बालकाण्ड ६
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देखि रूप मुनि बिरति बिसारी । बड़ी बार लगि रहे निहारी ॥ लच्छन तासु बिलोकि भुलाने । हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने ॥ जो एहि बरइ अमर सोइ होई । समरभूमि तेहि जीत न कोई ॥ सेवहिं सकल चराचर ताही । बरइ सीलनिधि कन्या जाही ॥ लच्छन सब बिचारि उर राखे । कछुक बनाइ भूप सन भाषे ॥ सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं । नारद चले सोच मन माहीं ॥ करौं जाइ सोइ जतन बिचारी । जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी ॥ जप तप कछु न होइ तेहि काला । हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला ॥ दो॰ एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल । जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥१३१॥ हरि सन मागौं सुंदरताई । होइहि जात गहरु अति भाई ॥ मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ । एहि अवसर सहाय सोइ होऊ ॥ बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला । प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला ॥ प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने । होइहि काजु हिएँ हरषाने ॥ अति आरति कहि कथा सुनाई । करहु कृपा करि होहु सहाई ॥ आपन रूप देहु प्रभु मोही । आन भाँति नहिं पावौं ओही ॥ जेहि बिधि होइ नाथ हित मोरा । करहु सो बेगि दास मैं तोरा ॥ निज माया बल देखि बिसाला । हियँ हँसि बोले दीनदयाला ॥ दो॰ जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार । सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार ॥१३२॥ कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी । बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी ॥ एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ । कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ ॥ माया बिबस भए मुनि मूढ़ा । समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा ॥ गवने तुरत तहाँ रिषिराई । जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई ॥ निज निज आसन बैठे राजा । बहु बनाव करि सहित समाजा ॥ मुनि मन हरष रूप अति मोरें । मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें ॥ मुनि हित कारन कृपानिधाना । दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना ॥ सो चरित्र लखि काहुँ न पावा । नारद जानि सबहिं सिर नावा ॥ दो॰ रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ । बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ ॥१३३॥ जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई । हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई ॥ तहँ बैठ महेस गन दोऊ । बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ ॥ करहिं कूटि नारदहि सुनाई । नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई ॥ रीझहि राजकुअँरि छबि देखी । इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी ॥ मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ । हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ ॥ जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी । समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी ॥ काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा । सो सरूप नृपकन्याँ देखा ॥ मर्कट बदन भयंकर देही । देखत हृदयँ क्रोध भा तेही ॥ दो॰ सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल । देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल ॥१३४॥ जेहि दिसि बैठे नारद फूली । सो दिसि देहि न बिलोकी भूली ॥ पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं । देखि दसा हर गन मुसकाहीं ॥ धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला । कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला ॥ दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा । नृपसमाज सब भयउ निरासा ॥ मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी । मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी ॥ तब हर गन बोले मुसुकाई । निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई ॥ अस कहि दोउ भागे भयँ भारी । बदन दीख मुनि बारि निहारी ॥ बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा । तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा ॥ दो॰ होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ । हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ ॥१३५॥ पुनि जल दीख रूप निज पावा । तदपि हृदयँ संतोष न आवा ॥ फरकत अधर कोप मन माहीं । सपदी चले कमलापति पाहीं ॥ देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई । जगत मोर उपहास कराई ॥ बीचहिं पंथ मिले दनुजारी । संग रमा सोइ राजकुमारी ॥ बोले मधुर बचन सुरसाईं । मुनि कहँ चले बिकल की नाईं ॥ सुनत बचन उपजा अति क्रोधा । माया बस न रहा मन बोधा ॥ पर संपदा सकहु नहिं देखी । तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी ॥ मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु । सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु ॥ दो॰ असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु । स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु ॥१३६॥ परम स्वतंत्र न सिर पर कोई । भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई ॥ भलेहि मंद मंदेहि भल करहू । बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू ॥ डहकि डहकि परिचेहु सब काहू । अति असंक मन सदा उछाहू ॥ करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा । अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा ॥ भले भवन अब बायन दीन्हा । पावहुगे फल आपन कीन्हा ॥ बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा । सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा ॥ कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी । करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी ॥ मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी । नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी ॥ दो॰ श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि । निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि ॥१३७॥ जब हरि माया दूरि निवारी । नहिं तहँ रमा न राजकुमारी ॥ तब मुनि अति सभीत हरि चरना । गहे पाहि प्रनतारति हरना ॥ मृषा होउ मम श्राप कृपाला । मम इच्छा कह दीनदयाला ॥ मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे । कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे ॥ जपहु जाइ संकर सत नामा । होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा ॥ कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें । असि परतीति तजहु जनि भोरें ॥ जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी । सो न पाव मुनि भगति हमारी ॥ अस उर धरि महि बिचरहु जाई । अब न तुम्हहि माया निअराई ॥ दो॰ बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान ॥ सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान ॥१३८॥ हर गन मुनिहि जात पथ देखी । बिगतमोह मन हरष बिसेषी ॥ अति सभीत नारद पहिं आए । गहि पद आरत बचन सुनाए ॥ हर गन हम न बिप्र मुनिराया । बड़ अपराध कीन्ह फल पाया ॥ श्राप अनुग्रह करहु कृपाला । बोले नारद दीनदयाला ॥ निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ । बैभव बिपुल तेज बल होऊ ॥ भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ । धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ । समर मरन हरि हाथ तुम्हारा । होइहहु मुकुत न पुनि संसारा ॥ चले जुगल मुनि पद सिर नाई । भए निसाचर कालहि पाई ॥ दो॰ एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार । सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार ॥१३९॥ एहि बिधि जनम करम हरि केरे । सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे ॥ कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं । चारु चरित नानाबिधि करहीं ॥ तब तब कथा मुनीसन्ह गाई । परम पुनीत प्रबंध बनाई ॥ बिबिध प्रसंग अनूप बखाने । करहिं न सुनि आचरजु सयाने ॥ हरि अनंत हरिकथा अनंता । कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता ॥ रामचंद्र के चरित सुहाए । कलप कोटि लगि जाहिं न गाए ॥ यह प्रसंग मैं कहा भवानी । हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी ॥ प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी ॥ सेवत सुलभ सकल दुख हारी ॥ सो॰ सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल ॥ अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि ॥