बृहत्सामुद्रिकाशास्त्र
बृहत्सामुद्रिकाशास्त्र [[लेखकः :|]] १९०६ |
॥ श्रीः ॥ बृहत्सामुद्रिकशास्त्र। (स्त्रीपुरुषयक्षण.) अयोध्यामण्डलान्तर्वर्तिलखीमपुरखीरीनिवासियो- तिवत्पाण्डतनारायणप्रस दमश्रङ्कृत भापाटीकासहित । गङ्गामिष्टं श्रीकृष्णदासने अपने लक्ष्मीवेंकटेश्वर र छापेखानेमें । छापकर प्रसिद्ध किया । संवत् १९६३, शके १८२८ क्षण-मुंबई. इस पुस्तकका रजिष्टरी सल हंक यन्त्राधिकार्बने सन ३७ के आवड २९ वे वर्जय रखा है. P. B.SACH. 109 ॥ श्रीः ।। बृहत्सामुद्रिकशास्त्र । (स्त्रीपुरुषलक्षण.) =080- अयोध्यामण्डलान्तर्धर्तिऊखीमपुरखीरीनेताति ज्योतिर्वित्पण्डितनारायणप्रसादभित्र कृतभाषाटीकासहित । इसको गंगाविष्णु श्रीकृष्णदासने अपने “लक्ष्मीवेंकटेश्वर छापेखाने में छापकर प्रसिद्ध किया. संवत् १९६३, शके १८२८. कल्याण-मुंबई. रजिष्टी द्वारा सत्वाधिकारको मन्त्राधिकारीने अपने स्वाधीन रखा है।
- भूमिका ।
विदित हो कि सामुद्रिकशास्त्री ज्योतिषशास्त्रका एक मुख्य अंग , कि जिससे स्त्रियों और पुरुषोके शुभाशुभ लक्षण भली भांति जाने जा सकते हैं । ज्योतिषशास्त्रमें गणित और फलित नामसे दो भेद है, गणितको तो सबही विद्वान सत्य मानते हैं परन्तु फलितको अनेक विद्वान सत्य नहीं मानते। हमको तो फलितभी सत्यही प्रतीत होता है, परंतु फलितको कहने के लिये प्रथम उसके मनन करनेकी परम आवश्यकता है। देश मेद अहगणितं जातफमवलोक्य निषशेपमपि ॥ यः कथयाति शुभाशुभं तस्य न मिथ्या भवेद्वाणी ।। १।। ' जैसे कि, हम यहां कुछ चिह्न, पुरुष और स्त्रियांके लिखते हैं, कि जिनकी कई बार परीक्षा हुई है और सशे निकालें । जिस पुरुषका वर्ण गौर, कृश शरीर और सूक्ष्म देह तथा कलाई और जंघापर बाल बहुत हो, वह अत्यन्त कामी और बहुपुत्र होता है । जिसका देह लंबा, बर्ण गोधूमका, अत्यन्त चतुर और कृश देह हो, वह पुत्रहीन वा स्वल्पसन्तान होता है । ज। हस्वग्रीव, सूक्ष्म देह, चंचल स्वभाव हो वह कपटी और छली होता है । काणा, खल्वाट, खंज, तथा विडालनेत्रका पुरुष पापात्मा, कुटिल, अविश्वासपात्र होता है। जिसके लिंगम वामांग टेटा हो वह कन्याकी सन्तानवाला, और जिसके दक्षिणांग टेढ़ा हो वह पुत्रसन्ततिमान होता है । तथा जो लंव देह, स्थूल काय, बहुभाषी और उच्चशब्दवाला हो वह मानी, अहंकारी होता है । मध्यकाय, भारी देह, गौर वर्ण, शीघ्र बोलनेवाला जिसकी जिल्ला बोलने में चकटती है। बा भेददन्ती हो, वह अवश्य चतुर विद्वान तथा गुणी और बहुपुत्र होता है । कृष्णवर्ण, हृस्वतनु, कुरूप ऋरात्मा, अवश्य झूठा, छली, ठग होता है ।। जैसा पुरुषका व्यवहार है वैसाही खिर्योका है, जो स्त्री हस्वकाय, श्यामनयना। हो वह व्यभिचारिणी होती है । जिसके चरणकी तर्जनी अंगुष्ठसे लंबी हो वह व्यामचारिणी तथा विधवा होती है । जिसके हरत, पाद भारी, अंगुली छोटी, किंचित् स्थूलकाय, मध्यदेह, गौरवर्ण हो वह भी व्यभिचारिणी निर्लज्जा और नि- भैया होती है। लंबी तथा कृशदेह, पिंडली और कलाई पर बाल, शीघ्रगामिनी जिसका पांव मध्यसे पृथिवीपर न लगे वहभी व्यभिचारिणी होती है। जिसके कंध, कुच, नितम्ब, चलनेमं हिलं तथा शीघ्र और तिरछी वहभी व्यभिचारिणी होती है इत्यादि लक्षणसे स्वभाव गुण, अगुण तथा आयु पहिचानी जा सकती है। सामु- किशास्त्रमें मनन करनेसे और परीक्षासे शरीरस्य लक्षणांका यथार्थ ज्ञान हो जाता है। . ०१ Lc ७ == 1- b.an ,,।७।। यह सामाद्रिक शास्त्र प्राचीन लिखा हुआ हमको एक पंडितसे प्राप्त हुआ और जैसा कुछ उसमें क्रम था उसी अनुसार हमने लिखकर भाषाका कर दिया है यद्यपि उस हस्तलिखित पुस्तकमे अशुद्धियां बहुत थी तथापि हमने निजमति अनुसार अशुद्धिया को शुद्ध कर दिया है तभी लेवदोष से अथवा मनुष्यधर्मानुसार अशुद्ध रह गई ही उसकी विद्वान् जन क्षमा करेंगे यह हमारी वारंवार प्रार्थना है अथा।' अस्मिनुस्वरयंजनाविन्दुरफमात्राविहीनं लिखितं मया यत । तत्सर्वमायः। परिशोधनीयं प्रायेण मुगान्त हि ये लिखन्ति ।। "रा गन्थके दो खंड ४ १ पूर्वणंड, २ उत्तरखंड तहां पूर्व खंडमें मनुष्योंके अंग प्रत्यंग तथा हस्तरेखा व चिहाके लक्षण मली भांति वर्णन किये हैं। और उत्तरखं- इमं खियाके अंग प्रत्यंग तथा हस्तरेखा व चिह्नांके लक्षण भली भांति लिखे गये हैं। इस पुस्तकका भाषान्तरसहित सर्वाधिकार लक्ष्मीबेंकटेश्वर छापेखानेके अध्य- क्षको सर्वदाके लिये दे दिया है । किमाधिकमित्यलम् ।। च त्रशुक्ल ९ सम्वत १९६३. सत्कृपभाजन- ज्योतिर्वित्पण्डितनारायणप्रसाद मिश्र लखीमपुर खीरी, (अवध.) | भाषाकारकृत प्रार्थना । त्रिषष्टिनन्दचन्द्रेऽब्दे आषाढे च सिते दले। चतुथ्य भौमवारे च भाषा सम्पूर्णतामगात् ॥ १ ॥ भाषेयं रचिता प्रेम्णा श्रीनारायणशर्मणा ॥ । अत्र कुत्राप्यशुद्धं चेत्क्षन्तव्यं विबुधैर्नरैः ॥ २ ॥ अर्थ-श्रीमन्महाराजाविक्रमादित्यजीके सम्वत् १९६३ आषाढ- मास शुक्लपक्ष चतुर्थी भौमवारको यह ( सामुद्रिकशास्त्रकी ) भाषा- टीका समाप्त हुई, यह भाषा प्रेमपूर्वक ज्योतिर्वित्पण्डित नारायण- प्रसादमिश्रने रचना करी यदि यहां कुछ भी कहीं अशुद्धता रह गई। हो तो विद्वान् जनोंको क्षमा करनी चाहिये ॥ १ ॥२॥ समर्पण । अयोध्यामंडले रम्ये नैमिषात्पश्चिमोत्तरे ॥ योजने सप्तप्रमिते तत्र लक्ष्मीपुरे वरे ॥ १ ॥ मिश्रनारायणेनात्र भाषां कृत्वा यथामति ॥ बृहत्सामुद्रिक शास्त्र गंगाविष्णोः समर्पितम् ॥२॥ अर्थ-अयोध्यामंडल जो अत्यन्त रमणीय है जिसको अवधदेश कहते हैं उसमें एक प्रसिद्ध नैमिषक्षेत्र है तहांसे पश्चिमोत्तर (वायव्य कोणमें ) सात योजन (२८ कोश ) पर लखीमपुर नामवाला एक श्रेष्ठ ग्राम है तहां मुझ नारायणप्रसाद मिश्रने अपनी बुद्धिके अनु- सार भाषाटीका करके यह वृहत्सामुद्रिक (वडा सामुद्रिक ) शास्त्र श्रीमान सेठ गंगाविष्ण श्रीकृष्णदासजीके अर्थ भाषान्तरसहित समर्पण किया ॥ १॥ २॥ बृहत्सामुद्रिकशास्त्रविषयानुक्रमणिका । CeasaO- विषयानुक्रमणिका । विषय. पृष्ठाऊ. •... ४७ ६ । २००० १) । ३०, ३ ६ ३ ४ ० ० १ ० १॥ ६ ४ ६ ६ ६ ३ ३ ६ ६ ३ ३ ६ ६ पूर्वखंड । मङ्गलाचरण अन्यारम्भ राजचिह्न ॥ १३॥ २६ ॥ उध्वरेखा फछ। यवाक्रारचिह्नफरू । लक्ष्मीप्रातिचिह्नफल अखण्डलक्ष्मीचिह्न । उत्तमराजाचह्न करे वा पादुतले चिह्न मत्स्यरखा फल तुल्लादिचिह्न पप्रादिचिह्न शंखादिचिह्न त्रिशला चैह्न .... शकतामादाच अंकुशादिचिह्न गिरिकंकणााचिह्न सूर्यचन्द्रादिचिह्न ययाकारचि ००.. ऊध्वरेखाफल आयुरेखाादविचार बाल्यभृत्युाचह्न जारजातल्लक्षण । मातृपितरेखाविचार बहुरखाफल २०१८ छाटवन 144 मुखाकृतिन औष्ठवर्णन ।। इन्तक्षण : जिह्वाक्षण पृष्ठांक, | विषय. | नाटुक्षण २. १ नासिकालक्षण नेत्ररक्षण 441 33 भाहलक्षण कर्णलक्षण हुनु ( ठाडी ) लक्षण मुच्छलक्षण कपोलक्षण पृष्ठलक्षण ग्रीवलक्षण ललाटरेखा स्कन्धलक्षण बाहुक्षण । वक्षःस्थक्षण स्तनछक्षण **an चद्रलक्षण ।।।। नाभिरक्षण २०० कुक्षिवेक्षण २०१० हस्तलक्षण .... अंगुष्ठलक्षण .... हस्तलिलक्षण पुनरगुष्ठांगुडिलक्षण क्रटिक्षण : गुद व अंडकोशका लक्षण लिगक्षण यंक्षण .... •••. १६ रुधिरलक्षण १०० १९ रोमक्ष .... .... २० अंघाक्षण... ५... २९ । जानुलक्षण.... १५॥ २३ गुवक्षिण ... विषय. घरणलक्षण पादुणाष्टक्षण नखक्षण स्त्रीपुरुषसंख्यारेखा सन्तानरेखा भ्रातृरखा अल्पमुत्युरेखा शरीरवण गन्धलक्षण गतिक्षण उत्तरखंड । स्त्रीलक्षण । मस्तकक्षण कपालभिशलक्षण । छोटभगशकटलक्षण शिरःशक्षण । मशकतिलादिङ्ग नेत्रचिह्न ... नेत्रपक्ष्म (पक ) लक्षण । भृकुटीक्षण कर्णलक्षण ।।। ।। दुन्तऴक्षण ।। ... जिह्वाक्षण २०१० तालुलक्षण ।।।।। घप्टिका (घाँटी ) लक्षण । वाणीलक्षण ।।।। नासिकाङ्क्षण । दृन्तशब्द । ष्टिलक्षण ...। कपोललक्षण .... हुनुलक्षण ।।। कंठळक्षण । हस्तरेखालक्षण ६ ३ | पृष्ठांक, | १०। ४६ | अंगुष्ठक्षण हुल गुठीक्षण ••• ४८ करतटक्षण
- * * }} ।
करपृष्ठटक्षण नखक्षण ५... ४९ बाहुमूलक्षण २६ ३ । स्कन्धलक्षण वक्षःस्थलक्षण ५... ५० तिनलक्षण २०७० 22 । निवळीवलीक्षण उदुरलक्षण नाभिलक्षण नितम्बकाटक्षण यानलक्षण जंघाक्षण जानुलक्षण रोमक्षण । पाणलक्षण : गुल्फलक्षण .... चरणलक्षण । पादुतलक्षण गतिलक्षण । पादुगुडिलक्षण अनामिकामध्यमग्रिलक्षण कनिष्ठोगुलिलक्षण । पाइनखक्षण । पदपूशक्षण में अन्यज्ञशुभक्षण हस्तपादनानाचिह्नवर्णन .... स्त्रीपुरुषक्षण पाझेनीलक्षण । .... ६४ चित्रिणीक्षण
- १) । शंखिनीक्षण
.... ६६ | हस्तिनीलक्षण । ३ ३ ३ ३ ३
- * ३
३
- *
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ४ ३ १. १४ । ॐ विषयानुक्रमणिका ।। पृष्ठांक. .... ९३
- १४ ।
विषय. | पृष्ठांक, | विषय, पाटण .... .... ९१ | तरुण स्त्री की प्रशंसा पुरुषलक्षण ।। चकविचार ••••••• | सविचार ।। १५।। देवपुरुषक्षण । गन्धर्वमनुष्यलक्षण शीपविचार । । यक्षपुरुपक्षण । कररेखा है। राक्षसमनुष्यरूक्षण नखविचार पिशाधमनुष्यलक्षण । भुजालक्षण। पाच प्रकारकी स्त्रिया : ....९३ | हस्तविचार इत्यनुक्रमणिका समाप्त । ॥ श्रीः । अथ भाषाटीकासहितं सामुद्रिकशास्त्रम्। --20*5ONa>- मंगलाचरणम् । श्रीगणेशं नमस्कृत्य गुरुं च गिरिजापतिम् ॥ नारायणेन रचिता व्याख्या सामुद्रिकस्य हि ॥ १॥ अर्थ-श्रीगणेशजीको और गुरुदेव तथा गिरिजापति ( महा- देवजी) को नमस्कार करके नारायणप्रसादमिश्रने सामुद्रिकग्रन्थकी व्याख्या ( भापाटीका ) रचना करी ॥१॥ अथातः सम्प्रवक्ष्यामि हस्तरेखाविचारणम् ॥ दक्षिणे पुरुषं ज्ञेयं वामे वामाकरं शुभम् ॥२॥ अर्थ-अब आगे हम हस्तरेखाका विचार वर्णन करेंगे सो सुनो। दाहिने हाथमें पुरुषके लक्षण देखना और वायें हाथको देखकर स्त्रीके लक्षण कहना, हाथकी रेखाओंसे सम्पूर्ण शुभाशुभ फल । कथन करना ॥२॥ शिवोक्तं तंत्रसामुद्रं कररेखाशुभाशुभम् ॥ यस्य विज्ञानमात्रेण पुरुषों नहि शोचति ॥३॥ अर्थ-श्रीशिव ( महादेवजी ) के कहे हुए सामुद्रिकशास्त्रमें हाथकी रेखासे शुभाशुभकी व्यस्था लिखी है, जिस शुभाशुभ अर्थात् सुखदुःखके भली भांति जाननेमासे मनुष्य शोकको प्राप्त नहीं होता अर्थात् सुखी रहता है ॥ ३॥ सामुद्रिकशास्त्रम् । राजचिह्न । जनने प्रवलो यस्य राजयोगो भवेद्यदि ॥ करे वा चरणोऽवश्यं राजचिह्न प्रजायते ॥४॥ अर्थ-जिसके जन्मसमय प्रवल राजयोग होवे उसके हाथ वा। पांवमें पद्म आदि राजचिह्न अवश्य होता है ॥ ४ ॥ अनामा मूलगा रेखा सैव पुण्याभिधा मता ॥ मध्यमांगुलिमारभ्य मणिबन्धान्तमागता ॥५॥ अर्थ-अनामा (कनिष्ठिका और मध्यमाके बीचकी अंगुली) के मूलमें जो सीधी रेखा होवे तो वह पुण्यकी देनेवाली शुभ होती है और वीच की अंगुलीसे लेके मणिबन्ध अर्थात् हाथकी जडतक जो सीधी और पूर्ण एकही रेखा होवे तोभी शुभ होती है ॥५॥ वैसारणो वातवारणो वा चोद्धारणो दक्षिणपा- णिमध्ये ॥ सरोवरं चकुश एवं यस्य वीणा च राजा भुवि जायते सः ॥६॥ अर्थ-जिसके दाहिने हाथमें मछली, छत्र, हाथी, तालाव और अंकुश वा वीणा इनमें से जो कोईभी चिह्न होवे तो वह मनुष्य पृथ्वीमें राजा होवे ॥ ६॥ मुशलशेलुकृपाणहलाङ्कितं करतले किल यस्य स वित्तपः ॥ कुसुममालिकया फलमीदृशं नृप- तिरेव नृपालुभुवो यदा ॥ ७ ॥ अर्थ-जिसका हाथ मुशल, पर्वत, तलवार, हुल इन चिह्नोंसे युक्त हो वह अवश्य धनवान होवे और जो फूलको मालाका चिह्न होये तभी धनवान हवे तथा राजकुलमें उत्पन्न हो और यह चिह्न हो तो राजा होवे ।। ७॥ भाषाटीकासहितम् ।। ऊर्दुरेखाफल । सोद्ध रेखा विशेषेण राज्यलाभकरी भवेत् ॥ खण्डिता दुष्टफलूदा क्षीणा क्षीणफलप्रदा॥८॥ अर्थ-ऊर्ध्वरेखा वह है जो बीचकी अंगुलीसे हाथकी जडतक अपूर्ण एकही रेखा होती है, सो विशेषकरके राज्यलाभ करानेवाली होती है, जो ऊर्ध्व रेखा खंडित हो तो दुष्ट फल देती है और जो क्षीण हो तो क्षीण फल देती है ॥ ८ ॥ । यवाकारचिह्नफल ।। अंगुष्ठमध्ये पुरुषस्य यस्य विराजते चास्यवो यशस्वी॥ स्ववंशभूषासहितो विभूषा योषाजनै- रर्थगणैश्च मर्त्यः॥९॥ अर्थ-जिस पुरुपके अंगठेके बीच जाके समान सुन्दर आकार होवे तो वह यशवाला होता है और वह मनुष्य अपने वंशमें भूषण तथा आभूषण और स्त्रीजन तथा धनसे युक्त होता है ॥ ९ ॥ । लक्ष्मीप्राप्तिचिह्न ।। करतलेऽपि च पादतले नृणां तुरगपंकजचापर- थाङ्गवत् ॥ ध्वजरथासनदोलिकया समं भवति। लक्ष्म रमा परमाये ॥ १० ॥ अर्थ-जिसके हथेली और चरणतल ( तलवा) में पाडा, कमल, मनुष्य, चक्र, ध्वजा, रथ, सिंहासन और इढी ये चिह्न हों उनके स्थानमें श्रेष्ठ लक्ष्मी सर्वदा निवास करे ॥ १० ॥ । अखण्डलक्ष्मीचिह्न । कुम्भः स्तम्भो वा तुरङ्गी मृदङ्गः पाणावंघौ वा द्रुमो यस्य पुंसः ॥चञ्चद्दण्डोऽखण्डलक्ष्म्या परी- तः किंवा सोऽयं पण्डितः शौण्डिको वा ॥ ११ ॥ सामुद्रिकशास्त्रम् । अर्थ-जिसके हथेली वा चरणके तलवेपर कलश, खंभ, घोडा, वृक्ष, लाठी ये चिह्न हों वह अखंड लक्ष्मीसे युक्त होवे अथवा पंडित वा शाण्डिक ( मदिरा बेचनेवाला) होवे ॥ ११ ॥ उत्तमराजचिह्न । विशालभालोऽम्बुजपत्रनेत्रः सुवृत्तमौलिः क्षिति- मण्डलेशः ॥ आजानुबाहुः पुरुषं तमाहुः क्षोणी- भृतां मुख्यतरं महान्तः ॥ १२ ॥ अर्थ-जिसका माथा बड़ा हो और कमलपत्रके समान नेत्र हों तथा सुन्दर गोल शिर हो तो वह मनुष्य भूमंडलका स्वामी होवे और खड़े होनेपर जिसका हाथ घुटनोंतक होवे वह राजश्रेष्ठ और महाराजा होवे ॥ १२ ॥ नाभिर्गभीरा सरला च नासा वक्षःस्थलं रत्नशि- लातलाभम् ॥ आरक्तवण खलु यस्य पादौ मृदू । भवेतां स नृपोत्तमः स्यात् ॥ १३ ॥ अर्थ-जिसकी नाभि गहिरी हो और नाक सीधी, छाती रत्न- शिलाके समान निर्मल और चरण लाल रंगके कोमल होवें तो वह श्रेष्ठ राजा होता है ॥ १३ ॥ | करे वा पादतले चिह्न । राजते करगो यस्य तिलोऽतुलधनप्रदः ॥ तथा पादतले पुंसां वाहनार्थसुखप्रदः ॥ १४ ॥ अर्थ-जिसके इथेलीमें तिलका चिह्न हो तो वह उसको अतुल धन प्रदान करे है, एवं चरणतलगें तिल तो सवारी व धनका सुख देवे है ॥ १४ ॥ भाषादीकासहितम् ।। राजवंशप्रजातानां समस्तफलमीदृशम् ॥ अन्येषामल्पतां याति तथा व्यक्तं सुलक्षणम् ॥१५॥ अर्थ-राजाके वंशमें उत्पन्न मनुष्यों को ये सब पूर्वोक्त चिह्न पूर्णरूपसे राज्यसुखको देते हैं, अन्य मनुष्यको थोडाही घर व प्रतिष्ठा आदि फल देते हैं ॥ १५ ॥ मत्स्यरेखाफल ।। यस्य हस्ते मत्स्यरेखा कर्मसिद्धिश्च जायते ॥ धनाढयस्तु स विज्ञेयो बहुपुत्रो न संशयः ॥ १६ ॥ । अर्थ-जिसके हथलीमें मत्स्य ( मछली ) की रखा हावे तो वह मनुष्य कर्मसिद्धिवाला होवे अर्थात् वह मनुष्य जो जो व्यापारादि कर्म करे वह वह सिद्ध होवे उसमें धनधान्यादि की प्राप्ति होवे तथा वह मनुष्य धनवान् बहुपुत्रवान होवे इसमें सन्देह नहीं करना ॥१६॥ । तुलादिचिह्न ।। तुला ग्रामं तथा वनं करमध्ये च दृश्यते ॥ तस्य वाणिज्यसिद्धिः स्यात्पुरुषस्य न संशयः॥१७॥ अर्थ-जिसके हाथके बीच तुला( तराजू ), गांव अर्थात् नगरके समान चौकोन रेखाके बीच चित्र विचित्र चिह्न प्रतीत होवे तथा वत्रका चिह्न दीख पडे तो उस पुरुषको निःसन्देह वाशिन्य ( व्यापार ) की सिद्धि होती है अर्थात् वह व्यापार द्वारा धनवान होवे ॥ १७ ॥ पद्मादिचिह्न । पद्मचापादिखङ्गं च अष्टकोणादि दृश्यते ॥ स्त्रियश्च पुरुषस्यापि धनवान्स सुखी नरः ॥ १८ ॥ अर्थ-जिसके हाथमें कमल, धनुष, तलवार, अठकोन आदि सामुद्रिकशास्त्रम् ।। भा पाटीकासहितम् ।। निह दीख पड़े तो वह स्त्री हो अथवा पुरुष सो धनवान् और सुखी अर्थ-जिसके हाथमें शक्ति बरछीका चिह्न हो अथवा तोमर खड़- होवे तथा कमलके चिह्नसे पुरुष राजा और स्त्री रानी होती है, धनु- के सदृश कुछ विलक्षण मुष्टीमें हलप्रवेशका योग हो, तोमर नाम। पके चिह्नसे पुरुप धनुर्धारी होता है, तलवारका चिह्न होनेसे पुरुष । खङ्गाकार प्रतीत हो वा बाणका चिह्न हाथके बीचमें प्रगट दीख पडे महावीर संग्रामकर्ता होता है, आठकोनका चिह्न होनेसे राजकुलमें। तो ये तीनों चिह्न होनेसे श्रेष्ठ राज्यको मनुष्य प्राप्त होवे, इनमेसे उत्पन्न होनेसे राजा अथवा भूमिपति होता है ॥ १८ ॥ यदि एकभी चिह्न होवे तो सामान्य राज्यको प्राप्त होवे, दो चिह्नसे शंखादिचिह्न । । राज्य ऐश्वर्य भोग करे; रथ, चक्र, ध्वजा इनके आकार चिह्न प्रगट शंखचक्रध्वजाकारो नासाकारश्च दृश्यते ॥ दीख पडे तो इन्द्रसमान राज्य प्राप्त होवे ॥ २१ ॥ अंकुशचह्न । सर्व विद्याप्रदानेन बुद्धिवान्स भवेन्नरः ॥ १९ ॥ अंकुशं कुण्डलं चक्रं यस्य पाणितले भवेत् ॥ अर्थ-जिसके हाथमें शंख, चक्र, ध्वजा इनके आकारवाला यस्य राज्य महाश्रेष्ठं सामुद्रवचनं यथा ॥ २२ ॥ चिह्न हो और नासिकाके आकारवाला चिह्न दीख पडे तो सम्पूर्ण । विद्याका पढानेवाला, बुद्धिवान् मनुष्य होवे तथा यदि शंखका अर्थ-जिसके हथेलीमें अंकुश, कुंडल, चक्र ये तीनों चिह्न चिह्न होते तो वेदवेदांतका ज्ञाता हो, नासिकाके आकारवाला चिह्न प्रगट प्रतीत हों तो मनुष्य चक्रवर्ती राजा होवे, यदि एक चिह्न हो । हो तो सांसारिक व्यापारविद्यामं निपुण होवे ॥ १९ ॥ तो सामान्य राज्य भोगे, दो चिह्न हों तो कुछ विशेष राज्यका - त्रिशूलचिह्न।। ऐश्वर्य भोगे यह क्षीरसमुद्रवासी नारायणका वचन है ॥२२॥ गिरिकंकणादिचिह्न । त्रिशले करमध्ये तु तेन राजा प्रवर्तते ॥ गिरिकंकणयोनीनां नरमुंडघटादिकम् ॥ यज्ञे कर्म च दाने च देवद्विजप्रपूजने ॥ २० ॥ करे वै यस्य चिह्नानि राजमंत्री भवेन्नरः ॥ २३ ॥ अर्थ-जिसके हाथके बीच त्रिशूलका चिह्न हो तो राजा होनेका लक्षण जानना अर्थात् पुरुष वा स्त्रीके हाथके बीच शुद्ध त्रिशूल प्रगट | अर्थ-जिसके हाथमें गिरि (पर्वत), कंकण, योनि, नरमुंड ( कपाल),घट (घडा) इनका प्रगट चिह्न होवे तो वह मनुष्य राज- हो तो अवश्य राजा होवे है, त्रिशूलमें यदि सन्देह हो अर्थात् शुद्ध प्रगट न होवे तो राजाके आश्रय होके राजसुख भोगे तथा राजा मंत्री होवे, तीनों चिह्न होने से राजमंत्री अवश्य होवे और जो इन- वा राजाका कर्मचारी होकर नाना प्रकारके यज्ञ करे, दान करे, मॅसे जो पांचों चिह्न हों तो महामंत्री होवे, दो अथवा एक चिह्न हो। देवता आर ब्रह्मणांका पूजन करे ।। २० । । तो राजमंत्रीके समान ऐश्वर्यवाला होवे ॥२३॥ | सूर्यचन्द्रादिचिह्न ।। शक्तितोमरादिचिह्न । शक्तितोमरवाणैश्च करमध्ये सुदृश्यते ॥ सूर्यचन्द्रलतानेत्र अष्टकोणत्रिकोणकम् ॥ 'रथचक्रध्वजाकारी शक्रराज्ये लुभेन्नरः ॥ २।।।। मन्दिरं गज अश्वानां चिह्न धनिसुखी भवेत् ॥ २४॥ पलक हानि डट/ सामुद्रिकशास्त्रम् । अर्थ-जिसके हाथमें सूर्य, चन्द्रमा, लता ( वेलि), नेत्र, अष्ट- कोण, त्रिकोण, मन्दिर, हाथी, घोडा इनमेसे एक चिह्नभी होवे तो। मनुष्य धनी सुखी होवे, सूर्यका चिह्न हो तो मनुष्य तेजवान् होवे. चन्द्रमाका चिह्न होवे तो उसका नामप्रकाश होवे, वेलिका चिह्न हो तो उसका यश जगत्में फैले, आठ कोने, तीन कोने और मन्दिरका चिह्न हो तो वह मनुष्य कूप, बावडी, तालाव, देवालय, मन्दिर । बनानेवाला होवे, हाथीका चिह्न होवे तो उसके द्वारपर हाथ बंधे रहें, अश्व (घोडे) का चिह्न हो तो उसके द्वारपर घोडे बंधे रहें।॥