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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१२८

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- स्वाराज्य सिद्धिः

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•__ __ रज्जु सर्प आदिक । ऐसे ही, भेद किसी भी प्रमाण सें सिद्ध तो होता नहीं परंतु फिर भी प्रतीत होता है, इसलिये अब द्वित्व प्रादिरूप भेद का निरसन किंया जाता है बाह्योऽर्थो बुद्धि मात्रान्नभवति स भवन् गोचरः स्यात्परेषामेकेक न द्वयं चेदभंयमिति मृषा तद्विशिष्ट प्रथा च । द्वित्वादेः संकरः स्यान्न खलु क्लतृप्तिः सकल मपि शनैर्योज्यमेतत्पृथकत्वे ॥९॥ बुद्धि के बाहर का पदार्थ बुद्धिमात्र के निमित्त से नहीं होता, वह उत्पन्न होकर दूसरों का विषय होता है। एक एकमें द्वित्वकी प्रतीति न होनेसे दोनों मिथ्या हैं और वह दो विशष्ट घटादि ज्ञान भी मिथ्या हैं। दूसरे, ऐसा मानने में द्वित्वादिकों का संकर प्राप्त होगा । निश्चय ही ग्रागभाव की कल्पना से तरे मतमें व्यवस्था नहीं होगी और अपेक्षा बुद्धिके मानने से व्यवस्था न हो सकेगी । इस प्रकार क्रम से पृथक्त्व में भी सब दोष समझने चाहिये ॥8 ॥ { बाह्योऽर्थः) बुद्धि से बाहर भूतल श्रादिः श्रदेश में उत्पन्न हुआ सत्य पदार्थ (बुद्धि मात्रात्) केवल बुद्धि रूप निमित्त से ही (न भवति) नहीं होता, क्योंकि बाह्य पदार्थ की उत्पत्ति के