२३६ ] बांवी में त्यागी हुई कंचुकी में सर्प को वह मैं हूं ऐसी बुद्धि नहीं होती, वैसे ही शरीर में रहते हुए ज्ञानी को उसमें आत्म बुद्धि नहीं होती। यादि अपने मोह से कोई ज्ञानी में देहाभिमान की कल्पना करता है तो भले करे, उससे विद्वान के स्वरूप में हानि ही क्या है? ॥१८॥ (वामलूरे अहः निल्र्वयिन्यां इव) जैसे वामृलूर नाम वल्मीक में त्यागी हुई स्वकंचुक रूप त्वचा में सर्प को उसके दीखने पर भी आत्म बुद्धि नहीं होती, तैसे ही (जीवतः अपि अस्य तनौ नहि आत्मबुद्धिः) जीते हुए भी इस ब्रह्मवेत्ता को मैं ब्राह्मण हूं, में संन्यासी हूं, इत्यादि रूपसे शरीरमें प्रात्म बुद्धि नहीं होती । (चेत्) यदि ( परे) अन्य प्रज्ञजन (मोहमात्रात्) श्रपने श्रज्ञान मात्र से (श्रस्य ) इस ब्रह्मावेत्ता के प्रारब्ध बल से उत्साह श्रवृत्ति आदिक देखकर (देहिताम्) देहाभिमानिपने की (कल्पयंति ) कल्पना करते हैं तो (अस्तु) अज्ञानी भले वैसी कल्पना किया करे ( तत्) उस श्रज्ञों की कल्पना से ( अस्य ) इस विद्वान् के (इह ) स्वरूप में ( का हानि: ) क्या हानि है अर्थात् किंचित् भी हानि नहीं है।॥१८॥ प्रारब्ध कर्म के नाश न होने से ज्ञान प्राप्त होने पर भी जय विजय आदिकों के सदृश किसी विचित्र अद्यष्ट कर्म के वश ज्ञानी को जन्म श्रादि होंगे ही ऐसी कोई शंका करे तो उसका निवारण करते हैं ईशते ज्ञात तत्त्वस्य नाभूतये यत्नवंतोपि सर्वेपि देवासुराः । कोहि नामात्मनोऽनिष्ट
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