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४ अष्टावक्रगीता।


चतुष्टयका उपदेश करना योग्य है और साधनचतुष्टयके अनंतरही ब्रह्मज्ञानके विषयकी इच्छा करनी चाहिये, इस प्रकार विचार कर अष्टावक्राजी बोले कि-हे तात ! हे शिष्य ! संपूर्ण अनर्थोकी निवृत्ति और परमानंद- मुक्तिकी इच्छा जब होवे तब शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन पांचों विषयोंको त्याग देवे । ये पांच विषय कर्ण, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका इन पांच ज्ञानें- द्रियोंके हैं, ये संपूर्ण जीवके बंधन हैं, इनसे बंधा हुआ जीव उत्पन्न होता है और मरता है तब बडा दुःखी होता है, जिस प्रकार विष भक्षण करनेवाले पुरुषको दुःख होता है, उसी प्रकार शब्दादिविषयभोग करने वाला पुरुष दुःखी होता है। अर्थात् शब्दादि विषय महा अनर्थका मूल है उन विषयोंको तू त्याग दे। अभि- प्राय यह है कि, देह आदिके विषयमें मैं हूं, मेरा है इत्यादि अध्यास मत कर इस प्रकार बाह्य इंद्रियोंको दमन कर- नेका उपदेश किया. जो पुरुष इस प्रकार करता है उसको 'दम' नामवाले प्रथम साधनकी प्राप्ति होती है और जो अंतःकरणको वशमें कर लेता है उसको 'शम' नामवाली दूसरी साधनसंपत्तिकी प्राप्ति होती है। जिसका मन अपने वशमें हो जाता है उसका एक ब्रह्माकार मन हो जाता है, उसका नाम वेदांतशास्त्रमें