पृष्ठम्:AshtavakraGitaSanskritHindi.djvu/१८

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भावार्थ ।
हे राजन् ! जब तू देह से आत्मा को पृथक् विचार
करके और अपने आत्मा में चित्त को स्थिर करके स्थिर
हो जायगा, तब तू सुख और शान्ति को प्राप्त होवेगा । जब
तक चिद्जड़ग्रन्थि का नाश नहीं होता है अर्थात् परस्पर के
अध्यास का नाश नहीं होता है, तब तक ही जीव बंधन में
है । जिस काल में अध्यास का नाश हो जाता है उसी काल
में जीव मुक्त होता है। शिवगीता में भी इसी वार्ता को
कहा है-
मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति न ग्रामन्तरमेव वा ।
अज्ञानहृदयग्रन्थि नाशो मोक्ष इति स्मृतः ॥१॥
मोक्ष का किसी लोकांतर में निवास नहीं है, और न
किसी गृह या ग्राम के भीतर मोक्ष का निवास है, किंतु
चिद्जड़ग्रन्थि का नाश ही मोक्ष है । अर्थात् जड़ चेतन का
जो परस्पर अध्यास है, उस अध्यास करके जो जड़ अंतःकरण
के कर्तृत्व भोक्तृत्वादिक धर्म हैं, वे आत्मा में प्रतीत होते हैं
एवं आत्मा के जो चेतनता आदिक धर्म हैं, वे भी अग्नि में
तपाए हुए लोहपिंड की तरह अंतःकरण में प्रतीत होने लगते
हैं। याने जब लोहे का पिंड अग्नि में तपाया हुआ लाल
हो जाता है और हाथ लगाने से वह हाथ को जला देता है,
तब लोग ऐसा कहते हैं-देखो, यह अग्नि कैसा गोलाकार
है, लोहा कैसा जलता है। परंतु जलना धर्म लोहे का नहीं
है और गोलाकार धर्म अग्नि का नहीं है, किंतु परस्पर दोनों
का तादात्म्य-अध्यास होने से अग्नि का जलाना रूप धर्म
लोहे में आ जाता है और लोहे का गोलाकार धर्म अग्नि में