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कराता है । (शाखा इव चन्द्रम्) जैसे कल्पना की हुई चंद्रमा
की समीपता से लोग शाखा से चंद्रमा का लक्ष्य कराते हैं वैसेही
उक्त लक्षण से भी कदाचित् कल्पित संबंध द्वारा शुद्ध ब्रह्म की
लक्षता कराते हैं । (लक्ष्यं च एवम् ) जैसे उक्त लक्षण कल्पित
संबंध द्वारा ब्रह्मके ज्ञान का कारण है वैसे ही, लक्ष्य भी कल्पित
संबंध से ही शुद्ध ब्रह्म का लक्षक है । इसी तात्पर्य से संक्षेप
शारीरकाचार्य सर्वज्ञ मुनि ने सत् चित् आनन्द आदिकों को भी
भाग त्याग लक्षण से ही ब्रह्म की लक्षकता कही है। अब वह
लक्ष्य रूप ब्रह्म कैसा है ? (सचित्सुखवपुः) सचिदानन्द स्वरूप
है, (अखिल द्वौत हीनम्) सर्व द्वौत संबंध से रहित है, (सुसू
क्ष्मम्) जिससे परे और कोई भी सूक्ष्म नहीं है, ऐसा अतिशय
सूक्ष्म है, (सत्यज्ञानादि मंत्रोदितम्) ‘सत्य' ज्ञानमनन्तं ब्रह्म'
इत्यादि वेद् मंत्रों से जो कहा गया है, (श्रखिलमनोवागतीतम् )
सब मन वाणी आदिका अविषय है, तथा (गुहास्थम्) अन्नमय,
प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और श्रानन्दमय रूप इन श्रात्मा
के प्रावरक होने से पांच कोश रूप गुहा में स्थित है।॥१॥
अब उस लच्यरूप ब्रह्म की अद्वैत रूपता का बोध कराने
के लिये जगत् को ब्रह्म का विवर्त बताते हैं
कूटस्थं ब्रह्म विश्वं जनयति न विना मायया
सा च मिथ्या तस्मिञ्च्छब्दप्रसिद्धेः पर समधि
गमात्तन्निवृत्ति श्रुतेश्च । सैवाविद्या मृषार्था
अपि समधिगताः कार्यदत्ताः प्रपंचवस्तन्मान्
मायूरपिच्छच्छबिरिवगहनो ब्रह्मसंविद्विवर्तः ।२॥
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प्रकरणं १ श्लो० ३