१४८ ] स्वाराज्य सिद्धि
शावक के सिंहत्व के तथा कंठ गत अलंकार के सदृश अप्राप्त
की तरह हुआ है। इसलिये ( वेदनमात्रतः तत् स्वयंनित्यं
अवाप्तं भवति इति तुरीयगीः आह) अपने स्वरूप के ज्ञान
मात्र से वह आपक्षी अपने को नित्य प्राप्त है इस प्रकार चारों
वेदों की वाणी अर्थात् महावाक्य स्वरूप भूत ब्रह्म ही को
कह रहे हैं। अर्थात् अद्वैत स्वरूप ब्रह्म में ही चारों वेदों का
तात्पर्य है ।॥२५॥
अथर्वणवेद के माण्डूक्योपनिषत् का भी अद्वैतरूप ब्रह्म में ही
तात्पर्य हैचारब्रह्मके पाद हैं,चार ॐकार के पादहें अथवाचारप्रात्मा
के पाद हैंइसप्रकारद्वतके प्रतिपादनमें तात्पर्यनहीं है क्योंकि ॐकार
ब्रह्य का वाचक है और वाच्यवाचक का अभेद ही होता है यह
लोक में प्रसिद्ध है इसलिये ॐकार की ब्रह्मबुद्धि से अहंग्रह
उपासना करे इस तात्पर्य से सर्व चराचर प्रपंच को 'सर्वमोंकार
एव' सध ॐकार रूप ही बतलाया है । अनंतर उक्त उपासना
को स्पष्ट करने के लिये चारः २ भादों की कल्पना की है । फिर
चतुर्थ पाद का स्वरूप गुह्य तात्पर्य से (नान्तः प्रज्ञ न बहिः प्रज्ञ
नोभयतः प्रज्ञ न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञ नाप्रज्ञ । श्रटष्टमवयवहायम
ग्राह्यमलक्षणमचिंत्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपंचोपशामं
शातं शिबमद्वैतं चतुर्थ मन्यते स झात्मा स विज्ञेयः) इस प्रकार
अद्वैत शिव स्वरूप बतला कर अंत में (ब्रपंचोपशम:शिवोऽ
द्वत: ) इस प्रकार मात्राविभाग का निपेध करके अद्वैत शिव
स्वरूपता का ही उपदेश किया है। इसलिये मांडूक्य उपनिपत् का
भी अद्वैत में तात्पर्य है द्वौत में नहीं, इस अर्थ को दिखलाया
जाता है
भूत भाविभवज्जन्त्परमं च सत् प्रणवात्मक