पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/९९

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प्रकरणं १ श्लो० 49

श्रपने कार्य का अध्यास सिद्धि करने में स्वत: ही अर्थात् श्रज्ञानान्तर की अपेक्षा के विना श्रापही समर्थ है। भाव यह है जैसे प्रभाकरों के मनमें ज्ञान के स्वपर प्रकाशन में कोई दोप नहीं माना है और जैसे नैयायिकों के मतंमें भेद के स्व और परों के भेद् व्यवहार में कोई दोष नहीं माना है, वैसे ही वेदान्त में भी श्रज्ञान स्व की श्रौर परकी अध्यास रूपता में आपही कारण है इसमें भी कोई दोष नहीं है और सदुत्तर तो यह है कि जिसकी ज्ञान से निवृत्ति अनुभव में श्रा जावे उसके अध्यास होने में शंका ही क्या है ?

( सा माया ) स्व और स्वकाय के अध्यासरूपता का साधक जो अज्ञान या माया है वह माया (विभ्रमेण ) भ्रमरूप निज विलास से ( संमोहम्) जीवत्वादिक महा भ्रांति को (जनयति ) उत्पन्न करती है । (संभाव्येतर घटना पटीयसी) वह प्रसंभावित अर्थ की घटना करने में अर्थान् संभावना करन म चतुर ह श्रथात् श्रात समथ ह । माया का अध्यास रूप कहना विरुद्ध नहीं है, क्योंकि या यानी प्राप्त. हुई भी जो मा अर्थान् न हो सो माया कही जाती है अर्थात् मिथ्या का नाम ही माया है। वह अघटित घटना पटीयसी है ।॥४८॥

अब अध्यास का लक्षण और अध्यास के भेद बताते हैं

अध्यासोऽनधिगतवस्तुनि ह्यतस्मिस्तटुबुद्धिःस्फुट

मनुभूयते प्रतीचि । अज्ञोऽहं गलित बला नरो

जीवेयुर्मम तनयाः कथं बतेति ।४६ ।।

स्पष्ट न प्राप्त हुई वस्तु में जा श्राराप बुद्ध हैं वह अध्यास . है। इसका .प्रत्यगात्मा में स्पष्ट अनुभव होता है