२४॥ यवाकारचिह्न ।। अंगुष्ठोदरमध्यस्थो यो यस्य विराजते ॥ उत्पन्नो भुवि भोगी स्यात्स नरः सुखमेधते ॥२५॥ अर्थ-जिसके हाथके अंगठेके मध्यमें जौका चिह्न प्रगट दीख पड़े। तो वह मनुष्य जन्मसे मरणपर्यन्त पृथ्वीपर सुखी भोगी होवे॥२८॥ । तथा च ।। मध्यमातर्जनीभूले यो यस्य च दृश्यते ॥ धनवान्सुखभोगी स्यात्पुत्रदारगृहादिषु ॥ २६॥ अर्थ-जिसके मध्यमा ( बीचकी अंगुली) अथवा तर्जनी (अंगूठेके पासकी अंगुली) के मूलमें जीका आकार प्रगट दीख पडे तो वह मनुष्य धनी, गुणी, माननीय तथा सुखी होकर लोकमें प्रसिद्ध होवे और प्रसन्न होवे, पुत्र, स्त्री, घर आदिसे सुख भोग प्राप्त होवे ॥२६॥ । तथा च ।। अनामिकापूर्वमूले कनिष्ठादिक्रमेण तत् ॥ आयुष्यं दश वर्षाणि सामुद्रवचनं यथा ॥२७॥ अर्थ-यदि किसीके हाथके बीचमें अनामिका ( छोटी अंगुलीके पासकी अंगुली) और कनिष्ठा ( छोटी अंगुली ) के पूर्व मूलमें भाषादीकासहितम् । जोके आकारवाला चिह्न प्रत्यक्ष दीख पडे तो दश वर्षकी आयुका लक्षण जानना, क्षीरसमुद्रशायी भगवान्का ऐसा वचन है। भावार्थ यह कि यदि कनिष्ठा ( छोटी ) अंगुलीके प्रथम पूर्वभागसे लेके अनामिका अंगुलीके पूर्वभाग मूलतक आयुरेखा होनेसे दश वर्ष- पर्यन्त जीवनका लक्षण आयुरेखामें प्रतीत होवे। यदि रेखाके बीच- में कई रेखा टूट गई होंय, नीचेकी ओर झुकी हों तो जलमें डूबनेका ज्ञान होवे, यदि आयुरेखाके ऊपरसे चढके नीचे झुकी हों तो वृक्ष वा केले कोठेपरसे गिरे, कनिष्ठासे तर्जनीतक अपूर्ण रेखा हो तो १२० वर्षकी आयु होवे ॥ २७॥ । ऊर्ध्वरेखाफल । अंगुष्ठस्याप्यूर्व रेखा वर्तते नृपतेः शुभम् ।। सेनापतर्धनाढयश्च मध्यमायुर्नरो भवेत् ॥२८॥ अर्थ-जिस मनुष्यके अंगूठेके ऊपर चढके ऊध्वगामी रेखा दीख पडे तो जानिये वह मनुष्य बडा उत्तम राजराजेश्वर होवे और बहुतसी सेनाका स्वामी, तथा धनवान होवे और मध्यम आयु अर्थात् पचास साठ वर्ष जीवन रखकर वह मनुष्य सम्पूर्ण भोग करके उत्तम तीर्थमें शरीर त्याग करे ॥ २८॥ तथा च । तर्जनीमूलपर्यन्तमूर्ध्वरेखा च दृश्यते ॥ राजदूतो भवेत्तस्य धर्मनाशः प्रजायते ॥२९॥ अर्थ-एवं तर्जनी ( अंगूठेके पासकी अंगुली ) के मूलपर्यन्त यदि ऊर्ध्वं ( खडी ) रेखा मिलकर प्रगट होय तो राजदूत होनेका चिह्न है। सिपाही हो खङ्गधारणपूर्वक नाना प्रकारकी सुधि ( खबर) ले आनेका अधिकार प्राप्त होवे और उसके धर्मका क्षय होवे नी(अंगूठेके अनसनाका स्वास। १० सामुद्रिक शास्त्रम् । भोपाटीकासहितम् ।। अर्थात् जीवनपर्यन्त राजकीय कर्म करनेमें चंचल होके स्वस्थ नहीं अर्थ-कनिष्ठा अंगुलीके मूलमें यदि रेखायें हों तो दीक्षा दान होनेसे अपने वर्णाश्रमके यावत् उचित धर्मकर्मकी चेष्टासे रहित आदि फलका देवे, एक रेखा हो तो दाता और परोपकारी होवे, दो के मंमामें यन्किचित विषयभोग करके देह छाड देव ॥ २९॥ रेखा हां ता यथावत् धर्मशील, माननीय, पूजनीय, ज्ञानवान होवे, मध्यमामूलपर्यन्तमूध्वरेखा च दृश्यते ॥ तीन रेखा हो तो महा ऐश्वर्य, राजभोग, सुखसम्पत्ति प्राप्त होवे, पुत्रपौत्रादिसम्पन्नी धनवान्स सुखी नरः॥३०॥ चार रेखा हों तो बडा विद्यावान्, पंडित, ज्ञानी व बुद्धिवान होवे अर्थ-जिसके हाथकी बीचकी अंगुली जडतक ऊर्ध्व रेखाका । पांच रेखा हों तो लोकमें माननीय और प्रतिष्ठावान् होवे, छः रेखा चिह दीख पडे और प्रत्यक्ष प्रतीत हो तो वह प्राणी अपने वंशमें हो तो सुख प्राप्त होवे, सात रेखा हों तो संसारमें सामान्य सखी मानी होवे ॥ ३३॥ । वडा भाग्यवान, पुत्रपौत्रादिसम्पन्न, धनवान और सुखी होवे अर्थात् लोकमें बड़े आनन्दसे भोग विलास करके जीवनपर्यन्त | कनिष्ठामूलसंयुक्ता त्रिरेखा यस्य दृश्यते ॥ आनन्दसे रहे ॥ ३० ॥ एकं युग्मं तृतीयं च चतुर्थ वाणसंयुतम् ॥ ३४॥ अनामिकामूध्व रेखा व्यवसायधनागमः ॥ अर्थ-जिसके हाथमें कनिष्ठा (छोटी) अंगुलीके मूलमें यदि सुखदुःखेन जीवेन पुत्रपौत्रगृहादिषु ॥ ३१॥ तीन रेखायें प्रगट दीख पडें तो संसारके बीच धर्म, अर्थ, काम ये अर्थ-जिसके अनामिका ( छोटी अंगुलीके समीपकी अंगुली)। तीन पदार्थ भोग करनेका चिह्न जानना, यदि एक रेखा हो तो के मूलपर्यंत ऊर्ध्व रेखा प्रतीत होवे तो व्यवसाय ( व्यापार) अर्थात् धनी हो, दो रेखा तो धर्मात्मा हो, तीन रेखा हों तो भोगी होवे, नाना प्रकारके उद्यम करके धनका आगम होवे आर पुत्रपात्रसे चार रेखा हों तो बहत स्त्रियांसे भोग करनेवाला हाव, पाच रखा। युक्त होके घरमें कुछ सुख और दुःखको प्राप्त होता हुआ मनुष्य हों तो ज्ञानी, माननीय, यशस्वी और बुद्धिवान् होवे, कनिष्ठा अगु- अपना जीवन व्यतीत करे ॥ ३१ ॥ लीके मूलतले जितनी रेखायें हों उतनी स्त्रियोंसे भोग विलास कर- यस्य पाण्यध्वं रेखा स्यात्कनिष्ठामूलसंस्थिता ॥ नेमें आवे, एवं यदि स्वीकी कनिष्ठा अंगुलीके नीच मूल तले जित- नेमें आये, एवं याद स्रा ते नराः प्रदेशेषु शतमायुर्लभान्ति वै॥३२॥ नी रेखायें ऊपर चढकर प्रतीत होवे उतनेही पुरुषोंकि साथ उस । अर्थ-जिसके हाथमें कनिष्ठा (छोटी) अंगुलीकी जड़में ऊध्र्व स्वीका संयोग होवे ॥ ३४ ॥ ( खडी) रेखा प्रगट दीख पडे तो ऐसी रेखावाले मनुष्य सी वर्ष | आयुरेखाविचार ।। पर्यन्त अपना जीवन व्यतीत करते हुए संसारमें निर्वाह करें ॥३२॥ आयुर्वले भवेद्वेखा तर्जनीमूलसंस्थिता ॥ । तथा च । शतवर्ष भवेदायुः सुखमृत्युर्न संशयः॥३५॥ अर्थ-कनिष्ठाके मूलतले जो रेखायें प्रगट प्रतीत होवें तो उन् विद्यामानापमानौ च अंगुल्या मूलसंस्थिता ॥ ३३॥ रेखाओंके चिह्नसे सुख, दुःख, जन्म, मरण और आयुका परिज्ञान दीक्षादानं यथा धर्मपदवी सुखमेव च ॥ १२ सामुद्रिकशास्त्रम् । भाषादीकासहितम् । होवे है, यदि कनिष्ठाके मूलसे चलके तर्जनी अंगुलीके बीच मूळसे अर्थ-हाथके बीचमें जो दो रेखायें प्रायः होती हैं उनके लक्षणको मिलकर प्रतीत होनमें एक सौ वर्षकी आयु होवे और वह प्राणी । कहते हैं।अंगूठा और तर्जनी अंगुलीके बीचसे चलकर दो रेखा होती सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करे, यदि मध्यमाके मूलतक आयुरेखा । हैं उनमें एक तो हाथके बीचसे पीछे पहुंचेकी ओर से घूमती हुई रहे तो पचहत्तर वर्षकी आयु होवे ॥ ३५॥ जाती है, दूसरी रेखा कनिष्ठा ( छोटी ) के सामने ( मूल ) से आयु- मध्यमामूलपर्यन्तमायूरेखा च दृश्यते ॥ रेखामें मिलती हुई नीचेकी ओर चलकर स्थित होवे और पूर्ण होवे तो जानिये कि यह अपने पितासे उत्पन्न हुआ है, यदि इस चतुर्दशचतुर्विंशदायुर्बलविनाशनम् ॥ ३६॥ अर्थ-यदि आयुरेखा कनिष्ठिका अंगुलीकी मूलसे लेके मध्यमा रेखामें अपूर्णता न हो तो किसी दूसरे से उनकी उत्पत्ति जानना । तथा यदि अंगूठा और तर्जनीके बीच दो रेखा मिलके रहे तो जा- अंगुलीके मूलपर्यन्त दीख पडे तो चौदह और चौवीस मिलाकर निये कि मातापितामें बड़ा प्रेम था। यदि पृथक् रेखा प्रतीत हो अडतीस वर्षकी आयुमें उसका मरण होवे ऐसा कहना ॥ ३६॥ तो जानना कि दोनोंमें प्रीति नहीं रहती, कलह व अनबन रहती आयुर्बलं भवेद्रेखाऽनामिकामूलसंस्थिता ॥ है। यदि पिताकी रेखा छोटी नीचेकी ओर झुकके चली हो तो पि- त्रिदशं च त्रिषष्टिश्च आयुर्बलविनाशनम् ॥ ३७॥ ताकी अल्पायु जानना । यदि रेखा मोटी लाल चिह्न उपर हाथके अर्थ-यदि आयुरेखा कनिष्ठिका अंगुलीकी मूलसे लेके अना- प्रतीत हो तो बडी आयु पिताकी जानना । यदि मातृरेखा जो मिका अंगुलोके मूलपर्यन्त स्थित होवे तो तेरह वर्षकी आयु जान- । पहुँचेकी ओरसे होके ऊपरमें गई हो सो झ्यामतासे युक्त हो तो मा- ना, यदि दो जो मात्र दीख पडे तो वेसठ वर्षकी आयु जानना॥३७॥ ताकी अल्पायु जानना। यदि वही रेखा लाल रंगकी हो और मोटी बाल्यमृत्युचिह्न । व पूर्ण हो तो माताकी बडी आयु जानना । यदि माता पिताके दो आयुहीनं यथा स्वल्पं लघु दीर्घ च दृश्यते ॥ रेखाके बीच ऊपरके भागमें त्रिशूल हो तो माता पिता स्वर्गवासी ते नराः सुखदुःखेन बाल्यमृत्युर्नःसंशयः॥३८॥ देवता होके देवलोक में जावें ॥ ३९ ॥ अर्थ-जिसके हाथमें आयुकी रेखा क्षीण अल्प और छोटी बडी । मातृपितृरेखाविचार ।। तथा कटी हुई दीख पडे तो अल्पायु जानना, जिनके एसी रेखा प्रतीत हो वे मनुष्य सुख और दुःखसे युक्त होके बाल्यावस्थामें मातृरेखा करे चैव एकैकं युग्ममेव च ॥ निःसन्देह मृत्युको प्राप्त होवें ॥ ३८ ॥ एकैकं युग्ममादाय युग्मरेखा च दृश्यते ॥ ४०॥ जारजातलक्षण । अर्थ-दो रेखा माता और पिताकी हाथके वीचमें पृथक पृथक होती हैं। माताकी रेखा तर्जनी और अंगूठेके बीचसे चलकर पहुँ- चेमें मिलके रहती है और पिताकी रेखा तर्जनी और अंगूठेके वचसे करमध्ये स्थित रेखा पितुर्वशसमुद्भवः ॥ पूर्णरेखा पितुवैशोऽधैरेखा परवंशकः ॥ ३९ ॥ १४ सामुद्रिकशास्त्रम् । | भाषाटकासाहतम् । निकलकर आयुरेखाके नीचेसे चलकर हाथके वामपार्श्व ( वाई । अर्थ-तथा जिसके हाथकी पांचों अंगुलियोंकी सब रेखायें । ओर ) प्रतीत होती है ॥ ४० ॥ मिलकर यदि पन्द्रह होवें तो वह मनुष्य बडा भारी चोर होवे ऐसा बहुरेखाफल ।। चिह्न जानना। यदि सोलह रेखायें गिननेसे प्रतीत होवें तो यह यूत- बहुरेखा भवेत् केशं स्वल्पनिर्धनहीनता ॥ कर्म करनेवाला अर्थात् जुवारी होवे तथा वंचक ( ठग ) होवे । एवं रेखाय वामनः सौख्यं सामुद्रवचनं यथा ॥४१॥ यदि सत्रह रेखायें हों तो मनुष्य पापकर्ममें रत रहे । यदि अठारह अर्थ-जिसके हाथमें माता पिताकी रेखाके बीचमें बहुतसी छोटी । | रेखायें होवें तो धर्मात्मा होवे ॥ ४४ ॥ छोटी रेखायें प्रतीत हों तो निर्धन होनेका चिह्न जानना तथा केश। । ऊनविंशे भवेन्मान्यो गुणज्ञो लोकपूजितः ॥ होवे ऐसा जानना । तथा जो माता पिताकी रेखाके बीच तपस्वी विंशतो ज्ञेयो महात्मा चैकविंशकै ॥४५॥ थोडी रेखायें हों तो कुछ निर्धन होके कुछ सुखको भोगनेवाला । अर्थ-जिसके दाहिने हाथके पांचों अंगुलियों में उन्नीस रेखायें जानना । यह क्षीरसागरवासी भगवान्ने श्रीब्रह्माजीसे वर्णन । प्रगट दीख पड़े तो वह मनुष्य लोकमान्य ( संसारमें सन्मान पाने- किया है ॥ ४१ ॥ वाला), गुणज्ञ, लोकपूजित होवे और यदि वीस रेखायें प्रत्यक्ष अङ्कलीनां पृथग्रेखा गण्यन्ते त्रितयं पृथक् ॥ दीख पड़े तो तपस्वी तथा यदि इकईस रेखायें प्रगट दीख पडें तो रेखाद्वादशकं सौख्यं धनधान्यप्रदायकम् ॥ ४२ ॥ वह मनुष्य महात्मा होवे ॥ ४५ ॥ अर्थ-जिस मनुष्यके हाथकी पांचों अंगुलियोंके मध्य पृथक् ललाटवर्णन । पृथक् तीन तीन रेखा होनेसे यदि बारह रेखातक प्रत्यक्ष दीख उत्पन्नैर्विपुलैः शंखेललाटो विषमस्तथा ॥ पडे तो वह पुरुष सुखपूर्वक धनधान्य आदिकका भोगनेवाला निर्धनो धनवन्तश्च अद्धेन्दुसदृशैर्नरः ॥ ४६॥ होता है ऐसा जानना ॥ ४२ ॥ " अर्थ-जिसका ललाट ऊंचा हो और ललाटके ऊपर चटके अडुलीनां पृथग्रेखा गणने चेत् त्रयोदशम् ॥ प्रगट शखके आकार चिह्न प्रतीत हो तथा ललाटके ऊपर अर्धच- महादुःखं महाक्लेशं सामुद्रवचनं यथा ॥४३॥ । न्द्रमाके समान रेखा प्रतीत हो तो निर्धन वंशमें उत्पन्न होनेपरभी अर्थ-जिस मनुष्यके हाथमें पांचों अंगुलियोंकी सम्पूर्ण रेखायें मनुष्य वडा धनवान्, सुखी तथा भोगी होवे ॥ ४६॥ । तथा च ।। विपुलमूर्ध्वमधिकमुन्नतमद्धेन्दुसम्मितं राज्यम् ॥ प्रदिशत्याचार्यपदं शक्तिविशालं नृणभालम्॥४७॥ अर्थ-जिसका ललाट चौडा, ऊंचा, वडा, आधे चन्द्रमाके आ- सासुब्वत्रयोदशम गिनन-जिस मनुष्यों गिननेपर तेरह होवें तो वह महादुःखी अनेक प्रकारके क्लेशोंसे युक्त होता है ऐसा समुद्रशायी भगवान्ने कथन किया है ॥ ४३ ॥ रेखापंचदशे चौरः षोडशे यूतवंचकः ।। पापी सप्तदशे ज्ञेयो धर्मात्माष्टादशे भवेत् ॥४४॥ १६ सामुद्रिकशास्त्रम् । और सीपीके समान बड़ा और चम- कीला ललाट होय तो आचार्यपदुको देनेवाला जानना ॥४७॥ । भालस्थलस्थिताभिः सुशिराभिरधमाः सदैव पापकराः ॥ अभ्युन्नताभिराढ्यास्ताभिरपि स्व- स्तिकाकृतिभिः॥४८॥ अर्थ-जिसके मस्तकपर नसोंवाली रेखायें स्थित हों वह पुरुष अधम और पापकर्म करनेवाला होता है तथा जिसके मस्तकमें। नसे ऊंची रेखाओंवाली होवें और स्वस्तिक ( साथियों) के सदृश । हों तो वह पुरुष धनाढ्य होता है ॥ १८ ॥ स्वल्पैर्धर्मप्रवणा धनहीनाः संवृतैस्तथा विषमैः॥ निम्नैः केवलबंधनवधभाजः क्रूरकर्मणः ॥४९॥ अर्थ-छोटे लिलारवाले पुरुष धर्मिष्ट होते हैं और ढके, आँधे । व ऊंचे नीचे लिलारवाले निर्धनी होते हैं। नीचे लिलारवाले बन्धन । और वध पानेवाले तथा खोटे काम करनेवाले होते हैं ॥ ४९ ॥ ललाटोपसृतास्तिस्रो रेखास्तु शतवार्षिणाम् ॥ वृषत्वस्याच शतभरायुः पंचनवत्यथ॥५०॥ अर्थ-जिसके ललाटके ऊपर तीन रेखायें प्रगट दीख पड़े तो। सो वर्षकी आयु जानना । यदि ललाटके ऊपर चार रेखायें प्रगट दीख पड़े तो पचानवें वर्षकी आयु जानना ॥ ५० ॥ अरेखेणायुर्नवतिर्विच्छिनाभिश्च पुंश्चला॥ केशांतोपगताभिश्च अशीत्यायुरो भवेत् ॥५१॥ अर्थ-जिसके ललाटके ऊपर एक रेखाभी नहीं होय तो नब्वे यर्पकी आयु होय । यदि ललाटके उत्तर बहुत रेखायें छिन्न भिन्न १ तीत हों तो वह मनुष्य व्याभिचार करनेमें तत्पर रहनेवाला होता हैं। भाषाटीकासहितम् ।। तथा यदि एक रेखा ललाटके ऊपर वालों के मूलमें प्रगट दीख पडे तो अस्सी वर्षकी आयु उसकी होवे ॥५१॥ पंचभिः पंचभिः षभिः पंचाशदू बहुभिस्तथा ।। चत्वारिंशच्च चक्राभिस्त्रिशद्भिर्लग्नगामिभिः॥५२॥ । अर्थ-जिसके ललाटपर पांच पांच (दश) रेखा अथवा पांच छः (ग्यारह ) रेखा वा पंचाशद् ( पचास ) यद्वा बहुत रेखायें प्रगट प्रतीत होवें तो चालीस वर्षकी आयु होती है तथा ललाटके ऊपर टेढी होकर एक रेखा धुकुटोके ऊपर प्रतीत होय तो तीस वर्षकी आयु निश्चय जानना॥५२॥ | विंशतिवमवक्राभिरायुः क्षुद्राभिरक्षकम् ।। | वामार्द्धथुबालेन्दुभं भुवौ वा ललाटके ॥५३ ।। अर्थ-जिसके ललाटकी रेखा वामभागमें विशेष हों वा टेढी छोटी छोटी होंय तो वीस वर्षकी आयु जानना तथा भृकुटीके ऊपरकी मध्यरेखा मार्थप होके चन्द्रमाकी सदृश रेखा प्रतीत हो तो परिपूर्ण आयु एक सौ वीस वर्षकी जानना अथवा धुकुटीके ऊपर रेखा नहीं होय, द्वितीयाके चन्द्रमाके समान और मोटी रेखाभीनहीं होय, अति सुक्ष्म होय तो अति अल्प ( बहुत थोडी ) आयु जानना ॥ ५३॥ शुभमहुँन्दुसंस्थानमर्तुगः स्यादलोमशम् ।। नृपतीनां भवेचिह्न ललाटे शुभदर्शनम् ॥५४॥ अर्थ-जिसके ललाटमें भ्रकुटीके ऊपर एक रेखा प्रगट दीख पडे तथा भ्रकटीके बीच रोममिश्रित रखा दुखि पड़ ता राजा। होनेका चिह्न और ऐश्वर्य भोगके चिह्न जानना ॥ ४ ॥ जीवति वषण्यशीतिः केशान्तोपगते रेखे॥ भालेन वर्षनवतिः पुरुषो रेखाचितेन पुनः॥५५॥ सामुदि*• १ १८ सामुद्रिकशास्त्रम् । भोपाटीकासहितम् ।। अर्थ-जिसके केशोंके अंततक दो रेखा होवें तो अस्सी वर्षकी | अर्थ-धनी मनुष्योंके शिरमें पांच अंगुलप्रमाण दाहिनी ओरको आयुतक उसका जीवन होवे । जो अनेक रेखाओकरके युक्त ललाइ झुकी हुई भौंरी होवे तो सुख देनेवाली जाननी और वही भरी जो होवे तो यह पुरुष नवे वर्षपर्यन्त जीवन धारण करे ॥५६॥ वाई ओरको झुकी हुई होवे तो दुःख देनेवाली जानना ॥ ५९॥ विषमो धनहीनानां करोटिकामश्चिरायुषो मूर्ख ॥ । मुखाकृतिवर्णन। । द्राधिष्ठो दुःखवतां चिपिटो मातृपितृघ्नानाम् ॥५६॥ । जननीमुखानुरूपं मुखकमलं भवति यस्य मनुजस्य ॥ प्रायो धन्यः स पुमानित्युक्तमिदं समुद्रेण ॥ ६० ॥ अर्थ-विषम ( उंचा नीचा) मस्तक धनहीन पुरुषोंका होता है । अर्थ-जिसका मुखारविन्द माताके मुखके समान हो वह मनुष्य और बहुत आयुवालेका मस्तक खोपडीके आकारवाला होता है। प्रायः धन्य ( सुखी, भोगी और यशस्वी ) होता है ऐसा समुद्रने बहुतही लम्बा मस्तक दुःख पानेवाले पुरुषोंका होता है तथा वर्णन किया है ॥ ६० ॥ माता पिताका मारनेवाला पुरुष जो होता है उसका मस्तक चिप- समवृत्तमवलं सूक्ष्म स्निग्धं सौम्यं समं सुरभिवदनम् ॥ टासा होता है ॥५६॥ सिंहेभनिभं राज्यं सम्पूर्ण भोगिनां चेति ॥ ६१ ॥ अंगं यद्यपि पुंसां स्त्रीणां वा पिशितविरहितं सूक्ष्मम्।। अर्थ-जिस मनुष्यका मुख सब ओरसे गोल, भयानक, बड़ा, पुरुषं शिरावनद्धं तत्तदनिष्टं परं ज्ञेयम् ॥१७॥ चिकना और दर्शनीय अर्थात् देखने योग्य, समान, सुगन्धित, अर्थ-जिन मनुष्योंका अथवा स्त्रियोंका जो अंग मांसहीन सिंह और हाथीके तुल्य होय वह राज्य करनेवाला होता है तथा ( पतला ), खरदुरा, चमकती हुई नसोंवाला होवे तो शुभ सब प्रकार के ऐश्वर्य भोगियोंका ऐसाही मुख होता है ॥ ६१ ॥ नहीं जानना ॥२७॥ भीरुमुखं पापानां निम्नं कुटिलं च पुत्रहीनानाम् ॥ आयुःपरीक्षा पूर्व नृणां लक्षणं तदा ज्ञेयम् ॥ । दीर्घ निर्दव्याणां भाग्यवतां मंडलं ज्ञेयम् ॥ ६२ ॥ व्यर्थ लक्षणज्ञानं लोके क्षीणायुषां यस्मात् ॥५८॥ अर्थ-पापी पुरुषोंका मुख डरावना होता है । पुत्रहीन पुरुपोंका अर्थ-पहले मनुष्योंकी आयुका निश्चय कर लेवे तब हाथकी | मुख नीचा और कुटिल ( टेढा) होता है । तथा निर्धन जनोंका सुख मुख नीचा और कुटिल टढा) है। रखाके ज्ञानसे लक्षण जाने । जिन मनुष्योंकी आयु क्षीण हो उनके लम्बा होता है । भाग्यवान् मनुष्योंका सुख गोल होता है ॥ ६२॥ लक्षणका जानना व्यर्थ है अर्थात् बहुत कमती आयुवाले पुरुषको दौर्भाग्यवती पृथुलं पुंसां स्त्रीमुखमपत्यरहितानाम् ॥ लक्षण झुठभी हो जाता है॥५८॥ चतुरस्त्रं धूर्तानामतिद्वस्वं भवति कृपणानाम् ॥६३॥ भाग्यवतां पंचांगुलिशिरः सुसौख्याय दक्षिणावर्तः ॥ अर्थ-जिसका मुख चौडा होवे उसको अभागा जानना । जिस प्रायः पुंसां वामावर्ती दुःखाय पुनरेषः ॥ ५९॥ मनुष्यका मुख स्त्रीके मुखके समान हो उसको सन्तानहीन जानना। सामुद्रिकशास्त्रम् । भाषाटीकासहितम् ।। जिसका मुख चौकान हो उसको धूर्त ( मायावी) जानना, तथा शुभमढुंन्दुसंस्थाने मृत्युगः स्यादलोमशः ॥ जिसका मुख छोटा हो उसको कृपण ( कंजूस ) जानना ॥ ६३ ॥ ओष्ठवर्णन । अभामले कर्णयोगं समं मृदुसमाहितम् ॥ ६७॥ अर्थ-जिसके दोनों कान द्वितीयाके चन्द्रमाके समान होय और आरक्तावधरी श्रेष्ठौ मांसत्ववर्तुले मुखम् ॥ । ऊंचे कोमल तथा बराबर होवं, रोम नहीं होवें और भले व श्यामता कन्दपप्पममा दन्ता भाषितं काकासमम् ॥ ६४।। लिये न होवे ऐसे कान शुभ फलके देनेवाले जानने ॥ ६७ ।। अर्थ-जिसके ओठ लाल लाल हो तो फल श्रेष्ठ जानना और जिसके ओके ऊपरका मांस दलदार होके मुख गोल होवे तो श्रेष्ठ । स्निग्धा नीलाश्च मृदवो मूर्खजाः कुटिलाः खराः ॥ फल जानना । जिसके दांत कुंदके फूलके समान श्वेत वर्ण हों तो स्त्रीणां शिरसम श्रेष्ठं पादे पाणितले तथा ॥ ६८ ॥ श्रेष्ठ फल जानना । जिसका संभाषण कोकिलाके स्वरके समान हो। अर्थ-जिस मनुष्यके केश चिकने, काले, कोमल, टेढे, खरदरे, ती श्रेष्ठ फल जानना अर्थात् ये लक्षण सुखके देनेवाले जानने ॥६॥ स्त्रियांके शिरके बालोंके समान होवे तो श्रेष्ठ जानना । तथा चरण- दाक्षिण्ययुक्तमशठहंसशब्दसुखावहम् ॥ के ऊपर व हाथके तलपर अर्थात् हाथकी पीठपर पूर्व कहे अनुसार नासा सभा समपुटा स्त्रीणां तु रुचिरा शुभा ॥६५॥ होवें तो श्रेष्ठ फलके देनेवाले जानने ॥ ६८ ॥ अर्थ-जिसका मुख दक्षिणावर्त ( दाहिनी ओरको घूमा हुआ) बिम्बाधरो धनाढ्यः प्रज्ञावान् पाटलाधरो भवति ॥ महाप्रेमयुक्त ( कोमल ), हंसके समान शब्दवाला होवे तो ऐसा मुख प्रायो राज्यं लभते प्रवालवणधरस्तु नरः ॥ ६९॥ सुखदायक होता है और जिसकी नासिका ऊंची, नासिकाके छिद्र । अर्थ-बिम्ब ( कुंदरू ) के समान लाल लाल होठवाला पुरुष लाल वर्ण हों तो शुभ फल जानना । स्त्रियोंका मुख रुचिर हो तो। धनवान होता है । गुलाबके फूलके समान वर्णवाले होठोंका पुरुष शुभ जानना ॥ ६ ॥ बुद्धिवान होता है और मुंगेके रंगके समान लाल लाल होठवाला नीलोत्पलनिभं चक्षुर्नासालोनलंबकः ॥ पुरुष प्रायः राज्यको पाता है । ६९ ॥ न पृथुबालेन्दुनिभी ध्रुव चाथ ललाटके ॥ ६६ ॥ पीनोष्ठः सुभगः स्यालंवोष्ठो भोगभाजनं मनुजः ॥ अर्थ-जिसके दोनों नेत्र नील (श्याम ) कमलके समान होवे। अतिविषमोष्ठो भीरुलध्वोष्ठो दुःखितो भवति ॥ ७० ॥ और नासिकाके समीपतक पहुँचे हुए नेत्र बहुत लंबायमान न होवें । अर्थ-जिसके होठ मोटे हों तो वह पुरुप अच्छे चाल चलनवा- द्वितीयाके चन्द्रमाके समान धुकुटी ( भौहें ) नहीं होवें परन्तु धनु- ला होता है । जिस मनुष्यके होठ लम्बे हों वह भोग भोगनेवाला धुकुटी ललाटके ऊपर सुन्दर प्रतीत होवे तो बहुत उत्तम फल जा होता है। जिसके होठ विषम (कठोर ) देखनेमें अच्छे न हों वे नना । भावार्थ यह कि जो अंग देखने में सुन्दर सुडौल अथवा दशै भयभीत होनेवाले पुरुपके जानने अर्थात् वह पुरुष डरपोक होवे । छोटे होठवाला पुरुष दुःखी होता है ॥ ७० ॥ नीय होवे तो भाग्यको उदय करके सुखी करता है ॥६६॥ सामुद्रिकशास्त्रम् ।। भोपाटीकासहितम् । दन्तलक्षण । जिहालक्षण । द्वात्रिंशता नरपतिर्दशनैरेतैरेकविरहितैगी । शौचाचारविहीनाः सितजिह्वाः सततं भवन्ति नराः॥ यात्रिशता तनुधनाऽष्टाविंशत्या सुखी पुरुषः ॥७१॥ धनहीनाः शितिजिह्वाः पापोपगता शबलजिहाः ॥७॥ अर्थ बत्तास दतियाला पुरुष राजा होता है और जो इकती अर्थ-जिनकी जीभ सपद हो वे मनुष्य निरंतर शोधाचारसे होय तो यह मनुष्य भागी होता है तथा तीस दांत हो तो वह मन हीन होते हैं और जिनकी काली जीभ हो तो वे धनहीन होते हैं। ध्य थोडे धनाला होता है, जिसके अट्ठाईस दुति हा वह पुरुष । तथा जीनकी जीभ कचरी चित्र विचित्र रंगकी हो वे मनुष्य सुखी होता है ।। ७१ ॥ पापी होते हैं । ७५ ॥ दारिद्रयदुःखभाजनमेकोनविंशता सदा दशनैः ॥ । | रसना रक्ता दीर्घा सूक्ष्मा मृदुला तनुसमा येषाम् ॥ उर्वमधस्तैरपि विहीनसंख्येनेरो दुःखी ॥ ७२ ॥ मिष्टान्नभोजनस्ते यदि वा त्रैविद्यवक्तारः ॥ ७६॥ अर्थ-जिन मनुष्योंकी जीभ लाल रंग, बड़ी पतली, नरम और | अर्थ-जिसके उनतीस दृति हावें वह धनहीन और दुःखी। होता है और इससेभी कभती दांत जिसके हावं वह मनुष्य । बराबर हो वे मीठा भोजन करनेवाले होते हैं अथवा तीनों वेदांके वक्ता होते हैं ॥ ७६ ॥ दुःखी होता हैं ॥ ७२ ॥ तालुलक्षण ।। कुन्दमुकुलोपमा श्युर्यस्यारुणपीडिकाः समाः सुघनाः ।। रक्ताम्बुजतालुदरो भूमिपतिर्विक्रमी भवति मनुजः।। दशनाः स्निग्धाः ऋणातीक्ष्णा दंष्टाः सवितादयः ७३ । वित्ताढ्यः सिततालुर्गजतालुर्मडलाधीशः ॥ ७७॥ अर्थ-कुन्दकी कली के समान जिस पुरुपके दांत होवे अथवा अर्थ-जिसके तलुवेका बीच लाल कमलके समान होय वह पुरुष लाल फुसीक समान बहुत घने चिकने स्वच्छ और तेज दाढीवाले बलवान और प्रतापी राजा होता है और जिसका तलुवा सपेद् दांत होते तो वह पुरुष धनवान होता है । ७३ ॥ होय वह धनवान होता है, गजसमान जिसका तालु हो वह मंडलका स्यातां द्विजावधः प्राक द्वादशगे मासि राजदन्ताख्यौ ॥ स्वामी होता है ॥ ७७॥ शस्तावृध्वविशुभी जन्मन्येवोद्धतौ तद्वत् ॥ ७४ ॥ अरुणतालुर्गुणयुक्तस्तीक्ष्णाग्रा घंटिका शुभा स्थूला ॥ अर्थ जो नीचे के दांत एक वर्षके मध्य प्रगट हो तो ऐसे राज- लम्बा कृष्णा कठिना सूक्ष्मा चिपिटा नृणांन शुभा ७८ अर्थ-जिसका तालु लाल रंग हो वह गुणवान् होता है, जिसकी घांटी पैनी नोकदार हो तो शुभ होती है और मोटी, लम्बी, काली तथा कठोर और चपटी तालु होनेसे शुभ नहीं जानना ॥ ७८ ॥ दुन्त नामवाले शुभ फल देनेवाले जानने, तथा जो उपरके दांत एक वर्षके भीतर प्रगट होनें तो अशुभ जानना तथा जो एक साथ दोन आरके दांत निकले तोभी अशुभ जानने ।। ७४ ॥ सामुद्रिक शास्त्रम् ।। नासिकालक्षण । उन्नतनासः सुभगो गजनासः स्यात्सुखी महार्था- ढयः ॥ ऋजुनासो भोगयुतांश्चरजीवी शुष्क नासः स्यात् ॥७९॥ अर्थ-जिस मनुष्य की नाक ऊंची होती है उसका चाल चलन बहुत अच्छा होता है और जिसकी नाक हाथीकी नासिकाके समान होती है वह मनुष्य सुखी और बहुधनी होता है तथा जिसकी नाक । सूखी होती है वह बहुत समयतक जीता है ॥ ७९ ॥ | तिलपुष्पतुल्यनासः शुकनासो भूपतिर्मनुजः ॥ आट्योग्रवक्तनासो लघुनासो शीलधर्मपुरः ॥८०॥ अर्थ-तिलके फूलके समान अथवा शुक (सुवा) के समान नाक जिसकी हो वह मनुष्य राजा होता है और जिसकी टेढी नाक होती है वह धनवान होता है तथा जिसकी नाक छोटी होती है वह गुणधर्ममें तत्पर होता है ॥ ८० ॥ | नैवलक्षण। हारतालाभैर्नयनैर्जायन्ते चक्रवर्तिनो नियतम् ॥ नीलोत्पलदलतुल्यैर्विद्रोसो मानिनो मनुजाः ॥८१॥ अर्थ-जिनके नेत्र हरतालके रंगके समान होते हैं वे पुरुष चक्र- वर्ती राजा होते हैं और जिनके नेत्र नील कमलदलके समान हों वे पुरुप विद्वान् और मानी होते हैं ॥ ८१ ॥ सेनापतिर्गजाक्षश्चरजीवी जायते सुदीर्घाक्षः ॥ भाषाटीकासहितम् ।। होता है अर्थात् बहुत कालतक जीता है, जिसके नेत्र लम्बे चौड़े होते हैं वह भोगी होता है, जिसके नेत्र कबूतरके नेत्रोंके समान हों वह पुरुष कामी होता है ॥ ८२॥ लाक्षारुणैर्नरपतिर्नयनैर्मुक्तासितैः श्रुतज्ञानी॥ | भवति महार्थः पुरुषो मधुकांचनलोचनैः पिङ्गैः॥८३॥ अर्थ-लाखके रंगके समान लाल नेत्र जिसके हों वह मनुष्य राजा होता है और जिसके नेत्र मातीके समान श्वेत वर्ण हों वह पुरुष शास्त्रका जाननेवाला होता है, जिसके नेत्र पीले और शहद व सोनेके रंगके समान हों वह पुरुष बहुत धनी होता है ॥ ८३ ॥ बहुवयसो धूम्राक्षाः समुन्नताक्षा भवन्ति तनुवयसः ॥ विष्टब्धवर्तुलाक्षाः पुरुषा नातिक्रमन्ति तारुण्यम्॥८४॥ अर्थ-जिसके नेत्र धूम्र वर्ण ( धुमैले ) होते हैं वे पुरुष बहुत आयुवाले होते हैं और जिनकी आंख झुकी हुई होती है वे थोडी आयवाले होते हैं तथा जिनके नेत्र ऐंठ अकडे अथवा गोल होते हैं वे पुरुष तरुणाईका उल्लंघन नहीं करते हैं अर्थात् जवानीसे पह- लेही मृत्युको प्राप्त होते हैं ॥ ८४ ॥ श्यावदृशां सुभगत्वं स्निग्धदृश भवति भूरिभो- गित्वम् ॥ स्थलदृशां धीमत्त्वं दीनदृश धनविही- नत्वम् ॥ ८५ ॥ अर्थ-जिसके नेत्र धूमले हों वह पुरुष भाग्यवान होता है। जि- सके नेत्र चिकने हों, वह पुरुष बहुत भोग भोगनेवाला होता है । जिसके नेत्र मोटे हों वह पुरुष बुद्धिवान् होता है तथा जिसके नेत्र दीन दृष्टिवाले हों वह मनुष्य धनहीन होता है ॥ ८५॥ भागी विस्तीर्णाक्षः कामी पारावताक्षोऽपि ॥८२॥ अर्थ-जिस मनुष्यके नेत्र हाथीके नेत्रवाले होवें वह मनुष्य सेना पात होता है और जिसके नेत्र बहुत बड़े इवें तो वह दीघजाव।। सामुद्रिकशास्त्रम् ।। अहिदृष्टिः स्याद्रोगी विडालदृष्टिः सदापापः ॥ दुष्टो दारुणदृष्टिः कुक्कुटदृष्टिः कलिप्रियो भवति॥८६॥ अर्थ-जिसकी दृष्टि सांपकी दृष्टिके समान हो वह पुरुष रोगी होता है। जिसकी दृष्टि विलावकी दृष्टिके समान हो वह सदा पापी होता है। तथा जिसकी दारुण ( भयानक) दृष्टि हो वह मनुष्य दुष्ट होता है तथा जिसकी दृष्टि कुकुट (मुरग) के समान हा वह कलह प्रिय होता है अर्थात् उसको लडाई अच्छी लगती है ॥८६॥ अन्धः क्रूरः काणः काणादपि केक मनुजात् ॥ काणाकेकरतोऽपि क्रूरतरः कातरो भवति ॥८७॥ अर्थ-अंधा और काणा मनुष्य क्रूर अर्थात् दुष्टस्वभाववाला होता है । काणे मनुष्यसेभी अधिक क्रूर वह होता है कि जो वारं- वार दृष्टि फेरता है तथा काणे और दृष्टि फेरनेवालेसे अधिक क्रूर ( खोटा) वह होता है जो आंखको चुराता है ॥ ८७॥ । अतिदुष्टा घूकाक्षा विषमाक्षा दुःखिताः परिज्ञेयाः ॥ हंसाक्षा धनहीना व्याघ्राक्षाः कोपना मनुजाः ॥ ८८॥ अर्थ-जिनके नेत्र उडू पक्षीके समान हों वे नर अतिदुष्ट होते हैं। और जिनके नेत्र विषम अर्थात् छोटे बड़े हों वे मनुष्य दुःखी होते हैं। जिनके नेत्र हुँसकेसे हों वे पुरुप दरिद्री ( धनहीन) होते हैं । तथा जिनके नेत्र व्याघ्रकेसे हों वे मनुष्य क्रोधी होते हैं ॥ ८८ ॥ अतिपिंगलविवर्णविभ्रान्तैर्लोचनैरशुभः ॥ । अतिहीनारुणस्नैः सजलैः समलैर्नरा निःस्वाः॥८९ ॥ अर्थ-जिसके नेत्र बहुत कंजे, अशोभित रंगके, फिरते हुए और चंचल होवें वह मनुष्य अच्छा नहीं होता है और बहुत छोटे, लाल लाल, रूखे, गीले और मले नेत्र जिनके हों वे मनुष्य निर्धनी होते हैं ॥ ८९ ।। भापाटीकासहितम् । भौंहलक्षण । धनवन्तः सुतवन्तः शिखिरैः पुरुषाः समुन्नतैर्विशदैः॥ निम्नैः पुनर्भवन्ति द्रव्यसुखापत्यपरिहीनाः ॥ ९० ॥ अर्थ-जिसकी भौंहें ऊंची और देखने में अच्छी होवें तो वे पुरुष धनवान्, पुत्रवान होते हैं और जिनकी भौंहें नीची और देखने में अ- की नहीं होवें वे पुरुष धन सुख आर सन्तानसे हान हात ह॥९०।। | कर्णलक्षण ।। आद्यः प्रलम्बकर्णः सुखी स्वभावपीनमृदुकर्णः ॥ मतिमान्मूषककर्णश्चमृपतिः शङ्कर्णः स्यात्॥९१॥ अर्थ-जिसके कान लम्बे, स्वाभाविक नरम, तथा मोटे हों तो उस मनुष्यको पहिली अवस्थामें सुख प्राप्त होता है । जिसके कान मूसेके कानके समान हों वह मनुष्य बुद्धिवान होता है, जिसके कान शंखके समान हों वह चमूपति ( सेनाका स्वामी ) होता है ॥ ९१ ॥ | ह्रस्वैर्नःस्वाः कणैर्निर्मासैः पापमृत्यवो ज्ञेयाः ॥ व्यालंबिभः शिरालैः शूराः स्युः प्रायशः कुटिलैः॥९२॥ | अर्थ-जिन मनुष्योंके कान छोटे और मांसहीन हों वे दरिद्री धनहीन और पापरोगसे मृत्यु पानेवाले अथवा पापी होते हैं और जिनके कान लम्बे नसदार व टेढे होवें वे मनुष्य बहुधा कुटिल ( दुष्टस्वभाव) होते हैं ॥ ९२॥ । चिपिटश्रवणो भोगी दीर्घायुदर्घरोमशः श्रवणः ।। अतिपीनमहाभोगी श्रवणो जननायको भवति॥९३॥ अर्थ-जिसके कान चिपके होते हैं वह मनुष्य भागी होता है । जिसके कानों पर बडे बडे रोम हों वह दीर्घजीवी ( बहुत कालत के जानेवाला) होता है। जिसके कान बहुत मोटे हों वह महाभागी २८ सामुद्रिकशास्त्रम् । ( अधिक सुख पानेवाला) और जननायक ( बहुतसे मनुष्योंका स्वामी) होता है ॥ ९३॥ हुनु (ठाडी) लक्षण । पुण्यवतामिह चिबुकं वृत्तं मांसलमदीर्घलघुसु- संयुतं मृदुलम् ॥ अतिकृशदीर्घस्थूलं द्विधाग्र- भागं दरिद्राणाम् ॥ ९४॥ अर्थ-इस जगत्में जिन मनुष्य की ठोंडी गोल, मांससे भरी. बहुत बड़ी हो न छोटी हो और कोमल सुडौल होती है वे पुरुष पुण्यवान होते हैं और जिनकी ठोंडी बहुत पतली, बडी, मोटी, दो भागवाली होती है वे मनुष्य दरिद्री होते हैं ॥ ९४॥ हनुयुगलं सुश्लिष्टं चिबुकोभयपार्थस्थितं पुंसाम् ॥ । दीर्घ चर्क शस्तं पुनरशुभं भवति विपरीतम् ॥ ९५॥ । अर्थ-जिन मनुष्योंकी ठोंडी दोनों ओर से मिली हुई, गोल, सुडौल हो तो शुभ फलकी देनेवाली जाने और जो इससे विपरीत ठोंडी हो तो अशुभ फलकी देनेवाली जाने ॥ ९५॥ । मुच्छलक्षण ।। सान्तद्वितीयदशमिहशुकोद्वयेकोऽधिकः क्रमेण नृणाम् ॥ तदयं श्मश्रुभेदस्तद्वि- कृतिः षोडशे वर्षे ॥ ९६॥ अर्थ-जिन मनुष्योंकी मूळे वीस वर्षके भीतर अथवा इक्कीस वर्षके भीतर निकस आवें वे वीर्यको प्रगट करनेवाली होती हैं और जो सोलह वर्षके भीतर मूछे आयें तो विर्य में विकार उत्पन्न करने वाली जाने ॥ २६ ॥ भोपाटीकासहितम् । २९ परदाररताश्चौराः श्मश्रुभिररुणैर्नटा नखैः स्थूलैः ॥ रूक्षेः सूक्ष्मैः स्फुटितैः कापलैः केशान्विता बहुशः९७ अर्थ-जिन मनुष्योंकी मूंछ व दाढीके बाल लाल लाल हों तो वे पुरुष परस्त्री रमण करनेवाले होते हैं और जिनके नख मोटे, रूखे, पतले, फटे, कंजेके समान होवें और दाढी मूछमें केश बहुत होवें ऐसे मनुष्य नट अथवा नटके समान स्वभाववाले होते हैं ॥ ९७ ॥ | कुपोललक्षण । निम्नौयस्य कपोली निमसी स्वल्पकूर्चरोमाणौ ॥ पापास्ते दुःखजुषो भाग्यविहीनाः परप्रेष्याः ॥ ९८॥ अर्थ-जिन मनुष्योंके कपोल (गाल ) मांसरहित ( सुखटे) हों और मूछे छोटी हों और कपोलों पर रोम अधिक हों वे पापो दुःख- भागी होते हैं तथा भाग्यहीन और दूसरोंके दूत होते हैं ॥ ९८ ॥ सुखिनः समुन्नतैः स्युः परिपूर्णा भोगयुतांश्च मांसयुतैः॥ सिंहद्विपेन्द्रतुल्यैर्गडैर्नराधिपा नरा धन्याः ॥ ९९ ॥ अर्थ-जिन मनुष्यों के कपोल ऊंचे हों वे मनुष्य सुखी होते हैं। और जिनके कपोल मांस भरे अर्थात् उठे होवें वे परिपूर्ण भोगी और सुखी होते हैं तथा जिनके कपोल सिंह वा हाथीके समान आर सुखा होता है । होवें वे पुरुष उत्तम होते हैं ॥ ९९ ॥ | पृष्ठलक्षण ।। लभते शिरालपृष्ठो निर्धनतां भुग्नवंशपृष्ठोऽपि॥ कष्टं रोमशपृष्ठः पृथुपृष्ठो बन्धुविच्छेदम् ॥ १०० ॥ अर्थ-जिसकी पीठ नसीली और टेढी हो वह मनुष्य निर्धन- ताको प्राप्त होता है और जिसकी पीठ अधिक रोमवाली हो वह कष्ट पाता है तथा जिसकी पीठ मोटी हो वह भाइयोंजारा नाशको प्राप्त होता है ॥ १०० ॥ सामुद्रिकशास्त्रम् । भाषाटीकासहितम् । ३१ कच्छपपृष्ठो राजा हयपृष्ठो भोगभाजनं भवति ॥ | जिसकी ग्रीवा बडी हो वह उत्तम काममें विन्न करनेवाला होता है धनसम्पत्तिसुसेनाधिपतिः शार्दूलपृष्ठोऽपि ॥ १०१।। अर्थात् बने कामको बिगाड़ देता है ।। १०४॥ अर्थ-जिसकी पीठ कछवेकी पीठके समान हो वह मनुष्य राज ललाटरेखा। होता है और जिसकी पीठ घोडकी पीठके समान हो वह भागी होत भालस्थलस्थितेन स्फुटेन रेखाचतुष्टयेन नृणाम् ॥ हैं तथा जिसकी पीठ शार्दूल ( व्याघ्र ) की पीठके समान हो वह वषण्यशीतिरायुर्वसुधेशत्वं पुनर्भवति ॥१०५॥ पुरुष धन और सम्पत्तिसे युक्त और सेनापति होता है ॥ १०१।। अर्थ-जिसके ललाटपर चार रेखायें प्रगट दीख पडे वह पुरुप ग्रीवालक्षण ।। अस्सी वर्षपर्यन्त जीता है और राजा होता है ॥ १०८॥ ह्रस्वग्रीवः शस्तो वृत्तग्रीवः सुखी धनी सुभगः॥ । भाले लेखाहीने पंचाधिकविंशतिसमाः ॥ कम्बुग्रीवस्तु भवेदकातपवारणी नृपतिः॥ १०२॥ आयुः स्याद् ध्रुवमाखला जायंते सम्पदः सपदि १०६ अर्थ-जिसकी ग्रीवा (घींच) छोटी हो वह श्रेष्ठ जानना और अर्थ-जिसका ललाट रेखाहीन हो उसकी आयु पचीस वर्षकी जिसकी ग्रीवा गोल हो वह सुखी, धनी व भोगी होता है तथ। होती है और शीघ्र उसको सम्पदा प्राप्त होती है ऐसा निश्चय जिसकी ग्रीवा कम्बु ( शंख ) के समान हो वह एकछत्रधारी राजा जानना ॥ १०६॥ होता है ॥ १०२॥ स्यादायुर्लेखाभिस्तिसृभिद्रभ्यामथैकया नियतम् ॥ रासभकरभग्रीवो दुःखी स्याद्दांभिक बकग्रीवः ॥ ॥ शरद सप्तति षष्टिं चत्वारिंशदपि क्रमशः ॥ १०७॥ शुष्कशिरालग्रीवश्चिपिग्रीवश्च धनहीनः॥ १०३।। | अर्थ-जिसके ललाटपर तीन रेखायें हों उसकी आयु सत्तर अर्थ-जिसकी ग्रीवा गर्दभ और ऊंटकी ग्रीवाके समान हो वह वर्षकी होती है, जिसके ललाटपर दो रेखायें हों वह साठ वर्षतक मनुष्य दुःखी होता है और जिसकी ग्रीवा बगुलेकी ग्रीवा के समान जीता है और जिसके मस्तक पर एक रेखा हो वह चालीस हो वह दंभी ( पाखंडी) होता है तथा जिसकी ग्रीवा सूखी, नसीली वर्षपर्यन्त जीवन धारण करता है इस प्रकार कमसे आयुका और चपटी हो वह मनुष्य धनहीन होता है ॥ १०३॥ निश्चय होता है ॥ १०७॥ महिषग्रीवः शूरो लम्वग्रीवोऽपि घस्मरः सततम् ॥ यदि वा तिर्यग्दीर्घास्तिस्रो रेखाः शतायुष भाले ॥ पिशुनो वक्रग्रीवः शस्तविनाशो महाग्रीवः स्यात् ॥ भूमिजुषां तु चतस्रः पुनरायुः पंचहीनशतम् ॥१०८॥ अर्थ-जिसकी ग्रीवा महिप (भैंसे ) की ग्रीवाके समान हो वह अर्थ-यदि वा जिसके ललाटपर तिरछी और बडी तिन रेखायें योद्धा होता है और जिसकी ग्रीवा लम्बी हो वह बहुत खानेवाल होती हैं उसकी आयु सौ वर्षकी जानना, यदि चार रेखाये हों तो पचानवें वर्षकी आयु जानना ॥ १०८॥ होता है तथा जिसकी ग्रीवा टेढी हो वह चुगलखोर होता है | | सामुद्रिकशास्त्रम् । जीवति वर्षाण्यशीतिः केशान्तोपगते रेखे ॥ भालेन वर्षनवतिः पुरुषो रेखाचितेन पुनः॥ १०९।। अर्थ-जिसके केशों के अन्ततक एक रेखा हो वह पुरुष अस्सी वर्पतक जीता है, तथा जो मस्तक अनेक रेखाओंकरके युक्त होय । तो वह नब्बे वर्षतक जीता है ॥ १०९॥ रेखा सप्ततिरायुः पंचैताग्रस्थिता पुनः षष्टिः ॥ । बढ्यो नृणां शताद्ध दशोनमपि भंगुरा ददते ॥११०॥ अर्थ-जिसके आगे भालपर पांच रेखायें हों तो वह मनुष्य । सत्तर वर्पतक जीता है अथवा साठ वर्पतक जीवन धारण करता है। जिन मनुष्योंके भालपर बहुत रेखायें हों वे पचास वर्पतक जीते। हैं तथा यदि वेही पांच रेखा स्थित हों तो देश कम पचास अर्थात् । चालीस वर्षपर्यन्त जीवन होवे है ॥ ११० ॥ भ्रूयुग्मोपगताभित्रिंशद्वर्षाणि जीवति शरीरी ॥ विंशत्यब्दानि पुनर्लेखाभिर्वा च वक्राभिः॥ १११॥ । अर्थ-जिसके दोनों भौंहोंके ऊपर रेखा होय तो वह मनुष्य तीस वर्षपर्यन्त शरीर धारण करता है और जो वेही रेखायें टेढी होंय तो वीस वर्षपर्यन्त वह जीवन धारण करता है ॥ १११ ॥ छिन्नाभिरगम्यस्त्रीगामी क्षुद्राभिरपि नरोऽल्पायुः॥ रेखाभिर्मनुजः स्यादित्याह सुमन्तविप्रेन्द्रः ॥११२॥ अर्थ-जिसके भालपर टूटी कटी रेखायें हों तो वह मनुष्य नहीं गमन करनेवाली अर्थात् अयोग्य स्त्रियोंके साथ रमण करता है और जिसके भालपर छोटी रेखायें होती हैं वह मनुष्य थोडी आयु वाला होता है इस प्रकार द्विजवर सुमन्तने मनुष्यकी रेखाका भाषाढीकासहितम् । स्कन्धलक्षण । भग्नौ मांसविहीनावंसी नतरोमशी कृशौ यस्य ।। निर्लक्षणेन लक्ष्म्या नामपि नाकणितं तेन ॥ ११३ ॥ अर्थ-जिस मनुष्यके कन्धे टेढे, झुके हुए, मांसहीन, रोमवाले, दुबले ( पतले ) होंय वह इस लक्षणसे लक्ष्मीरहित होता है उसको कभी लक्ष्मीका नामभी न सुन पडे ऐसा दारीद्री होवे ।। ११३॥ वृषवहीघा स्कन्धी निमौसी भारवाहकी पुंसाम् ॥ । कुटिलौ कृशावतितनू खेदकरी रोमशी बहुशः ११४॥ अर्थ-जिन मनुष्योंके कन्धे बैलके समान वेडे मांसहीन होय वे बोझ उठानेवाले होते हैं और जो टेढे, दुबले, छोटे तथा अ- धिक केशोंसे युक्त दोनों कंधे होवें तो खेद ( शोक) के करनेवाले जानने ॥ ११४॥ अत्युच्छ्रुितौ च अंसौ किंचिद्राह्वोः समुन्नतिं दधतः ॥ सुश्लिष्टसन्धिबन्धौ वपुषोई निशूरयोः स्याताम् ॥११५॥ अर्थ-जो कन्धे भली भांति मिले हुए जोडबन्ध और बाहुसे कुछ ऊंचे होवे तो ऐसे कन्धे धनवान और झुर ( वीर ) पुरुषोंके होते हैं ॥ ११५॥ बाहुलक्षण । निमसौ चैव भग्नालौश्लिष्टौ च विपुलौ भुजौ ॥ आजानुलम्बितौ बाहू वृत्ती पीनौ नृपेश्वरः॥ ११६॥ अर्थ-जिसकी दोनों भुजायें मांसहीन अर्थात् कुछ दुवली हो अथवा बराबर बड़ी और मोटी सुडौल होवें तथा जानुपर्यन्त लम्बा- यमान, गोल और पुष्ट भुजायें होतें तो ऐसी भुजावाला पुरुष ऐसा फल कथन किया है ॥ ११२ ॥ महाराजा होता है ॥ ११६ ॥ सामुद्रिक ३ सामुद्रिकशास्त्रम् । निःस्वानां रोमशौ ह्रस्वौ भुजौ दारिद्रयदायकौ ॥ । अरोमश तु सुखिनी श्रेष्ठो करिकरप्रभो॥ ११७।। अर्थ-जिसकी दोनों भुजाओं पर रोम बहुत होवें और भुजा छोटी हों तो ऐसी भुजायें दारिद्रयदायक होती हैं और जो भजाये। हाथीकी मंडके समान लंबायमान और रोमरहित होवे तो भुजायें सुखी करनेवाली होती हैं ॥ ११७॥ वक्षःस्थललक्षण । उरसा घनेन धनवान्पीनेन भटस्तथोरोम्णा स्यात् ॥ निःस्वस्तनना विषमेणाकालमृतकंचनश्च नरः ११८ अर्थ-जिसकी छाती दृढ हो वह धनवान होता है और जिसकी छाती कठोर व रोमासे युक्त हो वह भट ( योद्धा ) होता है तथा जिसकी छाती छोटी होवे वह धनहीन होता है, जिसकी छाती ऊंची नीची होती है उसकी अकालमृत्यु होती है और वह मनुष्य दरिद्री होता है ॥ ११८॥ । स्तनलक्षण । वृत्ताः स्तनाः प्रशस्ताः सुस्निग्धाः कोमलाः समाः । पुंसाम् ॥ विषमाः परुषा विकटाः प्रायो दुःखाय जायन्ते ॥ ११९ ॥ अर्थ-जिन मनुष्योंके स्तन गोल, चिकने, कोमल, सुडौल, बरावर होवें वे अच्छे सुखके देनेवाले जानने और जो नीचे ऊंचे, कुटीर, देखनेमें कुडौल होवे ऐसे स्तन प्रायः दुःखके देनेवाले। इोते हैं ॥ ११९ ॥ भाषाटीकासहितम् । ई-जिसका उदर (पेट)भक ( मंडक) के पेटके समान हो वह प्य राजा होता है और जिसका पेट बैलके पेटके समान हो वह पाई वीके साथ रमण करनेवाला होता है, तथा जिसका पेट गोल हो वह मनुष्य सुखी होता है और मीन ( मछली ) व व्याघ्रके पेटके समान पेटवाला पुरुष भाग्यवान होता है ॥ १२० ॥ जठरं यस्य समं स्यादभितः स पुमान्महाथीढ्यः ।। सिंहनिभं यस्य पुनः प्राप्नोति स चक्रवर्तित्वम् १२१॥ अर्थ-जिस मनुष्यका पेट सव ओरसे बराबर हो वह पुरुष बहुत धनवान होता है और जिसका पेट सिंहके पेटके समान हो वह चक्रवर्ती राज्यको प्राप्त होता है, परंतु राजकुलमें उत्पन्न होने से यह फल ठीक जानना, अन्यथा धनवान् ऐश्वर्यवान होवे ॥ १२१ ॥ श्ववृकोदरो दरिद्रः शृगालतुल्योदरोदरोपेतः ॥ पापः कृशोदरः स्यान्मृगभुक्सदृशो हरश्चौरः॥१२२॥ अर्थ-जिसका पेट कुत्ता और भेडियाके पेटके समान हो वह दरिद्री ( धनहीन ) होता है और जिसका पेट शृगाल ( सियार) के पेटके समान हो वह डरपोक होता है तथा जिसका पेट दुबला हे वह पापी होता है और जिसका पेट चीतेके पेटके समान हो वह मनुष्य चोर होता है ॥ १२२॥ पिठरजठरो दरिद्रो घटजठरो दुर्भगः सदा दुःखी ॥ भुजगजठरो भुजिष्यो बहुभोजी जायते मनुजः१२३ अर्थ-जिसका पेट हंडियाके समान हो वह दरिद्री (धनहीन) होता है, जिसका पेट घडेके आकार हो वह अभागी सदा दुःखी रहता है, जिसका पेट भुजग ( सर्प ) के समान हो वह नर दूसरेको संवा करनेवाला व बहुत भोजन करनेवाला होता है ॥ १२३ ॥ उद्रलक्षण । भेकोदो नरपतिवृषभमयः परदारभोगी च ॥ वृत्तोदरः सुखी स्यान्मीनव्याघ्रोदरः सुभगः ॥१२॥ सामुद्रिकशास्रम् । भापाटीकासहितम् । नाभिलक्षण। विस्तीर्णामांसोपचिता गभीरा विपुला शुभा॥ अर्थ-जिसके दोनों हाथ विस्तारवाले अर्थात् लम्बे चौडे लाल काल नखवाले बन्दुक हाथके समान होवें वह पुरुष धनवान होता नाभिः प्रदक्षिणावती मध्ये त्रिवलिशोभनम् ॥१२७ र जिसके हाथ व्याघकैसे सूखे कुडाल मांसरहित हों वह अर्थ-जिसकी नाभि ( तोदी) विस्तारवाली और मांससहित पुरुष धनहीन ( दरिद्री) होता है । १२७॥ हो अथति मोदी और गंभीर ( गहरी ) व बड़ी हो तथा दक्षिणा (दाहिनी ओरसे घूमी हुई) नाभिके भीतर त्रिवली होय ऐसी ना गावत रेखाभिः पूर्णाभिस्तिसृभिः करमूलमंकितं यस्य ॥ शुभ होती है अर्थात् एसी नाभिवाला पुरुष सुख ऐश्वर्यको धनकांचनरत्नयुतं श्रोः पातामव भजति लुब्धेव १२८ होता है इससे विपरीत हो तो अशुभ जानना ॥ १२४ ॥ अर्थ-जिसका हाथ तीन पूर्ण रेखाओंसे युक्त हो अर्थात् तीन | कुक्षिलक्षण ।। रेखायें अखंडित होकर पहुँचेमें नीचेसे ऊपरतक होवे उस पुरुषको कुक्षियस्य गभीरा विनिपातं स लभते नरः प्रायः ॥ लक्ष्मी धन, कांचन रत्नकरके सहित निलभ हो पतिके समान भज- उत्तानो यस्य पुनर्नारीवृत्तेन जीवते सोऽपि ॥ १२८। ती है अर्थात् उसके घर में लक्ष्मीका निरन्तर निवास रहे ।। १२८॥ अर्थ-जिस पुरुषकी कुक्षि (कोख ) गहिरी हो वह पुरुष प्रायः । | अरुणेनाढ्यः पीतेनागम्यस्त्रीरतिः करतलेन ॥ का अचस गिर पड और जिसकी कोख ऊंची होय वह पुरुष सितासितेन दारिद्रो नीलनापयपायी स्यात् ।। १२॥ स्रीवृत्तिसे जीवन धारण करे अथात् स्वीकी जीविकासे उसका निर्वाह होवे ।। १२५ ॥ अर्थ-जिस परुपकी हथेली लाल हो वह धनी होता है, जिसका क्षोणिपतिस्तनुकुक्षिः शूरो भोगांन्वितश्च समकुक्षिः।। हथेली पीली हो वह अनुचित स्त्रियों के संग रमण करता है, जिसकी धनहीन उच्चकुक्षिर्मायावी स्याद्विषमकुक्षः ॥१२६॥ हथेली श्वेत व काली हो वह दरिद्धी होता है, तथा जिसकी हथेली अर्थ-जिसकी कोख छोटी हो वह मनुष्य राजा होता है और नील वर्ण वह हो नहीं पीने योग्य पदार्थका पान करता है ॥१२९॥ जिसकी कोख बराबर हो वह शूर (वीर) और भोगी होता है। | अंगुष्ठलक्षण । तथा जिसकी कॉख ऊंची हो वह पुरुष धनहीन होता है और वृत्तो भुजगफणाकृतिरुत्तुंगो मांसलः शुभोऽङ्गुष्टः॥ जिसकी कोख नीची ऊंची हो चह मायावी ( कपट करनेवाला । होता है ॥ १२६॥ सशिरो ह्रस्वश्चिपिटोऽचक्रो विपुलः स पुनरशुभः १३० अर्थ-जिसका अंगूठा गोल और सांपके फनके आकार व हस्तलक्षण । ऊचा, मांससे भरा हुआ होय तो शुभ जानना तथा जिसके अँगू- इम नसे दीख पड़े और छोटा, चपटा, चक्रहीन और चौडा हो तो ऐसा अंगूठा अच्छा नहीं होता है ॥ १३ ॥ विस्तीण ताम्रनखौ स्यातां कपिवत्करौ धनाढयस्य ।। शार्दूलवद्विरुक्षी विकृती निःस्वस्य निमसौ ॥ १२७॥ सामुद्रिक शास्त्रम् । हस्तांगुलिलक्षण । लक्ष्णा वृत्ता मृदवी घनादलानीव पद्मस्य । । ऋजवोऽङ्कलयः स्निग्धाः सैमसंख्यान्वितं दधति १३।। अर्थ-जिसके हाथ की अंगुली सुन्दर, गोल, कोमल, घनी, कम- लदलाकार, सीधी और चिकनी हाँय तो वह हाथियों की संख्याको । धारण करता है अर्थात् अनेक हाथी उसके यहां होवें ॥ १३१॥ | पुनरंगुष्ठांगुलिलक्षण ।। ऋजुरंगुष्ठः स्निग्धस्तुंगो वृत्तः प्रदक्षिणावर्तः ॥ अंगुष्ठोपि धनवतां सुघनानि समानि पर्वाणि ॥१३२॥ । अर्थ-जिसका अंगूठा सीधा, चिकना, ऊंचा, गोल और दा हिनी ओरको घूमा हुआ, कठोर, वरावर पोवेवाला हो तो उसको धनवान् जानना ॥ १३२ ॥ सततं भवन्ति वलिताः सौभाग्यवती सुमेधसां सूक्ष्माः॥ । पाण्यंगुळ्यः सरला दीर्घा दीर्घायुषां पुंसाम् ॥ १३३॥ अर्थ-जिनके हाथकी अंगुली निरन्तर मिली हुई होती हैं वे मनुष्य भाग्यवान और उत्तम बुद्धिवाले होते हैं और जिनके हाथकी अंगुली सीधी और बडी होती हैं वे मनुष्य अधिक | आयुवाले होते हैं ॥ १३३ ॥ नियतं कनिष्ठिकांगुलिरनामिकापर्व उल्लंघ्य ।। यद्यांधकतरा पुंसां धनमधिकं जायते प्रायः॥ १३४॥ अर्थ-जिस पुरुषके हाथकी छोटी अंगुली अपने समीपकी भाषाटीकासहितम् । दीर्घायुरंगुलीभिः सौभाग्ययुतः सुदीर्घपवभिः ।। विरलाभः कुटिलाभिः शुष्काभिर्भवति धनहीन्ः ३३५ अर्थ-जिस पुरुपकी अंगुली लुम्बी होय तो वह दीर्घायु ( बडी उमरवाला) होता है और जिसकी अंगुलियोंके पोरुचे पडे होवें वह भाग्यवान होता है । तथा जिसकी अंगुली विरली, टेढी आर सुखी हों वह धनहीन होता है ॥ १३५॥ कटिलक्षण । यस्य कटिः स्याही पीना पृथुला भवेत्स वित्ताढयः ।। सिंहकटिर्मनुजेन्द्रः शार्दूलकटिश्च भूनाथः ॥ १३६॥ अर्थ-जिस मनुष्यकी कटि ( कमर ) लंबी, मोटी और चौडी हो वह धनवान होता है और जिसकी कटि सिंहकी कटिके समान हो वह । मनुष्योंमें इन्द्रसमान (राजा) होता है । तथा जिसकी कटि व्याघकी । कटिके समान हो वह पुरुष पृथ्वीका स्वामी होता है ॥ १३६ ॥ रोमशकटिदरिद्रो ह्रस्वकटिदुर्भगो भवति मनुजः ॥ शुनमर्कटकरभकटिदुःखी संकटकटिः पापः ॥१३७॥ अर्थ-जिसकी कटि रोमसहित हो वह मनुष्य दरिद्री होता है। और जिसकी कटि छोटी हो वह पुरुष अभागा होता है, तथा जि- सकी कटि कुत्ता, वानर और ऊंटकी कटिके समान हो वह मनुष्य दुःखी रहता है, जिसकी कटि (कमर ) सिकुडी है। वह पाप करने वाला होता है ॥ १३७ ॥ गुद् व अंडकोशका लक्षण । यतमसो गम्भीरः सुकुमारः संवृतः शोणः ॥ पायुः शुभो नराणां पुनरशुभो भवति विपरीतः॥१३८ थै-मनुष्योंकी गुदा मांस भरी, गहिरी, कोमल, गोल और लाल लाल हो वह शुभ फलकी देनेवाली जानना और जो इससे ला होता है"शुद्वारः गुली ( अनामिका) के पोरुवेको उलंघन कर जाय अथत बड़ा है। तो प्रायः उसके धन अधिक होता है ॥ १३४ ।। | ४१ सामुद्रिकशास्त्रम् । विपरीत अर्थात् सूखी, कुछ गहिरी, कठोर, गोलाईसे रहित. लिये होवे तो अशुभ जानना ॥ १३८ ॥ लक्ष्णैः समैर्नृपत्वं चिरमायुर्भवति लम्वितैर्वृषणैः॥ जलमरणमद्वितीयैर्मनुजानां कुलविनाशोऽपि १३९॥ अर्थ-जिन मनुष्योंके अंडकोश सुन्दर बराबर हों वे मनुष्य राजपवीको प्राप्त होते हैं, जिन मनुष्योंके अंडकोश लम्बे हों वे बहुत कातक जीवन धारण करनेवाले होते हैं, तथा जिन मन- प्याँके एकही अंडकोश होता है वह जलमें मृत्यु पानेवाला और निज कुलको विनाश करनेवाला होता है ॥ १३९ ॥ निःस्वः शुष्कस्थले रम्यरमणीरतास्तुरंगमैः ।। पुनरद्धवृषणैर्भवन्ति न चिरायुषः पुरुषाः ।। १४०॥ अर्थ-जिन मनुष्योंके सूखे और मोटे अंडकोश होते हैं वे धन- हीन होते हैं, जिनके अंडकोश घोडेके अंडकोशके समान हों वे । उत्तम स्त्रियोंके साथ रमण करनेवाले होते हैं तथा जिनके अंडकोश प्रमाणसे आधे हॉय वे पुरुप बहुत काल जीनेवाले होते हैं ॥१४०॥ | स्त्रीलोलत्वं विषमैः प्राक्पुत्रो दक्षिणोन्नतैर्युषणैः ॥ वामोन्नतैश्च तैरपि दुःखेन समं भवति दुहिता॥१४१॥ अर्थ-जिसके अंडकोश नीचे ऊंचे होंय वह मनुष्य स्त्रियोंमें चंचल होता है अर्थात स्त्रियोंमें अधिक स्नेह बढाकर अपनी चंच- लेता दिखाता है, जिसका अंडकोश दाहिना ऊंचा होय उसके पहले पुत्र उत्पन्न होता है तथा जिसका वायां अंडकोश ऊंचा होय तो दुःखपूर्वक कन्या उत्पन्न होती है ॥ १४१ ॥ लिगलक्षण । भोपाटीकासहितम् । अर्थ-लिग चार प्रकारके होते हैं, सात अंगुल, आठ अंगल, जो अंगुल, दश अंगुलका, इनमें जिसका लिंग छोटा हो वह अ- धिक आयुवाला और घनवान होता है और संसारमं स्थल ( मोटे) लिंगवाला सन्तानहीन और निर्धनी ( दरिद्री) होता है । १४२ ॥ । मेढे वामनके चैव सुतान्नरहितो भवेत् ॥ | वक्रेऽन्यथा पुत्रवान्याहारिद्रयं विन्दते त्वधः १४३।। अर्थ-जिसका लिंग टेढा और छोटा अथवा वाई ओरको झुका हुआ हो वह पुत्र और अन्न धनते रहित होता है, तथा जो दाहिनी ओरको झुका हुआ प्रतीत हो तो वह पुरुष पुत्रवान होता है और जो नीचेकी ओरको झुका हुआ हो तो दरिद्री होता है ॥ १४३ ॥ अल्पे तु तनयो लिंगे शिरालेऽथ सुखी नरः ॥ । स्थूलग्रन्थियुते लिंगे भवेत्पुत्रादिसंयुतः ॥ १४४॥ अर्थ-जिसका लिंग छोटा और ऊपरकी गाँठ सुडौल लाल लाल ऊपरको उठी हुई हो तो वह मनुष्य सम्पूर्ण सुखको भोग करनेवाला होता है और जो लिंगके ऊपरकी गांठ मोटी हो अथवा बडी हो तो वह पुत्र आदिसे युक्त होता है ॥ १४४ ॥ दीर्घलिंगेन दारिद्रयं स्थूललिगेन निर्धनः ॥ कृशलिंगेन सौभाग्यं ह्रस्वलिंगेन भूपतिः॥ १४५ ॥ अर्थ-जिस पुरुषको लिंग दीर्घ (वडा) हो वह दरिद्री होता है, जिसका स्थूल (मोटा) हो वह धनहीन होता है, जिसका कृश (पतला) हो वह भाग्यवान् ( सुखी) होता है और जिसका छोटा हो वह पृथ्वीका स्वामी होता है ॥ १४५॥ कर्कशैः कठिनैलिँगैः परदाररतः सदा ॥ । रमते च सदा दास्या निर्धनो भवति ध्रुवम् ॥ १४६॥ महद्भिरायुराख्यातं ह्यल्पलिंगो धनी नरः ॥ अपत्यरहितो लोके स्थूललिंगो धनोज्झितः ॥१४२ ४२ सामुद्रिकशास्त्रम् । अर्थ-जिसका लिंग कर्कश (कठोर ) और कडा हो वह मन सदा पराई स्त्रियोंके साथ रमण करनेवाला तथा निरन्तर साथ रमण करनेवाला और धनहीन होता है ॥ १६ ॥ | कृष्णलिंगेन सूक्ष्मेण रक्तलिंगेन भूपतिः॥ परस्त्री रमते नित्यं नारीणां वल्लभो भवेत् ॥ १७ ॥ अर्थ-जिसका काला व पतला लिग हो और लाल वर्ण हो वः । पृथ्वीका स्वामी और सदा पराई स्त्रियाक साथ रमण करनेवाला। और स्त्रियों का प्यारा होता है ॥ १४७ ॥ कृशलिंगेन रक्तेन लभते चोत्तमांगनाः॥ राज्यं सुखं च दिव्यं च कन्यकायाः पतिर्भवेत् १४८ | अर्थ-जिसका लिंग दुबला और लाल वर्ण हो वह उत्तम स्त्रियों- को प्राप्त होकर राज्य और सुखको पाता है तथा कन्याका पति होता । है अर्थात् थोडी अवस्थावाली स्त्री पाता है ॥ १४८॥ | वीर्यटक्षण । जम्बूवर्णन सुखी दुग्धसवणन रेत 'नृपतिः।। धूम्रण दुःखसहितः स्याहुःस्थःश्यामवर्णेन॥ १४९॥ | अर्थ-जिसका वीर्य जामुनके रंग के समान प्रतीत हो तो वह मनुष्य सुखी होता है, जो दूधके समान श्वेत वर्ण वीर्य हो तो वह राजा होता है तथा धुमैल वीर्य हो तो वह दुःखी रहता है और जो श्याम वर्ण वैये हो तो वह दुःखपूर्वक रहनेवाला होता है ॥ १४९॥ यस्य च्यवते रेतो लघुमैथुनगामिनो बहुस्निग्धम् ॥ दीवायुः सम्पातं पुत्रानपि विन्दते स पुमान् ॥१५॥ भाषाटीकासहितम् ।। न पतति शुक्रं स्तोकं चिरमैथुनसंगतस्यापि ॥ दारिद्रयं सोऽल्पायुर्वहुकन्याजनकतां भजते१५१॥ अर्थ-जिस पुरुषका वीर्य बहुत काल मेथुन करनेपर बहुत थो- डाभी न गिरे तो वह पुरुष दरिद्री, थोडी आयुवाला और बहुत कन्याओंको उत्पन्न करनेवाला होवे ॥ १५१ ॥ । रुधिरलक्षण ।। स्निग्धं प्रवालतुल्यं यस्यांगे भवति शोणितं न चिरम् ॥ स वहति स्वकीयभुजया मनुजा निखि- लाम्बुधिमेखलां वसुधाम् ॥ १५२ ॥ अर्थ-जिसके अंगमें रुधिर मुंगेके समान लाल लाल हो और बहुत चिकना न हो तो वह पुरुष अपनी बाहुओंके बल से समुद्र- पर्यन्त सारी पृथ्वीका राज्य भोगे ॥ १२३॥ रुधिरं यस्य शरीरे रक्ताम्बुजवर्णसम्मितं भवति ।। भुजवाल्लकङ्कणरणत्कारा तमनुसरति राज्यश्रीः १५३ अर्थ-जिस मनुष्यके शरीर में लाल कमलके रंगके समान रुधिर हो तो राज्यलक्ष्मीके समान स्त्री प्राप्त होती है अथवा लक्ष्मी उसको सब ओरसे सुख प्रदान करती है ॥ १५३॥ किंचित् पीतं शोणं शोणितमिह भवति मध्यमे पुंसि ॥ ईषत्कृष्णं रक्तं तत्तु जघन्ये परिज्ञेयम् ॥ १५४॥ | अर्थ-जिस पुरुषका रुधिर कुछ पीला और कुछ लाल प्रतीत होता है वह मध्यम होता है तथा जिसका रुधिर लाल और काला ही वह पुरुप अच्छा नहीं होता है ॥ १५४॥ रोमलक्षण । ललितानि स्निग्धानि भ्रमरश्यामानि देहरोमाणि ॥ जायन्ते भूमिभुजां मृदूनि विलसान्ति सूक्ष्माणि १५५ अर्थ-जो थोड़ी देर मथुन करनेवाले पुरुषका वीर्य ओता कना हो तो वह पुरुष बहुत आयुवाला और सम्पत्ति व पु वाला इावे ।। १५० ।। ४४ ४५ सामुद्रिकशास्त्रम् । अर्थ-जिसके शरीरमें सुन्दर चिकने भेरेके समान काले रो होवें और नरम पतले होवें तो वह मनुष्य राजा होता है॥ १५॥ रोमरहितः परिव्राट् स्याद्धमः स्थूलरूक्षखररोमा।। पापः पिंगलरोमा निःस्वःस्फुटिताग्ररोमापि ॥१६॥ अर्थ-जिसके रोम न हों वह संन्यासी होता है और जिसके रोम मोटे, रूखे, खरदुरे हों वह पुरुष अधम होता है, तथा जिसके रोम भूरे हों वह पापी होता है और फटी हुई नोक जिनकी ऐसे रोम जिसके हों वह पुरुप दरिद्री होता है ॥ १५६॥ सुभगो रोमयुतः स्याद्विद्वान्धनरोमसंयुतो मनुजः ॥ । उदृत्तरोमभिः पुनरगश्च बहुभिश्च वित्तसंकलितः १५७। अर्थ-जिसके रोम मिले हुएसे प्रतीत हों वह पुरुष रूपवान् होता है और जिसके रोम घने हों वह पुरुष विद्वान होता है तथा जिसके रोम गुच्छेदार हों वह पुरुष बहुत धनवाला होता है॥१२७॥ रोमेकैकं नृपतेद्वद्रं श्रोत्रियधनाढ्युबुद्धिमताम् ॥ अधिकान्येतानि पुनर्निःस्वानां मूर्धजेष्वेवम्॥१५८॥। अर्थ-जिसके एकही एक रोम हो वह राजा होता है और जिसके शरीरमें दो दो रोम हों वह वेदपाठी, धनवान और बुद्धिमान होता है तथा जिसके रोम अधिक अधिक हों वह निर्धनी होता है एवं मस्तकपरके रोमकोभी जानना अथवा शिरके केशक लक्षण इसी प्रकार जानना ॥ १५८ ॥ | जंघालक्षण । ऊरू यस्य समसे रंभास्तंभभ्रमं वितन्वते ॥ कोमलतनुरोमचिते स जायते भूपतिः प्रायः॥१५९॥ लेतः १५७ जिसके बाद जिसके रोमध एसे प्रतीत हों भाषाटीकासहितम् । अर्थ-जिस पुरुषकी जांचें मांससे भरी, केलाके खंभके समान भासमान होय और कोमल व छोटे रामकरके सहित हों तो ऐसी जंघाओंवाला पुरुष बहुधा पृथ्वीका स्वामी होता है ॥ १५९ ॥ स्निग्धा ऊरू मृदुली क्रमेण पीनौ प्रयच्छतौ लक्ष्मीम् ॥ विकटौ स्त्रीवल्लभतांगुणवतां संहती कृतौ भवतः॥१६०॥ । अर्थ-जिस मनुष्यकी दोनों जायें चिकनी, नरम और क्रमसे मोटी होय तो ऐसी जंघायें लक्ष्मीके देनेवाली जाननी और जिसकी जंघायें विकट (कुडौल ) हों अथवा चाडी हों वह स्त्रीका प्यारा होता है तथा जिसकी जंघायें मिली हुई होंय वह पुरुष गुणवान् होता है ॥ १६० ॥ जानुलक्षण । निम्नः स्त्रीपरवशगः शशिवृत्तैगूढमांसलै राज्यम् ॥ दीचैर्महादरायुः सुभगवं जानुभिः स्वल्पैः ॥ १६१ ॥ | अर्थ-जिसकी जानु नीची वा छोटी होती हैं वह स्त्रीके वशमें होता है और जिसकी जानु चन्द्रमाके समान गोल और मोटी हों वह राज्य करनेवाला होय, तथा जिसकी जानु लम्बी हों वह बडी आ- युवाला होता है, जिसकी जानु पतली वा छोटी हों वह मनुष्य सुन्दर होता है ॥ १६१ ।। दिशति विदेशे मरणं मनुजानी जानु मांसपरिहीनम् ॥ कुम्भनिभं दुर्गत तालुफलाभंतु बहु दुःखम् ॥ १६२॥ अर्थ-जिन मनुष्योंकी जानु मांसरहित ( सुखी) हों वे मनुष्य परदेशमें मरण पाते हैं, जिनकी जानु कुंभ ( घडे) के समान हों वे दरिद्रभावको प्राप्त होते हैं, जिनकी जानु तलफलके समान हों वे बहुत दुःख पाते हैं ॥ १६२॥
पादांगुलिलक्षण ।
अश्वत्थपत्रसदृशं विपुरं गुदमुत्तमम् ॥ पञ्चकोशमिदं श्रेष्ठं गुह्न चाहुर्मुनीश्वराः॥ १६३ ॥
विरलाश्चिपिटिकाः शुष्का लघवो वक्रः खटाः पदांगुळ्यः ॥ यस्य भवन्ति शिराळः स किंक रत्वं करोत्येव ॥ १६७ ॥
