[ २६१ संग:) में कभी सर्पदि भी पास नहीं रखता हूँ (न काम भगः ) और न मैंने काम का नाश किया है (तथापि) तोभी (परम:) सर्व से उत्कृष्ट (साक्षात् शिव:अहम्) साक्षात् शिव मैं हूं। भाव यह है कि पंचभूत, सोम, सूर्य यजमान यह आठ महादेव की मूर्तियां हैं तथा तीन लोचन हैं । वह भस्म का धारण करने वाला है तथा बैल उसका वाहन है। सर्प शिवके भूषण हैं तथा शिव ने काम का दाह किया है । मेरा इनमें कुछ भी नहीं है फिर भी मैं शिव हूं यह आश्चर्य है। इन तीनों श्लोकों है कि ब्रह्मा विष्णु और का भाव यह शिव इन तीनों देवताओों का श्रानन्द भी परमानन्दरूप' श्रात्मा नन्द के अंतभूत है।॥३९॥ अब ब्रह्मवेत्ता अपनी परमपद् रूप स्थिति के गीत को रूपकालंकार से गाता है मंदाक्रान्ता छन्द् ।। जायत सुति स्वप्न विपिने गाहमानोऽप्यसंगः सत्वोत्कर्षात् करणहरिर्नेच्क्षणीयः पराग्भिः । लीलावृत्ति प्रशमितमहामोह मत्तेभजालः काला तीते विलसति पदे स्वात्म कंठी रवो नः ॥४०॥ जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति रूप वन में विचरता हुआ भी श्रसंग हूं, सत्व के उत्कर्ष के कारण इन्द्रियस्प हरिणों को उनके मुख फेर लेने से मैं दीखता नहीं हूं । लीलावृत्ति से महामोहरूप हाथी के समूह को नाश किया है जिसने ऐसा
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