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बालकाण्ड ५

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फलकम्:Ramayana

१२०(क) ॥
नवान्हपारायन,पहला विश्राम मासपारायण, चौथा विश्राम सो॰ सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल ।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड ॥
१२०(ख) ॥
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब ।
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ ॥
१२०(ग) ॥
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित ।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु ॥
१२०(घ ॥
सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए ।
बिपुल बिसद निगमागम गाए ॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई ।
इदमित्थं कहि जाइ न सोई ॥
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी ।
मत हमार अस सुनहि सयानी ॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना ।
जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना ॥
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही ।
समुझि परइ जस कारन मोही ॥
जब जब होइ धरम कै हानी ।
बाढहिं असुर अधम अभिमानी ॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी ।
सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी ॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा ।
हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा ॥
दो॰ असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु ।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु ॥
१२१ ॥
सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं ।
कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं ॥
राम जनम के हेतु अनेका ।
परम बिचित्र एक तें एका ॥
जनम एक दुइ कहउँ बखानी ।
सावधान सुनु सुमति भवानी ॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ ।
जय अरु बिजय जान सब कोऊ ॥
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई ।
तामस असुर देह तिन्ह पाई ॥
कनककसिपु अरु हाटक लोचन ।
जगत बिदित सुरपति मद मोचन ॥
बिजई समर बीर बिख्याता ।
धरि बराह बपु एक निपाता ॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा ।
जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा ॥
दो॰ भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान ।
कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान ॥
१२२  ।
मुकुत न भए हते भगवाना ।
तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना ॥
एक बार तिन्ह के हित लागी ।
धरेउ सरीर भगत अनुरागी ॥
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता ।
दसरथ कौसल्या बिख्याता ॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा ।
चरित्र पवित्र किए संसारा ॥
एक कलप सुर देखि दुखारे ।
समर जलंधर सन सब हारे ॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा ।
दनुज महाबल मरइ न मारा ॥
परम सती असुराधिप नारी ।
तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी ॥
दो॰ छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह ॥
जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह ॥
१२३ ॥
तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना ।
कौतुकनिधि कृपाल भगवाना ॥
तहाँ जलंधर रावन भयऊ ।
रन हति राम परम पद दयऊ ॥
एक जनम कर कारन एहा ।
जेहि लागि राम धरी नरदेहा ॥
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी ।
सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी ॥
नारद श्राप दीन्ह एक बारा ।
कलप एक तेहि लगि अवतारा ॥
गिरिजा चकित भई सुनि बानी ।
नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि ॥
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा ।
का अपराध रमापति कीन्हा ॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी ।
मुनि मन मोह आचरज भारी ॥
दो॰ बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ ॥
१२४(क) ॥
सो॰ कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु ।
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद ॥
१२४(ख) ॥
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि ।
बह समीप सुरसरी सुहावनि ॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा ।
देखि देवरिषि मन अति भावा ॥
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा ।
भयउ रमापति पद अनुरागा ॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी ।
सहज बिमल मन लागि समाधी ॥
मुनि गति देखि सुरेस डेराना ।
कामहि बोलि कीन्ह समाना ॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू ।
चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू ॥
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा ।
चहत देवरिषि मम पुर बासा ॥
जे कामी लोलुप जग माहीं ।
कुटिल काक इव सबहि डेराहीं ॥
दो॰ सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज ।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज ॥
१२५ ॥
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ ।
निज मायाँ बसंत निरमयऊ ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा ।
कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा ॥
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी ।
काम कृसानु बढ़ावनिहारी ॥
रंभादिक सुरनारि नबीना ।
सकल असमसर कला प्रबीना ॥
करहिं गान बहु तान तरंगा ।
बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा ॥
देखि सहाय मदन हरषाना ।
कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना ॥
काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी ।
निज भयँ डरेउ मनोभव पापी ॥
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु ।
बड़ रखवार रमापति जासू ॥
दो॰ सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन ।
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन ॥
१२६ ॥
भयउ न नारद मन कछु रोषा ।
कहि प्रिय बचन काम परितोषा ॥
नाइ चरन सिरु आयसु पाई ।
गयउ मदन तब सहित सहाई ॥
मुनि सुसीलता आपनि करनी ।
सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी ॥
सुनि सब कें मन अचरजु आवा ।
मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा ॥
तब नारद गवने सिव पाहीं ।
जिता काम अहमिति मन माहीं ॥
मार चरित संकरहिं सुनाए ।
अतिप्रिय जानि महेस सिखाए ॥
बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं ।
जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं ॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ ।
चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ ॥
दो॰ संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान ।
भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान ॥
१२७ ॥
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई ।
करै अन्यथा अस नहिं कोई ॥
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए ।
तब बिरंचि के लोक सिधाए ॥
एक बार करतल बर बीना ।
गावत हरि गुन गान प्रबीना ॥
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा ।
जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा ॥
हरषि मिले उठि रमानिकेता ।
बैठे आसन रिषिहि समेता ॥
बोले बिहसि चराचर राया ।
बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया ॥
काम चरित नारद सब भाषे ।
जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे ॥
अति प्रचंड रघुपति कै माया ।
जेहि न मोह अस को जग जाया ॥
दो॰ रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान ॥
१२८ ॥
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें ।
ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके ॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा ।
तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा ॥
नारद कहेउ सहित अभिमाना ।
कृपा तुम्हारि सकल भगवाना ॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी ।
उर अंकुरेउ गरब तरु भारी ॥
बेगि सो मै डारिहउँ उखारी ।
पन हमार सेवक हितकारी ॥
मुनि कर हित मम कौतुक होई ।
अवसि उपाय करबि मै सोई ॥
तब नारद हरि पद सिर नाई ।
चले हृदयँ अहमिति अधिकाई ॥
श्रीपति निज माया तब प्रेरी ।
सुनहु कठिन करनी तेहि केरी ॥
दो॰ बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार ।
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार ॥
१२९ ॥
बसहिं नगर सुंदर नर नारी ।
जनु बहु मनसिज रति तनुधारी ॥
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा ।
अगनित हय गय सेन समाजा ॥
सत सुरेस सम बिभव बिलासा ।
रूप तेज बल नीति निवासा ॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी ।
श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी ॥
सोइ हरिमाया सब गुन खानी ।
सोभा तासु कि जाइ बखानी ॥
करइ स्वयंबर सो नृपबाला ।
आए तहँ अगनित महिपाला ॥
मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ ।
पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ ॥
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए ।
करि पूजा नृप मुनि बैठाए ॥
दो॰ आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि ।
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि ॥
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