पृष्ठम्:AshtavakraGitaSanskritHindi.djvu/१७

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

करनेवाला आत्मा है, वह शरीर इन्द्रियादिकों से भिन्न है
और उनका साक्षी है।
श्रुति कहती है-
अयमात्मा ब्रह्म।
जो यह प्रत्यक्ष तुम्हारा आत्मा है यही ब्रह्म है, यही
ईश्वर है।
अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! पृथिवी आदिक
पाँच भूत और उनका कार्य स्थूल शरीर, तथा इन्द्रिय और
उनके विषय शब्दादिक, इन सबसे तु न्यारा है, और सबका
तू साक्षी है, ऐसे निश्चय का नाम ही आत्म-ज्ञान है ।। ३ ।।
आत्मज्ञान के स्वरूप को अष्टावक्रजी जनकजी के प्रति
कहकर अब मुक्ति के स्वरूप तथा उपाय को कहते हैं।
मूलम् ।
यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि ।
अधुनैव सुखी शान्तः बन्धमुक्तो भविष्यसि ॥४॥
पदच्छेदः ।
यदि, देहम्, पृथक्कृत्य, चिति, विश्राम्य, तिष्ठसि,
अधुना, एव, सुखी, शान्तः, बन्धमुक्तः, भविष्यसि ।।
अन्वयः।
शब्दार्थ। | अन्वयः ।
शब्दार्थ ।
यदि-अगर
तिष्ठसि स्थित है, तो
+ त्वम्-तू
अधुना एव अभी
देहम्-देह को
+त्वम्-तू
पृथक्कृत्य-अलग करके
सुखी-सुखी
+च और
चिति चैतन्य आत्मा में
शान्तः शान्त होता हुआ
विश्राम्य
विश्राम करके अर्थात् बन्धमुक्तः बन्ध से मुक्त
न्य चित्त को एकाग्र करके | भविष्यसि हो जावेगा ।।
+च
और