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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१६३

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प्रकरण २ श्लो० २९ [ १५५

सत्य ही है। यदि कोई वादी ब्रह्म को भी असत्य कहेगा तो सो वादी ‘तत् सृष्टा तदेवानुप्राविशत्’ इत्यादिक श्रुतियों से ब्रह्म को ही आत्मत्व होने से स्वानुभव विरुद्ध अपना ही प्रसत्व कहेगा और आगे अधिष्ठान की अपेक्षा होने से अनवस्था दोष को भी अवश्यही प्राप्त होवेगा क्योंकि निरधिष्ठान असत्य भ्रांति सिद्ध नहीं होती । (अव्यावृत्तेः) जो पदार्थ परस्पर व्यावृत्ति स्वभाव वाले होते हैं सो अनित्य ही होते हैं जैसे रज्जु में सर्प, दंड, माला, भूदरार, जलधारा श्रादिक पदार्थ परस्पर व्यभिचारी होने से अर्थात् परस्पर व्यावृत्ति वाले होने से अनित्य ही हैं और रज्जु अनुगत होने से नित्य हैं ऐसे ही मृत्तिका और घट, घटिका, शराव आदिकों का दृष्टांत भी जान लेना । तैसे ही ब्रह्म भी एक होने से तथा सर्व कल्पित प्रणांच का अधिष्ठान होने से व्यावृत्ति धर्म वाला नहीं है अर्थात् व्यभिचार धर्म वाला नहीं है, अतः नित्य है । (श्रवृत्तेः) ब्रह्म की कहीं भी वृत्ति नहीं है, श्रथात् वह विशिष्टरूप से कभी वर्तने वाला नहीं है । भाव यह है कि ब्रह्म आधेयता से रहित है और इसी कारण ब्रह्म नित्य है । जिस २ पदार्थ में आधेयता धर्म होता है उस पदार्थ में असत्यता भी देखी जाती है जैसे रज्जु सर्ष आदिक में देखा जाता है । (अखिल दृशितया ) ब्रह्म सर्व पदार्थजात का द्रष्टा है इस कारण से भी वह सत्य है, क्योंकि दृश्यरूप घटादि पदाथ अनित्य हें यह सबका अनुभव है । आकाश तथा चारों भूतों के परमाणुश्रों की नित्यता का वादिओं का कथन श्रुति से बाधित है, क्योंकि श्रुति में आत्मा में भिन्न सबको मिथ्या बतलाया है जैसे ‘अतोऽन्यदात्म्(सर्वबाधावधित्वात् ) औरसर्व बाध का अवधि ब्रह्म ही है, श्रन्यथा अनवस्था दोष प्राप्त होगा । तहां ‘नासीदस्तिभविष्यति' अर्थात् न था, न है और न होगा