अर्थ-जिसकी गुदा घडा वह उत्तम पीपळके पत्तके सदृश हो जानने और कमलफूलके संपुटके आकार प्रतीत हो तो बहुत फड सुनीश्वरोंने कहा है ॥ १६३ ॥ अर्थ-जिस पुरुपके पांवकी अंगुठियां विरली, चिपटी, सूची, छोटी, टेडी, हलके आकार व नसें जिनमें निकली हवं यह दासभा चरणलक्षण निगूढगुल्फौ पतितौ पद्मकांतितलौ शुभौ। वको प्राप्त होता है अर्थात् दूसरेकी नौकरी करता है ॥ १६७॥ अस्वेदिनौ मृदुतळे मत्स्यांकमकांकितौ॥ ३६४ स्त्रीसंभोगनानत्यंगुष्ठदीर्घया प्रदेशिन्या ॥ प्रथममशुभं च गृहिणी मरणं वा ह्याच कलिम् १६८ हो और पसीना न आता हो, तथा चरणमें मछली और मकरके अर्थजिसके पांवके अंगुठेके पासी अंगुली अंगूठेसे बड़ी चिह्न हैं तो मनुष्यको शुभ फल प्राप्त होता है ॥ १६४ ॥ हो तो वह बीके साथ आनन्द करे और भोगविलास सुखको प्राप्त पदचरस्यापि । चरणतलं यस्य कोमलं तत्र इवे और जो अंगूठेसे छोटी होय तो प्रथम अशुभ फळ होवे अत्र पूर्णप्रस्फुटेर्मरेखास विश्वविश्वम्भराधीशः॥१६५॥ न्तर स्त्रीका मरण हो और कछह होवे ॥ १६८ ॥ अर्थ-यदि पांवसे चलनेवालेकाभी चरणतल (तलवा) कोमल आयतया मध्यमया कार्यविनाशो ह्या दुःखम् ॥ य और चरणतलपर पूर्ण ऊध्र्व (खडी) रेखा होय तो वह पुरुष घनया समया पुत्रोत्पत्तिः स्तोकं नृणामायुः ॥१६९॥ विश्व (पृथ्वीभर ) का स्वामी होता है । भावार्थ यह कि नरम च णतल शुभ होता है, कुछ नरम हो तो मध्यम, कडा हो तो अशुभ होता ॥ १६५ मनुष्यकी थोडी हो ॥ १६९ ॥ ॥१७०॥ मांसोपचितं स्निग्धं गूढशिरं कोमलं चरणष्टष्ठम् । रोमखेदे रहितं पृथुलें कमठोन्नतं शस्तम् ॥ १६६॥ अर्थ-जिस पुरुप चरणपृष्ट (पांखकी पीठ) मांसस पूण, चिक्कण और जिसमें नसें नहीं चमकै, कोमल तथा रोम पसीनसे रहित, चौडा, कछुवेकी पीठके समान ऊंचा ऐसा होता है, इससे विपरीत अशुभ जानना ॥ १६६ ॥ अर्थ-जिस पुरुपके पांवकी बीचकी अंगुठी बडी हवे तो कार्य को विध्वंस करे, छोटी होय तो दुःख हो, तथा जो बराबर और बहुत समीप हो तो पुत्रकी उत्पत्ति थोडी होय और आयुभी उस यस्य प्रदेशिनी कनिष्ठिका भवेत् ध्रुवं स्थूला॥ शिशुभावे तस्य पुनर्जननी पंचत्वमुपयाति अर्थ-जिस पुरुषके पांवकी प्रदेशिनी (अंगूठेके पासकी अडी) और छोटी अंगुली मोटी होय तो लडकपनमें उसकी चरणपृष्ठ शुभ माता मृत्युको प्राप्त होवे ॥ १७० ॥ सामुद्रिकशास्त्रम् । नखलक्षण ।। विमलाः प्रवालरुचयः स्निग्धाः कूर्मोन्नता नखाः शुक्ष्णाः॥ मुकुराकाराः सूक्ष्माः सौख्यं यच्छन्ति मनुजानाम् ॥ १७१ ॥ अर्थ-जिस पुरुषके पांवके नख सुन्दर मुंगेके रंगके समान मने- हर, चिकने, कछुवकीसी पीठके तुल्य ऊंचे, दर्पणके आकार, पतले और छोटे होंय ऐसे नख पुरुपको सुख देनेवाले होते हैं ॥ १७१।। स्थूलैर्नखर्विदीर्णः शूपकारैश्च दीर्घनखैः ॥ असितैः सितैर्दरिद्रा भवन्ति तेजोरुचा रहितैः॥१७२।। अर्थ-जिस पुरुषके पांवके नख मोटे और फटे हुए होंय और सुपके आकार बडे तथा काले अथवा सपेद व चमकदार न हों। ऐसे नखवाले पुरुष दरिद्री होते हैं ॥ १७२॥ | स्त्रीपुरुषसंख्यारेखा। रेखा कनिष्ठिकायुलेखामध्ये नरस्य यावन्त्यः॥ तावन्त्यो महिलाः स्युर्महिलायाः पुनरपि मनुष्याः॥ | अर्थ-जिस पुरुषके हाथकी छोटी अंगुलीकी और आयुकी रखाके बीचमें जितनी रेखा होंय उतनीही स्त्री होती हैं अर्थात् उतने विवाह जानने और जो स्वीके एसी रेखा होंय तो उतने पुरुष उस स्त्रीक जानने ॥ १७३॥ सन्तानरेखा। मूलेंऽगुष्ठस्य नृणां स्थूला रेखा भवन्ति यावन्त्यः ॥ तावन्तः पुत्राः स्युः सूक्ष्माभिः पुत्रिकास्ताभिः१७४॥ अर्थ-जिन मनुष्योंके हाथके अंगूठेकी जडमें जितनी रेखा भाषादीकासहितम् ।। भ्रातृरेखा । यावन्तो माणबन्धायुलेखान्तः प्रतीक्षिताः स्थलाः ॥ तावन्तः संख्याकान्भ्रातृन् वदन्ति सूक्ष्मा पुनर्भगिनी॥ अर्थ-पहुँचे और आयुरेखाके वीचमें जितनी रेखायें मोदी दीख पडे उतनेही भाई उसके जानना, फिर वहींपर जितनी रेखायें पतली दीख पडे उतनी बहिनें जानना ॥ १७८॥ अल्पमृत्युरेखा ।। रेखाभिश्छिन्नाभिर्भिन्नाभिर्माविमृत्यवो ज्ञेयाः ॥ यावन्तस्ताः पूर्ण नियतं जीवन्तिताभिरेखाभिः१७६॥ | अर्थ-आयुकी रेखा जितने स्थानमें छिन्न भिन्न हो अर्थात् कट गई हो उतनीही अल्पायु जानने और जो आयुरेखा पूर्ण हो, कहीं कटी न हो तो जहांतक रेखा पूर्ण हो उतनी आयु उस पुरुषकी जानना ॥ १७६ ॥ शरीरवर्ण । गौरः श्यामः कृष्णो वर्णः संभवति देहिनां त्रेधा॥ । आद्यौ द्वावपि शस्तौ शुभो न कृष्णो न संकीर्णः१७७ अर्थ-गौर ( गोरा ), श्याम (सांवला), कृष्ण ( काला) ये तीन प्रकारके रंग मनुष्यशरीरके होते हैं, गोरा और सांवला ये दो रंग आदिके अच्छे होते हैं, काला रंग अच्छा नहीं होता तथा कुछ काला कुछ गोराभी रंग अच्छा नहीं होता है ॥ १७७॥ पङ्कजकिंजल्कनिभो गौरश्यामः प्रियंयुकुसुमसमः॥ कृष्णस्तु कजलाभः स्निग्धः शुद्धोऽपि नो शस्तः १७८ थे-कमलफूलके जीरेके सदृश गोरा रंग र धायके फुलके धमान सांवलारंग तथा काजलके तुल्य काला रंग होता है इनम । मा रग शुभी चमकदार हो वह अच्छा नहीं होता ॥ १८ ॥ खामुनिक ४ मोटी इवें उतने पुत्र उनके उत्पन्न होवें और जो पतली रखा है। उतनीद्दी कन्यायें उत्पन्न होवें ॥१७४ ॥ सामुद्रिकशास्त्रम् । गन्धलक्षण । कर्पूरागरुमलयजमृगमदजातीतमालदलगन्धाः ॥ द्विपमदगन्धा भूमौ पुरुषाः स्युभगिनः प्रायः॥१७९॥ अर्थ-जिसके शरीरम कपूर, अगरु, चन्दन, कस्तूरी, चमेली तमालदल ( आबनूसके पत्ते ) कीसी गन्ध हो, अथवा हाथीके मद- कीसी गंध जिन मनुष्योंकी भूमिमें होवे तो ऐसे मनुष्य प्रायः । भोगी होते हैं ॥ १७९ ॥ मत्स्याण्डप्रतिशोणितनिम्बवसाकाकनीडबकगन्धाः॥ | दुर्गन्धाश्च नरास्ते दुर्भगतानिःस्वताभाजः ॥ १८०॥ । अर्थ-जिन मनुष्य के शरीरमें मछली के अंडा, रुधिर, नींव, चव, कावेके अंडा, बगुला इनकी गन्धिके समान गन्धि होवे तो। ऐसे मनुष्य भाग्यहीन और निर्धनी होते हैं ॥ १८० ॥ । गतिलक्षण । गतिभिर्भवन्ति तुल्या ये च समा द्विरदनकुलहंसानाम् ।। वृषभस्यापि नरास्ते सततं धर्मार्थकामपराः॥१८१॥ अर्थ-जिन मनुष्योंकी चाल हाथी, न्यौला, हंस इनकी चालके समान हो, अथवा वृषभ (वेल ) की चालके समान हो तो ऐसी चालवाले पुरुष निरन्तर धर्म, अर्थ, काममें निरत रहते हैं।॥१८१॥ धनिनां गमनं स्तिमितं समाहितं शब्दहीनमस्तब्धम्॥ स्वप्तानुविद्धं विलम्बितं स्याहरिद्वाणाम् ॥ १८२॥ अर्थ-जिन मनुष्याकी चाल देखनेम अच्छी, एक समान भापाटीकासहितम् ।। सुखसंचारितपादा मयूरमार्जारसिंहगतितुल्या॥ दीर्घक्रमा सुजीला भाग्यवती स्याद्गतिः सुभगा॥१८३॥ अर्थ-जिन पुरुपक चरण गमनसमय सुखपूर्वक उठे अथव मोर, बिल्ली, सिह इनकी चालक समान जिनका लम्बा डग गमनस- मय उठे ऐसी अच्छी चालवाले पुरुष भाग्यवान होते हैं ॥१८३॥ विषमा विकटा मन्दा लघुक्रमाचंचला द्रुता स्तब्धा ॥ अभ्यन्तराऽथ बाह्या लग्नपदावा गतिर्न शुभा ॥१८४॥ अर्थ-जिसकी चाल विमा (नीची ऊंची), विकटा (टेढी अथवा भय देनेवाली अथति देखने में अच्छी नहीं), मन्दर(पीपी)। अथवा बहुत फुरतीकी वा रुक रुक कर एवं भीतर बाहर पांच भिड- ते जांय ऐसी चालवाले पुरुष अच्छे नहीं होते हैं ॥ १८४ ॥ इति श्रीमत्पण्डितशोभनाथसंग्रहीते सामुद्रिकशास्त्र पूर्वखंडः समाप्तः । अथोत्तरखंडप्रारंभः। अब उत्तरखंडका प्रारंभ करते हैं. इस खंडमें स्त्रियोंके अंगके लक्षण वर्णित हैं। मस्तकलक्षण । उन्नतस्यंगुलो भालः कोमलश्च नतझुवाम् ॥ अर्धचन्द्रनिभो नित्यं सौभाग्यारोग्यवर्धकः॥१॥ अर्थ-जिस स्त्रीको भाल ( मस्तक) तीन अंगुल ऊंचा हो और कामल हो, व धुकुटी झुकी हुई हों और अर्ध चन्द्रमाके आकार हो तो साभाग्य और आरोग्यता आदि सुखका वडावनहारा होता है॥३॥ शब्दूरहित, जिसमें रुकावट नहीं ऐसी गतिवाले पुरुप धनवान् । हैं और छोटे छोटे डग धीरे धीरे रखकर चलनेवाले पुरुष ६ ( धनहीन ) होते हैं ।। १८२॥ । सामुद्रिकशास्त्रम् । व्यक्तं स्वास्तिकरेखयाकुलमलंनार्या ललाटस्थळं। सौभाग्यामलभोग्यकृत्तदलिकं लम्बायमानं यदि ।। अद्धा देवरमाशुहन्ति नितरां रोमाकुलं रोगर्द।। रेखाहीनमनङ्गभङ्गजनकं ज्ञेयं बुधैः सर्वदा ॥२॥ अर्थ-स्त्रीके मस्तकमें यदि स्वस्तिक ( १ ) रेखा प्रगट हो तो वह सौभाग्यवती और सुन्दर भोगवाली होती है, एवं वही रेखा जो लटकती हुईसी अथवा लंबायमान हो तो वह स्त्री शीघ अपने देवरको नाश करती है, तथा स्त्रीका मस्तक यदि बहुत रोमॉसे यक्त हो तो रोगको देवे और जो मस्तक रेखाहीन हो तो काम- देवको भंग करे ऐसा सर्वदा पण्डितोंकरके जानना चाहिये ॥२॥ करिपुंगवकुंभसमान उत प्रवरोन्नत एवं कदम्ब- निभः ॥ इह मौलिरजस्रमिलाविमला विविधा। बहुधान्ययुता सुदृशः ॥३॥ अर्थ-सुन्दर हाथीके शिरके समान अथवा कुंभसमान सुनयनी स्त्रियोंका मस्तक ऊंचा हो एवं कदम्बके आकार हो तो ऐसा मस्तक होनेसे उनकी गृहभूमिमें सदा सुन्दर लक्ष्मीका निवास हो तथा अनेक प्रकारके धान्य अन्नादिकी प्रायः वृद्धि होवे ॥ ३॥ पीनमौलिरतिमानहारिका दारिका कुजनसंग- कारिका ॥ लम्बमौलिरपि सर्वनाशिका बन्धकी निजकुलान्तकारिका ॥४॥ अर्थ-व्रीका मस्तक जो स्थूल हो तो विशेषकरके मानका इरनेवाला होता है और वह घी दुर्जनाकी संगति करनेवाला होता है तथा जो मस्तक लम्बा हो तोभी सब नाश करनेवाली हो । वरहित है और अपने कुलको नाश करनेवाली होवे ॥ ४ ॥ भाषाटीकासहितम् । कपाले त्रिशूललक्षण । भालस्थेन त्रिशूलेन शम्भुना निर्मितेन वै॥ यस्याः शाली सहस्राणामीशितामाप्नुयादरम् ॥५॥ अर्थ-शिवजीका निर्माण किया हुआ जो त्रिशूल उसके आका- वाला चिह्न यदि सौभाग्यवती स्त्रीके मस्तकपर हो तो वह खीं हजारों सखियोंकी स्वामिनी होती है और उनी सखियोंसे आदुर पाती है ॥५॥ ललाटे भगशकटलक्षण । शकटवद्यदि योनिललाटगो मृगदृशो मृदुलोम- गणो भवेत् ॥ वरदुकूलमणिव्रजमण्डिता क्षिति- भृतां वनिता वनितावृता ॥६॥ अर्थ-यदि मृगनयनी स्त्रीके मस्तक पर कोमल रोमक समूहसे युक्त गाडी अथवा योनिके सदृश आकार हो तो वह स्त्री सुन्दर वस्त्र और मणिरत्नोंके समूहसे शोभावाली राजरानी होवे तथा अ- नेक वनिताओं ( सखिया अथवा दासियों) से युक्त होवे ॥ ६॥ विलसति भगभाले दक्षिणावर्तरूपः । कुवल्यनयनायाः कोमलो लोमसंघः ॥ नूरपतिकुलभर्तुः कामिनी मानिनीना-।। मिह भवति वदान्या सैव धन्या विशेषात् ॥७॥ अर्थ-जिस मृगनयनी स्त्रीके मस्तकपर दाहिनी ओरको घूमा हुआ कोमल रोमसमूहसे युक्त भगका चिह्न हो तो वह स्त्री विशेष- करके राजाधिराजकी वी महारानी ) होवे तथा घमंड करनेवाली स्त्रियोंमें यह राजरानी श्रेष्ठ होवे ऐसीही स्त्री धन्य होते है ॥ ७ ॥ था जो मसके और वह स्वास्थ्ट हो तो वि पर, पीतव सामुद्रिकशास्त्रम् ।। शिरःकेशलक्षण । केशा यस्या भ्रमरपटलोपेक्षवर्णाः सुवर्णा ।। वक्राकाराः कुवल्यदृशां किंचिदाकंचिताग्राः ।। भाग्यं सद्यो ददति विरलाः पिंगलाः स्थूलरूपा। रूक्षाकाराः परमलघवो बन्धवैधव्यदुःखम् ॥ ८॥ अर्थ-जिस मृगनयनी स्वीके शिरके केश भौराओंके समूह स- मान काले रंगके चमकीले टेढे और कुछ घुघुवारे नोंकदार होवें तो शीघ्र भाग्य ( सौभाग्य) देनेवाले होते हैं और जो विरले, पीतवर्ण अर्थात भूरे रंगके, मोटे वा रूखे किंवा बहुत छोटे हों तो बन्धन, विधवापन व दुःख देनेवाले जानने ॥८॥ । मशकतिलादिचिह्न । मशकोऽपि ललाटपट्टवर्ती यदि जागर्तिसमध्यगो। ध्रुवोर्वा ॥ तनुते सुखमर्थराशिभोगं सततं पत्युर- पत्यभृत्ययोश्च ॥९॥ अर्थ-यदि स्त्रीके ललाटपर अथवा भौंहोंके बीच में छोटे व्रणके सदृश मस्सा हो तो वह स्त्री सुख, धन अनेक प्रकारके भोग और निरन्तर पति, पुत्र व सेवकजनाका जो सुख है उस सुखको प्राप्त होवे अर्थात् सदा सुखी रहे ॥ ९॥ मशकोऽपि कपीलमध्यगामी सुदृशो लोहित एवं मिष्टदः स्यात् ॥ हृदयं तिलकेन शोभितं लशु- 'G देनेवाले जानकवा वहुत भापाटीकासहितम् । लोहितेन तिलकेन मण्डितं सुध्रुवो हि कुचमण्डलं यदा॥ जायते किल सुताचतुष्टयं बालकत्रयमुदीरितं तदा॥११॥ अर्थ सुन्दर भुकुटीवाली स्त्रीके स्तनमण्डलपर जो लाल तिल हो तो निश्चय उस स्त्रीके चार कन्यायें उत्पन्न होवें और तीन पुत्र उत्पन्न होवें ऐसा पूर्वाचायाने कथन किया है ॥ ११ ॥ भवति वामकुचेऽरुणलॉछनं शुभदृशस्तिलकंक- मलप्रभम् ॥ प्रथमतस्तनयं परिमूय सा कृतिवरं विधवा तदनंतरम् ॥ १२ ॥ अर्थ-जिस सुनयनी स्वके वायें कुचपर लाल चिह्न हो अथवा कमलके रंगसमान तिल हो तो उस स्त्रीके प्रथम एक सुपुत्र प्रगट होवे अनन्तर वह विधवा हो जावे ॥ १२ ॥ लसति बालमधुव्रतसन्निभं शुभदृशस्तिलकं गुददक्षिणे ॥ नरपतेरबूला कमलालया नृपमपत्यमरं जनयेदलम् १३ अर्थ-जिस सुनयनी (स्त्री) के छोटे भौरों के समूह के आकार (काला ) तिल गुदाके दक्षिण भागमें हो तो वह राजाकी स्त्री होवे और उसके घरमें लक्ष्मीका वास हो तथा वह सुन्दर राजपुत्रको जने ॥ १३ ॥ मशकोऽपि च नासिकाग्रगामी सुदृशी विद्रुमका- न्तिरर्थदायी ॥ अलिपक्षनवाभ्ररूपधारी पतिहंत्री किल पुंश्चली विशेषात् ॥ १४ ॥ अर्थ-जिस सुनयनी स्वीके नाकके आगे मुंगेकी कान्तिके सदृश मस्सा हो तो द्रव्यको देनेवाला जानना और जो भौरके पंखसमान अथवा नवीन मेघके समान रूपवाला हो तो वह स्त्री निश्चय- करके अपने पतिको मारनेवाली और विशेषकरके व्यभिचा- रिणी होती है ॥ १४॥ नेनापि च राज्यकारणम् ॥ १० ॥ अर्थ-जिस सुनयनी स्वीके बीच गालपर लाल लाल मस्सा है। तो इच्छानुसार कार्य सिद्धि होती है और जो तिल वा लहुसन - यपर हो तो राज्य प्राप्त होता है ॥ १० ॥ सामुद्रिकशास्त्रम् ।। यदि नाभेरधोभागे तिलकं लॉछनं स्फुटम् ॥ सौभाग्यसूचकं ज्ञेयं मशको वा नतध्रुवम् ॥ १६॥ । अर्थ-यदि झुकी हुई भौंहवाली स्त्रीकी नाभिके नीचे तिल वा लहुसन प्रगट दीख पडे अथवा मस्सा होवे तो ऐसा चिह्न सा- भाग्यसूचक जानना अर्थात् ऐसे चिह्नवाली स्त्री सौभाग्यवती रहती है ।। १५ ।। | यदि करे च कपोलतलेऽथा भवति कंठगतं तिलकं तदा ॥ श्रुतितलेऽपि च सा पतिवल्लभा वरदृशो मशकामललांछनैः ॥ १६॥ अर्थ-यदि सुनयनी (स्त्री) की हथेली वा कपोल (गाल ) पर। अथवा कंठ यद्वा कानके नीचे तिल हो तो वह स्त्री पतिकी प्यारी होवे एवं मस्सा अथवा प्रगट लहसन आदि चिह्न हों तोभी यही फल जानना ॥ १६ ॥ नेत्रलक्षण । रक्तान्ते लोचने भद्रे तदन्तः कृष्णतारके॥ कम्बुगोक्षीरधवले कोमले कृष्णपक्ष्मणी ॥१७॥ अर्थ-जिस स्त्रीके नेत्रोंका अंतभाग लाल रंगका हो तो कल्या- दायक होता है, तिन नेत्रोंके भीतरकी पुतली काली वा शंख और दूधके समान श्वेतवर्ण होवे और कोमल व काले पलक हो ताभी कल्याण होवे ऐसा जानना ॥ १७॥ अल्पायुरुन्नताक्षी च वृत्ताक्षी कुलटा भवेत् ॥ अजाक्षी केकराक्षीच कासराक्षीच दुर्भगा ॥१८॥ अर्थ-ऊँचे नेत्रवाली स्त्री थोडी आयुवाली होती है अर्थात् जिस स्त्रीके नेत्र ऊंचे हों उसकी आयु (उमर ) थोडी होती है और गाल भाषाटीकासहितम् । नेवाली स्त्री कुलटा (व्यभिचारिणी) होती है अर्थात् जिस स्वीके नेत्र गोल हों वह स्त्री परपुरुपगामिनी होती है, एवं अजा (बकरी) के समान नेत्रााली, कुंजी वा भंत के नेत्रप्तमान नेत्रपाली वी दुर्भ गा होती है अर्थात् जिस स्त्रीक नेत्र बकरीक नेत्र समान हों वा कुंज नेत्र हों, यद्वा भैसकेसे नेत्र हों तो वह स्त्री अभागी होती है ॥१८॥ पिंगाक्षी च कपोताक्षी दुःशीला कामवजिता ॥ कोटराक्षी महादुष्टा रक्ताक्षी पतिघातिनी॥१९॥ अर्थ-पीले रंगके नेत्रवाली वा कृपोत ( कबूतर) केसे नेत्रवाली स्वी दुष्टस्वभाववाली अथवा शीलरहित और कामहीन होती है। अर्थात् जिस स्त्रीके नेत्र पीले हों वा कबूतरके नेत्र समान हैं तो ऐसी स्त्री शीलरहित होती है और उससे कामकी सिद्धि नहीं होवे तथा कोटराक्षी ( गहिरे नेत्रवाली) स्त्री महादुद्दा होती है अर्थात् जिस स्त्रीके नेत्र गहिरे हों वह अति स्वभाववाली होती है और लाल नेत्रवाली स्त्री पतिघातिनी होती है अर्थात् जिस स्वीके नेत्र लाल लाल हों वह स्त्री पतिको मारनेवाली होती है, लाल नेत्रवाली स्त्रीका पति मृत्युको प्राप्त होता है ॥ १९ ॥ विडालाक्षी गजाक्षी च कामिनी कुलनाशिनी ॥ वन्ध्याच दक्षकाणाक्षी पुंश्चली वामकाणिका॥२०॥ अर्थ-विडाल ( माजरी) केसे नेत्रवाली और गज ( हाथी) केसे नेत्रवाली कामिनी (स्त्री) कुलको नाश करनेवाली होती है। अर्थात् जिस स्वीके नेत्र बिल्लीके नेत्रके समान हों अथवा हाथी नेत्रके समान जिसके नेत्र हों उस स्त्रीको कुलनाश हो जाता है तथा दाइने नेत्रसे कानी स्त्री वन्ध्या होती है अर्थात् जिस स्त्रीका दाहि- नत्र न होवे, उस स्त्री के पुत्र नहीं उत्पन्न होवे एवं वायें नेत्रसे अपलोमाविलासरछा करनेवाली सामुद्रिकशास्त्रम् । कानी स्त्री पुंश्चली ( व्यभिचारिणी) होती है अर्थात् जिस स्वीक। वायां नेत्र नहीं होता है वह दूसरे पुरुपके साथ रमण करनेवाली होती है ॥ २० ॥ सदा धनवती नारी मधुपंगललोचना ॥ पुत्रपौत्रसुखोपेता गदिता पतिसम्मता॥ २१ ॥ अर्थ-शहद समान पीले नेत्रवाली स्त्री सदा धनवती होवे अ- थत जिस स्त्रकि नेत्र शहदके रंगके समान पाले हों वह स्त्री सदैव धनसे पूर्ण रहती है और पुत्र पत्रके सुखसे युक्त पतिकी इच्छासे । वर्ताव करनेवाली अर्थात् पतिव्रता होती है यह आचायाँने कहा है ॥ २१ ॥ | नेत्रपक्ष्म ( पलक ) लक्षण।। कोमलैरसिताभासैः पक्ष्माभिः सुघनैरपि ॥ लघुरूपधरैरेव धन्या मान्या पतिप्रिया ॥२२॥ अर्थ-कोमल, काले, चमकीले और सुन्दर, घने, छोटे रुप धा- रण करनेवाले पलक जिस स्त्रीके हों वह धन्या, मान्या और पतिप्रि- या होती है अर्थात् जिस स्त्रकि नेत्रों के पलक कोमल, काले रंगके, चमकदार हों,और दर्शनीय घने हों और छोटे छोटे हों वह स्त्री पुरु- पोंमें सन्मान पाने योग्य और अपने पतिकी प्यारी होती है ॥२२॥ रोमहनैश्च विरलैलम्बितैः कपिलैरपि ॥ पक्ष्माभिःस्थलकेशैश्च कामिनी परगामिनी ॥२३॥ अर्थ-रोमीन, विरले, लम्बे, कपिलवर्ण (पले) और मोटे केशवाले पलकोंवाली स्त्री प्रगामिनी होती है अर्थात् जिस स्त्रक नत्राके पलक रोमरहित हों, विरले हों, लम्बे हों और पीले रंगके हो और उनके केश ( बाल ) मोटे हों तो ऐसे पलकोंवाली स्त्री पराय पुरुषसे रमण करनेवाली होती है ॥ २३॥ भापाटीकासहितम् । धुकुटीलक्षण । वर्तुला कोमला श्यामा भृर्यदा धनुराकृतिः ॥ अनंगरंगजननी विज्ञेया मृदुलोमशा ॥ २४॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी चू ( भौंह) वर्तुल ( गाल), कोमल, श्याम वर्ण ( सांवले रंगकी) और धनुष के आकार तथा कोमल रोमों से यक्त हों तो वह स्त्री कामदेवके आनन्दुको उत्पन्न करनेवाली अर्थात अपने पतिको कामकलोल करके प्रसन्न करनेवाली होती है ॥२४॥ पिंगला विरला स्थूला सरला मिलिता यदि ॥ दीर्घलोमा विलीमा च न प्रशस्ता नतभुवा ॥२८॥ अर्थ-जिस स्वकी भौंहपर रोम भूरे हों, विरले सीधे अथवा मिले हुए व बडे हों अथवा रोम नहीं हों, यद्वा झुकी भौहें हों तो शुभ नहीं जानना ॥ २५॥ कर्णलक्षण ।। प्रलम्बौ वर्तुलाकारौ कण भद्रफलप्रदौ ॥ शिरालौ च कृशौ निन्द्यौ शप्कुलीपरिवर्जितौ ॥२६॥ अर्थ-जिस स्त्रीके कान लम्बे और गोल आकार के हों वे शुभ फल देनेवाले होते हैं, एवं जिस स्त्रीके कान नसोंदार और कृश (सूखे ) तथा शष्कुली ( फेणिका) रहित हों तो ऐसे कान अच्छे नहीं होते हैं ॥ २६॥ दुन्तलक्षण ।। उपर्यधः समा दन्ताः स्तीकरूपा पयोरुचः ॥ द्वात्रिशदायगा यम्याः सा सदा सुभगा भवेत्॥२७॥ अर्थ-जिस स्त्रीके ऊपर और नीचके दांत घरावर हों और मिले हुए हों, परंतु एक दूसरेपर दाँत चढा न हो तथा दूधके तुल्य सपेद् सामुद्रिकशास्त्रम् । चमकदार हों और मुखभरमें बत्तीस हों तो वह स्त्री सदा स. ग्यवती रहे ॥ २७॥ । | अधोदन्ताऽधिकत्वेन मातृहीना च दुःखिता ॥ विधवा विकटाकारैः स्वैरिणी विरलद्विजैः ॥ २८॥ अर्थ-जिस स्वीके नीचेके दांत गिनतीमें अधिक वा बड़े हों तो वह स्त्री मातासे रहित हो और दुःखित रहे तथा जो दांत विकटा- कार हों अर्थात् देखने में कुरुप हों तो विधवा होवे और जो दांत विरले ( अलग अलग ) होवे अर्थात् कुछ कुछ अन्तरसे हों तो वह । स्त्री स्वैरिणी ( व्यभिचारिणी) होवे ॥२८॥ | जिह्वालक्षण। कोमला सरला रक्ता श्वेता च रसना शुभा॥ स्थलाया मध्यसंकीर्णा विकृता सुखनाशिनी ॥२९॥ अर्थ-स्त्रीकी जीभ कोमल, सीधी, लाल रंगकी अथवा सपेद रंगकी हो तो ऐसी जीभ शुभ फल देनेवाली होती है तथा जो मोटी वा बीचमें चौड़ी और विकृतरूप ( देखनेमें कुरूप वा विका- रयुक्त) हो तो ऐसी जीभ सुखको नाश करनेहारी होती है ॥ २९ ॥ श्यामया कल्हा नित्यं दरिद्रा स्थल्या भवेत् ॥ अभक्ष्यभक्षिणी ज्ञेया जिह्वया लम्बमानया ॥ ३० ॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी जीभ काली हो वह स्त्री नित्य कलह करने वाली होती है और जिस स्वीकी जीभ मोटी हो वह दरिद्रा ( धन- से हीन ) होती है तथा जिस स्वीकी जीभ लंबी हो वह अभक्ष्य (नहीं खानेके योग्य ) पदार्थको भक्षण करनेवाली होती है ॥ ३० ॥ तालुलक्षण। तालु कोकनदाभासं कोमलं भद्रकारकम् ॥ नारी प्रव्रजिता पीते सिते वैधव्यमाप्नुयात् ॥ ३१ ॥ जापाटीकासहितम् । अर्थ-जिस स्त्रीको तालू कोकनद अर्थात् लाल कमलके समान ग वा कान्तिवाली और कोमल हो तो भकारक (कल्याण करने- वाली) होती है, एवं जो पीले रंगकी हो तो वह स्त्री प्रजता अर्थात् विरक्त चित्तवाली होवे तथा सपेद रंगकी हो तो वह स्त्री विधवा हो जावे ॥ ३१ ॥ श्यामले पुत्रहीनाच रूक्षे तालुनि दुःखिता ॥ वक्रे कलिप्रिया नारी बहुरूपे च दुर्भगा ॥ ३२ ॥ अर्थ-जिस स्वीकी तालू सांवले रंगकी हो तो वह पुत्ररहित हो अर्थात् उसके पुत्र नहीं होवे, यदि होवे तो जीवे नहीं, और जो तालू रूखी हो तो वह स्त्री दुःखित रहे, तथा जिसकी ताल टेढी हो वह स्त्री कलहप्रिया होवे अर्थात् उसको लडाई अच्छी लगे, एवं जिसकी तालू बहुरूप अर्थात् अनेक रंगकी हो तो वह स्त्री भाग्य- हीन होवे ॥ ३२॥ । घण्टिका ( घाँटी) लक्षण । क्रमसूक्ष्मारुणा वृत्ता स्थूलो घण्टी शुभा मता ॥ । अतिस्थूला प्रलम्बा च कृष्णा नैव शुभा भवेत् ॥३३॥ अर्थ-जिस स्त्रीको घण्टी ( तालुस्थजिह्वा) क्रमसे सूक्ष्म ( छोटी अथवा पतली ) और अरुण (लाल), गोल तथा मोटी हो तो शुभ होती है और जो बहुत लंबी और काले रंगकी हो तो शुभ नहीं होती है ॥ ३३॥ । वाणीलक्षण । भवति चेदनिमीलितलोचनं शुभदृशा दरफुल्लक पीलकम् ॥ अलमलाक्षतदन्तमुदीरितं पतिहिते सततं स्मितमुत्तमम् ॥ ३४ ॥ | अर्थवभक्षिणी शैयारदा स्थूल्य सामुद्रिकशास्त्रम् । | अर्थ-जित स्वीको वाणी नेत्र मीचे विना, सुन्दर दृष्टिसहित. कुछ खिड़े हुए मुखते, सुन्दर कपोल (गाल ) की शोभासे संयुक्त ऐसी हो तथा बात करते समय दुत नहु। निकले और मन्द मुस- क्यान हो ऐसी वाणवाली स्त्री अपने पतिको सर्वदा चाहनेवाली और उत्तम स्वभाववाली होती है ॥ ३४ ॥ नासिकालक्षण । नासिका तु लघुच्छिद्रा समवृत्तपुटा शुभा ॥ स्थलाग्रा मध्यनम्रा च न शस्ता सुभ्रवो भवेत्॥३५॥ अर्थ-जिस सुत्त (सुन्दरभृकुटीवाली) स्त्रीकी नासिका ( नाक ) छोटे छेदुकी, बराबर सीधी और गोल आकार पुटकी हो तो शुभ होती है और जो आगेका भाग मोटा हो और बीचमें गहिरी व नरम हो तो अच्छी नहीं होती है ॥ ३५॥ लोहिताग्रा कुंचिताच महावैधव्यकारिणी ॥ नासिका चिपिटाकारा प्रलम्वा च कलिप्रिया ॥ ३६॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी नासिकाका अग्रभाग ( नोंक ) लाल रंगकी हो और टेढी हो तो ऐसी नासिका वैधव्यकारिणी (विधवा करने वाली) होती है तथा जो चिपिट आकारवाली नासिका हो और लम्बी हो तो वह स्त्री कलहप्रिया होवे अर्थात् उसको लडाई अच्छी लगे ॥ ३६॥ दुन्तशब्द ।। किटकिटेति कलं कुरुते मिथः शुभदृशः शयने तु रदावली ॥ महदमंगलमाह विशेषतः प्रियतमे तनुलक्षणकोविदाः ॥ ३७॥ नापाटीकासहितम् ।। अर्थ-जो सुनयनी स्त्री शयन करते समय दांतोंसे किटकिट = करे अर्थात् सोते समय स्त्रीको दावली ( दांतों की पंक्ति ) पर लड़े तो शरीर के लक्षण जानने वाले पण्डितने यह लक्षण अमंगल (विधवा आदि) को करनेवाला जानना अर्थात् विशेषकरके यह कुलक्षण जानना ॥ ३७॥ ओएलक्षण ।। वर्तुला रेखयाक्रान्तो बन्धू कसदृशोऽधरः ॥ स्निग्धो राजप्रियो नित्यं सुभुवः परिकीर्तितः ॥३८॥ अर्थ-जिन सुटू ( सुन्दर भवाली) स्त्रियों के अधर (आठ) रेखाओं से युक्त आर बन्धूक (एक प्रकारका फूल) के समान हो तथा चिकने हों तो यह नित्यही राजाकी प्यारी होवे ऐसा कहा गया है ॥ ३८॥ प्रलम्बः पुरुषाकारः स्फुटितो मांसवर्जितः ॥ दौर्भाग्यजनको ज्ञेयः कृष्णो वैधव्यसूचकः ॥ ३९॥। अर्थ-जिस स्त्रीका औंठ लम्बा हो, पुरुषके ओठके तुल्य हो, फटा हुआ हो, मांसवर्जित अर्थात् रूखा सुखा हो तो दुर्भाग्यसु- चक जानना अर्थात् अभाग्यका करनेवाला जानना और जो काले रंगके होंठ हों तो वैधव्यसूचक जानना अर्थात् काले होवाली स्वी विधवा हो जावे ॥ ३९ ॥ । कपोललक्षण ।। मांसलौ कोमलावेतौ कपोलौ वर्तुलाकृती ॥ समुन्नती मृगाक्षीणां प्रशस्तौ भवतस्तदा ॥ ४० ॥ अर्थ-जिस मृगनयनी वीके कपोल ( गाल ) मांस से भरे भार कोमल व गोल आकारके हों तथा उंचे हों तो शुभ फल होता है ॥ ४० ॥ सामुद्रिकशास्त्रम् । निमसौ परुषाकारौ रोमशौ कुटिलाकृती॥ सीमन्तिनीनामशुभौ दौभाग्यपारवर्द्धकौ ॥४१॥ । अर्थ-जिस नवयौवना स्वीके दोनों कपोल ( गाल) मांसरहित (सूखे ) हों और रोमॉसे युक्त हों तथा कुटिलाकृति (टेढे) तिरछे होवें तो अशुभ और अभाग्यको बढानेवाले जानने ॥ ४१ ॥ हुनुलक्षण । सुघना कोमला यस्या निलमा च हनुः शुभा॥ लोमशा कुटिला लघ्वी चातिस्थूला न शोभना ॥४२॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी हुनु ( ठोडी) सुन्दर,घनी, कोमल और रोम- रहित हो तो शुभ होती है और जो रामसहित, टेढी, छोटी अथवा बहुत मोटी हो तो शुभ नहीं होती है ॥ ४२ ॥ । कण्ठकृक्षण ।। कण्ठो वर्तुलरूपः कमनीयः पीनतायुक्तः॥ । चतुरंगुलश्च यस्याः सा निजभर्तुः प्रिया भवति॥४३॥ अर्थ-जिस स्त्रीका कंठ गोल स्वरूपवाला और सुन्दर ऊंचाई लिये हुए हो और चार अंगुलका लंबा हो वह स्त्री अपने पतिकी प्यारी होती है अर्थात् उसका पति उस स्त्रीका बहुत प्यार करता है ॥ ४३ ॥ गुप्तास्थिमांसला ग्रीवा त्रिरेखाभिः समावृता ।। सुसंहता तदा शस्ता विपरीता न शोभना ॥४४॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी ग्रीवा ( घीच ) की हड्डी छिपी हुई और मससे भरी हुई तथा तीन रेखाओंसे युक्त बराबर और देखनेमे अच्छी व पुष्ट हो तो ऐसी ग्रीवा शुभ होती है और जो इससे विप- रीत हो अर्थात् इड्डी दिखलाती हो, सूखीसी, कुडौल और अपुष्ट हो तो ऐसी ग्रीवा अच्छी नहीं होती है ॥ ४४ ॥ भापाटीकासहितम् ।। स्थलग्रीवा धवत्यक्ता रक्तग्रीवा च दासिका। अपतिश्चापिटग्रीवा लघुग्रीवार्थवर्जिता ॥४५॥ अर्थ-जिस स्त्रीका कंठ स्थूल ( मोटा) हो वह स्त्री अपने पतिसे छाडी हुई रहे और जिसका कंठ रक्तवर्ण ( लाल ) हो वह स्त्री दासी होकर रहे, तथा जिस स्रीका कंठ चौडा हो वह स्त्री पतिरहित (विधवा) हो जावे और जिसका कंठ छोटा हो वह स्त्री घनसे हीन (दरिद्रिणी) होवे ॥१५॥ कण्ठावर्ती भवति कुलटा भर्तृहंत्री कुरूपा पृष्ठा- वर्ता कठिनहृदया स्वामिहंत्री कुलघ्नी ॥ आवतों। वा भवत उदरे द्वाविहेकोऽपि यस्याः सापि । त्याज्या कृतिभिरबला लक्षणशैस्तु दूरात्॥ ४६॥ । अर्थ-जिसके कंठमें रोमोंका आवर्त (चक्र) घूमा हुआ हो तो वहस्त्री कुलटा ( व्यभिचारकर्म करनेवाली) और पतिको हनन । करनेवाली व कुरुप होवे, एवं जिसके पीठमें रोमोंका चक्र हो तो वह कठोरहृद्यवाली अर्थात् कर्कशा दयासे रहित अपने पतिको नाश करनेवाली तथा कुलको विनाश करनेवाली होवे, तथा जिस स्वीके पेटमें दो वा एकभी भौंरा हो तो ऐसी स्त्रीको तथा पूर्वोक्त कुलक्षणोंसे युक्त स्त्रीको दूरहीसे परित्याग कर देना चाहिये ऐसा लक्षण जाननेवाले पंडितोंने कथन किया है ॥ ४६॥ सीमन्ते च ललाटे च कण्ठे वापि नतध्रुवः ॥ लोम्नामावर्तको दक्षी वामी वैधव्यसूचकः॥४७॥ अर्थ-जिस सुप्त स्त्रीकी मांगमें वा माथेमें वा कंमें रोमों का आवर्त अर्थात् भरा दाहिने वा वायें ओरको घूमा हुआ हो तो वह वैधव्यसूचक होता है यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है, के जिस स्वकी मागर्म भौरी होती है वह स्त्री विधवा हो जाती है ॥ १७॥ सामुदिक० १ सामुद्रिकशास्त्रम् । हस्तरेखालक्षण। गभीरा रक्ताभा भवति मृदुला वास्फुटतरा। करे वामे रेखा जनयति मृगाक्ष्या बहुशुभम् ॥ यदा वृत्ताकारा पतिरति सुखं विन्दति पर। विसारं सौभाग्यं बलमपि सुतं स्वस्तिकमपि ॥४८॥ अर्थ-जिस स्त्रीके हाथमें गहिरी, लाल रंग, कोमल और देख- नेमें साफ रेखा होवे तो उस मृगनयनी स्त्रीको बहुत शुभ फल देती है तथा जो वृत्ताकार अर्थात् गोल आकारवाली रेखा हो तो वह स्त्री अपने पतिसे बहुत सुख पाती है और सौभाग्यवती रहती है, बल- करके सहित होती है और कल्याणपदकोभी प्राप्त होती है ॥४८॥ करतले यदि पद्ममिलापतेः प्रियतमा परमा गरि- मावृता ॥ नृपमपत्यमले जनयेदरं बलवतामपि मानविमर्दकम् ॥४९॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी हथेलीमें कमलका चिह्न होता है वह स्त्री राजाकी बहुत प्यारी राजपत्नी (रानी) होती है और वह ( रानी) बलवान् पुरुषोंके मानको मर्दन करनेवाले ऐसा राजकुमार उत्पन्न करती है ॥ १९ ॥ यदा प्रदक्षिणाकारो नन्द्यावर्तः प्रजायते ॥ चक्रवर्तिनृपस्त्री सा यस्याः पाणितलेऽमले ॥५०॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी निर्मल हथेलीमें दाहिनी ओरको घूमा हुआ चिह्न प्रगट दीख पडे तो वह स्त्री चक्रवर्ती राजा ( महाराजा) का स्त्री अर्थात् महारानी होती है ॥ ५० ॥ आतपत्रं च कमठः शंखाऽपि यदि वा भवेत् ॥ नृपमाता गुणोपेता भव्याकारा पतिव्रता ॥५१॥ जापाटीकासहितम् । है । अर्थ-जिस स्त्रीकी हथेली में छत्र, कछुवा अथवा शंखका चिह्न शट दीख पड़े तो वह स्रा राजाकी माता अर्थात् राजपुत्र उत्पन्न करनेवाली, गुणवत्ता, सुन्दर रूपवाला आर पतिव्रता होती है।॥३१॥ यस्या वामकर रेखा तुलामालोपमाभवेत् ॥ वैश्यवामा रमापूणों नानालङ्कारमाण्डिता॥५२॥ अर्थ-जिस स्त्रीक वाये हाथमें तराजू और मालाके आकार रेखा प्रगट दीख पडे तो वृद्द वैश्य ( साहूकार वा व्यापारी ) की स्वी होकर लक्ष्मीसे परिपूर्ण और नाना प्रकारके अलंकारों (आभूषणों) से शोभावाली होती है ॥ २२ ॥ करतले गजवाजिवृषाकृतिः कृतिविदामबला किल कोविदा ॥ भवति सोधसमा यदि सुभ्रवः शशिनिभाऽतिशुभाकिल रेखिका ॥५३॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी हथेलीमें हाथी, घोडा, बैल इनके आकार रेखा हो तो वह स्त्री किये हुए कामको जाननेवाली और पंडिता होती है तथा यदि उत्तम धुकुटीवाली स्त्रीके हाथमें राजमहल अथवा चन्द्रमाके आकार रेखा प्रगट दीख पडे तो एसी रखा शुभ- फलको देनेवाली होती है ॥ ५३॥ भवति सा विमलांकुशचामरा मलशरासनवद्यदि खिका ॥ गुणविभूषितभूपतिवल्लभा करतले शकटेन विशोऽवला ॥५४॥ । अर्थ-जिस स्त्रीकी हथेलीमें निर्मल अंकुश, चमर और सीधे चाणके समान आकार रेखा हो तो वह स्त्री उत्तम गुणसे शोभा वाली राजवल्लभा अर्थात् राजाकी प्यारी (रानी) होने और यदि चाकी हथेलीमें शकट (गाडी) के आकार रेखा हो तो वह स्वी वैश्य ( व्यापारी) की स्त्री होती है ॥ ५४॥ त प्यारी थलामें केस वला सामुद्रिकशास्त्रम् । अंगुष्ठमूलतो रेखा कनिष्ठा यदि गच्छति ॥ यस्याः सा पतिहंत्री तां दूरतः परिवर्जयेत्॥६६॥ अर्थ-जिस स्त्रीके अंगूठेकी जडसे छोटी अंगुलीके जडपर्यन्त । रखा गई हो वह स्त्री पतिको हनन करनेवाली होती है ऐसी स्त्रीको दूरसेही पारत्याग करना चाहिये ॥ ५५॥ यदि करे करपालगदामलप्रखरकुन्तमृदङ्गकुरड़- वत् ॥ भवति शूलनिभा खलु रैखिका भुवि सदा धनदा प्रमदा तदा ॥६६॥ अर्थ-जिस स्त्रीको हथलीमें करपाल ( खड़), गदा, उत्तम घारवाला भाला, मृदंग, हरिण और शूल इनके आकार रेखा प्रगट दीख पडे तो वह स्त्री निश्चय पृथिवपिर धनवती और धनकी देनेवाली होवे है ॥५६॥ वृषभकट्टश्चिकभुजङ्गजम्बुकाः खरकङ्कपत्रश- लभा बिडालकाः॥ यदि वामपाणितलगा भवन्ति। चेत्कलहेन सार्द्धमतिरोगकारकाः ॥१७॥ अर्थ-जिस स्त्रीके वायें हाथकी हथेलीमें वृष ( वैल), भेक (मॅडक ), वृश्चिक (वछी), भुजङ्ग ( सर्प ), जम्बुक ( सियार), खर ( गर्दभ), कंकपत्र ( केंचुवा पक्षी ), शलभ (टीडी), विडाल ( विल्ली) इनके आकार रेखा अथवा चिह्न हों तो वह स्त्री कलह करनेवाली और रोगिणी होती है ये लक्षण रोग करनेवाले होते हैं ॥ ५७॥ . अंगुष्ट लक्षण । कोमलः सरलऽगुष्टो वर्तुलो यदि योषिताम् ॥ क्रमादेवं कृशांगुल्यो दीर्घाकाराश्च वर्तुलाः॥५८॥ जापाटीकासहितम् ।। अर्थ-यदि स्त्रियोंका अंगूठा गोल और कोमल व सीधा तथा अंगूठेके पाससे अन्य अंगुलियां क्रमसे छोटी हों और लंबी व गोल होवें तो शुभ जानना ॥२८॥ | हुस्तांगुलिलक्षण । पृष्ठरोमाः प्रजाः शस्ताश्चिपिटा उदिता बुधैः॥ कृशाः कुचितपर्वाणो ह्रस्वा रोगभयावहाः॥९॥ अनेकपर्वसंयुक्ता उन्नतांगुलयः शुभाः ॥६॥ अर्थ-यदि स्त्रियोंके पीठपर रोम प्रगट हो गये हों एवं अंग- लियोंका पृष्ठभाग चिपेटा अर्थात् चौंडा हो तो पंडितोंने शुभ कहा है और जो अंगुलि पतली, टेढे पर्ववाली अर्थात् अंगुलियाके पोरुवे टेढे हों और अग्रभाग छोटा हो तो रोग और भयको देने- वाले जानने । जिसके हाथ की अंगुलियां पर्व समेत ऊंची अर्थात लंबी हों तो शुभ अर्थात् सौभाग्य आदि फलको देने वाली जाननी अर्थात् लंबी अंगुलियां शुभ फल देनेवाली होती हैं ॥ ५९॥ ६० ॥ अंगुष्ठांगुलिकं युग्मं यत्पद्मकलिकासमम् ॥ वहुभोगाय नारीणां निर्मितं विधिना पुरा ॥ ६ ॥ अर्थ-जिन स्त्रियोंके हाथका अंगूठा और दो अंगुली ये कमल की कलीके समान हों तो स्त्रियोंके बहुत भोगके अर्थ पूर्वसमय ब्रह्माजीने बनाया है ॥ ११ ॥ । करतलक्षण । करतलं भुजयोयदि कोमलं विमलपद्मनिभं च समुन्नतम् ॥ निजपतेः कुसुमायुधवर्धकं निगदितं मुनिना विधिनोदितम् ॥ ६२ ॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी हथेली और दोनों भुजा यदि कोमऊ, निर्भ- चिह्न हों तो वह ढेि होते हैं। और रोगिणी ७० सामुद्रिकशास्त्रम् । छ कमलके समान और ऊचे हों अथवा हथेली कमलके रंगके ।। मान हो और दोनों भुजायें लंबी हों ये लक्षण स्वीके पतिके काम- देवको बढावनेवाले जानने ऐसा ब्रह्माजका कहा हुआ मुनियोंने कथन किया है ॥६२ ॥ स्वच्छरेखाकुलं भद्रं नो भद्रं हीन रेखया ॥ अभद्रं रेखया हीनं वैधव्यं चातिरेखया ॥ ६३ ॥ अर्थ-जिस स्त्रकिी हथली साफ रेखाओसे भरी हो तो कल्या- णकारी जानने और जो रेखायें छोटी हों तो अमंगलको करे हैं तथा जो रेखायें न हों तभी अमंगल जानना और जो बहुत रेखायें हों वह स्त्री विधवा होवे ॥ ६३॥ | करपृष्ठलक्षण ।। शिरालं कुरुते निःस्वं नारीकरतलं यदि ॥ समुन्नृतं च विशिरं करपृष्ठं सुशोभनम् ॥ ६४ ॥ अर्थ-जिस स्त्रकिी हथेली बहुत नसासे युक्त हो और हाथका। पृष्ठ अर्थात् पिछला भाग ऊंचा और नसोंसे रहित हो तो शुभ फल होता है ॥ ६४॥ रोमाकुलं गभीरं च निर्मासं पतिजीवहृत् ॥ सुनुवः करपृष्ठस्य लक्षणं गदितं बुधैः ॥ ६६ ॥ अर्थ-जिस स्वीका करपृष्ठ अर्थात् हाथकी पीठ बहुत रोमोसे युक्त हो, गहिरी और मांसरहित ( सूखीसी) हो तो पतिके जीवको हरण करे है इस प्रकार सुन्दर भौंहवाली स्त्रियोंके करपृष्ठके लक्षण पंडितोंने कहे हैं॥६६॥ शंखशुक्तिनिभा निम्ना विवर्णा न नखाः शुभाः ॥ नखलक्षण। | कपिला वक्रिता रूक्षाः सुभ्रवः सुखनाशकाः ॥६६॥ भोपाटीकासहितम् । । अर्थ-जिस स्त्रीके नख शंख और सीपके आकार और बीचमें गहिरे तथा रंगमें अच्छे न हों तो ऐसे नख शुभ नहीं होते हैं तथा जो कपिल वर्ण (पीले रंग) हों और टेढे अर्थात् मुडे हुए व रूखे होवें तो ऐसे नख सुखको नाश करनेवाले होते हैं ॥ १६॥ यदि भवन्ति नखेषु मृगीदृशां सितरुचो विरला यदि बिन्दवः ॥ अतितरां कुसुमायुधपीडया पर- जनेन लपन्ति रमन्ति ताः ॥ ६७॥ अर्थ-जिन मृगनयनियोंके नखोंमें सपेद रंगके सुहावने विन्दु होवें तो वे बहुतही कामबाणकी पीड़ा करके अन्य मनुष्योंके साथ बातचीत करें और रमण करें ॥ ७॥ बाहुमूललक्षण । स्रस्तांसा संहतांसा च धन्या भवति कामिनी ॥ तुंगांसा विधवा ज्ञेया विमांसा सा तथैव च ॥ ६८ ॥ अर्थ-जिस स्त्रीके बाहुमूल अथवा कन्धेके किनारे चाँडे अथवा कडे हों वह स्त्री धन्या अर्थात् भाग्यवाली होती है और जो बाहु- मूल ऊंचे तथा मांसहीन ( रूखे ) हों तो विधवा होवे ॥ १८ ॥ स्कन्धलक्षण ।। पुत्रिणी विनतस्कन्धा ह्रस्वस्कन्धा सुखप्रदा॥ पुष्टस्कन्धा तु कामान्धा रतिभोगसुखावहा॥ ६९ ॥ अर्थ-जिस स्त्रीके कन्धे झुके हुए हों वह पुत्रवती होती है और जिसके कन्धे छोटे हों वे सुख देने वाले होते हैं तथा जिसके कॅन्ध पुष्ट हों वह कामदेवकी पीडासे अन्धी होती है और रतिभोगसुख- वाली होती है ॥ ६९ ॥ सामुद्रिकशास्रम् । वक्षःस्थललक्षण । लोमहीनहृदयं यदा भवेन्नम्नताविरहितं समा- यतम् ॥ भोगमेत्य सकलं वराङ्गना सा पुनः प्रियवियोगमालभेत् ॥ ७० ॥ अर्थ-जिस स्त्रीका हृदय अर्थात् वक्षःस्थल रोमहीन हो और ऊंचा नीचा न हो तथा लंबाई चौडाई बराबर हो तो वह वराङ्गना अर्थात श्रेष्ठ स्त्री सम्पूर्ण भोगसुखको प्राप्त होवे फिर वह स्त्री प्रियके वियोगका प्राप्त होवे ॥ ७० ॥ उद्भिन्नरोमहृदया स्वपतिं निहन्ति विस्ताररूप- हृदया व्यभिचारिणी स्यात् ॥ अष्टादशाहु- लाभतं हृदयं सुखाय चेद्रोमशं च विषमं न सुखाय किंचित् ॥ ७ ॥ अर्थ-जिस स्त्रीके हृदयपर फटे मुखके रोम होवें तो वह स्त्री अपने पतिको नाश करनेवाली होती है और जिसकी छाती बडी लंबी चौडी हो तो वह स्त्री व्यभिचारिणी होती है, तथा जिसका वक्षःस्थल अठारह अंगुलका हो तो ऐसा हृदय सुखके अर्थ जानना और जिसके वक्षःस्थलपर रोम बहुत हों और विषम अर्थात् बेडौल ऊंचा नीचा हो तो कुछभी सुख उस स्त्रीको प्राप्त न होवे ॥ ७१ ॥ उन्नतं पीवर शस्तं हृदयं वरयोषिताम् ॥ अपीवरमिदं नीचं पृथुदौभाग्यसूचकम् ॥७२॥ अर्थ-जिन श्रेष्ठ स्त्रियोंका वक्षःस्थल ऊंचा व स्थूल हो तो शुभ होता है और जो गहिरा सूखा व कठोर हो तो बहुत अभाग्यप- नको सूचित करता है अर्थात् जिस स्वीकी छाती गहिरी रूखी व कठोर हो वह अभागी होती है ॥७२॥ भाषाटीकासहितम् ।। स्तनलक्षण । भवत एव समौ सुदृढाविभौ यदि धनौ सुदृशस्तु पयोधरौ ॥ निजपतेरनिशं परिवर्तुलो कुसुमवा- णविनोदविवर्धक॥७३॥ अर्थ-जिस सुनयनी स्त्रीके स्तन (कुच) बरावर, सुन्दर, दृढ और घने व गोल हों तो वह स्त्री अपने पतिको कामदेवके बाणसे आनन्द बढावनेवाली होती है ॥ ७३ ॥ | सुभ्रुवो विरलौ सूक्ष्मौ स्थूलाग्रावहिताविभौ ॥ पयोधरौ तदा नार्याः प्रभवेद्दक्षिणोन्नतः ॥ ७४ ॥ अर्थ-जिस सुभ स्त्रीके स्तन विरले हों अर्थात् अलग अलग हों। मिले न हों और छोटे हों अग्रभाग उनका कुछ मोटा हो और कठोर हों तथा दाहिनी ओर ऊंचे और झुके हों तो उस स्त्रीको ।। ७४॥ पुत्रदोप्यथ कन्यादो यदा वामोन्नतो भवेत्॥ । सान्तरालौ च विस्तारौ पीवास्यौ न शोभनौ ॥७५॥ अर्थ-पुत्रदायक होते हैं और जो वायें ओरको ऊंचे वा झुके हुए हों तो कन्या देनेवाले होते हैं, तथा यदि दोनों स्तनों के बीच अन्तर हो और वडे हों तथा स्तनका मुख स्थूल हों तो शुभफल नहीं जानना ॥७५ ॥ मूले स्थूलौ क्रमकृशावग्रे तीक्ष्णौ पयोधरौ ॥ सुखदौ पूर्वकाले तु पश्चादत्यन्तदुःखदौ॥७६॥ । अर्थ-जिस स्त्रीके स्तन अडमें मोटे फिर क्रमसे पतले होके आगे तीक्ष्ण हों तो उस स्त्रीको बाल्य अवस्थामें सुख देते हैं जैार पीछे ( वृद्धावस्था) में दुःख देते हैं ॥ ७६ ॥ सामुद्रिकशास्त्रम् । त्रिवलीवलीलक्षण । कृशतरा त्रिवली सरलावली ललितनर्मविनोदवि- वर्धिनी ॥ भवति सा कपिला कुटिलाकुला शुभ- करी विरला महदाकृतिः ॥७७॥ अर्थ-जिस स्त्रीके बारीक त्रिवली हृदयसे भगपर्यन्त तीन पंक्ति तथा सीधी रोमवाली रामाकी पंक्ति हो तो वह स्त्री प्रेमभरी उत्तम वार्ताओंसे आनन्द बढानेवाली होती है तथा जो वह त्रिवली भरे रंगवाली और कुछ टेढी रोमोंवाली हो तो अधिक क्रोध करनेवाली होवे और जो पूवक्त त्रिवली वडी आकृतिवाली हो तो शुभ फल करनेवाली जानना ॥ ७७॥ उदरलक्षण । पृथूदरी यदा नारी सूते पुत्रान् बहूनपि ॥ भेकोदरी नरेशान बलिनं चायतोदरी ॥ ७८॥ | अर्थ-जिस स्त्रीका पेट बडा हो तो वह बहुत पुत्रोंको उत्पन्न करती है और जो लंबा व फैला हुआ उदर हो तो उसका पुत्र बलवान होता है ॥ ७८ ॥ उन्नतेनोदरेणैव वन्ध्या नारी प्रजायते ॥ जठरेण कठोरेण सा भवेद्भिन्दुकांगना॥ ७९ ॥ अर्थ-जिस स्त्रीका उदर ऊंचा हो तो वह स्त्री वन्ध्या (पुत्ररहित) होती है और जो कठोर ( कडा) उदर हो वह स्त्री भिन्दुका (नीच जातिमें अच्छे पुरुष ) की स्त्री होती है ॥ ७९ ॥ आवर्तेन युतेनैव दासिका भवति ध्रुवम्।। कोमलैमाससंयुक्तैः समानैः पार्श्वकैः शुभम् ॥८० ॥ भाषादीकासहितम् । अर्थ-यदि स्त्रीके उदरमें भंवर हो तो वह स्त्री निश्चय दासी होती है और कोमल व मांसयुक्त उदर हो और कोखे बराबर हों तो शुभ फल होता है । ८० ॥ विशिरेण मृदुत्वचा सपुत्री जठरेणातिकृशेन का- मिनी सा ॥ बहुधा तुलभोगलालिता सानुदिनं मोदकसरफलाशिनी स्यात् ॥८१॥ अर्थ-जिस स्त्रीका उदर नसोंसे रहित हो और कोमल व त्वचा- वाला हो अथवा बहुत दुर्बल हो तो वह स्त्री पुत्रवती होती है और अनेक प्रकार के अतुल भोगामें उसकी लालसा होती है तथा प्रति- दिन उत्तम मोदक (लहूआदि ) और फल मेवा आदि पदाथाक भक्षण करनेवाली होती है ॥ ८१ ॥ घटाकारं यस्या भवति च मृदङ्गेन सदृशं । यवाकारं दैवादमाहितं पुत्ररहितम् ॥ अभद्रं नो भद्रं तदपि यदि कूष्माण्डसदृशं । निरुक्तं तत्त्वज्ञैः कठिनमुरुशालेन च समम् ॥८२॥ अर्थ-जिस स्त्रीका पेट घडेके आकार अथवा मृदंगके आकार वा देववश जौके दानके आकार हो तो वह स्त्री पुत्रोंसे हीन हो एवं यदि कुम्हडके आकारवाला पेट हो तभी कल्याणफल नहीं देता है तथा उरु शालके समान कठिन हो तो तत्वके जाननेवाले पुरु- पाने पूर्वोक्त फलके समान फल वर्णन किया है ॥ ८२॥ । नाभिलक्षण । गभीरा दक्षिणावर्ती नाभिभौगविवर्धिनी ॥ व्यक्तिग्रन्थः समुत्ताना वामावर्ता न शोभना॥८३॥ अर्थ-जिस स्वीकी नाभि गहिरी और दाहिनी ओरको घूमी हुई हो तो वह भाग बढानेवाली होती है तथा जिसकी नाभिके भाषाटीकासहितम् ।। अर्थ-स्त्रीकी योनि ( भुग ) यदि हाथीके कन्धेके समान रूपवा- ढी हो वा कछुएकी पीठके आकार हो वह राजाको कामक्रीडामे आनन्द देनवाली अथात् राजपत्नी होवे, तथा जिसकी भग उप- रको उठी हुई हो एसी योनिवाली स्त्री कन्याओं को उत्पन्न करने सामुद्रिकशास्त्रम् ।। बीच गांठ प्रगट दीख पडे और नाभि खुली हुई हो अथवा वाई ओरको घूमी हुई हो ऐसी नाभि शुभ नहीं होती है ॥ ८३॥ | नितम्बकटिलक्षण । समुन्नतनितम्बाद्या यस्याः सिद्धांगुला कटिः ॥ सा राजपट्टमहिषी नानालीभिः समावृता ॥८४॥ अर्थ-जिस स्त्रीके नितम्ब ऊंचे हों और कटि चोवीस अंगुलकी हो वह स्त्री राजाकी पट (श्रेष्ठ ) रानी और अनेक सखियोंसे सम्य- क प्रकार संयुक्त होवे अर्थात् वह रानी होवे और बहुतसी दासियां उसकी सेवा करें ॥ ८४ ॥ निमसा विनता दीघा चिपिटा शकटाकृतिः ॥ लघ्वी रोमाकुला नार्या वैधव्यं दिशते कटिः॥८५॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी कटि मांसहित झुकी हुईसी, बैठी हुई, गा- डीके आकारवाली, छोटी और बहुत रोमोंवाली हो तो ऐसी कटि- वाली स्त्री विधवा होती है ॥ ८५॥ सीमन्तिनीनां यदि चारूबम्बो भवेन्नितम्बो बहु- भौगदः स्यात् ॥ समुन्नतो मांसल एवं यासां पृथुः सदा कामसुखाय तासाम् ॥ ८६ ॥ अर्थ-यदि सभाग्यवती स्त्रियोंके नितम्ब सुन्दर बिम्बसम हों तो बहुत भोग देनेवाले होते हैं और जो ऊंच मोटे और बडे हों तो उन स्त्रियांक सदैव कामसुखके देनेवाले होते हैं अर्थात् ऐसे नितंब अच्छे होते हैं ॥८६॥ " योनिलक्षण । यदा गजस्कन्धसमानरूपो भगोऽथवा कच्छप- पृष्ठेवृषः ॥ इलापतेः कामविनोददायी वामोन्नतः। सोऽपि सुताजनेताः ॥ ८७ ॥ वाली होती है ॥ ८७॥ अश्वत्थदलरूपो वा भगो गूढमणिः शुभः ॥ चुल्हिकोदररूपी यः कुरङ्गखुरसन्निभः ॥ ८८ ॥ अर्थ-जिस स्वकी भग पीपलके पत्रके आकार हो अथवा गुप्त- मणिके सदृश हो तो शुभ छावे है तथा जो चूल्हेके पेटके समान अथवा हिरणके खुरके समान हो ॥ ८८ ॥ रोमाकुलोऽदृष्टयोनिर्विकृतास्यो महाधमः ।। | कामिनां न विनोदाह भगो भवति सर्वथा ॥ ८९ ॥ अर्थ-तथा बहुत रोमांसे युक्त हो कि जिससे योनि दिखाई न पडे और जिसका मुख विकारवाला हो अर्थात देखने में अच्छी न लगे ऐसी भग अधम जानना, सो सर्वथा कामी पुरुपके आनन्द- हेतु नहीं होती है ॥ ८९ ॥ | कामिन्या कंचुकावर्ती भगो दौर्भाग्ववर्द्धकः ॥ स गर्भधारणाशक्तो वक्राकारोऽपि तादृशः ॥ ९० ॥ । अर्थ-जिस स्त्रकिी योनि कंचुकावर्त हो अर्थात् दोनों ओर उंची बीचमें खाली हो तो एसी योनि दुर्भाग्यको वढावनेवाली होती है। और वह गर्भ धारण करनेके योग्य नहीं होती है तथा जो वक्र (टेढे) आकारकी हो तोभी दुर्भाग्य बढावनेवाली और गर्भधारण- में असमर्थ जानना ॥ ९० ॥ सामुद्रिकशास्त्रम् । वेतसवंशदलप्रतिभासः कर्पूर रूपवदेव भगो वा॥ लम्बगलो विकटो गजलोमा नैव शुभश्चि- पिटोऽपि निरुक्तः ॥ ९१ ॥ | अर्थ-जिस स्त्रीकी योनि वैत और बांसके पत्रके आकार हो अथवा बीचमै गहिरी एक ओर ऊंची तथा कंठके समान एक ओर चौडी, एक ओर लंबी और ऊंची नीची हो और हाथीके सदृश रोम जिसपर हों तथा जिसकी योनि चिपटी हो तो ऐसी योनि शुभ नहीं जानना ॥ ९१ ॥ मृदुतरं मृदुरोमकुलाकुलं यदि तदा जघनं भग- भाजनम् ॥ उत समुन्नतमायतमादरात्पतिक- लाकलितं गदितं बुधैः ॥ ९२ ॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी योनि बहुत कोमल और कोमल रोमांसे युक्त ऐसी योनि यदि हो तो ऐश्वर्यकी देनेवाली होती है तथा जो ऊंची, बड़ी और चमकदार अथीत् कान्तिवाली हो तो वह आदरपूर्वक पतिकलासे शोभित अर्थात् जिसके देखने छूनेसे चित्तकी उमंग बढे ऐसी योनिभी ऐश्वर्यको बढावनेवाली पंडितोंने कही है ॥९२॥ तदैव दक्षिणावर्ते मांसलं शुभसूचकम् ॥ अतिस्थूलं महादीचे सद्यो दौभाग्यकारकम् ॥ ९३ ॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी योनि दाहिनी ओरको घूमी हुई और मोटी हो तो शुभ होती है और जो वांई ओरको घूमी हुई व किसी स्थानपर खंडितसी हो तो स्त्रियों को ऐसी योनि व्यभिचारिणी करनेवाली होती है ॥ ९३॥ निमोसे कुटिलाकारं रूक्षं वैधव्यसूचकम् ॥ अतिस्थूलं महादीर्घ सद्यो दौर्भाग्यकारकम् ॥९४ ॥ भाषाटीकासहितम् । अर्थ-जिस स्त्रीका भग मांसरहित, कुछ टेढासा, रूखा हो तो वैधव्यसुचक जानना अर्थात् विधवा करता है और जो भग बहुत मोटा हुआ बहुत लंबा हो तो शीघ्र भाग्यहीन करनेवाला होता है ॥ ९४ ॥ मृदुला विपुला बस्तिः शोभना च समुन्नता ॥ अशुभा रेखया क्रान्ता शिराला लोमसंकुला ॥९८॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी योनि कोमल, बडी और ऊंची हो तो शुभ जानना, तथा बहुत रेखा व नसोंवाली व रोमवाली हो तो अशुभ फलको देनेवाली जानना ॥ ९५॥ शंखावत भगो यस्याः सा गर्भमिह नेच्छति ॥ वामोन्नतं च कन्यादः पुत्रदो दक्षिणोन्नतः ॥९६॥ । अर्थ-जिस स्त्रीकी योनि शंखावत अर्थात् शंखके समान घूमी हुई एक ओरको मोटी एक ओरको पतली हो तो ऐसी योनि गर्भको धारण नहीं करती है तथा यदि स्वीकी योनि वायं ओरको ऊंची हो तो कन्यायें प्रगट होती है और जो दाहिनी ओरको ऊंची हो तो पुत्र उत्पन्न होते हैं ॥ ९६॥ जंघालण ।। जंघे रम्भोपमेयस्या रोमहीने च वर्तुले ॥ मांसले च समे स्निग्धे राज्ञी सा भवति ध्रुवम् ॥९७॥ | अर्थ-जिस स्त्रीकी जांघ कदली (केला) के खंभसमान रोम- रहित, गोल, सीधी, मोटी, बराबर और चिकनी होवें वह स्त्री निश्चय रानी होती है ॥ ९७ ॥ जानुलक्षण ।। भवति जानुयुगं यदि मांसलं तदतिवृत्तमतीव शुभप्रदम्॥ भुवनभर्तुरतौ विपरीतमादिभिरिदं विपरीतसुदाहृत ९८ सामुद्रिकशास्त्रम् । अर्थ-जिस वीके दोनों जानु मोटे, बहुत गोल और सन्द तो बहुत शुभ फल देते हैं और महाराजाकी स्त्री ( महारानी के समान वह स्त्री होती है, यदि पूर्वोक्त लक्षणसे विपरीत लक्षणवाले जानु हों तो विपरीत जनना॥ ९८॥ रोमलक्षण । एकरोमा प्रिया राज्ञा द्विरोमा सौख्यभागिनी॥ त्रिरोमा विधवा ज्ञेया रोमकूपेषु कामिनी ॥९९ ॥ अर्थ-जिस स्त्रीके जंघाओंपर रोमकूप अर्थात् रोमोंके मूलमें एकही रोम हो तो वह स्त्री राजाकी प्यारी (रानी) होवे और जो दो दो रोम होवें तो सुखभाागनी ( ऐश्वर्यवाली) होवे तथा जो तीन तीन रोम हों तो विधवा होवे ॥ ९९ ॥ पाणिलक्षण ।। समानपाष्णिः सुभगा पृथुपाष्णिश्च दुर्भगा॥ कुलटा तुंगपाष्णिश्च दीर्घपाणिर्गदाकुला॥१०० ॥ अर्थ-जिस स्त्रीके घुटने बराबर व सुन्दर हों वह स्त्री भाग्यवाली होती है और जो ऊंचे घुटने हों तो वह खी व्यभिचारिणी होती है। तथा जिसके घुटने लंबे हों वह स्त्री रोगसे पीडित रहती है॥१०० गुल्फलक्षण । निर्मासेन सदा नारी दुर्भगा खलु जायते ॥ गुल्फ गूढौ शुभौ स्यातामशिरालौ च वर्तुलौ॥१०१॥ अर्थ-जिस स्त्रकेि दोनों गुल्फ अर्थात् घुटनाके नीचेका अंग मांसरद्दित अर्थात् सूखे और पतले हों तो वह स्त्री अवश्य दुर्भगा होती है तथा जो दोनों गुल्फ मोटे, विना नसोंके, गोल और सुन्दर पुष्ट हो तो सुभगा अर्थात उत्तम ऐश्वर्यवाली होती है ॥ १०१।। भोपाटीकासहितम् । । ८१ अगूढौ शिथिलौ यस्यास्तस्या दौर्भाग्यसूचकौ ॥ गुल्फलक्षणमाख्यातं पादलक्षणमुच्यते ॥ १०५॥ अर्थ-जिस स्त्रीके गुल्फ खुले और शिथिल हों तो वह दुर्भगा होती है यह गुल्फलक्षण कहा, अब आगे चरणलक्षण कहते हैं१०२ चरणलक्षण। कमलकम्बुरथध्वजचक्रवत्थुलमीनविमानवि- तानवत् ॥ भवति लक्ष्म पदे यदि योषितां क्षिति- भृतां वनिता विभुतावृता॥ १०३ ॥ अर्थ-जिन स्त्रियोंके चरणोंमें कमल, शंख, रथ, ध्वजा, चक्रस- मान, बडी मोटी मछली, विमान और चांदनी इनके समान चिह्न हों तो वे राजाओंकी स्त्री (राजरानी) होवे हैं अर्थात् पूर्वोक्त चिह्न जिस स्त्रीके चरणमें हों वह स्त्री राजरानी होती है और ऐश्वर्यसे युक्त होती है ॥ १०३॥ पादुतललक्षण ।। युवतिपादतलं किल कोमलं सममतीव जपाकुसु- मप्रभम् ॥ दिशति मांसलसुणमिलापतेरतिहितं बहुधर्मविवाजतम् ॥ १०४ ॥ अर्थ-जिस स्त्रीका चरणतल ( तलुवा ) कोमल, बराबर, जपा- कुसुम ( ओडके फूल) के सदृश लाल हो तो वह स्त्री मोदी और उष्ण प्रकृतीवाली राजाकी प्यारी और बहुत धर्मसे रहित होवे १०४। शूर्पाकारं विवर्णं च विशुष्कं पुरुषं तथा।। रूक्षं पादतलं तन्व्या दौर्भाग्यपरिसूचकम् ॥१५॥ अर्थ-जिस वरांगनाका चरणतल सूपके आकार और रंगहीन, खरखरा, कठोर तथा रूखा हो तो ऐसा चिह्न अभाग्यसूचके अर्थात् भाग्यहीन करनेवाला होता है ॥ १०६ ॥ सामुदिक* ६ विशुष्क सरिसूचक रंगहीन सामुद्रिकशास्त्रम् । गतिलक्षण । संचलन्या पदा धूलिधारा यदा राजमार्गेऽवलाया। बलादुच्छलेत् ॥ पांसुला सा कुलानां त्रयं सत्वरं। नाशयित्वा खलैमदते सर्वदा॥१६॥ अर्थ-जिस स्त्रीके चलते समय मार्ग में धूलिकी धारा उडे अथ- वा जो स्त्री निज वलसे उछलती हुई चले तो वह पांसुला अर्थात जारिणी शीघ्र तीन कुल अर्थात् माता पिता व पतिके कुलको नाश करके सदा दुष्ट जनाको प्रसन्नमन रहनेवाली होती हैं ॥१०६॥ । पादांगुलिलक्षण । यस्या अन्योन्यमारूढा पादांगुल्यो भवन्ति चेत् ॥ सा पतीन् बहुधा हत्वा वारवामा भवेदिह ॥१०७॥ अर्थ-जिस स्त्रीके चरणकी अंगुलियां एक दूसरीपर चढी हुई होवें तो वह स्त्री अनेक पतियोंको विनाश करके वारवामा अर्थात् वेश्या होती है ॥ १०७ ॥ अनामिका तथा मध्यमांगुलिकालक्षण । अनामिका च मध्या च यदि भूमिं न संस्पृशेत् ॥ आद्या पतिद्वयं हन्ति चापरातु पतित्रयम् ॥ १०८॥ अर्थ-जिस स्त्री के चरणकी अनामिका और बीचकी अंगुली पृथिवीमें न छुवे उसमें एक उठी रहे तो दो पतिको और दोनों उठी रहें तो तीन पतियोंको नाश करे तथा जारिणी होवे ॥ १०८॥ अनामिकाच मध्याच यदि हीना प्रजायते ॥ तदा सा पतिहीना स्यादित्याह भगवान्स्वयम्१०९॥ अर्थ-जिस स्वीके चरणके बीच की और अनामिका ( छोटी अंगुलीके पासकी) अंगुली छोटी हों तो वह स्त्री पतिसे होन हावे यह स्वयं भगवान्ने वर्णन किया है ॥ १०९॥ भोपाटीकासहितम् ।। कनिष्ठांगुलिलक्षण। कनिष्ठान स्पृशेद्धर्मि चालत्यो योषितस्तदा ॥ सा द्रुतं स्वपतिं हत्वा जारेण रमते पुनः ॥ ११०॥ अर्थ-जिस स्त्रीके चलते समय चरणकी छोटी अंगुली पृथि- वीको न छुवे तो वह स्त्री शीघ्र अपने पतिको मारकर फिर अन्य पुरुपोंके साथ रमण करनेवाली होवे ॥ ११० ॥ पादनखलक्षण ।। यदि पानखाः स्निग्धा वर्तुलाश्च समुन्नताः ॥ ताम्रवण मृगाक्षीण महाभोगप्रदायकाः १११॥ अर्थ-जिस स्त्रीके चरणोंके नख चिकने, गोल, उठे हुए, तांबेके रंगके समान हों तो वे स्त्रियोंको उत्तम भोग ऐश्वर्यप्रदानवाले होते हैं ॥ १११॥ पदपृष्ठलक्षण ।। यदि भवेदमलं किल कोमलं कमलपृष्ठवदेव मृ- गीदृशाम् ॥ अरुणकुंकुमविद्रुमसन्निभं बहुगुणं पदपृष्ठमिति ध्रुवम् ॥ ११२॥ अर्थ-जिस मृगनयनी स्वीके चरणोंकी पीठ निर्मल, कोमल, कम उपत्रकी पीउके समान लाल रंग, कुंकुम वा विद्रुम (मूगे ) के समान हो तो वह स्त्री निश्चय बहुत गुणोंवाली होती है ॥ ११२॥ । अन्यशुभलक्षण । अंघ्रिमध्ये दरिद्रा स्यान्नम्रत्वेन सदाङ्गना ॥ शिरालेनाध्वगा नारी दासी लोमाधिकेन सा ॥११३॥ अर्थ-जिस स्त्रीके चरणोंके बीचमें नत्व (गहिरापन ) हो वह जा दादा (धनहीन ) होती है और जो चरणयुलियोपर नत सामुद्रिकशास्त्रम् । गतिलक्षण । संचलन्या पदाधूलिधारा यदा राजमार्गेऽवलायां बलादुच्छलेत् ॥ पांसुला सा कुलानां त्रयं सत्वरं नाशयित्वा खलैर्मोदते सर्वदा॥ १०६॥ अर्थ-जिस स्त्रीके चलते समय मार्गमें धूलि की धारा उडे अथ- वो जो स्त्री निज वलसे उछलती हुई चले तो वह पांसुला अर्थात् जारिणी शीघ्र तीन कुल अर्थात् माता पिता व पतिके कुलको नाश करके सदा दुष्ट जनांसे प्रसन्नमन रहनेवाली होती है ॥१०६॥ पादांगुलिलक्षण ।। यस्या अन्योन्यमारूढा पादांगुल्यो भवन्ति चेत् ॥ सा पतीन् बहुधा हत्वा वारवामा भवेदिह ॥ १०७॥ अर्थ-जिस स्त्रीके चरणकी अंगुलियां एक दूसरीपर चढ़ी हुई होवें तो वह स्त्री अनेक पतियोंको विनाश करके वारवामा अर्थात् वेश्या होती है ॥ १०७ ॥ अनामिका तथा मध्यमांगुलिकालक्षण । अनामिका च मध्याच यदि भूमिं न संस्पृशेत् ॥ आद्या पतिद्वयं हन्ति चापरातु पतित्रयम् ॥ १०८॥ अर्थ-जिस स्त्र के चरणकी अनामिका और बीचकी अंगुली पृथिवीमें न छुवे उसमें एक उठी रहे तो दो पतिको और दोनों उठी रहें तो तीन पतियोंको नाश करे तथा जारिणी होवे ॥१८॥ अनामिकाच मध्या च यदि हीना प्रजायते ॥ तदा सा पतिहीना स्यादित्याह भगवान्स्वयम् १०९॥ अर्थ-जिस स्त्रीके चरणके बीच की और अनामिका ( छोटी अंगुली के पासकी) अंगुली छोटी हों तो वह स्त्री पतिसे होन होवे। यह स्वयं भगवान्ने वर्णन किया है ॥ १०९ ॥ भोपाटीकासहितम् । कनिष्ठांगुलिलक्षण । कनिष्ठान शेडूमि चालत्यो योषितस्तदा ॥ सा द्रुतं स्वपतिं हत्वा जारेण रमते पुनः॥११० ॥ अर्थ-जिस स्त्रीके चलते समय चरणकी छोटी अंगुली पृथि- वीको न छुवे तो वह स्त्री शीघ्र अपने पतिको मारकर फिर अन्य पुरुषोंके साथ रमण करनेवाली होवे ॥ ११० ॥ | पादनखलक्षण । यदि पानखाः स्निग्धा वर्तुलाश्च समुन्नताः ॥ ताम्रवण मृगाक्षीणां महाभोगप्रदायकाः ।। १११॥ अर्थ-जिस स्त्रीके चरणोंके नख चिकने, गोल, उठे हुए, ताँबेके रंगके समान हों तो वे स्त्रियाको उत्तम भोग ऐश्वर्यदानवाले होते हैं ॥ १११ ॥ पदपृष्ठलक्षण । यदि भवेदमले किल कोमलं कमलपृष्ठवदेव मृ- गीदृशाम् ॥ अरुणकुंकुमविद्रुमसन्निभं बहुगुणं पदपृष्ठमिति ध्रुवम् ॥ ११२॥ अर्थ-जिस मृगनयनी स्वीके चरणोंकी पीठ निर्मल, कोमल, कम उपत्रकी पीठ के समान लाल रंग, कुंकुम वा विद्रुम (मुंगे ) के समान हो तो वह स्त्री निश्चय बहुत गुणोंवाली होती है ॥ ११२॥ । अन्यशुभलक्षण। अंन्त्रिमध्ये दारिद्रा म्यान्नम्रत्वेन सदाङ्गना ॥ शिरालेनाध्वगा नारी दासी लोमाधिकेन सा ॥३१३॥ थ-जिस स्त्रीके चरणों के बीचमें नम्रत्व (गहिरापन ) हो वडू त्रा द्वारा (धनहीन ) होती है और जो चरणयुलियोपर नै ८४ सामुद्रिकशास्त्रम् । अधिक हों तो वह स्त्री रास्ता चलनेवाली होती है तथा जो चरण गुलियोंपर राम अधिक हों तो वह दासी होवे है ॥ ११३ ॥ कनिष्ठानामिकाया च यस्यान स्पृशते महीम् ॥ अंगुष्ठं वागतातीत्य तर्जनी कुलटाच सा॥११४॥ अर्थ-जिस स्त्रीके चरणकी छोटी अंगुली और अनामिका अं- गुली चलते समय भूमिपर न लगती होवे अथवा चलतेपर अंगठा अपने समीपवाली वडी अंगुली पर चढ़ जाता हो तो वह स्त्री कुलटा ( व्यभिचारिणी) होती है ॥ ११४॥ ऊर्ध्व ताभ्यां पिण्डिकाभ्यां जंघे चातिशिराचले॥ रोमशो चातिमसि च कुंभाकार तथदरम् ॥ ११५॥ अर्थ-जिस स्त्री की दोनों जंघायें ऊपर की ओरको बहुत मोटी होवें और जंघाओंमें नाडी दीख पडे तथा रोम बहुत हों, मांस बहुत बढ आवे, कुंभके आकारका पेट जिसका हो ये लक्षण अच्छे नहीं होते हैं ॥ ११३॥ वामावर्त नाभिमल्पं दुःखितानांच गुह्यकम् ॥ ग्रीवा ह्रस्वा च योनी या दीर्घाया च कुलक्षये॥११६॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी नाभि बाई ओरको घूमी हुई हो और छोटी होय एवं गुदाभी वाई ओरको घूमी हुई और छोटी होय, तथा ग्रीवा छोटी होय और योनि जिसकी बड़ी होवे ऐसे लक्षण वाली स्री दुःखित रहे और उसका कुलक्ष्य हो जावे ॥ ११६॥ प्रस्थूला या प्रचण्डाश्च स्त्रियः स्युनत्र संशयः॥ ककर पिंगले नत्र स्यावेतो लक्षणासती ॥ ११७॥ अर्थ-जिस स्त्रीका कपोल स्थूल हो तो वह स्त्री प्रचण्डा (कलह करनेवाली) होती है और जिस स्त्रीके नेत्र पीले और एंचाताना हा नापाटीकासहितम् । तथा विलावके नेत्रसमान नेत्र हों और चंचल हों तो ऐसे लक्षण- वाली स्त्री अवश्य व्यभिचारिणी होती है। ११७॥ सांत कूपे गंड्योश्च सा ध्रुवं व्यभिचारिणी॥ प्रलंबिनी ललाटेच देवर हंति चांगना ॥ ११८॥ अर्थ-जिस स्त्रीके कपोलोंपर कुछ श्यामवर्ण गढे दीख पडें तो वह स्त्री अवश्य व्यभिचारिणी होती है तथा जिस अंगनाका ललाट लंबायमान हो वह अपने देवर ( पतिके छोटे भाई ) को विनाश करती है अर्थात् लंबे शिरवाली स्त्रीका देवर मर जावे ॥ ११८ ॥ | उदरेश्वशुर होति पति होति स्फिचोर्द्धयोः ॥ । या तुरोमोत्तरोष्ठी स्यान्न शुभा चोर्द्धरामिका॥११९॥ अर्थ-जिस स्त्रीके उदर (पेट) पर झ्यामता होय तो वह स्त्री अपने श्वशुरको हनती है और जो स्त्रीके दोनों होंठ ऊपरको चढे हुए हों तो वह स्त्री अपने पतिको हनन करनेवाली होती है तथा जिस स्त्रीके होंठोंके ऊपर केश होय अर्थात दाढी मूंछके स्थानपर केश होंय तो अशुभ फल होता है ॥ ११९॥ स्तन समावेशुभ कण च विषम तथा ॥ करालविषमा दन्ताः केशाय च भयाय च ॥ १२० ॥ अर्थ-जिस स्त्रीके दोनों स्तन रोमयुक्त हों तो अशुभ होते हैं और जिसके दोनों कान विषम ( बेडौल) बहुत छोट हों तथा दांत देखने में अच्छे न हों और छोटे वडे हों तो केश और भयके देनेवाले जानने ॥ १२० ॥ चौर्याय पुष्टमांसं च दीर्घा भर्तुश्च मृत्यवे ॥ कव्यादिरूपैर्हस्तैश्च वृककंकादिसन्निभैः ॥ १२ ॥ अर्थ-जिस खोके दोनों कानों का मांस पुष्ट हो तो वह स्त्री चोरी ८६ सामुद्रिकशास्त्रम् । करनेमें प्रवीण होवे और जिसके कान बडे बडे हों तो पतिक मृत्य- का कारण जानने अर्थात् पतिको मृत्यु हो जावे तथा कौआ आदि व हाथके समान आकार अथवा भेडिया गीध आदिकोंके कानके समान कान जिस स्त्रीके होंय वहभी विधवा हो जावे॥१२१ शिरालैर्विषमैः शुष्कैर्वित्तहीना भवन्ति हि ॥ दुःखिता पापनिरता ऊध्र्वनाडीच डाकिनी ॥१२२॥ अर्थ-जिस स्त्रीके हाथ पांव आदि अंग प्रत्यगोंमें नसें बहुत हों और वे नसें विषम और शुष्क हों तो वह स्त्री धनसे हीन और दुःखयुक्त व पापिनी होती है तथा जिस स्त्रीके मस्तकमें उनाडी ( खडी नसें ) हो तो वह स्त्री डाकिनी ( कलह करनेवाली व्यभि- चारिणी) होती है ।। १२२॥ समुन्नतोत्तरोष्ठी या कलहा रूक्षकेशिनी ॥ स्त्रीषु दोषा विरूपाक्षा यत्राकारो गुणस्ततः॥ १२३ ॥ अर्थ-जिस स्त्रीका ऊपरका होंठ बडा मोटा दुल होके ऊंचा होय और केश रूखे होंय अर्थात् भूरे बाल होवें तो वह स्त्री कलह कर- नेवाली होती है तथा जिस स्त्रीके नेत्र भयंकर होंय तो क्लेश करने- ' हारे जानने, स्त्रियोंमें कुरूपताही दोष है और सुन्दरताही गुण है१२३ हस्तपादनानाचिह्नवर्णन । वाजिकुंजरश्रीवृक्षयज्ञेषु यवतोमरैः ॥ ध्वजचामरमालाभिः शैलकुंडलवेदिभिः ॥ १२४ ॥ अर्थ-वाजि (घोडा), कुंजर ( हाथी, ) श्रीवृक्ष ( बिल्व ), यज्ञ- केड अथवा यज्ञखंभ, तोमर ( गुरगुंजनामक शस्त्र), ध्वजा, चामर (चार), शैल (पर्वत), कुंडल, वेदी ये चिह्न हाथमें हों॥ १२४ ।। भोपाटीकासहितम् । शंखातपत्रपझैश्च मत्स्यस्वस्तिकसद्रथैः ॥ लक्षणैरंकुशाद्यैश्च स्त्रियः स्यू राजवल्लभाः ॥ १२५॥ अर्थ-एवं शंख, आतपत्र (छत्र ),पद्म (कमल), मत्स्य (मछ- ली), स्वस्तिक ( पताका) ,उत्तम रथ, अंकुश ये चिह्न हों ऐसे चिह्नयुक्त लक्षणांवाली स्त्री राजाकी प्यारी अर्थात् राजरानी होती है ॥ १२५॥ निगूढमणिबन्धौ च पद्मगपमौ करी ॥ न नीचं नोन्नतं स्त्रीणां भवेत्करतलं शुभम् ॥१२६ ॥ अर्थ-जिस स्त्रीका मणिबन्ध ( पहुँचा ) मोटा, मांस से भरा हो, कमलफूलके गर्भ के समान कोमल दोनों हाथ होंय और न ऊंचा न नीचा ऐसा करतल अर्थात् हथेली हो तो शुभ जानना॥ १२६ ।। रेखान्वितां त्वविधवां कुर्यात्संयोगिनी स्त्रियम् ।। रेखायुग्मत्येिन लग्ना सुखभोगप्रदा शुभा ॥ १२७॥ अर्थ-जिस स्त्रीके हाथमें दो रेखाओंका संयोगं दीख पडे अर्थात् तर्जनी और अंगूठके बीच दो रेखायें मिली हुई मूलपर्यन्त चली गई हों तो वह सौभाग्यवती स्त्री नाना प्रकारके सुखोंको भोग कर- । नवाली होती है ॥ १२७॥ रेखा वा मणिबन्धोत्था गता मध्यांगुली करे।। गता पाणितले यावत् योर्ध्वपाणितले स्थिता॥१२८॥ अर्थ-अथवा जिस स्त्रीके मणिबन्ध ( पहुँचा) से उठी हुई उध्वे (खडी) रेखा मध्यमा ( बीचकी) अंगुलीकी जडतलेतक चली गई हो अथवा ऊर्ध्व रेखा हथलीमें जड़तक हा अथवा चरणतलमें | रेखा हो तो ऐसी रेखा शुभ होता है॥ १२८॥ स्त्रीणां पुंसां तथा सम्येक राज्याय च सुखाय च ॥ पुत्रपौत्रादिसम्पन्ना चोर्ध्वरेखा सुखप्रदा ॥ १२९॥ ८८ सामुद्रिकशास्त्रम् । | अर्थ-तथा जिन स्त्रिया वा पुरुपोंके हाथमें वा चरणतलमें ऊर्छ । रेखा प्रत्यक्ष प्रगट दीख पडे तो राज्य व सुख पूर्ण प्रकारसे प्राप्त होवे। और पुत्र पौत्र आदिकोंसे सम्पूर्ण सुख सदा प्राप्त होवे ॥ १२९ ॥ कनिष्ठामूलरेखा तु कुयाच्चैव शतायुषम् ॥ अनामिका मध्यमामन्तरालगता सती॥ १३०॥ अर्थ-जिस स्त्र के बायें हाथकी कनिष्ठिका ( छोटी) अंगुलीकी जडमें ऊर्ध्व रेखा होय तो सौ वर्षकी आयु होती है और अनामिका ( छोटी अंगुलीके पासकी) अंगुली तथा मध्यमा ( बीचकी अंगुली ) से मिली हुई ऊर्ध्व रेखा हो तो वह स्त्री सती ( पतिव्रता) होती है ॥ १३० ॥ ऊना ऊनायुषं कुर्याद्रेखाचांगुष्ठमूलगा ॥ बृहत्यः पुत्रदा अन्याः कन्यादाश्च प्रकीर्तिताः॥१३ १॥ अर्थ-पदि ऊर्ध्व रेखा अंगूठेके मूलसे लगी हुई कुछ छिन्न भिन्न प्रतीत हों तो थोडी आयु कहना और अंगुष्ठके मूलके नी- चमें जितनी रेखायें हैं सो सव लम्बी लम्बी मोटी मोटी पुत्र होनेकी रेखायें हैं और छोटी छोटी पतली पतली रेखायें कन्या . होनेकी हैं ऐसा कहा गया है ॥ १३१ ॥ अल्पायुपे लघुच्छिन्ना दीर्घाच्छिन्ना महायुषे ।। शुभं तु लक्षणं स्त्रीणां प्रोक्तं त्वशुभमन्यथा ॥ १३२॥ अर्थ-आयुकी रेखा यदि छोटी हो और छिन्न भिन्न हो तो थोडी आयुको लक्षण जानना और बड़ी रेखा हो और रेखा छिन्न भिन्न हो तो दीर्घायु हानेका लक्षण जानना, शुभ लक्षण यदि स्त्रियों के अंगम प्रतीत हाय तो शुभ फल जानना और जो अशुभ लक्षण हो तो अशुभ फल जानना ऐसा कहा है ॥ १३२॥ भापाटीकासहितम् ।। स्त्रीपुरुप लक्षण । स्त्रियां पांच प्रकारकी हैं. १ पद्मिनी, २ चित्रिणी, ३ शंखिनी, ४ हस्तिनी, ५ कृत्या नामवाली कही हैं, कामशास्त्रमें प्रायः चार प्रकारकी स्त्रियां कथन करी हैं और लक्षणभी चारहीके पृथक पृथक् कहे हैं, एवं पांच प्रकाके पुरुष यथा १ देव, २ गन्धर्व, ३ यक्ष, ४ राक्षस, ५ पिशाच, लक्षणसहित कहे हैं. तहां प्रथम स्त्रियोंके लक्षण लिखते हैं । | पद्मिनीलक्षण । सम्पूर्णेन्दुमुखी कुरङ्गनयना पीनस्तनी दक्षिणा ।। मृदुंगी विकचारविन्दसुराभिःश्यामाऽथ गौरद्युतिः ॥ स्वल्पाहाररता विलासकुशला हंसस्वना गायनी।। सव्रीडा गुरुदेवपूजनता सा पद्मिनी प्रोच्यते ॥ १ ॥ अर्थ-पूर्ण चंद्रमाके समान मुख जिसका, मृग (हिरण) के समान नेत्र जिसके, एवं कठोर हैं स्तन जिसके, बुद्धिमती, कोमल अंगवा- ली, खिले हुए कमलकी सुगन्धिवाली, श्याम अथवा गौर वर्णवाली, थोडा भोजन करनेवाली, कामक्रीडामें चतुर, हँसके समान शब्द जिसका तथा गान करनेवाली, और लाजसे युक्त व गुरुदेवताओंकी पूजामें तत्पर इन लक्षणोंवाली स्त्री पद्मिनी कही है ॥ १ ॥ । चित्रिणीलक्षण ।। श्यामा पद्ममुखी कुरङ्गनयना क्षामोदरी वत्सला। संगीतागमवेदनी वरतनुस्तुङ्गस्तनी शिल्पिनी॥ बाह्यालापरता मतङ्गजगतिः सत्कुंकुमार्दस्तनी । मत्तेयं कविमाधवेन कथिता चित्रोपमा चित्रिणी॥२॥ अर्थ-श्यामा (सोलह वर्षकी अवस्थावाली जिसको बालार्भ सामुद्रिकशास्त्रम् । कहते हैं अथवा शीतकाले भवेदुष्णा ग्रीष्मे वा सुखशीतला । तप्तकांचनवर्णाभा सा स्री श्यामेति कीर्तिता।.' अर्थ-शति कालमें जिसका शरीर गरम हो, गरमके समयमें जिसकी देह सुखशतल होवे और तपाये हुए सुवर्णके समान कान्ति जिसकी ऐसी स्त्री श्यामा कही है तथा कमलसमान मुखवाली, मृगके सदृश नेत्रों- वाली, सूक्ष्म उदरवाली, प्यारी मूर्ती जिसकी तथा गानाविद्याको जाननेवाली, उत्तम शरीर, ऊंचे स्तनवाली, चित्रविद्यामें चतुर, इधर उधरकी बात करनेवाली, हाथीके बच्चेके समान गतिवाली, कुंकुममदवाली कविमाधवने चित्रकी नाई चित्रिणी कथन करी है, अर्थात् पूर्वाक्त लक्षणोंवाली स्त्रीको चित्रिणी कहते हैं ॥२॥ | शंखिनीलक्षण । सूक्ष्मांगी कुटिलेक्षणा लघुकचा सम्भोगसम्वर्धनी।। प्रायो दीर्घकचा स्वभावपिशुना कष्टोपभोग्या रतौ ॥ पिङ्गालोलगतिश्च बर्वरकृतप्राङ्गार्चनाहादिनी। नानास्थाननखप्रचिह्निततनूः सेयं मता शंखिनी ॥ ३ ॥ अर्थ-सुक्ष्म शरीरवाली, टेढे नेत्रोंवाली, छोटे छोटे स्तनोंवाली, रतिक्रीडा बढानेवाली, लम्बे लम्बे बालोंवाली, खोटे स्वभाववाली, रतिसमयमें कष्टसे भागी जानेवाली, पिंगलवर्ण, चंचलगति, पीले चन्दनसे चर्चेत अंगोंवाली; तथा अनेक स्थानों पर नखकरके चिह्नित दहेवाली ऐसे लक्षणवाली स्त्रीको शंखिनी कहते हैं ॥३॥ । हस्तिनीलक्षण ।। पीनस्वतल्पनुभृशं मृदुगतिः क्रूरा नमत्कन्धरा स्तोक पिंगल्कुन्तला पृथुकुचा लजाविहीनान- ना। बिम्बोष्टी वहुभोज्यभोजनरुचिः कष्टेकसा- भापाटीकासहितन् । ध्या रती गौराड़ी करिदानगन्धरुचिरा सेयं मता हस्तिनी॥४॥ अर्थ-कठोर और सुक्ष्म शरीरवाली, मन्दगतिवाली, क्राघवृत्ति- वाली, चलते समय ऊंचे नीचे कन्धोंवाली, छोटे छोटे पिंगलवण केश जिसके, बडे बडे कुचोंवाली, लाजरहित मुखवाली, कुंदरुकी नाई होठ जिसके तथा बहुत भोज्य पदाथको भोजन करने की रुचि जिसकी, कामक्रीडामें कष्टसे भोगी जानेवाली, जिस प्रकार हाथीके मद चूता है उसी प्रकार स्रव होनेवाली, ऐसे लक्षणवाली स्त्रीको हस्तिनी कहते हैं॥ ४ ॥ कृत्यालक्षण ।। कलहप्रिया, स्थूलशरीरवाली, अतिक्रोधवाली, श्यामवर्ण, लम्बे २ होठ व छोटी नाकवाली, शिथिल स्तनविभाग, सुखी कमर वाली, ऊंचे पेटवाली तथा तमोगुणवाली स्त्रीको कृत्या कहते हैं । । पुरुषलक्षण ।। देवगन्धर्वयक्षाणां ये राक्षसपिशाचयोः॥ लक्षणैः संयुतास्ते स्युर्मरास्तै रेव नामाभिः ॥ १ ॥ अर्थ-पुरुप पांच प्रकारके होते हैं १ देव, २ ग धर्व, ३ यक्ष, ४ राक्षस, ५ पिशाच इन लक्षणोंवाले मनुष्य उसी नामवाले कहते हैं। अब संक्षेप रीति से पंच महापुरुषों के लक्षण कहते हैं ॥ १॥ । देवपुरुषलक्षण । दाता, सत्यवादी, ज्ञानी, शूर, पवित्र, सत्यप्रिय, सुवर्णसमान कान्तिमान, मेघसमान गम्भर शब्दवाला, लम्बी भुजावाला। बलवान्, कामकाधसे रहित, मधुरभोजी, सुगन्धियुक्त, मृगकी गतिके समान चंचल, कमलनयन, साधु स्वभाव, सुन्दर रूप, भग- अर्थ सुनवाली,लवाली, कि स्थानोंपर ॥३॥ ९२ सामुद्रिकशास्त्रम् ।। वद्भक्त, सतोगुणी इन लक्षणोंसे युक्त मनुष्यको देवसंज्ञक जानना ऐसा कहा है ॥ गन्धर्वमनुष्यलक्षण । श्याम अथवा चम्पकके समान वर्ण, सत रज इन दो गुणसे युक्त, रूपवान्, गुणवान्, पवित्रतासे युक्त, गाविद्यामें प्रविण. उत्तम और मधुर भाषण करनेवाला, खट्टे और मीठे भोजनमें रुचिवाला, सवसे मित्रभाव वर्तनेवाला, जिस पुरुषमें ये लक्षण हों। उसको गन्धर्वसंज्ञक जानना ॥ यक्षपुरुषलक्षण । दयावान्, दीन जनोंकी रक्षा करनेका स्वभाव जिसका, पुष्ट- शरीर, थोडे रोम, रज तम इन दो लक्षणों से युक्त, लाल रंगकेसे नेत्र, शरीरको गुलाबी रंग, सिंहसमान गर्जनायुक्त संभापण, धनवान्, अचलमति इन लक्षणांवाले मनुष्यको यक्षसंज्ञक जानना ॥ । राक्षसमनुष्यलक्षण । शरीरका रक्तश्यामवर्ण, भयानकमुख व दाढे, स्थूल व लम्बा शरीर, तमोगुणी, शीघ्र कोप करनेवाला, कामी, क्रोधी, निर्दय स्वभाव, बिलावके समान नेत्र, दुर्मति, मदिरा पान करनेवाला, देवनंज्ञावाले मनुष्यसे वैर करनेवाला, कठोरचित्त इन लक्षणोंसे युक्त पुरुषको राक्षससंज्ञक जानना ॥ पिशाचमनुष्यलक्षण। अति कोप करनेवाला, बहुत भोजन करनेवाला, दयाहीन, क्रूर- स्वभाव, दुष्टमतिवाला, मलीनवेष, कुरूप, अति कटु व अम्ल- भाजी, कोएके समान शब्दवाला, बकरीके सदृश गन्धवाला, पापी, विश्वासघाती इन लक्षणसे युक्त मनुष्यको पिशाचसंज्ञक जानना ॥ भाषाटीकासहितम् । पांच प्रकारकी स्त्रियां। पद्मिनीको देवी, चित्रिणीको गन्धर्वपत्नी (अप्सरा ) समान, शंखिनी यक्षिणी, हस्तिनीको राक्षसी, कृत्याको पिशाचिनी संज्ञा- वाली जानना, अर्थात् देवताके समान लक्षण होने से देवी, गन्धर्व समान लक्षण हानेसे अप्सरा, यक्षके समान लक्षण होनेसे यक्षिणी, राक्षसके समान लक्षण होनेसे राक्षसी, पिशाचके समान लक्षण होने से कृत्या कहते हैं। एकही लक्षणवाले पुरुष व स्त्रीका संयोग ठीक होता है, विरुद्ध लक्षणोंवाले स्त्री पुरुषमें परस्पर कलह ईप व द्वेष रहता है, विरुद्ध संयोगही अनर्थका हेतु है, भावार्थ यह कि यदि देव, गन्धर्व लक्षणवाले पुरुषका विवाह देवी वा अप्सरालक्षणवाली स्त्रीके साथ होता है तो आनन्दके साथ दिन व्यतीत होते हैं और यदि देव पुरुप हो और राक्षसी वा कृत्या स्त्री हो तो विवाह हुनेसे महादुःख रहता है, इस कारण इन लक्षणोंको देखकर जहांतक हो सके समान लक्षणोंसे युक्त नर नारीका विवाहसम्बन्ध करना अन्य- था दुःख, शोक, कलह उत्पन्न होकर दोनोंका जन्म निरर्थक हो जाता है ॥ | तरुण स्त्रीको प्रशंसा ।। वृद्धोऽपि तरुणीं गत्वा तरुणत्वमवाप्नुयात् ॥ वयोऽधिकां स्त्रियं गत्वा तरुणः स्थविरायते ॥ १॥ अर्थ-वृद्ध अवस्थावाला पुरुष यदि युवा अवस्थावाली स्वीके साथ रमण करनको पाता है तो तरुणहा जाता है और अधिक आयु- वाली स्त्रीके साथ रमण करने से तरुण पुरुष बुढा हो जाता है ॥ ३ ॥ चक्रविचार । चौपाई॥ एक चक्र वाचाल वखाने के दुइश चक्र चलते पिछाने । १४ सामुद्रिक शास्त्रम् । तीनि चक्र वाणिज धन होवे * चारि चक्र दारिदु जन जोवे ॥ पांच चक सर्वांग विलासा के पष्ठ चक्र रस काम हुलासा ॥ सात चक्र बहु सुखको पुंजा ॐ आठ चक्र रोगी तन कंजा ॥ नव चक्रनसे राजहि करे * दशवां चक्र सिद्ध पग धेरै॥१॥ शंखविचार ।। चौपाई। एक शंख नर सुखी कराई ॐ द्वितिय शंख दारिद समुदाई ॥ तीनि शंख गुणहीन बखाने के चारि शंखते बहु गुण जाने ॥ पांच शंखते निर्धन होई ॐ छठा शंख जाने सब कोई ॥२॥ दोहा-सात आदि अरु अंत देश, इतने शंख जु आय ।। राजा कहिये दासको, चलै निसान बजाय ॥ ३ ॥ । शोपविचार ।। चौपाई। एक शीप गुणवन्त जु होय # दोय शीप वक्ता जग होय ॥ तीनि शीप धन संग्रह करे ॐ चारि शीप यश गुण बहु धेरै॥४॥ दोहा-चारि शीपते अधिक जो, दशपर्यंत जो होय । ऋद्धि सिद्धिसे सुख करे, महा पुरुष जग जोय ॥ ६ ॥ कररेखा। पहुँचा मह रेखा इक हाव ३६ राज्य भोग सुखसे जग सोवै ।। रेखा पहुंचा दुइ यदि जान 8 वक्ता गुणि धनवंत बखानी ॥ तीनि रेख पहुंचा महँ देखा & महासुखी कर्ता जग लेखा ॥ चारि रेख पहुंचा माँ आई महाकए दुःखी जग जाई॥६॥ दोहा-लक्षण रेखा कमेकी, अंगुलिनमाह विचार ।। चारि चारि गनि लीजिये, जान सुखको सार ।। ७॥ भाषादीकासहितम् ।। आठ चौक बत्तीस है, लक्षण जाना सोय । सुख दुख ए जग आयके, भोग करे सब कोय ॥ ८ ॥ जाके हाथ इकतीस है, नहिं होवे बत्तीस । सो प्राणी दुःखी रहे, कर्म न जाने ईश ॥ ९॥ जाके कर तेंतीस है, गनती होय छतीस । अन धन लक्ष्मी संपदा, कर्मतें जाने ईश ॥ १० ॥ करतलरेखा जाहि सब, परे मुष्टिके माहिं । अतिभागी त्यहि जानिये, ये लक्षण हैं जाहि ॥ ११ ॥ ऋद्धि सिद्धि दाता सुखी, वह जानो सब कोय । मुष्टि बीच रेखा सवे, रहे सो राजा होय ॥ १२ ॥ जाके बामे तिल वसे, महादुखीकी खान । निशिदिन चिन्तामें रहे, कहे समुद्र बखान ॥ १३ ॥ नखविचार । । दोहा-अरुणो नख ज्यहि पुरुपको, भोगी सुखकी खान । पुत्रवान धनवान गृह, और होय सन्मान ॥ १४ ॥ नख कारो जिस पुरुषको, वाके होय कुशील । महादुखी सो जानिये, सबसे रहे दुशील ॥१५॥ नख सपेद जा पुरुपके, बडो दुखी सो होय । ज्वरपीडा व्याप सदा, सुखी न होवे सोय ॥ १६॥ पीत वर्ण नख पुरुषको, सो परदेश कराय।। ना घर ना वाहूर रहै, चिन्ताके वश थाय ॥ १७ ॥ लाल नयन नख पुरुष ज्यहि, तेजवंत सो होय ।। महादुखी सो जानिये, शुभ लक्षण सत्र काय ॥ १८ ॥ हरित वर्ण नख जासुके, सो पापी जिय जानि । सदा दुखी वह जानिये, कहे समुद्र पखानि ॥ १९॥ सामुद्रिकशास्त्रम् । | हस्तविचार । दोहा-जा नरको कर देखिये, फणाकार सो होय । धनसंग्रह भोगी सुखी, यह जानौ सब कोय ॥ २० ॥ जा नरको कर देखिये, पत्रकार जु होय । राजभोग सो नर करे, यह जानौं सव काय ॥ २१ ॥ जा नरको कर देखिये, मंडलाकार सो होय । नित सिवकाई सो करे, यह जानौ सब कोय ॥ २२॥ भुजाण । दोहा-लम्बी भुजा विचित्र नर, छोटी भुजका दास ।। हाय सुशील सुहावना, भुज समान परकास ॥२३॥ लम्बी भुजा जु दाहिनी, वडो शूर सो जान ।। बाई भुज लम्वी रहे, त्यहि कपटो पहिचान ॥ २४॥ सामुद्रिक पुस्तक लिखी शोभनाथ हर्षाय।। संग्रह करे सजन हित, थापि धरयो मन लोय ॥२५॥ कान्यकुब्ज भूसुर प्रगट, कान्यकुब्जके माहिं ।। मिश्रवंश अवतंसवर, शोभनाथ गुरुपाहिं ॥ २६ ॥ अतिश्रम करि ज्योतिष पढी, कृपा कीन गुरुदेव । विन गुरुदाया जगतमहँ, कठिन जानवो भव ॥ २७॥ । इति श्रीमत्पण्डितशोभनाथसंग्रहीते सामुद्रिकशास्त्रे उत्तरखंडः समाप्तः । समाप्तोऽयं ग्रन्थः । पुस्तक मिलने का ठिकाना- गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास, लमीवेङ्कटेश्वर' छापाखाना, कल्याण-मुंबई. सामुद्रिकशास्वम् । हुस्तविचार । दोहा-जा नरको कर देखिये, फणाकार सो होय । धनसंग्रह भोगी सुखी, यह जानौ सब कोय ॥२०॥ जा नरको कर देखिये, पत्रकार जु होय । राजभोग सो नर करे, यह जानौं सव कोय ॥२१॥ जा नरको कर देखिये, मंडलाकार सो होय ।। नित सिवकाई सो करे, यह जानौ सब कोय ॥२२॥ भुजालझण।। दोहा-लम्बी भुजा विचित्र नर, छोटी भुजका दास । हाय सुशील सुहावना, भुज समान परकास ॥२३॥ लम्बी भुजा जु दाहिनी, वडो शूर सो जान ।। वाई भुज लम्बी रहे, त्यहि कपटी पहिचान ॥२४॥ सामुद्रिक पुस्तक लिखी शोभनाथ हषय ।। संग्रह कर सजन हित, थापि धरयो मन लाय ॥२६॥ कान्यकुब्ज भूसुर प्रगट, कान्यकुब्जके माहि ।। मिश्रवंश अवतंसवर, शोभनाथ गुरुपाहि ॥ २६ ॥ अतिश्रम कार ज्योतिष पढी, कृपा कीन गुरुदेव ।। विन गुरुदाया जगतम, कठिन जानिदो भेव ॥२७॥ '. इति श्रीमत्पण्डितशोभनाथसंग्रहीत सामुद्रिकशास्त्र उत्तरखंडः समाप्तः । समाप्तोऽयं ग्रन्थः । पुस्तक मिलने का ठिकाना- गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास, लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर” छापाखाना, कल्याण-मुंबई. श्रीवाल्मीकीयरामायण तीन दीकासहित । भगवान् भवत्सल, भयज्ञाता, भानुकुलभूषण, मर्यादापृरुषोत्तम महा- राज रामचन्द्रजीके गुणसागरको गरम भरदेना नहीं बन सकता है तथापि आदि कावे ब्रह्मर्षि वाल्मकिजीने अपनी रामायणरूपी गागरो भक्तिका, ज्ञानको धमका, सहित्यका; वीरताका, न्यायका लागर बना दिया । है। इस छोटे से विज्ञापनमें वाल्मीकीय रामायणकै गुणाका गान करके सूर्य को । दीपक लेकर दिखाता है। रामायण भक्तिका सागर है, मोक्षका मात्र है। और हिन्दुका सर्वस्व है। वहीं ग्रन्थ संस्कृती तीन का सति । हमारे यहाँ बिकनेको प्रस्तुत है। इसमें या तो रामानुजी, तनि श्लोकी ६.र। गोविन्दराजय भूषण तीन टीकायं प्रकाशित हैं परन्तु मुख्य भूषण है ।। भूण क्या है वास्तवमै दीकाकार बडी पतासे श्नति स्मृतिपुर तिहास, धर्मशास्त्र, व्याकरण, छन्द अलंकार इत्यादिके प्रमाणसे दिव्यस्वरूप राम्चे- जीके दिव्यचरित्रमाली आदि कवि बाकी किजीकी दिव्य देहको दिव्यही भुषण पहना दिये हैं उन्हीं दिव्य स्वर्णभरणाम तानेझाक टीका कुंदन का । काम देकर मना सोने सुगन्धि मिला रही है। भूषपाटीकाका श्रीमान् । ३ इदर गोविन्दराजको स्वसमें पवन तनय हनुमान नै जरा विदेश किया | या जाती अनुसार इस काका विEि३त सिद्धान्तले रचा हुई है। दो- • का अवश्य विशिष्टाद्वैत मतको ३ गतु क्या शुद्ध ती; क्या विशिष्टता और क्या इतर विद्वान् सबही इसका मुक्तकंठ प्रशंसा करते हैं। ऐसी सर्वे लंकृत संस्कृत टीकाके युः रामायण समस्त विद्वानोक इम विराजकर भगवान रामचंद्रजीके चरित्रके पठन पाठन, झवण की तैन । | हिन्दू जातिको पवित्र कर उनके त्रिविधताका नाश करती हुई उन्हें भजसा । गरसे अनायास पार कर दें इलिये हमने इसका मुख्य घटाकर ३५ वी जगई। १६ रहे हैं। चामोसमें रामायण दान करनेक वडा फल है इस रवैये | धार्मिक हिन्दुको यह ग्रंथ खरीदकर धमक्षतिका परिचय देना चाहिये ।। पुस्तक मिलनेका ठिकाना- | गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास “मीवेंकटेश्वर ” छापाखाना, कल्याण-मुंबई