( घ ) यथामति इस स्वाराज्यसिद्धि नामक अपूर्व वेदांत ग्रंथ का िकंचित अर्थ मैंने सज्जन पुरुषों प्रति समर्पण किया है। आशा है कि सज्जन महात्मा विद्वान् इस टूटी फूटी िहन्दी भाषा टोकाको तथा विपरीत अर्थ को कृपया सुधार लेंगे, क्योंकि महात्मा जन दूषण को भी भूषण बना देते हैं। मुमुलु जनों से नम्र निवेदन कि इस हिन्दी भाषा टीका को सम्यक् विचार कर स्वरूपावस्थित परमा नंद को प्राप्त होकर वे मेरे प्रयत्न को सफल करें । अतः मुमुतु जन भी-कृपया मानुष बुद्धि सुलभ स्खलितता को 'शैवलं किल विहाय केवलं निर्मलं किमु न पीयते जलम्’ अर्थात् काई को हटा कर केवल शुद्ध जल का पान क्या नहीं किया जाता है ? किया ही जाता है। इस न्याय से संशोधन कर . बड़े सत्कार पूर्वक परम सिद्धांतार्थ का अनुभव करें ! इस टीका को हमारे मित्रवर श्रीमत्परमहंस परिब्राजक ब्रह्मनिष्ठ स्वामी ब्रह्मानंदजी ने बड़े परिश्रम से संशोधन किया है। इति ॐ तत् सत् परमहंस स्वामी मंगलहरि मुनिः ।
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