पृष्ठम्:Siddhānta Śiromaṇi, Sanskrit.djvu/२२

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इस शास्त्र के मुख्य तीन विभागों का परिचय नारद ऋषि के वचन से उपलब्ध
होता है । उनका वचन -
“सिद्धान्तसंहिताहोरारूपस्कन्धत्रयात्मकम् ।
वेदस्य निर्मलं चक्षुर्ज्योतिश्शास्त्रमनुत्तमम् ॥१
इससे सिद्ध होता है कि सिद्धान्त, संहिता व होरा ये तीन मुख्य भाग हैं
प्रस्तुत ग्रन्थ नाम से ही सिद्धान्त ग्रन्थ होना बताता है । अतः चिन्ता होती हैं कि
सिद्धान्त नाम से किस शास्त्र का ज्ञान होता है । इसके उत्तर में निम्न प्रमाण
उपलब्ध होते हैं ।
"सिद्धान्त शब्द गणितपद वाचक है, ऐसा कथन गणेशदैवज्ञ का केशवकृत-
मुहूर्ततत्त्व की टीका में मिलता है।”
तथा' [ वासना वात्तिक में नृसिंहदैवज्ञ ने कहा है कि सङ्ख्या की या गिनने
की विधि जिस शास्त्र में हो वह गणित शास्त्र कहलाता है । वह गणित भी चार
प्रकार का होता है । १ जिसमें स्पष्ट सर्वजन प्रसिद्ध जोड़ने, घटाने, गुनने व भागादि
की विधि १, २, ३ आदि अङ्कों द्वारा हो, वह व्यक्तगणित होता है । २ जिसमें
अभीष्ट सिद्धि के लिये यावत्, तावत्, कालक आदि की सापेक्ष्यबुद्धि से क्रिया होती
है, उसे अव्यक्त गणित कहते हैं । ३ जहाँ पर फलादि संस्कारों द्वारा ग्रहमिति का
ज्ञान होता है वह ग्रहगणित और ४ वेधादि से ग्रहकर्म वासना अर्थात् युक्ति युत कर्मों
की गणना हो वह गोलगणित होता है, क्योंकि वेध गोल के आश्रित होते हैं ।
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इस लिये उक्त चार प्रकार की गणित जिस में हो वह गणित होता है, तथा
वही सिद्धान्त भी कहलाता है। कहा है कि-
व्यक्ताव्यक्तभगोलवासनमयः सिद्धान्त आदि इति ]
व्यक्ताव्यक्तादि की सोपपक्तिक चर्चा जिसमें हो वह सिद्धान्त नाम से प्रसिद्ध
होता है ।
अन्य आचार्यों का कहना है कि जिसमें कल्पादि से ग्रहों का आनयन होता
है, वह सिद्धान्त नाम वाला होता है ।
अथवा जिसमें युग, वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, अहोरात्र, याम, मुहूर्त,
नाड़ी, विनाड़ी, प्राण, त्र्युट्यादिकों का तथा सौर, चान्द्र, सावनादि मासों का विचार
उपलब्ध हो वह सिद्धान्त ग्रन्थ कहलाता है ।
१. मु. चि. १ अ. २ श्लो. पीयू. टी. ।
२. सि०शि० ९ १० ।