सामग्री पर जाएँ

पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१४

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
6 ]
स्वाराज्य सिद्धिः

जिसमें जगत उत्पन्न होता है, रहता है और लयं होता है वह उसीका ही रूप होता है, जो सत्य ज्ञान सुखस्वरूप है, जो देशकाल के परिच्छद से रहित है, जो जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति अवस्था में प्रकाशता है, जो एक है तथा शाकरांहत परमपद हैं; वह प्रत्यक् ब्रह्म में हूँ, एसा ज्ञान जिस तत्ववेत्ता गुरु की कृपा से मुझे हुआ है उसको मैं भजता हूं ॥३॥

(यस्य कृपया ) जिस श्रीसंद्गुरु की कृपा से (तत् प्रत्यक् ब्रह्म) तत्त्वमसि आदि महावाक्यों में जो तत्पद्का लक्ष्य, दृश्य से विपरीत रूप, प्रकाशमान तथा सर्वानुगत ब्रह्म है वह (अस्मि) में ही हूँ, (तं देशिकेन्द्रम्) उस सर्व प्रकार के गुरुश्श्रों में श्रेष्ठ जीव ब्रह्म के एकत्व ज्ञान प्रदं गुरु को (भजे ) मैं मन, तन, धनादिकों से सेवन करता हूँ । सो ब्रह्म कैसा है ? (यस्मात्) जिस ब्रह्म स ( विश्वम्) निखिल जगत् (उदेति ) रज्जु में सर्प के सदृश श्राविभूत होता है अर्थात् उत्पन्न होता है और (यत्र) जिस अधिष्ठान रूप ब्रह्म में ही यह जगत् रज्जु में सर्प के समान ( निवसति) निवास है और (अन्ते ) करता ह श्रमथात् स्थित अन्त में अर्थात् अधिष्ठानं के ज्ञान काल में (यत् अप्येति ) जिस अधिष्ठान रूप ब्रह्म में ही यह जगत् रज्जु में सर्प के समान श्रत्यन्ताभाव को प्राप्त होजाता है-कल्पित वस्तु का अभाव भ अधिष्ठान से न्यारा नहीं होता है, इसलिये यहां कल्पित जगत् के अभाव से द्वैत शंकाका अवकाश नहीं है-(यत् सत्य ज्ञान सुख स्वरूपम्) पुनः जो ब्रह्म बाध रहित, सत्य स्वरूप, चैतन्य स्वरूप तथक् आनन्द स्वरूंप है और (अवधि द्वैत प्रणाशोज्झितम्) क्रम