बालकाण्ड ९
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१६० ॥ कह नृप जे बिग्यान निधाना । तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना ॥ सदा रहहि अपनपौ दुराएँ । सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ ॥ तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें । परम अकिंचन प्रिय हरि केरें ॥ तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा । होत बिरंचि सिवहि संदेहा ॥ जोसि सोसि तव चरन नमामी । मो पर कृपा करिअ अब स्वामी ॥ सहज प्रीति भूपति कै देखी । आपु बिषय बिस्वास बिसेषी ॥ सब प्रकार राजहि अपनाई । बोलेउ अधिक सनेह जनाई ॥ सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला । इहाँ बसत बीते बहु काला ॥ दो॰ अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु । लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु ॥ १६१(क) ॥ सो॰ तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर । सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ॥ १६१(ख) तातें गुपुत रहउँ जग माहीं । हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं ॥ प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ । कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ ॥ तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें । प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें ॥ अब जौं तात दुरावउँ तोही । दारुन दोष घटइ अति मोही ॥ जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा । तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा ॥ देखा स्वबस कर्म मन बानी । तब बोला तापस बगध्यानी ॥ नाम हमार एकतनु भाई । सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई ॥ कहहु नाम कर अरथ बखानी । मोहि सेवक अति आपन जानी ॥ दो॰ आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि । नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि ॥ १६२ ॥ जनि आचरुज करहु मन माहीं । सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं ॥ तपबल तें जग सृजइ बिधाता । तपबल बिष्नु भए परित्राता ॥ तपबल संभु करहिं संघारा । तप तें अगम न कछु संसारा ॥ भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा । कथा पुरातन कहै सो लागा ॥ करम धरम इतिहास अनेका । करइ निरूपन बिरति बिबेका ॥ उदभव पालन प्रलय कहानी । कहेसि अमित आचरज बखानी ॥ सुनि महिप तापस बस भयऊ । आपन नाम कहत तब लयऊ ॥ कह तापस नृप जानउँ तोही । कीन्हेहु कपट लाग भल मोही ॥ सो॰ सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप । मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव ॥ १६३ ॥ नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा । सत्यकेतु तव पिता नरेसा ॥ गुर प्रसाद सब जानिअ राजा । कहिअ न आपन जानि अकाजा ॥ देखि तात तव सहज सुधाई । प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई ॥ उपजि परि ममता मन मोरें । कहउँ कथा निज पूछे तोरें ॥ अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं । मागु जो भूप भाव मन माहीं ॥ सुनि सुबचन भूपति हरषाना । गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना ॥ कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें । चारि पदारथ करतल मोरें ॥ प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी । मागि अगम बर होउँ असोकी ॥ दो॰ जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ । एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ ॥ १६४ ॥ कह तापस नृप ऐसेइ होऊ । कारन एक कठिन सुनु सोऊ ॥ कालउ तुअ पद नाइहि सीसा । एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा ॥ तपबल बिप्र सदा बरिआरा । तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा ॥ जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा । तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा ॥ चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई । सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई ॥ बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला । तोर नास नहि कवनेहुँ काला ॥ हरषेउ राउ बचन सुनि तासू । नाथ न होइ मोर अब नासू ॥ तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना । मो कहुँ सर्ब काल कल्याना ॥ दो॰ एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि । मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि ॥ १६५ ॥ तातें मै तोहि बरजउँ राजा । कहें कथा तव परम अकाजा ॥ छठें श्रवन यह परत कहानी । नास तुम्हार सत्य मम बानी ॥ यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा । नास तोर सुनु भानुप्रतापा ॥ आन उपायँ निधन तव नाहीं । जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं ॥ सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा । द्विज गुर कोप कहहु को राखा ॥ राखइ गुर जौं कोप बिधाता । गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता ॥ जौं न चलब हम कहे तुम्हारें । होउ नास नहिं सोच हमारें ॥ एकहिं डर डरपत मन मोरा । प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा ॥ दो॰ होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ । तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउँ ॥ १६६ ॥ सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं । कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं ॥ अहइ एक अति सुगम उपाई । तहाँ परंतु एक कठिनाई ॥ मम आधीन जुगुति नृप सोई । मोर जाब तव नगर न होई ॥ आजु लगें अरु जब तें भयऊँ । काहू के गृह ग्राम न गयऊँ ॥ जौं न जाउँ तव होइ अकाजू । बना आइ असमंजस आजू ॥ सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी । नाथ निगम असि नीति बखानी ॥ बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं । गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं ॥ जलधि अगाध मौलि बह फेनू । संतत धरनि धरत सिर रेनू ॥ दो॰ अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल । मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल ॥ १६७ ॥ जानि नृपहि आपन आधीना । बोला तापस कपट प्रबीना ॥ सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही । जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही ॥ अवसि काज मैं करिहउँ तोरा । मन तन बचन भगत तैं मोरा ॥ जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ । फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ ॥ जौं नरेस मैं करौं रसोई । तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई ॥ अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई । सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई ॥ पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ । तव बस होइ भूप सुनु सोऊ ॥ जाइ उपाय रचहु नृप एहू । संबत भरि संकलप करेहू ॥ दो॰ नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार । मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं&#६५५३३;करिब जेवनार ॥ १६८ ॥ एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें । होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें ॥ करिहहिं बिप्र होम मख सेवा । तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा ॥ और एक तोहि कहऊँ लखाऊ । मैं एहि बेष न आउब काऊ ॥ तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया । हरि आनब मैं करि निज माया ॥ तपबल तेहि करि आपु समाना । रखिहउँ इहाँ बरष परवाना ॥ मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा । सब बिधि तोर सँवारब काजा ॥ गै निसि बहुत सयन अब कीजे । मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे ॥ मैं तपबल तोहि तुरग समेता । पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता ॥ दो॰ मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि । जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि ॥ १६९ ॥ सयन कीन्ह नृप आयसु मानी । आसन जाइ बैठ छलग्यानी ॥ श्रमित भूप निद्रा अति आई । सो किमि सोव सोच अधिकाई ॥ कालकेतु निसिचर तहँ आवा । जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा ॥ परम मित्र तापस नृप केरा । जानइ सो अति कपट घनेरा ॥ तेहि के सत सुत अरु दस भाई । खल अति अजय देव दुखदाई ॥ प्रथमहि भूप समर सब मारे । बिप्र संत सुर देखि दुखारे ॥ तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा । तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा ॥ जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ । भावी बस न जान कछु राऊ ॥ दो॰ रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु । अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु ॥