सामग्री पर जाएँ

पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२४९

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

प्रकरण ३ श्लो० २३ [ २४१ और दिशाओं में वायु की गति के समान दुर्लक्ष्य मार्ग में बहुत प्रकार से विाचित्र और गूढ गति होती है।॥२३॥ ( स्वानंदे सहजे सदा विहरतां) स्वतः सिद्ध श्रात्मानंद में सर्वदा विहार करने वाले तथा (स्वच्छंद लीला जुषाम्) स्व इच्छा से लीला करने वाले (योगिनाम्) ज्ञानी महात्माओं की (दुर्लक्षये पथि ) साधारण जनों से दुर्विचेय ऐसे मार्ग में (बहुविधा गूढा विचित्रा गतिः) अनेक प्रकार की तथापि गूढ़ छिपी हुई तथा विचित्र आश्चर्य रूप गति अर्थात् चर्या होती है । (नि:संगा) वह सब संग से रहित है अर्थात् एकांत विजन देश में निर्विकल्पाचरण रूप वह गति है, (निरर्गला) प्रतिबंध से रहित है तथा (जगतां कल्याण संदोहिनी) विश्व का कल्याण करने वाली ऐसी जो ज्ञानिओं कीं लोकसंग्रह के निमित्त गति है वह दुर्विज्ञेय है, अनेक विध, गूढ़ तथा विचित्र है (मत्स्यानां सलिले ) जैसे मत्स्य आदिक जलचरों की जल में, (अंवरे वयसां) जैसे पक्षियों की आकाश में और (वायोः आशामुखे इव) जैसे वायु की दिशाओं के मुख में गति दुर्विज्ञेय होती है ॥२३॥ ब्रह्मवेत्ता सर्व से उत्कृष्ट है, इस बात को दिखलाते हैं योगिध्येय पदाम्बुजस्त्रिजगतां नाथो हरिः स्वं स्वयं शान्तं नित्यमनुब्रजामि रजसा पूयेय मित्यब्रवीत् । तस्माद्विश्वगुरोः सुरासुर नरे रानम्य पादाम्बजादात्मानन्द निमग्न निश्च स्वा. सि. १६