सामग्री पर जाएँ

पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/५५

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
[ 47
प्रकरणं १ श्लो० 15

प्रकारता भी कैसे हो सकती है ? भाव यह है कार्य के अभाव को श्रवस्तु रूप से स्वीकार करने से उनसे कारणादिकों के भी संबंध का असत्व होने से विशेष का निरूपण करना ही कठिन है। (इति) इस उक्त प्रकार से (बुद्ध बंधोः) कुत्सित बुद्ध का (प्रलापः) विरुद्ध अनेक वाद ( वितथ:) यथार्थ नहीं है ।। २४ ॥

स्वप्न की तरह बाह्य अर्थ के विना भी प्रमाता प्रमाण प्रमेय प्रमिति रूप सर्व व्यवहार सर्वाकार विज्ञान से ही सिद्ध होजाता है, इसलिये बाह्य अर्थ की उत्पत्ति अनुपपन्न है इस विज्ञानैक वादी बुद्ध के मत का खंडन अब किया जाता है

नापोट्यं मानसिद्ध कथमिव विविध ज्ञानमथा

पलापे बाधोऽर्थानां न दृष्टो बहिरिति च पद

न प्रसिद्धार्थमृच्छेत् । वेद्या विज्ञान भेदाः कथ

मथ विविधावासना वा कुतः स्युः किंच प्रागुक्त

दोषाः क्षणिक त्रितिहतस्तेन विज्ञान वादः ॥२५

बाह्यपदार्थ प्रमाण से सिद्ध नहीं है ऐसा नहीं कहना चाहिये और बाहर के पदार्थ का अंगीकार न करने से मिन्न २ ज्ञान कैसे होगा ? जाग्रत पदार्थ का बाव देखा नहीं है ? बाहर यह किसी श्रर्थ की प्राप्ति न करेगा, फिर विज्ञान का भेद कैसे जाना जा सकता है ? अनेक प्रकार की वासना भी कैपे होगी ? तथा क्षणिक विज्ञान