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१४ अष्टावक्रगीता।

और ज्ञानसे उसका नाश हो जाता है परंतु सुख किस प्रकार प्राप्त होता है ? तब गुरु समाधान करते हैं कि हे शिष्य ! जब दुःखरूपी संसारके नाश होनेपर आत्मा स्वभावसेही आनंदस्वरूप हो जाता है, मनुष्यलोकसे तथा देवलोकसे आत्माका आनंद परम उत्कृष्ट और और अत्यंत अधिक है श्रुतिमेंभी कहा है, "एतस्यै- वानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रमुपजीवन्ति " इति॥१०॥

मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि

किंवदंतीहसत्येयं या मतिःसा गतिर्भवेत्११

अन्वयः-इह मुक्ताभिमानी मुक्तः अपि बद्धाभिमानी बद्धः हि या मतिः सा गतिः भवेत् इयम् किंवन्दती सत्या ॥ ११ ॥

शिष्य शंका करता है कि, यदि संपूर्ण संसार रज्जुके विषयमें सर्पकी समान कल्पित है, वास्तवमें आत्मा परमानंदस्वरूप है तो बंध मोक्ष किस प्रकार होता है ? तहां गुरु समाधान करते हैं कि, हे शिष्य ! जिस पुरु- षको गुरुकी कृपासे यह निश्चय हो जाता है कि, मैं मुक्तरूप हूं वही मुक्त है और जिसके ऊपर सद्गुरुकी कृपा नहीं होती है और वह यह जानता है कि, मैं अल्पज्ञ जीव और संसारबंधनमें बंधा हुआ हूं वही बद्ध है, क्योंकि बन्ध और मोक्ष अभिमानसेही उत्पन्न होते है अर्थात् मरणसमयमें जैसा अभिमान होता है वैसीही