पृष्ठम्:Brihat Stotra Ratnakara 1912.djvu/१२०

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बृहत्स्तोत्ररत्नाकरे क्षार्थी कुरु चित्तवृत्तिमखिलामन्यैस्तु किं कर्मभिः ॥ ११॥ किंवाsनेन धनेन वाजिकरिभिः प्राप्तेन राज्येन किं किंवा पुत्रकलन्नमित्रपशुभिर्देहेन गेहेन किम् | ज्ञात्वैतत्क्षण- भंगुरं सपदि रे त्याज्यं मनो दूरतः स्वात्मार्थं गुरुवाक्यतो भज भज श्रीपार्वतीवल्लभम् ॥ १२॥ आयुर्नश्यति पश्य- तां प्रतिदिनं याति क्षयं यौवनं प्रत्यायांति गताः पुनर्न दिवसाः कालो जगद्भक्षकः । लक्ष्मीस्तोयतरंगभंगचपला विद्युच्चलं जीवितं तस्मान्मां शरणागतं शरणद त्वं रक्ष रक्षाधुना ॥ १३ ॥ करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं वाऽपराधम् । विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शंभो ॥ १४ ॥ इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचितं शिवापराधक्ष- मापनस्तोत्रं संपूर्णम् ॥ ४५. रावणकृतशिवतांडवस्तोत्रम् | श्रीगणेशाय नमः ॥ जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि | धगद्धगद्धगज्ज्वल- ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥१॥ धराधरेंद्रनंदिनीविलासबंधुबंधुरस्फुरदिगंत संततिप्र- मोदमानमानसे | कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि क चिच्चिदंबरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥ २ ॥ जटाभुजंग- पिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभाकदंब कुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमु