पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१९३

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
[१८५
प्रकरण २ श्लो० ४५

‘प्रकृष्टः प्रकाशश्चंद्रः’ इस प्रकार उत्तरदाता के तात्पर्य के अनु सार (चन्द्र मात्र प्रबोधात्) चन्द्र मात्र का ही उक्त वाक्य से प्रबाध हाता ह ।॥४४॥
अब उक्त दृष्टांत वाक्य को चन्द्र मात्र का बोधकता व्युत्पा दन की जाती है।
प्रकर्ष प्रकाशत्व चंद्रत्वयोगव्यवच्छेदभेदादयो
नेव पृष्टाः । नवा शाब्दधीरस्त्यजिज्ञासितेऽर्थे
ततो वाक्यतश्चंद्रमात्रप्रबोधः ।। ४५ ।।
पूछने वाले ने प्रकर्ष प्रकाशत्व और चन्द्रत्व में योग अवच्छेद और भेदादिक कुछ भी नहीं पूछा । अजिज्ञासि तव्य अर्थ में शाब्दबोध नहीं होता श्रतःइस वाक्य से चन्द्र मात्र का बोध होता है ॥४५॥
(प्रकर्ष प्रकाशत्व चन्द्रत्व योग व्यवच्छेद भेदादयोनैवः पृष्टा: ) ‘प्रकृष्टः प्रकाशश्चन्द्रः' इस वाक्य के तीनों पदों की प्रवृत्ति के निमित्त प्रकर्षत्व प्रकाशत्व और चन्द्रत्व हैं।
इन उक्त तीनों धर्मो का चंद्र में योग अर्थात् संबंध और उक्त धम से अप्रकर्ष, अप्रकाशत्व अचंद्रत्व रूप अन्य धर्मो का चंद्र में व्यवच्छेद् अर्थात् असंबंध और चंद्र निष्ट अन्य पदार्थ का भेद् इत्यादि में से प्रश्नकर्ता ने कुछ भी नहीं पूछा है, क्योंकि इनमें कोई भी जिज्ञासित नहीं है। और (अजिज्ञासिते अर्थे शाब्दधीः नवा अस्ति ) श्रजिज्ञासित अर्थ में शाब्द बोध नहीं होता । ( ततः वाक्यत: चंद्र मात्र प्रबोधः) इसलिये ‘प्रकृष्टः प्रकाशश्चंद्रः’ इस वाक्य से चंद्रमात्र का ही बोध होता है ।