भाषाटीकासहिता। १७
चाहिये, इस प्रमाणके अनुप्तार अष्टावकमुनि उत्सित वासनाओंका त्याग करते हुए वारंवार अद्वैत भावनाका उपदेश करते हैं कि, मैं अहंकार नहीं हूं, मैं देह नहीं हूं, स्त्रीपुत्रादिक मेरे नहीं हैं, मैं सुखी नहीं हूं, दुःखी नहीं हूं, मूढ नहीं हूं इन बाह्य और अंतरको भावना- ओंका त्याग करके कूटस्थ अर्थात् निर्विकार बोधरूप अद्वैत आत्मस्वरूपका विचार कर ॥१३॥
देहाभिमानपाशेन चिरंबद्दोऽसि पुत्रक।
बोधोऽहं ज्ञानखड्गेन तन्निः कृत्य सुखी भव॥१४॥
अन्वयः-है पुत्रक ! देहाभिमानपाशेन चिरम् बद्धः असि ( अतः ) अहम् बोधः (इति) ज्ञानखड्गेन तम् निःकृत्य सुखी भव ॥ १४ ॥
अनादि कालका यह देहाभिमान एक बार उपदेश करनेसे निवृत्त नहीं होता है इस कारण गुरु उपदेश करते हैं कि, हे शिष्य ! अनादिकालसे इस समयतक देहा- भिमानरूपी फाँसीसे तू दृढ बंधा हुआहै, अनेक जन्मों- मेंभी उस बंधनके काटनेको तू समर्थ नहीं होगा इस कारण, शुद्ध विचार वारंवार करके 'मैं बोधरूप' अखंड परिपूर्ण आत्मरूप हूं, इस ज्ञानरूपी खड्गको हाथमें लेकर उस फाँसीको काटकर सुखी हो ॥१४॥