का लोप नहीं होता, ऐसी श्रुति है । इससे प्रत्यगात्मा
ज्ञान स्वरूप है।॥३४॥
( तत् असौ प्रत्यगात्मा गात्मा) आगे कहे हुए हेतुश्रों से यह प्रत्यगात्मा ज्ञानरूप है । ( यत् विभिन्नासु बाल्यादिषु श्रवस्थासु अहं अहं इति एकरूपः भाति) भिन्न भिन्न बाल्या दिक अवस्थाओं में ‘वह मैं हूँ वह मैं हूँ इस प्रकार से श्रप्रत्मा एक रूप हुआ ही प्रतीत होता है । भाव यह है, बाल्य अवस्था में किये हुए गेंद बल्लादिक क्रीड़ा व्यवहारों को और नवयुवक अवस्था में किये हुए बलवानों के साथ मल्ल युद्धादि कायों को और वृद्धा अवस्था में शरीर की पराधीनता दौर्बल्य आदिकों को प्रत्यभिज्ञा से एक रूप हुआ ही आत्मा जानता है, इसलिये श्रात्मा ज्ञान रूप है । ( यत्च सुप्तोपि निज महसा जाग्रद् थर्थात् इव अध्यक्तं वेत्ति) यह प्रत्यगात्मा सोया हुआ भी अर्थात् जाग्रत् पदार्थो के सदृश ही मनोमयपदार्थो को अपने प्रकाश से प्रत्यक्ष जानता है, इसलिये भी प्रत्यगात्मा ज्ञान स्वरूध है। (यत् च अहंकार मोषे अपि अपरिमुषित चित् सुप्ति सौरव्यादि साक्षी ) यह प्रत्यगात्मा सुषुिश् िश्रह्मचवस्था में अहंकार के लय होने पर भी श्राप श्रनष्ट चिद् रूप हुआ सुपुप्ति अवस्था का तथा सुषुप्ति में होने वाले श्रज्ञान का साक्षी होता है । अन्यथा, जागकर ‘मैं सुखसे सोया था कुछ भी नहीं जानता था’ यह स्मरण संभवे नहीं क्योंकि स्कृति अनुभूत विषय की ही होती है, श्रननुभूत की नहीं इसलिये यह प्रत्यगात्मा ज्ञात रूप है । (दष्टुष्टेः अलोप श्रुतिः अपि ) इस द्रष्टा रूप आत्मा के स्वरूपभूत ज्ञान की नित्यता में ‘नहिद्रष्टुछष्टेर्विपरिलोपो विद्यते’ यह अति भी प्रमाणतया विद्यामान है । इसलिये यह प्रत्यगात्मा ज्ञान स्वरूप हें ॥३४॥