाय) सब दुःखों से रहित आनन्द के लिए (परिवेष्टारम्) सब ओर से व्याप्त विद्या वाले विद्वान् को प्रकट कीजिए॥१३॥

भावार्थः—राजा आदि उत्तम मनुष्यों को चाहिए कि दुष्टों के सङ्ग को छोड़ श्रेष्ठों का सङ्ग कर विवेक आदि को उत्पन्न कर सुखी होवें॥१३॥