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इस कारण से (कापिलं दुष्टम्) कपिल का मत सदोष है, अत
श्रग्राह्य है।॥१७॥
किंचाकर्तेव भोक्ता यदि बत कृतहानाकृताभ्या
गमः स्यात् कीदृग्भोगोऽप्यसंगेऽनतिशयिनि
भवेत् तेन भोग्यस्य कोऽर्थः । कीदृक् कस्यावि
वेकः कथमथ स भवेद्भोग हेतुर्विवेकः कस्य स्यात्
तेन किंस्यादिति च विमृशतो दुर्वचं ब्रह्मणोपि॥१८
यदि अकर्ता पुरुष ही भोक्ता है, तो खद है कि किये हुए का नाश और न किये हुए की ग्राप्ति रूप दोष प्राप्त होगा ? असंग में किंचित सम्बंध न होने से भोग किस प्रकार होगा? पुरुष के भोग में प्रधान का क्या स्वार्थ है ? श्राविवेक कैसा है ? श्रविवेक किसका है ? वह भोग का हेतु कैसे बनता है ? विवेक किसको होता है और उसका फल क्या होता है? इस प्रकार विचार करने से ब्रह्मा को भी कापिल मत का निस्पण करना कठिन है ॥१८॥ (किंच) और भी कपिल मत में दोष है। कपिल के मत में कर्तापना प्रधान में है और भोक्तापना पुरुष में है। इस पक्ष की अब परीक्षा की जाती है । (यदि अकर्तव भोक्ता) यदि न करता हुश्रा ही पुरुष भोक्ता है तो (बत ) खेद हैं कि इस मत में (कृतहानाकृताभ्यागमः स्यात्) कृतनाश और अकृताभ्यागम दोष प्राप्त होता है ! भाव यह है, पुरुष कर्मो को तो करना नहीं और