बालकाण्ड ४

विकिस्रोतः तः

फलकम्:Ramayana

११० ॥
पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी ।
जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी ॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा ।
पुनि सब बरनहु सहित बिभागा ॥
औरउ राम रहस्य अनेका ।
कहहु नाथ अति बिमल बिबेका ॥
जो प्रभु मैं पूछा नहि होई ।
सोउ दयाल राखहु जनि गोई ॥
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना ।
आन जीव पाँवर का जाना ॥
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई ।
छल बिहीन सुनि सिव मन भाई ॥
हर हियँ रामचरित सब आए ।
प्रेम पुलक लोचन जल छाए ॥
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा ।
परमानंद अमित सुख पावा ॥
दो॰ मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह ।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह ॥
१११ ॥
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें ।
जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें ॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई ।
जागें जथा सपन भ्रम जाई ॥
बंदउँ बालरूप सोई रामू ।
सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू ॥
मंगल भवन अमंगल हारी ।
द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी ॥
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी ।
हरषि सुधा सम गिरा उचारी ॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी ।
तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी ॥
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा ।
सकल लोक जग पावनि गंगा ॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी ।
कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी ॥
दो॰ रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं ।
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं ॥
११२ ॥
तदपि असंका कीन्हिहु सोई ।
कहत सुनत सब कर हित होई ॥
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना ।
श्रवन रंध्र अहिभवन समाना ॥
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा ।
लोचन मोरपंख कर लेखा ॥
ते सिर कटु तुंबरि समतूला ।
जे न नमत हरि गुर पद मूला ॥
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी ।
जीवत सव समान तेइ प्रानी ॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना ।
जीह सो दादुर जीह समाना ॥
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती ।
सुनि हरिचरित न जो हरषाती ॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला ।
सुर हित दनुज बिमोहनसीला ॥
दो॰ रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि ।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि ॥
११३ ॥
रामकथा सुंदर कर तारी ।
संसय बिहग उडावनिहारी ॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी ।
सादर सुनु गिरिराजकुमारी ॥
राम नाम गुन चरित सुहाए ।
जनम करम अगनित श्रुति गाए ॥
जथा अनंत राम भगवाना ।
तथा कथा कीरति गुन नाना ॥
तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी ।
कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी ॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई ।
सुखद संतसंमत मोहि भाई ॥
एक बात नहि मोहि सोहानी ।
जदपि मोह बस कहेहु भवानी ॥
तुम जो कहा राम कोउ आना ।
जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना ॥
दो॰ कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच ।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच ॥
११४ ॥
अग्य अकोबिद अंध अभागी ।
काई बिषय मुकर मन लागी ॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी ।
सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी ॥
कहहिं ते बेद असंमत बानी ।
जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी ॥
मुकर मलिन अरु नयन बिहीना ।
राम रूप देखहिं किमि दीना ॥
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका ।
जल्पहिं कल्पित बचन अनेका ॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं ।
तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं ॥
बातुल भूत बिबस मतवारे ।
ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे ॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना ।
तिन कर कहा करिअ नहिं काना ॥
सो॰ अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद ।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम ॥
११५ ॥
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा ।
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ॥
अगुन अरुप अलख अज जोई ।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई ॥
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें ।
जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें ॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा ।
तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा ॥
राम सच्चिदानंद दिनेसा ।
नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा ॥
सहज प्रकासरुप भगवाना ।
नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना ॥
हरष बिषाद ग्यान अग्याना ।
जीव धर्म अहमिति अभिमाना ॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना ।
परमानन्द परेस पुराना ॥
दो॰ पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ ॥
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ ॥
११६ ॥
निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी ।
प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी ॥
जथा गगन घन पटल निहारी ।
झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी ॥
चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ ।
प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ ॥
उमा राम बिषइक अस मोहा ।
नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा ॥
बिषय करन सुर जीव समेता ।
सकल एक तें एक सचेता ॥
सब कर परम प्रकासक जोई ।
राम अनादि अवधपति सोई ॥
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू ।
मायाधीस ग्यान गुन धामू ॥
जासु सत्यता तें जड माया ।
भास सत्य इव मोह सहाया ॥
दो॰ रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि ।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि ॥
११७ ॥
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई ।
जदपि असत्य देत दुख अहई ॥
जौं सपनें सिर काटै कोई ।
बिनु जागें न दूरि दुख होई ॥
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई ।
गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई ॥
आदि अंत कोउ जासु न पावा ।
मति अनुमानि निगम अस गावा ॥
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना ।
कर बिनु करम करइ बिधि नाना ॥
आनन रहित सकल रस भोगी ।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा ।
ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी ।
महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ॥
दो॰ जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान ॥
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान ॥
११८ ॥
कासीं मरत जंतु अवलोकी ।
जासु नाम बल करउँ बिसोकी ॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी ।
रघुबर सब उर अंतरजामी ॥
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं ।
जनम अनेक रचित अघ दहहीं ॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं ।
भव बारिधि गोपद इव तरहीं ॥
राम सो परमातमा भवानी ।
तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी ॥
अस संसय आनत उर माहीं ।
ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं ॥
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना ।
मिटि गै सब कुतरक कै रचना ॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती ।
दारुन असंभावना बीती ॥
दो॰ पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि ।
बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि ॥
११९ ॥
ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी ।
मिटा मोह सरदातप भारी ॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ ।
राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ ॥
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा ।
सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा ॥
अब मोहि आपनि किंकरि जानी ।
जदपि सहज जड नारि अयानी ॥
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू ।
जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू ॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी ।
सर्ब रहित सब उर पुर बासी ॥
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू ।
मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू ॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता ।
रामकथा पर प्रीति पुनीता ॥
दो॰ हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान ॥
"https://sa.wikisource.org/w/index.php?title=बालकाण्ड_४&oldid=1098" इत्यस्माद् प्रतिप्राप्तम्