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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/७३

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प्रकरणं १ श्लो० ३


रुधिरमयम्) चर्म, हाड़, नाड़ी, मांस, प्रांतें, मज्जा और रुधिर इन सात धातुश्रों की बाहुल्यता वाला श्रतएव ( अतिस्वल्पम्) श्रति तुच्छ (श्राध्यामयाढयम्) मन के और शरीरके दु:खों के सहित श्रर्थात् कामादि भग जन्य. अन्तर मानसी पीड़ा वाला और ज्वर रेचन आदिक शारीरिक दु:खों वाला (प्राणापाये) तथा प्राण के वियोग होने पर अर्थात् मरण होने पर (मृदादि प्रतिमम्)मृत्तिका पिंड श्रादिकों के समान ( अपिच ) तथा (विट् कीट भस्मा वशेषम्) मृत्युके अनन्तर भक्षण, बहुकाल स्थिति तथा दाहइनसे मल, कृमि तथा भस्म रूप से अवशिष्यमाण जो यह शरीर है. (मूढ़) हे मूर्ख (तम्) ऐसे नीच और निंदित (देहम्) शरीर क्रो ( कस्मात्) किस कारण से (त्वम् ) तू ( अहं इति मनुषे ) अपना आत्मा मानता है, इसमें ग्लानि क्यों नहीं करता ? और तू (केन वंवितोसि) किस पापात्मा ठग द्वारा ठगा गया है।॥३२॥
अब इन्द्रियात्मत्व का खंडन करते हैं
खानामात्मत्ववादे प्रति नियत गतो स्वामि
दोषा देहान्माथ प्रसंगः समुदित
विषये त्वन्धमूकामियेरन् ! उक्तिदृष्ट श्रुतानाम
पिचव न घटते नापि संघो निरुप्यः स्वप्न दृष्टव
न स्याच्छयन मरणयोर्निविशेषाद्भयं स्यात् ॥३३
इन्द्रियां श्रात्मा है ऐसा मानने में इन्द्रियां सब दिशाश्रों में विषय ग्रहण के हेतु प्रवृत्त होगी और देह का ५ स्वा. सि.