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स्वाराज्य सिद्धि
हैं। इस प्रकार प्रणव का पाद् विभाग मध्य में कहा है । इस
विभाग के अनंतर (पूर्वपूर्व अथ उत्तरत्र बिलाप्य) पूर्व २ पाद
का उत्तर २ पाद् में एकीकरण रूप लय कहा है । अर्थात् विश्व
का विराट से अभेद् करके विश्व विराट का प्रकार से अभेद
किया है। तैजस का सूत्रात्मा से अभेद् करके तैजस सूत्रात्मा का
उकार से अभेद किया है। प्राज्ञ का सर्व कारण और सर्वज्ञ
ईश्वर से अभेद् करके प्राज्ञ ईश्वर का मकार से अभेद् कहा है।
इस प्रकार पूर्व पूर्व पाद् का उत्तर उत्तर पाद् में अभेद् लय रूप
अंग उपासना को कह कर अनंतर (निन्हुत वाच्यवाचकभेदकं
तुर्य अलक्षणं शिवं अद्वयं स्वात्मस्वरूपं अथर्वणः श्रुतिः अभ्य
धात्) वाच्यवाचक भेद से रहित अर्थात् अकार उकार आदिक
मात्राओं से रहित जो ॐकार रूप प्रणव है वही तुर्या स्वात्म
स्वरूप है वह आत्मा अलक्षण है लक्षणहीन है अर्थात् अननुमेय
है, अद्वय है अर्थात् प्रपंचोपशम है तथा शिव स्वरूप है अर्थात्
परमानंद स्वरूप नित्य कल्याण एक स्वरूप है। इस प्रकार
अथर्वण वेद की माण्डूक्योपनिषत् श्रुति कहती है ॥२६॥
इसी प्रकार और उपनिषदों का भी अद्वैत चिन्मात्रपरमानंद
मूर्ति ब्रह्म में ही तात्पर्य है, द्वैत में नहीं, इस बात को कहते
हुए पूर्व ग्रंथ में कहे हुए तटस्थ लक्षण का अब फल दिखलाया
जाता है
इत्थमेव ततस्ततः श्रत सृष्टिवाक्य कदम्बक
प्रक्रियाद्यभिशीलनेन सदद्वयेन समानयेत् ।
युक्तिभिः श्रुतिभिश्च सैष तटस्थलक्षण संग्रहः
तत्फले खलुलत्य सत्वपरिच्छिदा त्रयवारणे।।२७
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