पृष्ठम्:AshtavakraGitaWithHindiTranslation1911KhemrajPublishers.djvu/२८

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१६ अष्टावक्रगीता।

प्रतीत होता है परंतु वास्तवमें आत्मा संसारी नहीं है, क्योंकि आत्मा तो साक्षी है और अहंकारादि अंत:- करणके धर्मको जाननेवाला है और विभु अर्थात् नाना प्रकारका संसार जिससे उत्पन्न हुआ है, सर्वका अनुष्ठान है, संपूर्ण व्यापक है, एक अर्थात् स्वगतादिक तीन भेदोंसे रहित है, मुक्त अर्थात् मायाका कार्य जो संसार तिसके बंधनसे रहित, चैतन्यरूप, अक्रिय, असंग, निस्पृह अर्थात् विषयकी इच्छासे रहित है और शान्त अर्थात् प्रवृत्तिनिवृत्तिरहित है इस कारण वास्तवमें आत्मा संसारी नहीं है ॥ १२॥

कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय ।

अभासोहंभ्रमंमुक्त्वाभावंबाह्यमथांतरम् १३

अन्वयः-अभासः अहम् (इति) भ्रमम् अथ बाह्यम् अन्त- रम् भावम् मुक्त्वा आत्मानम् कूटस्थम् बोधम् अद्वैतम् परि- भावय ॥ १३ ॥

मैं देहरूप हूं, स्त्री पुत्रादिक मेरे हैं, मैं सुखी हूं, दुःखी हूं यह अनादि कालका अज्ञान एक बार आत्म- ज्ञानके उपदेशसे निवृत्त नहीं हो सकता है। व्यासजी- नेभी कहा है “आवृत्तिरसकृदुपदेशात्" "श्रोतव्य- मंतव्य॰ ॥ इत्यादि श्रुतिके विषयमें वारंवार उपदेश किया है, इस कारण श्रवण मननादि वारंवार करने