बालकाण्ड ११
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१८० ॥ कामरूप जानहिं सब माया । सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया ॥ दसमुख बैठ सभाँ एक बारा । देखि अमित आपन परिवारा ॥ सुत समूह जन परिजन नाती । गे को पार निसाचर जाती ॥ सेन बिलोकि सहज अभिमानी । बोला बचन क्रोध मद सानी ॥ सुनहु सकल रजनीचर जूथा । हमरे बैरी बिबुध बरूथा ॥ ते सनमुख नहिं करही लराई । देखि सबल रिपु जाहिं पराई ॥ तेन्ह कर मरन एक बिधि होई । कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई ॥ द्विजभोजन मख होम सराधा ॥ सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा ॥ दो॰ छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ । तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ ॥ १८१ ॥ मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा । दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा ॥ जे सुर समर धीर बलवाना । जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना ॥ तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी । उठि सुत पितु अनुसासन काँधी ॥ एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही । आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही ॥ चलत दसानन डोलति अवनी । गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी ॥ रावन आवत सुनेउ सकोहा । देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा ॥ दिगपालन्ह के लोक सुहाए । सूने सकल दसानन पाए ॥ पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी । देइ देवतन्ह गारि पचारी ॥ रन मद मत्त फिरइ जग धावा । प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा ॥ रबि ससि पवन बरुन धनधारी । अगिनि काल जम सब अधिकारी ॥ किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा । हठि सबही के पंथहिं लागा ॥ ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी । दसमुख बसबर्ती नर नारी ॥ आयसु करहिं सकल भयभीता । नवहिं आइ नित चरन बिनीता ॥ दो॰ भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र । मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र ॥ १८२(ख) ॥ देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि । जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि ॥ १८२ख ॥ इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ । सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ ॥ प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा । तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा ॥ देखत भीमरूप सब पापी । निसिचर निकर देव परितापी ॥ करहि उपद्रव असुर निकाया । नाना रूप धरहिं करि माया ॥ जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला । सो सब करहिं बेद प्रतिकूला ॥ जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं । नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं ॥ सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई । देव बिप्र गुरू मान न कोई ॥ नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना । सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना ॥ छं॰ जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा । आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा ॥ अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना । तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना ॥ सो॰ बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं । हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति ॥ १८३ ॥ मासपारायण, छठा विश्राम बाढ़े खल बहु चोर जुआरा । जे लंपट परधन परदारा ॥ मानहिं मातु पिता नहिं देवा । साधुन्ह सन करवावहिं सेवा ॥ जिन्ह के यह आचरन भवानी । ते जानेहु निसिचर सब प्रानी ॥ अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी । परम सभीत धरा अकुलानी ॥ गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही । जस मोहि गरुअ एक परद्रोही ॥ सकल धर्म देखइ बिपरीता । कहि न सकइ रावन भय भीता ॥ धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी । गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी ॥ निज संताप सुनाएसि रोई । काहू तें कछु काज न होई ॥ छं॰ सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका । सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका ॥ ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई । जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई ॥ सो॰ धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु । जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति ॥ १८४ ॥ बैठे सुर सब करहिं बिचारा । कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा ॥ पुर बैकुंठ जान कह कोई । कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई ॥ जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति । प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती ॥ तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ । अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ ॥ हरि ब्यापक सर्बत्र समाना । प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ॥ देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं । कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ॥ अग जगमय सब रहित बिरागी । प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी ॥ मोर बचन सब के मन माना । साधु साधु करि ब्रह्म बखाना ॥ दो॰ सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर । अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर ॥ १८५ ॥ छं॰ जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता । गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता ॥ पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई । जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई ॥ जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा । अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा ॥ जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा । निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा ॥ जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा । सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा ॥ जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा । मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा ॥ सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना । जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना ॥ भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा । मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा ॥ दो॰ जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह । गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह ॥ १८६ ॥ जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा । तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा ॥ अंसन्ह सहित मनुज अवतारा । लेहउँ दिनकर बंस उदारा ॥ कस्यप अदिति महातप कीन्हा । तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा ॥ ते दसरथ कौसल्या रूपा । कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा ॥ तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई । रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई ॥ नारद बचन सत्य सब करिहउँ । परम सक्ति समेत अवतरिहउँ ॥ हरिहउँ सकल भूमि गरुआई । निर्भय होहु देव समुदाई ॥ गगन ब्रह्मबानी सुनी काना । तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना ॥ तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा । अभय भई भरोस जियँ आवा ॥ दो॰ निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ । बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ ॥ १८७ ॥ गए देव सब निज निज धामा । भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा । जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा । हरषे देव बिलंब न कीन्हा ॥ बनचर देह धरि छिति माहीं । अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं ॥ गिरि तरु नख आयुध सब बीरा । हरि मारग चितवहिं मतिधीरा ॥ गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी । रहे निज निज अनीक रचि रूरी ॥ यह सब रुचिर चरित मैं भाषा । अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा ॥ अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ । बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ ॥ धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी । हृदयँ भगति मति सारँगपानी ॥ दो॰ कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत । पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत ॥ १८८ ॥ एक बार भूपति मन माहीं । भै गलानि मोरें सुत नाहीं ॥ गुर गृह गयउ तुरत महिपाला । चरन लागि करि बिनय बिसाला ॥ निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ । कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ ॥ धरहु धीर होइहहिं सुत चारी । त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी ॥ सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा । पुत्रकाम सुभ जग्य करावा ॥ भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें । प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें ॥ जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा । सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा ॥ यह हबि बाँटि देहु नृप जाई । जथा जोग जेहि भाग बनाई ॥ दो॰ तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ ॥ परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ ॥ १८९ ॥ तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं । कौसल्यादि तहाँ चलि आई ॥ अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा । उभय भाग आधे कर कीन्हा ॥ कैकेई कहँ नृप सो दयऊ । रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ ॥ कौसल्या कैकेई हाथ धरि । दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि ॥ एहि बिधि गर्भसहित सब नारी । भईं हृदयँ हरषित सुख भारी ॥ जा दिन तें हरि गर्भहिं आए । सकल लोक सुख संपति छाए ॥ मंदिर महँ सब राजहिं रानी । सोभा सील तेज की खानीं ॥ सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ । जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ ॥ दो॰ जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल । चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल ॥