८ अष्टावक्रगीता।
षटशास्त्रकार अपनी २ बुद्धिके अनुसार मुक्तिके स्वरू- पकी कल्पना करते हैं। न्यायशास्त्रवाले इस प्रकार कहते हैं कि, दुःखमात्रका जो अत्यंत नाश है वही मुक्ति है और बलवान् प्रभाकरमतावलंबी मीमांसकोंका यह कथन है कि, समस्त दुःखोंका उत्पन्न होनेसे पहिले जो सुख है वही मुक्ति है, बौधमतवालोंका यह कथन है कि, देहका नाश होनाही मुक्ति है, इस प्रकार भिन्न २ कल्पना करते हैं, परंतु यथार्थ बोध नहीं होता है, किंतु वेदांतशास्त्रके अनुसार आत्मज्ञानही मुक्ति है इस कारण अष्टावक्रमुनि शिष्यको उपदेश करते हैं।॥३॥
यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि ।
अधुनैव सुखी शान्तो बंधमुक्तो भविष्यसि ४
अन्वयः-(हे शिष्य ! ) यदि देहम् पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य . तिष्ठसि ( तहि ) अधुना एंव सुखी शान्तः बन्धमुक्तः भविष्यसि ॥ ४ ॥
हे शिष्य ! यदि तू देह तथा आत्माका विवेक करके अलग जानेगाऔर आत्माके विषयमें विश्राम करके चितको एकाग्र करेगा तो तू इस वर्तमानही मनुष्यदेहके विषयमें सुख तथा शान्तिको प्राप्त होगा अर्थात् बंधमुक्त कहिये कर्तृत्व ( कर्तापना) भोक्तृत्व ( भोक्तापना) आदि अनेक अनर्थोंसे छूट जावेगा॥४