पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१८३

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प्रकंर किसी प्रकार घटा दिया तो उससे न तो उस श्रुति से कोई प्रयोजन भी सिद्ध होगा गौर न वह मूल से संगत ही होगा ॥३९॥
(अत्र) तत्त्वमसि न महा वाक्य में (पदयोः) तत् और त्वं इन पदों का (अभिधेयम्) वाच्यार्थ (असंगतम् ) परस्पर अनन्वयि है, (यत्) क्योंकि (विरुद्धधर्मियुगम्) विरुद्ध धर्मो वाले दो पदार्थ (ऐक्यं न एति) एकता को प्राप्त नहीं होते ।
( परस्परार्थ घटितेपि लक्षणा न ) और लक्षण भी परस्परार्थ युक्त में संभव नहीं । तथा जगत् कारणत्वरूप तत् पदार्थ विशिष्ट जीव लक्षणा से जगत् का कारण है यह वाक्यार्थ हो जावेगा । इसी प्रकार त्वं पदार्थ विशिष्ट तत् पदार्थ में भी जान लेना चाहिये ! परंतु यह संभव नहीं, क्योंकि (उपयोग मूलघटनादि प्रयोगतः) इस प्रकार के उपदेश का मोक्ष में उपयोग नहीं है और मूलघटना आदिकों की अर्थात् उपक्रम, संगति आदिकों का भी इसमें विरोध है।॥३९॥
तत्त्वमसि महा वाक्य में उक्त जहत् स्वार्थ लक्षण भी संभव नहीं, यह अब दिखलाया जाता है
नचव गांगतीरमिव वाच्य सं िवा प्रथितं तृतीय मिह योग्यमन्वये । लक्षणाऽध्यवसान लिंग मुपपद्यतेऽपि वा ॥४०॥
गंगा पर घोष हैं इस वाक्य में गंगा के सम्वन्व वाला तर हें । तत्त्वमांस में श्रन्वय क यांग्य का३